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धवला टीका से पूर्व के टीकाकार!

July 20, 2017स्वाध्याय करेंjambudweep

धवला टीका से पूर्व के टीकाकार


जयधवला की प्रशस्ति के अनुसार वीरसेनाचार्य ने अपनी टीका द्वारा सिद्धान्त ग्रंथों की बहुत पुष्टि की, जिससे वे अपने से पूर्व समस्त पुस्तकशिष्यकों से बढ़ गये। इससे प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या वीसेन से भी पूर्व इस सिद्धान्त ग्रंथ की अन्य टीकाएं लिखी गई थीं ? इन्द्रनन्दि ने अपने श्रुतावतार में दोनों सिद्धान्त पर लिखी गई अनेक टीकाओं का उल्लेख किया है जिसके आधार से षट्खण्डागम की धवला से पूर्व रची गई टीकाओं का यहां परिचय दिया जाता है। कर्मप्राभृत (षट्खण्डाग) और कषायप्राभृत इन दोनों सिद्धान्तों का ज्ञान गुरपरिपाटी से कुन्दकुन्द पुर के पद्मनन्दि मुनि को प्राप्त हुआ और उन्होंने सबसे पहले षट्खण्डागम के प्रथम तीन खण्डों पर बारह श्लोक प्रमाण एक टीका ग्रंथ रचा जिसका ‘परिकर्म’ और नाम परिकर्म था। हम ऊपर बतला आये हैं कि इन्द्रनन्दि का कुन्दकुन्दपुर के उसके रचयिता पद्मनन्दि से हमारे उन्हीं प्रात: स्मरणीय कुन्दकुन्दाचार्य का ही अभिप्राय हो सकती है। जो दिगम्बर जैन संप्रदाय में सबसे बडे आचार्य गिने गये हैं और जिनके प्रवचनसार, समयसार आदि ग्रंथ जैन सिद्धान्त के सर्वोपरि प्रमाण माने जाते हैं। दुर्भाग्यत: उनकी बनायी यह टीका प्राप्य नहीं हैं और न किन्हीं अन्य लेखकों ने उसके कोई उल्लेखादि दिये। किन्तु स्वयं धवला टीका में परिकर्म नाम के ग्रंथ का अनेक बार उल्लेख आया है। धवला कारने कहीं ‘परिकर्म’ से उद्धृत किया है, कहीं कहा है कि यह बात ‘परिकर्म’ के कथन पर से जानी जाती है और कहीं अपने कथन का परिकर्म के कथन से विरोध आने की शंका उठाकर उसका समाधान किया है। एक स्थान पर उन्होंने परिकर्म के कथन के विरुद्ध अपने कथन की पुष्टि भी की है और कहा है कि उन्हीं के व्याख्यान को ग्रहण करना चाहिए, परिकर्म के व्याख्यान को नहीं, क्योंकि, वह व्याख्यान सूत्र के विरुद्ध जाता है। इससे स्पष्ट ही ज्ञात होता है कि ‘परिकर्म’ इसी षट्खण्डागम टीका थी। इसकी पुष्टि एक और उल्लेख से होती है जहां ऐसा ही विरोध उत्पन्न होने पर कहा है कि यह कथन उस प्रकार नहीं है, क्योंकि, स्वयं ‘परिकर्म की’ प्रवृत्ति इसी सूत्र के बल से हुई है। इन उल्लेखों से इस बात में कोई सन्देह नहीं रहता कि ‘परिकर्म’ नाम का ग्रंथ था, उसमें इसी आगम का व्याख्यान था और वह ग्रंथ वीरसेनाचार्य के सन्मुख विद्यमान था। एक उल्लेख