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ध्यान का स्वरूप और परिणाम: एक अनुशीलन

September 17, 2017स्वाध्याय करेंjambudweep

ध्यान का स्वरूप और परिणाम: एक अनुशीलन


ज्योतिबाबू जैन

सारांश

भारतीय वाङ्ग मय में ध्यान के स्वरूप, अर्थ, भेद—प्रभेदों पर विस्तृत रूप में चर्चा की गई है।
श्रमण एवं वैदिक दोनों परम्परा के ग्रंथों में ध्यान के अनेक नामों से उल्लेख एवं विवेचन मिलते हैं।
प्रस्तुत आलेख में पिंडस्थ, रूपस्थ, पदस्थ एवं रूपातीत सभी प्रकार के ध्यानों का परिचय दिया गया है।

ध्यान

 

विचार एक बिन्दु संयमन है जिसे ध्यान कहते हैं। व्यक्ति जिस समय जिस विचार भाव का चिंतन करता है उस समय वह उन्हीं विचारों में तन्मय हो जाता है जैसे वह यदि किसी देवता मंत्र या आत्मा पर अपने विचारों को केन्द्रित करता है, अन्य मानसिक क्रियाओं को दूर रखता है, उस एक विषय में ही अपने केन्द्रित कर लेता है, इच्छाओं को पूर्ण रूप से रोककर किसी एक विषय का अवलंबन लेकर अन्य सभी से अपनी वृत्ति को हटा लेता है, वही ध्यान है। आचार्य देवसेन ने भावसंग्रह में ध्यान की निम्न परिभाषा की है ‘‘चित्त—णिरोहे झाणं अर्थात् चित्त के निरोध का नाम ध्यान है।

 
एकाग्रतापूर्वक चिंता का निरोध करना ध्यान है।
चित्त विक्षेप त्याग ध्यान है।
 
जो चित्त का परिणाम स्थिर होता है उसे ध्यान कहते हैं और जो चंचल रहता है उसे अनुप्रेक्षा चिंता भावना या चित्त कहते हैं। जिसकी वृत्ति अपने बुद्धि बल के अधीन होती हैं क्योंकि ऐसा ध्यान ही यथार्थ में ध्यान कहा जाता है इसके विपरीत अप ध्यान कहलाता है।

