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आचार्य श्री धरसेन जी

August 14, 2017साधू साध्वियांjambudweep

आचार्य श्री धरसेन स्वामी


परिचय

इन्द्रभूति ने बारह अंग और चौदह पूर्वरूप ग्रन्थों की एक ही मुहूत्र्त में क्रम से रचना की है। उन गौतमस्वामी ने भी दोनों प्रकार का श्रुतज्ञान लोहार्य को दिया। लोहार्य ने भी जम्बूस्वामी को दिया। परिपाटी क्रम से ये तीनों ही सकलश्रुत के धारण करने वाले कहे गए हैं और यदि परिपाटी क्रम की अपेक्षा न की जाए तो उस समय संख्यात हजार सकलश्रुत के धारी हुए। गौतमस्वामी, लोहार्य और जम्बूस्वामी ये तीनों निर्वाण को प्राप्त हुए। इसके बाद विष्णु, नंदिमित्र, अपराजित, गोवर्धन और भद्रबाहु ये पाँचों ही आचार्य, परिपाटी क्रम से चौदह पूर्व के धारी हुए। तदनन्तर विशाखाचार्य, प्रोष्ठिल, क्षत्रिय, जयाचार्य, नागाचार्य, सिद्धान्त, स्थविर, धृतिसेन, विजयाचार्य, बुद्धिल और गंगदेव ये ग्यारह ही महापुरुष परिपाटी क्रम से ग्यारह अंग, दशपूर्व के धारक और शेष चार पूर्वों के एकदेश के धारक हुए।

इसके बाद नक्षत्राचार्य, जयपाल, पांडुस्वामी, धु्रवसेन, कंसाचार्य ये पांचों ही आचार्य परिपाटी क्रम से सम्पूर्ण ग्यारह अंगों के और चौदह पूर्वों के एकदेश के धारक हुए।
 
तदनंतर सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु और लोहार्य, ये चारों ही आचार्य संपूर्ण आचारांग के धारक और शेष अंग तथा पूर्वों के
एकदेश के धारक हुए। इसके बाद सभी अंग और पूर्वों का एक देश ज्ञान आचार्य परम्परा से आता हुआ धरसेन आचार्य को प्राप्त हुआ।
 
सौराष्ट (गुजरात-काठियावाड़) देश के गिरिनगर नाम के नगर की चन्द्रगुफा में रहने वाले अष्टांग महानिमित्त के पारगामी, प्रवचनवत्सल और आगे अंग श्रुत का विच्छेद हो जाएगा, इस प्रकार उत्पन्न हो गया है भय जिनको, ऐसे उन धरसेनाचार्य से महामहिमा (पंचवर्षीय साधु सम्मेलन) में सम्मिलित हुए दक्षिणापथ के (दक्षिण देश के निवासी) आचार्यों के पास एक लेख भेजा। लेख में लिखे गए धरसेनाचार्य के वचनों को अच्छी तरह समझकर उन आचार्यों ने शास्त्र के अर्थ को ग्रहण और धारण करने में समर्थ, नाना प्रकार की उज्ज्वल और निर्मल विनय से विभूषित अंग वाले, शीलरूपी माला के धारक, गुरुओं द्वारा प्रेषण (भेजने) रूपी भोजन से तृप्त हुए , देश, कुल और जाति से शुद्ध अर्थात् उत्तम कुल और उत्तम जाति में उत्पन्न हुए, समस्त कलाओं में पारंगत और तीन बार पूछा है आचार्यों को जिन्होंने, ऐसे दो साधुओं को आन्ध्र देश में बहने वाली वेणानदी के तट से भेजा।

मार्ग में उन दोनों के आते समय श्री धरसेन भट्टारक ने रात्रि के पिछले भाग में स्वप्न देखा कि समस्त लक्षणों से परिपूर्ण, सपेâद वर्ण वाले दो उन्नत बैल उनकी तीन प्रदक्षिणा देकर चरणों में पड़ गए हैं। इस प्रकार के स्वप्न को देखकर संतुष्ट हुए धरसेनाचार्य ने जयउ सुयदेवदा-श्रुतदेवता जयवन्त हों ऐसा वाक्य उच्चारण किया।