द्वारा धवलाकार ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि ‘परिकर्म’ ग्रंथ को सभी आचार्य प्रमाण मानते थे। उक्त उल्लेखों से प्राय: सभी का सम्बन्ध षट्खण्डागम के प्रथम तीन खण्डों के विषय से ही है जिससे इन्द्रनन्दि के इस कथन की पुष्टि होती है कि वह ग्रंथ प्रथम तीन खण्डों पर ही लिखा गया था। उक्त उल्लेखों पर से ‘परिकर्म’ कर्ता के नामादिक का कुछ पता हीं लगता। किन्तु ऐसी भी कोई बात उनमें नहीं है कि जिससे वह ग्रंथ कुन्दकुन्दकृत न कहा जा सके। धवलाकाराने कुन्दकुन्द के अन्य सुविख्यात ग्रंथों का भी कर्ता का नाम दिये बिना ही उल्लेख किया है। यथा, वृत्तं च पंचत्थिपाहुडे (धवला अ. पृ. २८९) इन्द्रनन्दि जो इस टीका को सर्वप्रथम बतलाया है और धवलाकार ने उसे सर्व—आचार्य—सम्मत कहा है, तथा उसका स्थान स्थान पर उल्लेख किया है, इससे इस ग्रंथ के कुन्दकुन्दाचार्यकृत मानने में कोई आपत्ति नहीं दिखती। यद्यपि इन्द्रनन्दि ने यह नहीं कहा है कि यह ग्रंथ किस भाषा में लिखा गया था, किन्तु उसके जो ‘अवतरण’ धवला में आये हैं वे सब प्राकृत में ही है, जिससे जान पड़ता है कि वह टीका प्राकृत में ही लिखी गई होगी। कुन्दकुन्द के अन्य सब ग्रंथ भी प्राकृत ही है। धवला में परिकर्म का एक उल्लेख इस प्रकार से आया है—
‘‘उपदेसं णेव इंदिए गेज्झं’ इति परमाणूणं णिरवयवत्तं परियम्मे वुत्तमिदि’’ (ध. १११०)
इसका कुन्दकुन्द के नियमसार की इस गाथा से मिलान कीजिये—
अत्तादि अत्तमज्झं अत्तंत्तं णेव इंदिए गेज्झं। अविभागी जं दव्वं परमाणु तं विआणाहि।।२६।।
इन दोनों अवतरणों के मिलाने में स्पष्ट है कि धवला में आया हुआ उल्लेख नियमसार से भिन्न है, फिर भी दोनों की रचना में एक ही हाथ सुस्पष्टरूप से दिखाई देता है। इन सब प्रमाणों से कुन्दकुन्दकृत परिकर्म के अस्तित्व में बहुत कम सन्देह रह जाता है। धवलाकारा ने एक स्थान पर ‘परिकर्म’ का सूत्र कह कर उल्लेख किया है। यथा—‘रूवाहियाणि त्ति परियम्मसुत्तेण सह विरुज्झइ’ (धवला अ. पृ. १४३)। बहुधा वृत्तिरूप जो व्याख्या होती है उसे सूत्र भी कहते हैं। जयधवला में यतिवृषभाचार्य को ‘कषायप्राभृत’ का ‘वृत्तिसूत्रकर्ता’ कहा है। यथा—
‘सो वित्तिसुत्तकत्ता जइवसहो मे वरं देऊ’ (जय ध. मंगलाचरण गा. ८)
इससे जान पड़ता है कि परिकर्म नामक व्याख्यान वृत्तिरूप था। इन्द्रनन्दि ने परिकर्म को ग्रंथ कहा है। वैजयन्ती कोष के अनुसार ग्रंथ वृत्ति का एक पर्याय—वाचक नाम है। यथा—‘वृत्तिग्र्रन्थजीवनयो:’ (वृत्ति उसे कहते हैं जिसमें सूत्रों का ही विवरण हो, शब्द रचना संक्षिप्त हो और फिर भी सूत्र के समस्त अर्थों का जिसमें संग्रह हो।)यथा—