 
यत्कर्मक्षपणे साध्ये साधनं परमं तप:।
 
कर्मों के क्षय करने रूप का जो मुख्य साधन है वही उत्कृष्ट तप ध्यान है। स्थिर चित्त का जो परिणयन होता है वह ध्यान है और चंचलता रहती है उसे अनुप्रेक्षा, चिंता , चित्त या भावना कहते हैं। जिस परिणाम से आत्मा पदार्थ का चिन्तवन करता है उस परिणाम को ध्यान कहते हैं। तत्वार्थवार्तिक में आचार्य अकलंक देव ने ध्यान में किस प्रकार की एकाग्रता होती है उसकी स्थिरता बताते हुये कहा है कि दीपक की शिखा के समान वीर्य विशेष के सामथ्र्य से चित्तवृत्ति का एक स्थान में निरोध हो जाता है। जैसे वायुरहित प्रदेश में प्रज्जवलित दीपशिखा परिस्पन्दन नहीं करती उसी प्रकार निराकुल स्थान में शक्ति विशेष से रोकी गई चित्तवृत्ति बिना व्याक्षेप के एकाग्रता से स्थिर रहती है अन्यत्र नहीं भटकती। इस प्रकार ध्यान के स्वरूप में जो एकाग्रता का ग्रहण है वह व्यग्रता की विनिवृत्ति के लिये है। ज्ञान ही वस्तुत: व्यग्र होता है ध्यान नहीं। ध्यान को तो एकाग्र कहा जाता है। इसी प्रकार ध्यान शतक में चेतना के चल और स्थिर दो भेद करके चल चेतना को चित्त तथा स्थिर चेतना को ध्यान कहा गया है।
इस प्रकार श्रमण परंपरा में ध्यान का संबंध केवल मन से नहीं माना गया था काय और वचन इन तीनों से भी संबंधित था इसी अभिमत के आधार पर उसकी निरंजन दशा—निष्प्रकम्प दशा ध्यान है। योग सूत्र में ध्यान के विषय में कहा है कि— ‘धारणा में जहाँ चित्त को धारण किया जाता है वही पर जो प्रत्यय की एकाग्रता है विसदृष परिणाम को छोड़कर जिसे धारणा में आलम्बनभूत किया गया है। उसी के आलम्बन रूप से जो निरंतर ज्ञान की उत्पत्ति होती है। उसे ध्यान कहते हैं। जिनागम का अभ्यास पठन—पाठन, चिन्तवन मनन और वस्तुस्वरूप के विचार को रयणसार में ध्यान कहा है। इस प्रकार विभिन्न आचार्यों की दृष्टियों से विचार करने पर स्पष्ट होता है कि चिन्तनशून्यता ध्यान नहीं एवं वह चिन्तन भी ध्यान नहीं जा अनेकाग्र है। एकाग्र चिन्तन ध्यान हैं आचार्य देवसेन के आराधनासार के श्लोक क्रमांक ७७ की टीका में श्री रत्नर्कीित देव ने निर्विकल्प समाधिस्थ के ग्रहण को शून्य ध्यान कहा है।
योगी अनन्तज्ञानादि परमानंद लक्षण स्वरूप सद्भाव से उत्पन्न सुख से सम्पन्न होता है। वह अनंत चतुष्टय रूप अरहन्त अवस्था और सिद्ध अवस्था के आनंद का भोक्ता बनता है इस प्रकार अनंत अविनाशी सुख की प्राप्ति के इच्छुक योगी को पांचों इन्द्रियों के विषयों से परासुख होकर निर्विकल्प शून्य ध्यान का अवलम्बन लेकर स्वयं शुद्धात्मा की आराधना करनी चाहिये। आचार्य देवसेन ने जिसमें ध्यान, ध्येय और ध्याता का विकल्प न हो उसे शून्य ध्यान कहा है। जो योगी लाभ—अलाभ, सुख—दु:ख, जीवन—मरण में सदृश इसी तरह बंधु और अरि में समान भाव रखता है, निश्चय से वही ध्यान का पात्र है। 

ध्यान का अर्थ / ध्यान के पर्यायवाची

बुद्धि की चंचलता रोकना, योग, ध्यान, समाधि मन को वश में करना और आत्मा के स्वरूप में लीन होना आदि सब ध्यान के ही पर्यायवाचिक शब्द है जिस परिणाम से आत्मा पदार्थ का चिन्तवन करता है उस परिणाम को ध्यान कहते हैं। आत्मा का जो परिणाम पदार्थों का चिन्तवन करता है उस परिणाम को ध्यान कहते हैं। आदिपुराण में आचार्य जिनसेन ने योग, समाधि, ध्यान, धीरोध अर्थात् बुद्धि की चंचलता रोकना, स्वान्तग्रह अर्थात् मन को वश में करना और अंत: संलीनता अर्थात् आत्मा के स्वरूप में लीन होना आदि सब ध्यान के पर्यायवाची शब्द है।

‘‘सामयं स्वास्थ्यं समाधिश्च योन्श् चेतोनिरोधन्म शुद्धोपयोग इत्येते भवन् त्येकार्थवाचका:।।
 
अर्थात् साम्य, स्वास्थ्य, समाधि, योग, चित्त—निरोध और शुद्धोपयोग ये सभी शब्द एक ही अर्थ के वाचक है। 

