Jambudweep - 7599289809
encyclopediaofjainism@gmail.com
About Us
Facebook
YouTube
Encyclopedia of Jainism
  • विशेष आलेख
  • पूजायें
  • जैन तीर्थ
  • अयोध्या

ध्यान करने वाला ध्याता कैसा होता है

July 16, 2017ज्ञानमती माताजीjambudweep

 ध्यान करने वाला ध्याता कैसा होता है ?



(चन्दनामती माताजी के आलेख)

तत्त्वार्थ सूत्र में श्री उमास्वामी आचार्य ने कहा है—
 
‘‘उत्तमसंहननस्यैकाग्रचिन्तानिरोधो ध्यानमान्तर्मुहूर्तात्’’
 
अर्थात् एकाग्रचिन्तानिरोध रूप उत्तम ध्यान उत्कृष्ट संहनन वाले मनुष्यों के अन्तर्मुहूर्त तक होता है। इस प्रकार का ध्यान विशेष मुनिगण ही कर सकते हैं तथा ध्यान का अभ्यासमात्र सभी मनुष्य कर सकते हैं। ज्ञानार्णव ग्रंथ में आचार्य श्री शुभचन्द्र स्वामी ने भी ध्याता की प्रशंसा करते हुये बताया है—
 
विरज्य कामभोगेषु विमुच्य वपुषि स्पृहाम्।
यस्य चित्तं स्थिरीभूतं, स हि ध्याता प्रशस्यते।।३।।
 
सत्संयमधुरा धीरै, र्न हि प्राणात्ययेऽपि यैः।
त्यक्ता महत्त्वमालम्ब्य, ते हि ध्यानधनेश्वराः।।४।।

अर्थ


 जिस मुनि का चित्त कामभोगों से विरक्त होकर और शरीर में स्पृहा को छोड़कर स्थिरीकृत हुआ है, उसी को निश्चय से प्रशंसनीय ध्याता कहा है। जिन मुनियों ने महान मुनिपने को अंगीकार करके प्राणों का नाश होते हुये भी समीचीन संयम की धुरा को नहीं छोड़ा है, वे ही ध्यानरूपी धन के ईश्वर—स्वामी होते हैं क्योंकि संयम से च्युत होने पर ध्यान नहीं होता है।
 
यहाँ जिनेन्द्र भगवान की वाणी के अनुसार सकलसंयमी मुनिराज ही उत्तम ध्यान—शुक्लध्यान के अधिकारी माने गये हैं। यही कारण है कि संसार, शरीर, भोगों से विरक्त मुनिराजों का सानिध्य प्राप्त करने की बारम्बार प्रेरणा दी गयी है। शुद्धात्मा को प्राप्त करने हेतु ज्ञानार्णव ग्रंथ में आठ प्रकार के निर्देश बताये गये हैं—

मन्दाक्रान्ता छन्द


आत्मायत्तं विषयविरतं तत्त्वचिन्तावलीनं।
निव्र्यापारं स्वहितनिरतं निर्वृतानन्दपूर्णम्।।
 
ज्ञानारूढं शमयमतपोध्यानलब्धावकाशं।
कृत्वाऽऽत्मानं कलय सुमते दिव्यबोधाधिपत्यम्।।२८।।

अर्थ


 हे सुबुद्धि! अपने को सर्वप्रथम तो आत्मायत्त कर—पराधीनता से छुड़ाकर स्वाधीन कर। दूसरी बात, इन्द्रियों के विषयों से मन को विरक्त कर। तीसरी बात, तत्वचिन्ता में मन को लीन कर। चौथे, सांसारिक व्यापार से मन को रहित—निश्चल कर। पाँचवे, आत्महित में लग जा। छट्ठे, निर्वृत अर्थात् क्षोभरहित होकर आत्मा को आनन्द से परिपूर्ण कर।
 
सातवें, मन को ज्ञान में आरूढ़ कर। आठवें, शम यम दम तप में अवकाश मिले ऐसा करके फिर दिव्यबोध, केवलज्ञान के अधिपतिपने को प्राप्त कर अर्थात् इन आठ कार्यों से केवलज्ञान की प्राप्ति होती है। ऐसे गुणों को प्राप्त करने वाले मुनीश्वरों की दुर्लभता के विषय में भी वर्णन आया है—

शार्दूलविक्रीडित छन्द


दृश्यन्ते भुवि किं न ? ते संख्याव्यतीताश्चिरम्।
ये लीलाः परमेष्ठिनः प्रतिदिनं तन्वन्ति वाग्भिःपरम्।।
 
तं साक्षादनुभूय नित्य परमानन्दाम्बुरािंश पुन।
र्ये जन्मभ्रममुत्सृजन्ति पुरुषा धन्यास्तु ते दुर्लभाः।।२९।।
 
अर्थात् इस पृथ्वी पर परमेष्ठी की नित्यप्रति केवल वचनों से चिरकालपर्यन्त लीलास्तवन को विस्तृत करने वाले कृतबुद्धि क्या गणना से अतीत नहीं हैं ? अर्थात् परमात्मा के स्वरूप का कथन करने वाले तो बहुत अधिक हैं किन्तु जो अविनश्वर व उत्कृष्ट आनन्द के समुद्रस्वरूप उस परमात्मा का प्रत्यक्ष अनुभव करके संसार के परिभ्रमण को नष्ट करते हैं,
 
वे पुरुष धन्य हैं और वे दुर्लभ हैं। यद्यपि इस पंचमकाल में ऐसे योगीश्वर देखने में नहीं आते, तो भी उनके गुणानुवाद सुनकर स्मरण करने से भी भव्य जीवों का मन पवित्र होता है। इस विषय को साररूप में समझाने हेतु लेखक कवि ने लिखा है—
 
रत्नत्रय को धार जो, शम दम यम चित देंय।
ध्यान करै मन रोकिवै, धन ते मुनि शिव लेंय।।
 
इस प्रकार से ध्यान की उपयोगिता के वर्णन में जैनाचार्यों ने रत्नत्रय की प्रमुखता बतलाकर मुनिराजों को उसका साक्षात् अधिकारी बतलाया है, पुनः क्रम-क्रम से यथायोग्य चारित्र धारण करने वाले पुरुष एवं स्त्रियों में भावविशुद्धि के अनुसार ध्यान की योग्यता पाई जाती है अतः ध्यातापने को प्राप्त करने हेतु जीवन में शक्ति अनुसार देशसंयम, सकलसंयम को अवश्य धारण करना चाहिए। 
 
Tags: Chandnamati mata ji
Previous post श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र Next post पूज्य ज्ञानमती माताजी की कृति ‘‘जैन भूगोल’’ : एक अनुचिंतन

Related Articles

आगम के दर्पण में व्यवहारनय

July 19, 2017jambudweep

शिवपथ पे हैं चली ,नाजों में हैं जो पली …

March 25, 2017jambudweep

आज हम वन्दन करते हैं!

March 25, 2017jambudweep
Privacy Policy