‘सुत्तस्सेव विवरणाए संखित्त—सद्द—रयणाए संगहिय—सुत्तासेसत्थाए वित्तसुत्त—ववएसादो। (जयध. अ. ५२)
इन्द्रनन्दि ने दूसरी जिस टीका का उल्लेख किया है, वह शामकुंड नामक आचार्य—कृत थी। यह टीका छठवें खण्ड को छोड़कर प्रथम पांच खण्डों पर तथा दूसरे २ शामकुंडकृत पद्धति सिद्धानतग्रंथ (कषायप्राभृत) पर भी थी। यह टीका पद्धति रूप थी। (वृत्तिरूप के विषम—पदों का भंजन अर्थात् विश्लेषणात्मक विवरण को पद्धति कहते हैं।) यथा—]
वित्तिसुत्त—विसम—पयाभंजिए विवरणाए पड्ढइ—ववएसादो (जयध. पृ. ५२)
इससे स्पष्ट है कि शामकुंड के सन्मुख कोई वृत्तिसूत्र रहे हैं जिनकी उन्होंने पद्धति लिखी। हम ऊपर कह ही आये हैं कि कुन्दकुन्दकृत परिकर्म संभवत: वृत्तिरूप ग्रंथ था। अत: शामकुंड ने उसी वृत्ति पर और उधर कषायप्राभृत की यतिवृषभाचार्यकृत वृत्ति पर अपनी पद्धति लिखी। इस समस्त टीका का परिमाण भी बारह हजार श्लोक था और उसकी भाषा प्राकृत संस्कृत और कनाडी तीनों मिश्रित थी। यह टीका परिकर्म से कितने ही काल पश्चात् लिखी गई थी। इस टीका के कोई उल्लेख आदि धवला व जयधवला में अभी तक हमारे दृष्टिगोचर नहीं हुए। इन्द्रनन्दि द्वारा उल्लेखित तीसरी सिद्धान्तटीका तुम्बुलूर नाम के आचार्य द्वारा लिखी गई। ये आचार्य ‘तुम्बुलूर’ नाम के एक सुन्दर ग्राम से रहते थे, इसी से वे तुम्बुलूराचार्य कहलाये, जैसे कुझ्डकुन्दपुर में रहने के कारण पद्मनन्दि आचार्य की कुन्दकुन्द नाम से प्रसिद्धि ३ चूडामणिकर्ता तुम्बुलूराचार्य हुई। इनका असली नाम क्या था यह ज्ञात नहीं होता। इन्होंने छठवें खण्ड को छोड शेष दोनों सिद्धान्तों पर एक बडी भारी व्याख्या लिखी, जिसका नाम ‘चूडामणि’ था और परिमाण चौरासी हजार। इस महती व्याख्या की भाषा कनाडी थी। इसके अतिरिक्त उन्होंने छठवें खंड पर सात हजार प्रमाण ‘पञ्चिका’ लिखी। इस प्रकार इनकी कुछ रचना का प्रमाण ९१ हजार श्लोक हो जाता है। इन रचनाओं का भी कोई उल्लेख धवला व जयधवला में हमारे दृष्टिगोचर नहीं हुआ। किन्तु महाधवला का जो परिचय ‘धवलादिसिद्धान्त ग्रंथों के प्रशस्ति संग्रह’ में दिया गया है उसमें पंचिकारूप विवरण का उल्लेख पाया जाता है। यथा—
वोच्छामि संतकम्मे पंचियरूवेण विवरण सुमहत्थ।।
……. पुणो तेहितो सेसट्ठारसणियोगद्दाराणि संतकम्मे सव्वाणि परूविदाणि।
तो वि तस्सइगंभिरत्तादो अत्थविसमपदाणमत्थे थोरुद्धयेण पंचिय—सरूवेण भणिस्सामो।