ध्यान की व्युत्पत्ति—

 ‘‘ध्यैचिन्तायाम्’’ धातु से ध्यान शब्द बनता है। तथा जिसका अर्थ होता है चिन्तन/ एक विषय में चिन्तन का स्थिर करना ध्यान है। आत्मा जिस परिणाम से पदार्थ का चिन्तवन करता है। उस परिणाम को ध्यान कहते हैं यह कारण साधन की अपेक्षा ध्यान शब्द की निरुक्ति है। आत्मा का जो परिणाम पदार्थों का चिन्तवन करता है उस परिणाम को ध्यान कहते हैं। कृतवाच्य की अपेक्षा ध्यान शब्द की निरुक्ति है, क्योंकि, जो परिणाम पहले आत्मास्वरूप कर्ता के परतंत्र होने के कारण कहलाता है वही अब स्वतन्त्र होने से कर्ता कहा जाता है। और भाववाच्य की अपेक्षा करने पर चिन्तवन करना ही ध्यान की निरूक्ति है। इस प्रकार शक्ति भेद से ज्ञानस्वरूप आत्मा के एक ही विषय के तीन भेद होना उचित ही है। व्याकरण में कितने ही शब्दों की निरुक्तिकरण साधन, कर्तृसाधन और भावसाधन की अपेक्षा तीन—तीन प्रकार से की जाती है। जहाँ करण मुख्यता होती है उसे करण साधन कहते हैं, जहाँ कर्ता की मुख्यतया होती है। उसे कर्तृसाधन कहते हैं और जहाँ क्रिया की मुख्यता होती है उसे भावसाधन कहते हैं जहाँ आचार्य ने आत्मा, आत्मा के परिणाम और चिन्तनरूप क्रिया में नय विवक्षा से भेदाभेद रूप की विवक्षा कर एक ही ध्यान शब्द की जीनों साधनों द्वारा निरुक्ति की है, जिस समय में आत्मा और परिणाम में भेद विवक्षा की जाती है। उस समय आत्मा जिस परिणाम से ध्यान करे वह परिणाम ध्यान कहलाता है। ऐसी करणसाधना से निरुक्ति होती है और जहाँ आत्मा तथा उसके प्रदेशों में होने वाली ध्यान रूप क्रिया में अभेद माना जाता है। उस समय ध्यान कहलाता है ऐसी भावना से निरुक्ति सिद्ध होती है। 

ध्यान के विविध रूप

आचार्य देवसेन ने भावसंग्रह आराधनासार आदि में ध्यान के विविध भेद किये हैं— उनमें सदभावशून्य और असदभावशून्य को ध्यान में विशेष महत्व दिया है— जो ध्याता भव्यात्मा अनंत ज्ञान, अनंत दर्शन, अनंत सुख, अनंत वीर्य, इन अनंत चतुष्टय लक्षण कार्य समयसार के उत्पादक विशुद्धता समाधि परिणाम से परिणत कारण समयसार के द्वारा अपने अंत:करण को अंतरंग में लीन करता है मन को निर्वकल्प करता है, वह कर्मशत्रुओं का संहार करके केवलज्ञान रूपी विभूति का भोक्ता होता है। सद्भाव से शून्य वस्तु टंकोत्कीर्ण परमानंद अद्वितीय रूप स्वस्वभाव से जो ध्याता शून्य हो जाता है वह आकाश के कल के समान मिथ्यात्व रूप हो जाता है अर्थात उसका अभाव हो जाता है इसलिए अमंद चिदानंद आत्मा से उत्पन्न निरूपम सुखामृत रस के पिपासु क्षपक को विशुद्ध स्वआत्मा में सावधान होना स्वकीय मन को स्वस्वभाव में स्थिर करना सद्भाव से शून्य ध्यान की अवस्था है। शून्य ध्यान में प्रविष्ट योगी की अवस्था शून्य ध्यान में प्रविष्ट योगी रस—विरस हो जाते हैं वार्तालाप नष्ट हो जाता है अर्थ कथा—कौतुक—गोष्ठी—विघट जाती है। विषय वासना क्षीणा हो जाती है तथा उस योगी की शरीर में भी प्रीति नष्ट हो जाती है। वचन भी मौन धारण कर लेते हैं निरन्तर आनंद स्वरूप स्वात्मा की चिन्ता में अर्थात् स्वात्म चिन्तन में मन भी सर्वदोषों के साथ मृत्यु को प्राप्त होना चाहता है अर्थात् निर्वकल्प ध्यान में मन, वचन, काय की सारी क्रियायें निश्चल हो जाती है। 

शून्य ध्यान :

जत्थण क्षाणं क्षेयं क्षायरो णेन चिंतणकिम्पी।
ण य धारणा वियप्पो तं सुण्णं सुट्ठु भाविज्ज।।
 
