आचार्य राजकुमार जैन , इटारसी
मनुष्य के जीवन में आचरण का विशेष महत्व है। आचरण ही मनुष्यों को सदाचारी, कदाचारी या दुराचारी बनाता है। आचरण की शुद्धता मनुष्य के सात्विक एवं धार्मिक जीवन यापन का आचार है। सदाचार विचार ही मनुष्य को धार्मिक जीवनयापन की प्रेरणा देते हैं। कोई भी धर्म हो वह कभी भी मनुष्य को कदाचरण या दुराचरण की ओर प्रेरित नहीं करता है। आचरण का प्रभाव ही जीवन को धार्मिक या अधार्मिक बनाता है। अन्य धमों की भांति जैनधर्म में भी अन्य बातों के अतिरिक्त आचरण को विशेष महत्व दिया गया है। यद्यपि जैनधर्म एक साधना प्रधान धर्म है और साधना के माध्यम से अपनी आत्मा को निर्मलता के चरमोत्कर्ष पर पहुंचाकर समस्त सांसारिक बंधनों से उसे मुक्त कराना इस धर्म का चरम लक्ष्य है। संसार के समस्त जीवधारी प्राणियों की आत्मा का निवास उनके भौतिक शरीर में होता है अतः साधना के क्षेत्र में सशरीर आत्मा की ही उपयोगिता है। शास्त्रों में भी इसका समर्थन करते हुए कहा गया है- “शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्।”
इसकी भी दो अवस्थाएं होती हैं- एक स्वस्थावस्था और दूसरी विकारावस्था। शरीर और मन यदि स्वस्थ रहते हैं जो जीवन के सभी कार्य निराबाध रूप में सम्पन्न होते हैं। आहार विहार आदि अपनी दैनिक क्रियाओं में वह सुख का अनुभव करता है, क्योंकि वह अनुकूल वेदना रूप है- “अनुकूल वेदनीयं सुखम्” । उसके विपरीत जब शरीर अथवा मन में अवस्थ्यता होती है तो उसे दुख का अनुभव होता है। यह दुख प्रतिकूल वेदना कहलाता है- ‘प्रतिकूल वेदनीयं दुखम्’ (पतञ्जलि) शारीरिक या मानसिक अवस्थता की स्थिति में मनुष्य असन्तुलित एवं अव्यवस्थित अनुभव करता है जिससे उसके धर्म साधन, अर्थ साधन व्यवसाय) कामसाधन (सांसारिक कार्य करने) तथा मोक्ष साधन रूप चतुर्विध पुरुषार्थ के लिए प्रतिपादित पुरुषार्थ चतुष्टय के साधन में आरोग्य (शारीरिक एवं मानसिक स्वस्थता) को प्रमुखता दी गई है –
धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम्॥
पूर्वजन्मकृत अशुभ कार्यों के उदय से तथा प्रकृति, देश, काल आदि के वैषम्य से कई बार यह शरीर रोगी या विकारग्रस्त बन जाता है। रुग्ण शरीर के द्वारा न तो सुखोपभोग होता है और न ही धर्म की साधना। अतः प्रत्येक कार्य के लिए शरीर की निरोगता परमावश्यक है। शरीर के विकारग्रस्त होने पर जब धर्म का साधन सम्भव नहीं होता है तो साधना के पथ पर आरूढ़ होना कैसे सम्भव होगा? साधना के अभाव से कमों की निर्जरा सम्भव नहीं है और कर्मनिर्जरा के बिना मोक्ष की प्राप्ति संभव नहीं है। अतः स्पष्ट है कि इन समस्त कार्यों एवं लक्ष्य की पूर्ति के लिए शारीरिक आरोग्य परमावश्यक है। शारीरिक आरोग्य की आवश्यकता का प्रतिपादन आयुर्वेद शास्त्र तथा अन्य वैदिक ग्रंथों में तो किया ही गया है, जैन ग्रन्थों में भी जैनाचार्यों के द्वारा शारीरिक आरोग्य की उपयोगिता एवं आवश्यकता बतलाई गई है। श्री उग्रादित्याचार्य ने अपने ग्रन्थ कल्याणकारक में इस विषय में लिखा है-