जान पडता है यही तुम्बुलूराचार्यकृत षष्ठम खंड की वह पंचिका है जिसका इन्द्रनन्दि ने उल्लेख किया है। यदि यह ठीक हो तो कहना पडेगा कि चूडामणि व्याख्या की भाषा कनाडी थी, किन्तु इस पंचिका को उन्होंने प्राकृत में रचा था। भट्टाकलंकदेव ने अपने कर्नाटक शब्दानुशासन में कनाडी भाषा में रचित ‘चूड़ामणि’ नामक तत्वार्थमहाशास्त्र व्याख्यान का उल्लेख किया है। यद्यपि वहां इसका प्रमाण ९६ हजार बतलाया है जो इन्द्रनन्दि के कथन से अधिक है, तथापि उसका तात्पर्य इसी तुम्बुलूराचार्यकृत ‘चूड़ामणि’ से है ऐसा जान पडता है। इनके रचना काल के विषय में इन्द्रनन्दि ने इतनाही कहा है कि शामकुंड से कितने ही काल पश्चात् तुम्बुलूराचार्य हुए। तुम्बुलूराचार्य के पश्चात् कालान्तर में समन्तभद्र स्वामी हुए, जिन्हें इन्द्रनन्दिने ‘ताकिकार्क’ कहा है। उन्होंने दोनों सिद्धान्तों का अध्ययन करके षट्खण्डागम के पांच खंडों पर ४८ हजार ४ समन्तभद्र—श्लोकप्रमाण टीका रची। इस टीका की भाषा अत्यन्त सुन्दर और मृदुल स्वामीकृत टीका संस्कृत थी। यहां इन्द्रनन्दि का अभिप्राय निश्चयत: आप्तमीमांसादि सुप्रसिद्ध ग्रंथों के रचयिता से ही है, जिन्हें अष्टसहस्री के टिप्पणकार ने भी ‘र्तािककार्क’ कहा है। यथा—तदेवं महाभागैस्र्तािककार्वैरुपज्ञातां ……… आप्तमीमांसाम् …… (अष्टम् पृ. १ टिप्पण)धवला टीका में समन्तभद्रस्वामी के नाम सहित दो अवतरण हमारे दृष्टिगोचर हुए हैं। इनमें से प्रथम पत्र ४९४ पर है। यथा—‘तहा समंतभद्दसामिणा वि उत्तं, विर्धििवषक्तप्रतिषेधरूप……. इत्यादि’ यह श्लोक बृहत्स्वयम्भूस्तोत्रका है। दूसरा अवतरण पत्र ७०० पर है। यथा—‘तथा समंतभद्रस्वामिनाप्युत्तंकं, स्याद्वादप्रविभक्तार्थविशेषव्यंज को नय:।’यह आप्तमीमांसा के श्लोक १०६ का पूर्वार्ध है। और भी कुछ अवतरण केवल ‘उक्तं च’ रूप से आये हैं। जो बृहत्स्वयम्भूस्तोत्रादि ग्रंथों में मिलते हैं। पर हमें ऐसा कहीं कुछ अभी तक नहीं मिल सका जिससे उक्त टीका का पता चलता। श्रुतावतार के ‘असन्ध्यां पलरि’ पाठ में संभवत: आचार्य के निवासस्थान का उल्लेख है, किन्तु पाठ अशुद्धसा होने के कारण ठीक ज्ञात नहीं होता। जिनसेनाचार्यकृत हरिवंशपुराण में समन्तभद्रर्नििमत ‘जीवसिद्धि’ का उल्लेख आया है, किन्तु यह ग्रंथ अभी तक मिला नहीं है। कहीं यह समन्तभद्रकृत ‘जीवट्ठाण’ की टीका का ही तो उल्लेख न हो ? समन्तभद्रकृत गंधहस्तिमहाभाष्य के भी उल्लेख मिलते हैं, जिनमें उसे तत्त्वार्थ या तत्त्वार्थसूत्र का व्याख्यान कहा है। इस पर से माना जाता है कि समन्तभद्र ने यह भाष्य उमास्वातिकृत तत्त्वार्थसूत्र पर लिखा होगा। किन्तु यह संभव है कि उन उल्लेखों का अभिप्राय समन्तभद्रकृत