उसी दिन दक्षिणापथ से भेजे हुए वे दोनों साधु धरसेनाचार्य को प्राप्त हुए। उसके बाद धरसेनाचार्य की पादवन्दना आदि कृतिकर्म करके और दो दिन बिताकर तीसरे दिन उन दोनों ने धरसेनाचार्य से निवेदन किया कि इस कार्य से हम दोनों आपके पादमूल को प्राप्त हुए हैं। उन दोनों मुनियों के इस प्रकार निवेदन करने पर अच्छा है, कल्याण हो इस प्रकार कहकर धरसेन भट्टारक ने उन दोनों साधुओं को आश्वासन दिया। इसके बाद भगवान धरसेन ने विचार किया कि-

‘‘शैलघन, भग्नघट, सर्प, चालनी, महिष, मेंढा, जोंक, तोता, मिट्टी और मशक के समान श्रोताओं को जो मोह से श्रुत का व्याख्यान करता है, वह मूढ़ दृढ़रूप से ऋद्धि आदि तीनों प्रकार के गौरवों के आधीन होकर विषयों की लोलुपतारूपी विष के वश से मूच्र्छित हो, बोधि-रत्नत्रय की प्राप्ति से भ्रष्ट होकर भव वन में चिरकाल तक परिभ्रमण करता रहता है।’’

इस वचन के अनुसार स्वच्छन्दतापूर्वक आचरण करने वाले श्रोताओं को विद्या देना संसार और भय को ही बढ़ाने वाला है, ऐसा विचार कर शुभ स्वप्न के देखने मात्र से ही यद्यपि उन दोनों साधुओं की विशेषता को जान लिया था तो भी फिर से उनकी परीक्षा लेने का निश्चय किया क्योंकि उत्तम प्रकार से ली गई परीक्षा हृदय में संतोष को उत्पन्न करती है। अनंतर धरसेनाचार्य ने उन दोनों को दो विद्याएँ दीं। उनमें से एक अधिक अक्षर वाली थी और दूसरी हीन अक्षर वाली थी। उनको विद्याएँ देकर यह कहा कि दो दिन का उपवास करके इन विद्याओं को सिद्ध करो। (इन्द्रनंदि आचार्य ने बताया है कि उन दोनों ने गुरु की आज्ञा से नेमिनाथ की निर्वाण स्थली पर जाकर विद्याओं को सिद्ध किया)। जब उनकी विद्याएँ सिद्ध हो गर्इं तो उन्होंने विद्या की अधिष्ठात्री देविकाओं को देखा कि एक देवी के दांत बाहर निकले हुए हैं और दूसरी कानी है
 
। ‘विकृतांग होना देवताओं का स्वभाव नहीं है।’ इस प्रकार विचार कर मंत्र सम्बन्धी-व्याकरण शास्त्र में कुशल उन दोनों ने हीन अक्षर वाली विद्या में अधिक अक्षर मिलाकर और अधिक अक्षर वाली विद्या में से अक्षर निकालकर उस मन्त्र को फिर सिद्ध किया। जिससे वे दोनों विद्या देविकाएँ अपने स्वभाव से सुन्दररूप में दिखलाई पड़ीं (उन्होंने-आज्ञा देवो ऐसा कहा, तब इन मुनियों ने कहा कि मैंने तो गुरु की आज्ञा मात्र से ही मंत्र का अनुष्ठान किया है, मुझे कुछ आवश्यकता नहीं है तब वे देविकाएँ अपने स्थान को चली गर्इं ऐसा श्रुतावतार में वर्णन है)।

तदनन्तर भगवान धरसेन के समक्ष योग्य विनय सहित उन दोनों ने विद्या सिद्धि सम्बन्धी समस्त वृत्तान्त निवेदित कर दिया। बहुत अच्छा ऐसा कहकर संतुष्ट हुए धरसेनाचार्य ने शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र और शुभ वार में ग्रन्थ को पढ़ाना प्रारम्भ किया। इस तरह क्रम से व्याख्यान करते हुए धरसेन भगवान से उन दोनों ने आषाढ़ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन पूर्वान्ह काल में विनयपूर्वक ग्रन्थ समाप्त किया। इसलिए सन्तुष्ट हुए भूत जाति के व्यंतर देवों ने उन दोनों में से एक की पुष्प, बलि तथा शंख और सूर्य जाति के वाद्य विशेष के नाद से व्याप्त बड़ी भारी पूजा की। उसे देखकर धरसेन भट्टारक ने उनका भूतबलि यह नाम रखा तथा जिनकी भूतों ने पूजा की है और अस्त-व्यस्त दन्तपंक्ति को दूर करके जिनके दांत समान कर दिए हैं,ऐसे दूसरे का भी श्री धरसेन भट्टारक ने पुष्पदन्त नाम रखा।