न धर्मस्य कर्ता न चार्थस्य हर्त्ता न कामस्य भोक्ता न मोक्षस्य पाता।
नरो बुद्धिमान् धीरसत्वोऽपि रोगी यतस्तद्विनाशाद् भवेन्नैव मर्त्यः ॥*
अर्थात् मनुष्य बुद्धिमान और धीरसत्व (दृढ़मनस्क) होने पर भी यदि रोगी हो तो वह न धर्म कर सकता है, न धन कमा सकता है, न काम का उपभोग कर सकता है और न मोक्ष का साधन कर सकता है अर्थात् रोगी मनुष्य धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष रूपी चतुर्विध पुरुषार्थ का साधन नहीं कर सकता है। उस पुरुषार्थचतुष्टय के नष्ट होने से मनुष्य भव में जन्म लेने पर भी वह मनुष्य कहलाने के योग्य नहीं है।
यहाँ स्पष्टतः चतुर्विध पुरुषार्थ साधन का मूल निरोग या स्वस्थ्य शरीर निरूपित किया गया है। उसके बिना मनुष्य जीवन की कोई सार्थकता ही नहीं है अतः मनुष्य को चाहिए कि वह सदैव मिथ्या आहार-विहार से स्वयं रक्षा करते हुए, तथा सद्भुत का अनुवर्तन करते हुए, संयमपूर्वक आचरण के द्वारा अपने स्वास्थ्य की रक्षा करें। विपरीत आचरण, मिथ्या आचरण असंयमपूर्ण (कदाचरण) शरीर में विकार उत्पन्न कर उसे रोगी बना देता है अत: इनका सदैव परिहार करना चाहिए। कौन मनुष्य निरोग रह सकता है ? इस विषय में सुन्दर ढंग से शास्त्रों में विवरण मिलता है, जो निम्न प्रकार है –
नरो हिताहरविहारसेवी समीक्ष्यकारी विषयेष्वसक्तः।
दाता समः सत्यपरो क्षमावानाप्तोपसेवी च भवत्यरोगः।
अर्थात् हित आहार और विहार का सेवन करने वाला, सम्यक प्रकार से हिताहित विवेकपूर्वक कार्य करने वाला, पचेन्द्रियों के विषय में आसक्त नहीं रहने वाला, दान की प्रवृत्ति वाला, समता भाव को धारण करने वाला, सदैव सत्य में तत्पर, क्षमा भाव को धारण करने वाला और आप्तजनों की सेवा में संलग्न मनुष्य ही निरोग रहता है।
यहाँ निरोग रखने के लिए जिस आचरण का निर्देश किया गया है वह सर्वथा जैनधर्मसम्मत और जैन धर्मानुयायी श्रावक द्वारा आचरणीय है। इस प्रकार का आचरण सात्विक होता है और वह आरोग्य सम्पादन के साथ-साथ आत्मोन्नयन या आत्मा को निर्मल बनाने में सहायक होता है। आचरण की शुद्धता के कारण अन्त:करण में सात्विक भाव का उदय एवं उत्कर्ष होता है। जिससे मनुष्य की प्रवृत्ति अशुभ कमाँ से हटकर शुभ कर्मों में होती है।
आरोग्य सम्बन्धी अन्यान्य बातों का उल्लेख विस्तारपूर्वक आयुर्वेद शास्त्र में किया गया है अत: वहाँ उसका अवलोकन कर तद्विषयक सभी बातों का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए। आयुर्वेद शास्त्र यद्यपि रोग निवृत्ति का उपाय बतला कर तथा स्वास्थ्य रक्षा के मूलभूत सिद्धान्तों का निरूपण कर मात्र भौतिक शरीर की रक्षा और उसके सवंर्द्धन की प्रेरणा देता है, तथापि यह एक महत्वपूर्ण तथ्य है कि वह आरोग्य साधन के साथ-साथ परोक्ष रूप से मोक्ष साधन में भी कारणभूत है। वह यद्यपि मोक्ष साधन के उपायों का निर्देश नहीं करता है, तथापि मोक्ष साधन के मूल समझे जाने वाले शारीरिक आरोग्य के निष्पादन में पूर्णतः सहायक होता है अत: अप्रत्यक्षतः वह मोक्ष साधन का कारण भी है।