इन्हीं सिद्धान्तग्रंथों की टीका से हो। इन ग्रंथों की भी ‘तत्त्वार्थमहाशास्त्र’ नाम से प्रसिद्धि रही है, क्योंकि, जैसा हम ऊपर कह आये हैं, तुम्बुलूराचार्यकृत इन्हीं ग्रंथों की ‘चूडामणि’ टीका को अकलंकदेव ने तत्त्वार्थ महाशास्त्र व्याख्यान कहा है। इन्द्रनन्दि ने कहा है कि समन्तभद्र स्वामी द्वितीय सिद्धान्त की भी टीका लिखने वाले थे, किन्तु उनके एक सहर्धिमने उन्हें ऐसा करने से रोग दिया। उनके ऐसा करने का कारण द्रव्यादि—शुद्धि—करण—प्रयत्न का अभाव बतलाया गया है। संभव है कि यहाँ समन्तभद्र की उस भस्मक व्याधि की ओर संकेत हो, जिसके कारण कहा गया है कि उन्हें कुछ काल अपने मुनि आचार का अतिरेक करना पड़ा था। उनके इन्हीं भावों और शरीर की अवस्था को उनके सहधर्मी ने द्वितीय सिद्धान्त ग्रंथ की टीका लिखने में अनुकूल न देख उन्हें रोक दिया हो। यदि समन्तभद्रकृत टीका संस्कृत में लिखी गई थी और वीरसेनाचार्य के समय तक, विद्यमान थी तो उसका धवला जयधवला में उल्लेख न पाया जाना बड़े आश्चर्य की बात होगी। सिद्धान्त ग्रंथों का व्याख्यानक्रम गुरु—परम्परा से चलता रहा। इसी परम्परा में शुभनन्दि और रविनन्दि नाम के दो मुनि हुए, जो अत्यन्त तीक्षणबुद्धि थे। उनसे बप्पदेवगुरुने वह समस्त सिद्धान्त विशेषरूप से सीखा। वह व्याख्यान भीमरथि और कृष्णमेख नदियों के ५ बप्पदेव गुरुकृत व्याख्याप्रज्ञप्ति बीच के प्रदेश में उत्कलि का ग्राम के समीप मगणवल्ली ग्राम में हुआ था। भीमरथि कृष्णा नदी की शाखा है और इनके बीच का प्रदेश अब बेलगांव और धारवाड कहलाता है। वहीं यह बप्पदेव गुरु का सिद्धान्त—अध्ययन हुआ होगा। इस अध्ययन के पश्चात् उन्होंने महाबन्ध को छोड़ शेष पांच खंडों पर ‘व्याख्याप्रज्ञप्ति’ नाम की टीका लिखी। तत्पश्चात् उन्होंने छठे खण्ड की संक्षेप में व्याख्या लिखी। इस प्रकार छहों खंडों के निष्पन्न हो जाने के पश्चात् उन्होंने कषायप्राभृत की भी टीका रची। उक्त पांच खंडों और कषायप्राभृत की टीका का परिमाण साठ हजार और महाबंध की टीका का पांच अधिक आठ हजार था, और इस सब रचना की भाषा प्राकृत थी। धवला में व्याख्याप्रज्ञप्ति के दो उल्लेख हमारी दृष्टि में आये हैं। एक स्थान पर उसके अवतरण द्वारा टीकाकार ने अपने मत की पुष्टि की है। यथा— लोगो वादपदिट्ठिदो त्ति वियाहपण्णत्तिवयणादो (ध. १४३) दूसरे स्थान पर उससे अपने मत का विरोध दिखाया है और कहा है कि आचार्य भेद से वह भिन्न—मान्यता को लिए हुए हैं और इसलिये उसका हमारे मत से ऐक्य नहीं है। यथा—
‘एदेण वियाहपझ्णत्तिसुत्तेण सह कघं ण विरोहो ?