तदनन्तर उसी दिन वहां से भेजे गए उन दोनों ने गुरु की आज्ञा अलंघनीय होती है ऐसा विचार कर आते हुए अंकलेश्वर (गुजरात) में वर्षाकाल बिताया। (गुरु ने अपनी अल्प आयु जानकर उन दोनों को वहाँ से विहार कर अन्यत्र चातुर्मास करने की आज्ञा दी और वे दोनों मुनि आषाढ़ सुदी ११ को निकलकर श्रावण वदी ४ को अंकलेश्वर आये, वहाँ पर वर्षायोग स्थापित किया)।
वर्षायोग को समाप्त कर और जिनपािलत को साथ लेकर पुष्पदन्ताचार्य तो वनवासी देश को चले गए और भूतबलि भट्टारक तमिल देश को चले गए।
 
तदनन्तर पुष्पदन्ताचार्य ने जिनपालित को दीक्षा देकर बीस प्ररूपणा गर्भित सत्प्ररूपणा के सूत्र बनाकर और जिनपालित मुनि को पढ़ाकर अनंतर उन्हें भूतबलि आचार्य के पास भेजा। भूतबलि ने जिनपालित के द्वारा दिखाए गए सूत्रों को देखकर और पुष्पदंताचार्य अल्पायु हैं, ऐसा समझकर तथा हम दोनों के बाद महाकर्मप्रकृति प्राभृत का विच्छेद हो जाएगा; इस प्रकार की बुद्धि के उत्पन्न होने से भगवान भूतबलि ने द्रव्यप्रमाणानुगम को आदि लेकर ग्रन्थ रचना की इसलिए इस खण्ड सिद्धान्त (षट्खण्ड सिद्धान्त) की अपेक्षा भूतबलि और पुष्पदन्त आचार्य भी श्रुत के कर्ता कहे जाते हैं। अनुग्रन्थकर्ता गौतम स्वामी हैं और उपग्रन्थकर्ता राग, द्वेष और मोह से रहित भूतबलि, पुष्पदन्त आदि अनेक आचार्य हैं।’’

धरसेनाचार्य का समय

नंदि संघ की प्राकृत पट्टावली में ६८३ वर्ष के अन्दर ही धरसेन को माना है।

यथा-
 
केवली का काल बासठ वर्ष, श्रुतकेवलियों का १०० वर्ष, दश पूर्वधारियों का १८३ वर्ष, ग्यारह अंगधारियों का १२३ वर्ष, दस, नव व आठ अंगधारी का ९७ वर्ष ऐसे ६२±१००±१८३±१२३±९७·५६५ वर्ष हुए पुन: एक अंगधारियों में अर्हतबलि का २८ वर्ष, माघनंदि का २१ वर्ष, धरसेन का १९ वर्ष, पुष्पदन्त का ३० वर्ष और भूतबलि का २० वर्ष, ऐसे ११८ वर्ष हुए। कुल मिलाकर ५६५±११८·६८३ वर्ष के अन्तर्गत ही धरसेनाचार्य हुए हैं।

इस प्रकार इस पट्टावली और इन्द्रनन्दि के श्रुतावतार के आधार पर भी श्री धरसेन का समय वीर निर्वाण संवत् ६०० अर्थात् ई. सन् ७३ के लगभग आता है।

धरसेन के गुरु

उपर्युक्त पट्टावली के अनुसार इनके गुरु श्री माघनन्दि आचार्य थे अथवा इन्द्रनन्दि आचार्य ने स्पष्ट कह दिया है कि इनकी गुरु परम्परा का हमें ज्ञान नहीं है।

धरसेनाचार्य की रचना

चूँकि श्री धरसेनाचार्य ने अपने पास में पढ़ने के लिए आये हुए दोनों मुनियों को मन्त्र सिद्ध करने का आदेश दिया था अत: ये मन्त्रों के विशेष ज्ञाता थे। इनका बनाया हुआ योनिप्राभृत नाम का एक ग्रन्थ आज भी उपलब्ध है। यह ग्रन्थ ८०० श्लोकों प्रमाण प्राकृत गाथाओं में है। उसका विषय मन्त्र-तन्त्रवाद है, वृहत् टिप्पणिका नामक इन्स्टीट्यूट पूना में है। इस प्रति में ग्रन्थ का नाम तो योनिप्राभृत ही है किन्तु उसके कर्ता का नाम पण्हसवण मुनि पाया जाता है।
 