जैनधर्म में मोक्ष को विशेष स्थान दिया गया है और मोक्ष की प्राप्ति मनुष्य का चरम लक्ष्य बतलाया गया है। मोक्ष प्राप्ति के लिए साधना या तप का विशेष महत्व है, क्योंकि उससे ही कमाँ का क्षय होता है और आत्मा को कर्मों के बन्धन से मुक्ति प्राप्त होती है। आयु कर्म शेष रहने तक आत्मा को भौतिक शरीर में ही निवास करना पड़ता है, अत: तब तक उसके स्वास्थ्य पर समुचित ध्यान देना आवश्यक है। इसके लिए साधना के क्षेत्र में अवतरित मुनि को भी आरोग्य सम्बन्धी समस्त विषय का ज्ञान होना आवश्यक है। जो शुभ परिणामी मुनि या श्रावक ऐसा नहीं करता है वह विभिन्न रोगों से पीड़ित होकर तज्जनित कष्टों और उनके दुष्परिणामों से अशुभ कर्म के बंध का भागी बनता है अतः श्री उग्रादित्याचार्य ने आयुर्वेदशास्त्र का ज्ञान प्राप्त करने का निर्देश निम्न प्रकार से दिया है-
आरोग्यशास्त्रमधिगम्य मुनिर्विपश्चित् स्वास्थ्यं स साधयति सिद्धसुखैकहेतुम्।
अन्यस्स्वदोषकृतरोगनिपीडितांगो बध्नाति कर्म निजदुष्परिणाम भेदात्।।’
अर्थात् विद्वान् मुनि आरोग्य शास्त्र (आयुर्वेद शास्त्र) को अच्छी तरह जानकर (उसी प्रकार आहार-विहार रखते हुए और नियमों एवं सद्वृत्त का पालन करते हुए) सिद्ध सुख के एकमात्र कारणभूत स्वास्थ्य का साधन (रक्षा) कर लेता है। इसके विपरीत स्वदोष अर्थात् अपने अहित आहार-विहार से जनित रोग से पीड़ित शरीर वाला होकर वह अपने दुष्परिणामों (दुर्भावों) के कारण विभिन्न कर्मों के बंध को बांध लेता है।
यहाँ स्पष्ट किया गया है कि आरोग्य शास्त्र (आयुर्वेद शास्त्र) का अध्ययन एवं ज्ञान किस प्रकार अप्रत्यक्ष रूप से मोक्ष सुख का कारण है? जिसके शरीर में रोग व्याप्त रहता है या जो किसी बाह्य या आभ्यन्तरिक विकार से पीड़ित है वह अपने शरीर की रोगजन्य वेदना के कारण व्याकुल बना रहता है। आकुलता स्वयं एक अशुभ परिणाम है जो मनोविकार का द्योतक है। उस आकुलता के कारण मनुष्य का मन विकारयुक्त बना रहता है, जिससे उसके परिणामों-भावों की निर्मलता समाप्त हो जाती है और वे सुपरिणाम, दुष्परिणामों में परिवर्तित हो जाते हैं।
दुष्परिणामों के कारण मनुष्य की आत्मा अशुभ कर्म के संस्कारों से परिवेष्टित हो जाती है और अशुभ कार्यों का फल भोगने हेतु उसे पुनः संसार में जन्म-मरण को धारण करते हुए संसरण करना पड़ता है। इसक विपरीत स्वस्थ शरीर वाला योगी या साधु आकुलता के अभाव में निराकुल होकर अपनी साधना में तत्पर रहता है और अंतत: शाश्वत मोक्षसुख का अनुभव कर लेता है। इस प्रकार रोगाक्रान्त शरीर जहाँ कर्मबन्धन एवं संसार भ्रमण का कारण है वहाँ आरोग्य के द्वारा मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होता है।