ण, एदम्हादो तस्स पुधसुदस्स आयरियभेएण भेदमावण्णस्स एयत्ताभावादो (ध. ८०८)।
इस प्रकार के स्पष्ट मतभेद से तथा उसके सूत्र कहे जाने से इस व्याख्याप्रज्ञप्ति को इन सिद्धान्त ग्रंथों की टीका मानने में आशंका उत्पन्न हो सकती है। किन्तु जयधवला में एक स्थान पर लेखक ने बप्पदेव का नाम लेकर उनके और अपने बीच के मतभेद को बतलाया है। यथा—
चुण्णिसुत्तम्मि बप्पदेवाइरियलिहिदुच्चारणाए अंजोमुहुत्तमिदि भणिदो।
अम्हेहि लिहिदुच्चरणाए पुण जह. एकसमओ, उक्क. संखेज्जा समया त्ति परूविदो (जयध. १८५)
इन अवतरणों से बप्पदेव और उनकी टीका ‘व्याख्याप्रज्ञप्ति’ का अस्तित्व सिद्ध होता है। धवलाकार वीरसेनाचार्य के परिचय में हम कह ही आये हैं कि इन्द्रनन्दि के अनुसार उन्होंने व्याख्याप्रज्ञप्ति को पाकर ही अपनी टीका लिखना प्रारम्भ किया था। उक्त पांच टीकाएं षट्खंडागम पुस्तकारूढ होने के काल (विक्रम की २ री शताब्दि) से धवला के रचना काल (विक्रम ९ वी शताब्दि) तक रची गई जिसके अनुसार स्थूल मान से कुन्दकुन्द दूसरी शताब्दी में शामकुंड तीसरी में, तुम्बुलूर चौथी में, समन्तभद्र पांचवीं में और बप्पदेव छठवी और आठवीं शताब्दी के बीच अनुमान किये जा सकते हैं। प्रश्न हो सकता है कि ये सब टीकाएं कहां गई और उसका उनका पठन—पाठनरूप से प्रचार क्यों विचिछन्न हो गया ? हम धवलाकार के परिचय में ऊपर कह ही आये हैं कि उन्होंने, उनके शिष्य जिनसेन के शब्दों में, चिरकालीन पुस्तकों का गौरव बढ़ाया और इस कार्य में वह अपने से पूर्व के समस्त पुस्तक—शिष्यों से बढ़ गये। जान पड़ता है कि इसी टीका के प्रभाव में उक्त सब प्राचीन टीकाओं का प्रचार रुक गया। वीरसेनाचार्य ने अपनी टीका के विस्तार व विषय के पूर्ण परिचय तथा पूर्वमान्यताओं व मतभेदों के संग्रह, आलोचन व मंथनद्वारा उन पूर्ववती टीकाओं को पाठकों की दृष्टि से ओझल कर दिया। किन्तु स्वयं यह वीरसेनीया टीका भी उसी प्रकार के अन्धकार में पड़ने से अपने को नहीं बचा सकी। नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती ने इसका पूरा सार लेकर संक्षेप में सरल और सुस्पष्टरूप गोम्मटसार की रचना कर दी, जिससे इस टीका का भी पठन—पाठन प्रचार रुक गया। यह बात इसी से सिद्ध है कि गत सात—आठ शताब्दीओं में इसका कोई साहित्यिक उपयोग हुआ नहीं जान पड़ता और इसकी एकमात्र प्रति पूजा की वस्तु बनकर तालों में बन्द पडी रही। किन्तु यह असंभव नहीं है कि पूर्व की टीकाओं की प्रतियां अभी भी दक्षिण के किसी शास्त्र भंडार में पडी हुई प्रकाश की बाट जोह रही हों। दक्षिण में पुस्तके ताडपत्रों पर लिखी जाती थीं और ताड़पत्र जल्दी क्षीण नहीं होते। साहित्यप्रेमियों का दक्षिणप्रान्त के भण्डारों की इस दृष्टि से भी खोजबीन करते रहना चाहिए।
 
Tags: Shodh Aalekh
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