इस महामुनि ने उसे वूâष्माण्डिनी महादेवी से प्राप्त किया था और अपने शिष्य पुष्पदन्त और भूतबलि के लिए लिखा। इन दो नामों के कथन से इस ग्रन्थ का धरसेन कृत होना बहुत सम्भव जंचता है। प्रज्ञाश्रमणत्व एक ऋद्धि का नाम है उसके धारण करने वाले प्रज्ञाश्रमण कहलाते थे। पूना में उपलब्ध जोणिपाहुड की इस प्रति का लेखन काल सं. १५८२ है अर्थात् वह प्रति चार सौ वर्ष से अधिक प्राचीन है। जोणिपाहुड ग्रन्थ का उल्लेख धवला में भी आया है, जो इस प्रकार है-

जोणिपाहुडे भणिदमंत-तंत-सत्तीओ पोग्गलाणु भागोत्ति घेत्तव्वौ।१ धवला अ. प्रति-पत्र।।१८।।

इस प्रकार से धरसेनाचार्य के महान उपकार स्वरूप ही आज हमें षट्खण्डागम ग्रन्थ का स्वाध्याय करने को मिल रहा है। इनके बारहवें दृष्टिवाद अंग के अन्तर्गत पूर्वों के तथा पांचवे सम्प्रदाय की मान्यतानुसार षट्खण्डागम और कषायपाहुड ही ऐसे ग्रन्थ हैं जिनका सीधा सम्बन्ध महावीर स्वामी की द्वादशांग वाणी से माना जाता है। कहा भी है-

जयउ धरसेणणाहो जेण, महाकम्मपयडिपाहुडसेलो।
बुद्धिसिरेणुद्धरिओ, समप्पिओ पुप्फयन्तस्य२।। (धवला अ. ४७५)

वे धरसेनस्वामी जयवन्त होवें जिन्होंने इस महाकर्मप्रकृति प्राभृतरूपी पर्वत को बुद्धिरूपी मस्तक से उठाकर श्री पुष्पदंत आचार्य को समर्पित किया है अर्थात् जिन्होंने पुष्पदन्त मुनि को पढ़ाया है, पुन: इन्होंने ग्रन्थ की रचना की है।

(इस प्रकार से इन धरसेनाचार्य के इतिहास से हमें यह समझना है कि ये आचार्य अंग और पूर्वों के एकदेश के ज्ञाता थे, मंत्रशास्त्र के ज्ञाता थे एवं एक योनिप्राभृत ग्रन्थ भी रचा था। इन्होंने बहुत काल तक चन्द्रगुफा में निवास किया था। योग्य मुनियों को अपना श्रुतज्ञान पढ़ाया था। शिष्यों को मंत्र सिद्ध करने को भी दिया था।
 
इस प्रकार से जो मंत्र देने का विरोध करते हैं उन्हें अवश्य सोचना चाहिए कि आज के मुनि या आचार्य किसी को मिथ्यात्व के प्रपंच से हटाकर शांति हेतु या किसी कार्य सिद्धि हेतु यदि कुछ मंत्र दे देते हैं, तो देने वाले या मंत्र जपने वाले दोनों ही मिथ्यादृष्टि नहीं हैं तथा उन्होंने श्रुत के विच्छेद के भय से जो दो मुनियों को अपना श्रुतज्ञान देकर उनके निमित्त से आज श्रुतज्ञान की परम्परा अविच्छिन्न रखी है उनका यह महान उपकार प्रतिदिन स्मरण करना चाहिए।
 
जिस दिन षट्खण्डागम की रचना पूरी हुई उस दिन चतुर्विध संघ ने मिलकर श्रुत की महापूजा की थी, उस दिन ज्येष्ठ सुदी पंचमी थी अत: उस पंचमी को आज श्रुतपंचमी कहकर सर्वत्र श्रुतपूजा करने की प्रथा चली आ रही है। उसे भी विशेष पर्वरूप में मनाकर श्रुत की, गुरु धरसेनाचार्य, पुष्पदंत तथा भूतबलि आचार्य की पूजा करनी चाहिए।)

Tags: Ancient Aacharyas, Muni
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