शरीर में रोग की उत्पत्ति हो जाने पर साधना या तपश्चर्या में किस प्रकार विघ्न या व्यवधान उत्पन्न होता है इसे स्वामी समन्तभद्र के जीवन से भलीभाँति जाना जा सकता है। मुनिचर्या का निर्दोष पालन करते हुए भी पूर्व जन्मकृत अशुभ कर्मों के संस्कारवश जब वे भस्मक व्याधि से पीड़ित हो गए तो वे यद्यपि कभी अपनी चर्या से चलायमान या विचलित नहीं हुए, तथापि इससे वे अपनी मुनिचर्या में किंचित् व्यवधान सा अनुभव करने लगे थे क्योंकि जठराग्नि की तीव्रता उनके द्वारा गृहीत भोजन का तिरस्कार करती हुए शरीर को अधिक पीड़ित करने लगी थी। मुनिचर्या के अधीन उनके द्वारा गृहीत भोजन वैसे भी समिति और नीरस होता था जो उनकी तीव्र जठाराग्नि के लिए अपर्याप्त था। अतः उससे जठराग्नि की तृप्ति होना सम्भव नहीं था। उसके लिए तो यथेष्ठ परिमाण में गुरु-स्निग्ध-शीतल और मधुर रस वाला अन्न पान मिलना आवश्यक होता है, अन्यथा वह जठराग्नि शरीरगत रस-रक्त-मांसादि धातुओं को ही भस्मसात् करने लगती है। इससे शरीर में दौर्बल्य होने के साथ-साथ तृषा, दाह, मूर्च्छा आदि अन्य अनेक विकार या व्याधियाँ उत्पन्न हो जाती हैं। स्वामी समन्तभद्र ने जब अनुभव किया कि व्याधि की तीव्रता के कारण शरीर की दुर्बलता निरंतर बढ़ती जा रही है और इससे मुनिचर्या में व्यवधान भी निरन्तर बढ़ता जा रहा है। इसके अतिरिक्त मुनि पद की स्थिर रखते हुए इस रोग का प्रतिकार किया जाना भी सम्भव नहीं हैअतएव उन्होंने अपने गुरु से समाधिमरण की आज्ञा प्रदान करने का अनुरोध किया। उनके गुरु ने आदेश दिया कि प्रथमतः तुम मुनिपद का परिल्याण कर अपनी भस्मक व्यरधि को शान्त करो। व्याधि के शान्त होने पर प्रायश्चितपूर्वक पुनः मुनिपद धारण कर लेना। गुरु की आज्ञा शिरोधार्य कर प्रथम उन्होंने अपने मुनित्व का त्याग किया। पश्चात् वे कांची के राजा को अपने आशीर्वचनों से प्रसन्न कर वहाँ के शिव मंदिर में आने वाले चढ़ावा (भोग ) को अकेले ही भक्षण करने लगे। कुछ दिनों तक लगातार प्रचुर मात्रा में गुरू और मधुर आहार मिलने से कालान्तर में उनकी जठराग्नि की तीव्रता कम होने लगी और अन्ततः उनकी भस्मक व्याधि का शमन हुआ।
इससे स्पष्ट है कि शरीर में व्याधि की उत्पत्ति किस प्रकार उत्पन्न कर शरीर के दैनिक कार्यों में बाधा उत्पन्न कर देती है। इससे धर्माचरण, दैनिक चर्या और साधना में तो व्यवधान उत्पन्न होता ही है, मन में भी आकुलता हो जाने से अशुभ कर्मबन्ध का भागी होना पड़ता है। व्याधिग्रस्त होने के कारण शरीर को जो कष्ट या वेदना भोगनी पड़ती है उसका प्रभाव मनुष्य के मन पर भी पर्याप्त रूप से पड़ता है। जिससे मन में आकुलता का भाव उत्पन्न होता है। वह आकुलता का भाव ही कर्म बंध का कारण होता है। अतः शरीर की रूग्णता जहाँ धर्म साधन में बाधा उत्पन्न करती है वहाँ शारीरिक आरोग्य धर्माचरण में सहायक होता है।