अर्थात् जिसमें ध्यान ध्याता और धारणा का विकल्प नहीं जहाँ आर्त, धर्म, और शुक्ल को भेद नहीं जिन, बुद्ध, विष्णु आदि अनेक प्रकार ध्येय का विकल्प नहीं तथा ध्याता—देव, शास्त्र, गुरु भक्त, सत्यव्रतधारी, शील, दया आदि युक्त ध्यान के स्वरूप को जानने में दक्ष, बीज पदों की अवधारणा करने वाला ध्याता होता है परन्तु जहाँ ध्याता का भी विकल्प न हो जिसमें शुक्ल पीत कृष्णादि का शत्रु के बन्धनादि का तथा स्त्री या राजा की अधीनता आदि का चिन्तन नहीं है कालान्त में ‘‘नहीं भूलना’’ रूप धारणा भी जिस अवस्था में नहीं है तथा असंख्यात लोक प्रमाण जो मानसिक विकल्प है उन का जहा। अभाव हो ऐसी र्नििवकल्प समाधि लक्षण शून्य ध्यान है। इसी प्रकार आचार्य अमृतचन्द्र ने समयसार कलश में कहा है जो ज्ञानी होकर निवास करते हैं, जिनका विकल्प जानने से चित्त शांत हो गया है वे ही ज्ञानी मानव साक्षात स्वानुभाव रूप अमृत का पान करते हैं। जब तक कुछ भी पक्षपात रहता है तब तक चित्त का क्षोभ नहीं मिटता। नय संबंधी पक्षपात का विकल्प जब दूर हो जाता है तभी वीतराग दशा को प्राप्त होकर स्वरूप में प्रवृत्ति होती है और अतीन्द्रिय सुख का अनुभव होता है। 

ध्यान भेद विश्लेषण :

 आगमग्रंथों में ध्यान के चार प्रकारों का प्रमुखता से वर्णन मिलता है। आर्त ध्यान, रौद्र, ध्यान, धर्म ध्यान, शुक्ल ध्यान। आर्त और रौद्र ध्यान अशुभ रूप होने से अप्रशस्त ध्यान है अप्रशस्त ध्यान संसार के कारण है और प्रशस्त ध्यान मोक्ष के कारण है। धवला टीका में ध्यान के दो भेदों का निर्देश किया गया है

 
‘‘झाणं दुविह—घम्मझाणं सुक्कज्झाणमिदि।’’
 
अर्थात् धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान आर्त और रौद्र इन दो भेदों को स्वीकार नहीं किया गया है। आचार्य उमास्वामी, आ. पूज्यपाद आत्र वट्टकर, आचार्य अमितगति आदि आचार्यों ने ध्यान के पूर्वोक्त चार भेदों को ही स्वीकार किया है परन्तु आचार्य देवसेन ने उक्त ध्यानों के साथ पिंडस्थ, पदस्थ आदि चार भेदों को स्वीकार किया है भाव संग्रह में पंचम गुणस्थान के स्वरूप वर्णन में आर्त, रौद्र ध्यान के साथ भद्र ध्यान भी बताया। आचार्य अमृतचन्द्र सूरि ने ध्यान के चार प्रकारों का वर्णन करके अंत के दो ध्यानों को नय का अंग माना है। आचार्य पूज्यपाद ने आर्तरौद्र के त्याग एवं धर्मशुक्ल ध्यान की उपासना करने के लिए कहा है—
 
तदध्यान रौद्रमार्त वा यदैहिक फलार्थिनां तस्मादेतत्यपरित्यज्य धम्र्य शुक्लमुपास्यमातं

ध्यान के अन्य प्रकार—

ध्यान के एक भेद से लेकर कई भेद किये गये हैं। आचार्य देवसेन ने सर्व इन्द्रिय व्यापार के निग्रह को महत्त्व देते हुए कहा ध्यान वह प्रक्रिया है जिसमें एक ही पदार्थ का चिंतन होता है अन्य का नहीं। वहीं ध्यान नाना विकल्पों से युक्त होकर चतुर्विधरूप को प्राप्त करता है जिसे आचार्य ने पिंडस्थ, रूपस्थ पदस्थ और रूपातीत कहा है। 

१. पिंडस्थध्यान :—

 पिंड का तात्पर्य है शरीर उस शरीर के मध्य में विराजमान अपने आत्मा का ध्यान करना तथा वह अपना आत्मा अत्यन्त शुद्ध है उसमें से सफेद किरणें निकल रही है और वह अत्यन्त दैदीप्यमान हो रहा है इस प्रकार अपने आत्मा का चिन्तवन करना पिंडस्थ ध्यान है। 