इसी क्रम में जैनधर्म के प्रभावक मनीषी श्री उग्रादित्याचार्य ने दो प्रकार के स्वास्थ्य का प्रतिपादन करते हुए उनके महत्व को भी सार्थक रूप से प्रतिपादित किया है। उसके अनुसार स्वास्थ्य दो प्रकार का होता है- एक पारमार्थिक स्वास्थ्य और दूसरा व्यावहारिक स्वास्थ्य। श्री उग्रादित्याचार्य के अनुसार इस द्विविध स्वास्थ्य में प्रथम परमार्थ स्वास्थ्य प्रधान या मुख्य है और दूसरा व्यवहार स्वास्थ्य अप्रधान या गौण। यथा-
अथेह भव्यस्य नरस्य साम्प्रतं द्विधैव तत्स्वास्थ्यमुदाहृतं जिनैः।
प्रधानमाद्यं परमार्थभित्यतो द्वितीयमन्यद् व्यवहारसम्भवम् ॥
अर्थात् भगवान् जिनेन्द्रदेव के द्वारा भव्य जीव मनुष्य का स्वास्थ्य दो प्रकार का बतलाया गया है- एक परमार्थ स्वास्थ्य और दूसरा व्यवहारज स्वास्थ्य। इनमें से प्रथम पारमार्थिक प्रधान होता है और दूसरा व्यवहारार्थिक स्वास्थ्य गौण है।
पूर्व में आयुर्वेद के अनुसार जो दो प्रकार का स्वास्थ्य-शारीरिक और मानसिक बतलाया गया है उसका समावेश व्यवहार स्वास्थ्य में किया गया है। पारमार्थिक स्वास्थ्य का निरूपण निम्न प्रकार किया है-
अशेषकर्मक्षयज महाद्भुतं यदेतदात्यन्तिकमद्वितीयम्।
अतीन्द्रियं प्रार्थितमर्थवेदिभिस्तदेतदुक्तं परमार्थनामकम्।।
अर्थात् आत्मा के सम्पूर्ण कर्मों के क्षय से उत्पन्न, अद्भुत, आत्यान्तिक एवं अद्वितीय, विद्वज्जनों द्वारा प्रार्थित जो अतीन्द्रियसुख है वह पारमार्थ स्वास्थ्य कहलाता है।
इसका तात्पर्य यह है कि ज्ञानावरणादि अष्ट कमों का नाश होने से जो अविनाशी, अद्वितीय, इन्द्रियातीत, परमोत्कृष्ट आत्मीय सुख की अनुभूति होती है वही पारमार्थिक स्वास्थ्य होता है। इस प्रकार के अक्षय परमानन्द का अनुभव अलौकिक एवं दिव्य आध्यात्मिक सम्पदा का परिणाम है जिसके कारण यह जीव समस्त प्रकार की सांसारिक यातनाओं, कष्टों, दुखों एवं विभिन्न प्रकार के अशुभ परिणामों से ही मुक्त नहीं हो जाता है, अपितु वह समस्त प्रकार के कर्म बन्धनों का उच्छेद कर संसार परिभ्रमण से ही मुक्त हो जाता है। ऐसी स्थिति में अपना आयु कर्म शेष रहने के कारण वह जीव जब तक इस संसार में रहता है तब तक उसके लिए समस्त सांसारिक भौतिक सुखोपभोग तथा विविध प्रकार के भोग विलास तुच्छ एवं हेय हो जाते हैं। यही पारमार्थिक स्वास्थ्य है और इसी पारमार्थिक स्वास्थ्य की उपलब्धि करना जैनधर्म का लक्ष्य है। इस पारमार्थिक स्वास्थ्य का सम्बन्ध शरीर से न होकर शरीर में स्थित आत्मा से है अतः इसे प्रधान या मुख्य माना गया है।
दूसरे प्रकार व्यवहारिक स्वास्थ्य है जो निम्न प्रकार का बतलाया गया है-
समाग्नि धातुत्वमदोषविभ्रमों मलक्रियात्मेन्द्रियसुप्रसन्नता।
मन: प्रसादश्च नरस्य सर्वदा तदेवमुक्तं व्यवहारजं खलु॥
अर्थात् मनुष्य के शरीर में स्थित अग्नि (जठराग्नि) का सम रहना (हीनाधिक नहीं होना ), धातुओं की अया समुचित रूप दोष का विकृत नहीं होना, मल मूत्रादि की विसर्जन क्रिया समुचित रूप से सम्पन्न होना , आत्मा, इन्द्रिय और मन का प्रसन्न रहना ये सब व्यवहार स्वास्थ्य के लक्षण है।
दूसरे प्रकार का यह व्यवहारिक स्वास्थ्य प्रथम पारमार्थिक स्वास्थ्य के अर्जन में सहायक होता है। व्यावहारिक स्वास्थ्य भौतिक होता है और उसका सम्बन्ध केवल शरीर व मन से है। शरीर की निरोगता तथा वात-पित्त-कफ इन तीनों दोषों की समस्थिति होना, रस, रक्तादि सप्त धातुओं की क्षय या वृद्धि होना (अविकृत अवस्था), स्वेद-मूत्र-पुरीष इन तीनों मलों की क्रिया प्राकृत रूप से सम्पन्न होना, जठराग्नि का प्राकृत अवस्था में होना, इन्द्रियों और मन की अविकलता तथा प्रसन्नता होना शारीरिक आरोग्य का परिचायक है। इसे ही व्यवहारिक स्वास्थ्य कहते हैं। यहाँ व्यवहारिक स्वास्थ्य के जो लक्षण बतलाए गए हैं वे सभी लक्षण आयुर्वेद शास्त्र में स्वस्थ पुरुष के बतलाए गए हैं। आयुर्वेद शास्त्र में भी इसी प्रकार के शारीरिक स्वास्थ्य का प्रतिपादन किया गया है। अष्टांग हृदय में आचार्य वाग्भट्ट कहते हैं-
समदोषः समाग्निश्च समधातुमलक्रियः।
प्रसन्नात्मेन्द्रियमनः स्वस्थ इत्यभिधीयते।।
अर्थात् जिस पुरुष के तीनों दोष सम (अविकृत) अवस्था में हो, जठराग्नि सम (अविकृत) अवस्था में हो, सात धातुओं (रस-रक्त-मांस-मेद-अस्थि-मज्जा-शुक्र) और तीन मलों (स्वेद-मूत्र-पुरीष) की क्रियाएं सम अवस्था में हों, जिसका आत्मा, इन्द्रिय और मन प्रसन्न (विकार रहित) हो वह पुरुष ‘स्वस्थ कहलाता है।
इस प्रकार के आरोग्य या द्विविध स्वास्थ्य का प्रतिपादन मात्र आयुर्वेद शास्त्र में किया गया है अत: यह आध्यात्मिकता से अनुप्राणित है। इसका मुख्य उद्देश्य लोकोपकार करना है। मनुष्य के स्वास्थ्य की रक्षा हेतु विविध उपायों का निर्देश करना तथा औषध चिकित्सा के द्वारा विविध रोगों का शमन करना लोकोपकार ही है। स्वास्थ्य के लिए आत्मा के कल्याण का मार्ग प्रशस्त करना लोकोपकार की चरम परिणति है। आयुर्वेद शास्त्र में चिकित्सा कार्य को पुण्यतम माना गया है क्योंकि चिकित्सा के द्वारा रोग जनित उन असह्य वेदनाओं से मुक्ति मिलती है जो धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष साधन में विघ्न रूप होती है। श्री उग्रादित्याचार्य ने भी इस आयुर्वेद शास्त्र का कथन लोकोपकार करने के लिए ही किया है। यथा- “लोकोपकारकरणार्थमिदं ही शास्त्रम्’ अर्थात् यह वैद्यक शास्त्र लोक के प्रति उपकार करने के लिए है।
इससे स्पष्ट है कि जैनधर्म में लोकोपकार और आत्मकल्याण को सर्वोपरि स्थान दिया गया है क्योंकि परोपकार के कारण मनुष्य एक ओर जहाँ दूसरों का हित करता है, दूसरी ओर पुण्य संचय के कारण अपना भी हित करता है।
संदर्भः
1. कल्याणकारक, 20/90
2. चरक संहिता, सूत्रस्थान, अ. 30
3. कल्याणकारक 20/29
4. कल्याणकारक 2/2
5. कल्याणकारक, 2/3
6. कल्याणकारक, 2/4
7. अष्टांग हृदय, सूत्र स्थान
8. कल्याण कारक, 1/24
अनेकांत पत्रिका जनवरी -मार्च, २०१५
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