२. रूपस्थ ध्यान :—

पिंडस्थ ध्यान में स्वशरीर में स्थित अपने ही शुद्ध निर्मल आत्मा के ध्यान को पिंडस्थ ध्यान कहा है। परन्तु रूपस्थ ध्यान में शरीर के बाहर स्वशुद्ध निर्मल अत्यन्त दैदीप्यमान और शुद्ध स्वभाव आत्मा का ध्यान करना रूपस्थ ध्यान है। इस रूपस्थ ध्यान के दो भेद है। १. स्वागम आत्मा का ध्यान २. परगत आत्मा का ध्यान जहाँ पर पंचपरमेष्ठी का ध्यान किया जाता है वह ध्यान परगत रूपस्थ ध्यान है। अत्यंत दैदीप्यमान निर्मल आत्मा अपने ही आत्मा के द्वारा अपने ही शरीर के बाहर ध्यान किया जाता है वह रूपस्थ ध्यान है। 

३. पदस्थ ध्यान :—

भगवान जिनेन्द्र की पूजन करना समोसरण में विराजमान अष्ट प्रतिहार्य सहित अन्नत चतुष्टय सहित भगवान अरिहंत परमेष्ठी का ध्यान करना वह पदस्थ ध्यान है। पंच परमेष्ठी के वाचक एक पद के मंत्र का जप करना पदस्थ ध्यान है। यह पदस्थ ध्यान कर्मों के नाश करने का साधन है। परमेष्ठीवाचक पैंतीस, सोलह, छप्पन, चवालीस, दो, एक अक्षर वाले मंत्रों के जाप को आचार्य नेमिचन्द्र ने ध्यान योग्य कहा है।

पणतीस—सोल—छप्पन, चदु—चतु, मेगं च जवह झाएह।
परमेद्विवाच—याणं, अण्णं च गुरु—वएसेण।।

४. रूपातीत ध्यान :—

जहाँ न शरीर में स्थित शुद्धात्मा का चिंतन होता है, न शरीर के बाहर शुद्धात्मा का ध्यान होता है न स्वगत आत्मा का ध्यान, न परगत परमेष्ठी का ध्यान किन्तु आलम्बन के किसी पदार्थ का ध्यान होता है अपने चित्त को अन्य समस्त चिंतनो से हटकर किसी एक पदार्थ में लगता है वहाँ रूपातीत ध्यान होता है। रूपातीत ध्यान करने वाला योगी अपने आत्मा को अपने ही आत्मा में लीन कर लेता है। जहाँ ध्यान में इन्द्रियों के समस्त विकार नष्ट हो जाते हैं रागद्वेष का अभाव हो जाता है वहाँ रूपातीत ध्यान होता है। ध्यान वस्तु की एकाग्रता से होता है, जो चित्त का निरोध करता है, चंचलता हटाता है इसलिए उसे १ अनुप्रेक्षा ध्यान २ चिंताधयान ३ भावनाध्यान ४ चित्त ध्यान कहा है। चित्त के परिणामों की स्थिरता से व्यक्ति बारहवें गुणस्थान तक जा सकता है इसी अभिप्राय को आत्मतत्व कहा है। आवश्यक क्रियाएं भी चित्त की एकाग्रता से होती है, जो गुणों को बढ़ाता है प्रमाद नष्ट करता है तथा उसी से निसंग, निर्मोह, निर्गत, दृढ़काय स्थिर चित्त आदि होता है। शुभ पदार्थ से शुभ चिंतन होता है और अशुभ से अशुभ चिंतन होता है जिसे सत और असत् भी कहा जाता है इष्ट और अनिष्ट भी कहते हैं शुभ प्रशस्त होता है अशुभ अप्रषस्त होता है। उस दृष्टि से शुभ और अशुभ दो प्रकार का ध्यान कहा गया है। कर्म क्षय की प्रक्रिया यही है। देवपूजा गुरू उपासना आदि कायिक क्रियायें शुभ हैं। प्राणियों को मारना आदि अशुभ है। देव, शास्त्र, गुरु आदि के गुणों का स्मरण करना मानसिक शुभ क्रिया है और रागद्वेष के वशीभूत होकर किसी के वध आदि का चिंतन करना अशुभ क्रिया है। देव, शास्त्र, गुरू की स्तुति करना वाचनिक शुभ क्रिया है और मिथ्या भाषण, निन्दा आदि करना अशुभ वचन क्रिया है। इन क्रियाओं से ज्ञानधारा शून्य हो जाना निर्विकल्प ध्यान है।

ध्यान भेद वर्गीकरण :—

ध्यान अप्रशस्त ध्यान प्रशस्त ध्यान आर्तध्यान रौद्रध्यान धर्मध्यान शुक्लध्यान इष्टवियोग हिंसानन्द आज्ञाविचय प्रथकत्ववितर्वविचार अनिष्टसंयोग मृषानन्द विपाकविचय एकत्ववितर्वâअविचार पीडाचिंतन चौर्यानन्द विपाकविचय सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति निदान विषय संरक्षानंद संस्थानविचय व्युपरतक्रियानिर्वित विभिन्न आगम ग्रंथों के अध्ययन से सिद्ध होता है कि ध्यान क आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल ये चार ही प्रमुख भेद हैं एवं इन ध्यानों के चार—चार भेद हैं। विषय विस्तार की दृष्टि से जिनका विस्तार स्वतंत्र आलेख के रूप में अपेक्षित है। 

ध्यान का फल :—

मोहनीय कर्म का पूर्णरूप से उपशम करना अर्थात् मोहनीय कर्म को पूर्णत: दबा देना धर्मध्यान का फल है। धर्म ध्यान के माध्यम से सम्पूर्ण मोहनीय कर्म के उपशम हो जाने पर उसमें स्थित रखना पृथकत्व वितर्क विचार नामक प्रथम शुक्ल ध्यान का कार्य है। क्षपकश्रेणी की अपेक्षा मोहनीय कर्म का संपूर्ण नाश करना धर्म ध्यान का फल है। तीनों घतियाँ कर्मों का समूल नाश करना एकत्व— वितर्क विचार शुक्ल ध्यान का फल हैं राग—द्बेष से रहित योगी पुरुषों ने ध्यान के तीन फल बताये हैं—

(१) वर्तमान भव संबंधी फल
(२) परलोक संबंधी फल
(३) संपूर्ण कर्मों का नाश होना अंतिम फल है।
 
(१) इहलोक संबंधी फल :—  ध्यान की शक्ति से अनेक प्रकार के अतिशय प्राप्त हो जाते हैं। हजारों कोस दूर के पदार्थ देख लेना, दूर के शब्द सुन लेना आदि के रूप में इन्द्रिय ज्ञान की वृद्धि हो जाती है एवं आदेश करने की शक्ति भी प्रकट हो जाती हैं मतिज्ञान, श्रुतज्ञान की प्राप्ति अवधिज्ञान, मन: पर्ययज्ञान एवं ज्ञान की पूर्णता ध्यान का ही फल है। समस्त ऋद्धियाँ प्राप्त हो जाती है यतिपूजा भी होने लगती है एवं केवलज्ञान होने पर जिनपूजा का प्राप्त होना यह सब इह लोक संबंधी ध्यान का फल है।
 
(२) परलोक संबंधी फल :—स्वर्गों में जाकर इन्द्र पद की प्राप्ति, अहमिन्द्र पद की प्राप्ति होना और लोकान्तिक पद की प्राप्ति होना आदि ध्यान का परलोक संबंधी फल है।
 
(३) संपूर्ण कर्मों का नाश होना :—औदारिक आदि पाँचों शरीरों का नाश हो जाना, सिद्ध स्वरूप की प्राप्ति हो जाना, अनन्त वीर्य की प्राप्ति हो जाना, सम्यक्त्व, ज्ञान, वीर्य, सूक्ष्मत्व, अगुरुलघुत्व, अव्याबाध दर्शन इन आठ गुणों की प्राप्ति हो जाना और लोक शिखर के अग्रभाग पर जाकर स्थिर हो जाना यह सब ध्यान का सर्वोत्कृष्ट फल है ऐसा भगवान जिनेन्द्र देव ने कहा। आचार्य देवसेन ने लिखा है कि भव्य तू इस संसार क क्लेशों को नष्ट करने के लिये ज्ञानरूप अमृत रस का पान कर और संसार रूप समुद्र को पार करने के लिए इस ध्यान रूपी जहाज का आश्रय ले।

Tags: Meditation
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