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नाभिगिरि पर जिनमंदिर

February 11, 2017Books, स्वाध्याय करेंjambudweep

नाभिगिरि पर जिनमंदिर


हेमवदस्स य रुंदा चालसहस्सा य ऊणवीसहिदा।

तस्स य उत्तरबाणो भरहसलागादु सत्तगुणा१।।१६९८।।

अवसेसवण्णणाओ सरिसाओ सुसमदुस्समेणं पि।

णवरि यवट्ठिदरूवं परिहीणं हाणिवड्ढीहि।।१७०३।।

तक्खित्ते बहुमज्झे चेट्ठदि सद्दावणि त्ति णाभिगिरी।

जोयणसहस्सउदओ तेत्तियवासो सरिसवट्टो।।१७०४।।

१०००। १०००। सव्वस्स तस्स इगितीससयाइं तह य बासट्ठी।

सो पल्लसरिसठाणो कणयमओ बट्टविजयड्ढो।।१७०५।।

एक्कसहस्सं पणसयमेक्कसहस्सं च सगसया पण्णा।

उदओ मुहभूमज्झिमवित्थारा तस्स धवलस्स।।१७०६।।

१०००। ५००। १०००। ७५०। पाठान्तरम्।

मूलोवरिभाएसुं सो सेलो वेदिउववणोहि जुदो।

वेदीवणाण रुंदा हिमवंतणग व्व णादव्वा।।१७०७।।

बहुतोरणदारजुदा तव्वणवेदी विचित्तरयमणमई।

चरियट्टालियविउला णच्चंताणेयधयवडालोया।।१७०८।।

.तग्गिरिउवरिमभागे बहुमज्झे होदि दिव्वजिणभवणं।

बहुतोरणवेदिजुदं पडिमाहि सुंदराहि संजुत्तं।।१७०९।

।उच्छेहप्पहुदीसुं संपहि अम्हाण णत्थि उवदेसो।

तस्स य चउद्दिसासुं पासादा होंति रयणमया।।१७१०।।

सत्तट्ठप्पहुदीहि भूमीहिं भूसिदा विचित्ताहिं।

धुव्वंतधयवडाया णाणाविहरयणकयसोहा।।१७११।।

बहुपरिवारेहि जुदो सालीणामेण वेंतरो देओ।

दसधणुतुंगो चेट्ठदि पल्लमिदाऊ महादेहो।।१७१२।।

पउमद्दहाओ उत्तरभागेसुं रोहिदास णाम णदी।

बेकोसेहि अपाविय णाभिगिरिं पच्छिमे वलइ।।१७१३।।

बे कोसे वि य पाविय अचलं तं वलिय पच्छिमाहिमुहा।

उत्तरमुहेण तत्तो कुडिलसरूवेण एत्ति सा सरिया।।१७१४।।

गिरिबहुमज्झपदेसं णियमज्झपदेसयं च कादूणं।

पच्छिममुहेण गच्छइ परिवारणदीहि परियरिया।।१७१५।।.

अट्ठावीससहस्सा परिवारणदीण होदि परिमाणं।

दीवस्स य जगदिबिलं पविसिय पविसेदि लवणवारिणिहि।।१७१६।।

नाभिगिरि पर जिनमंदिर

हैमवत क्षेत्र का विस्तार उन्नीस से भाजित चालीस हजार योजन और उसका उत्तरबाण भरतक्षेत्र की शलाका से सात गुणा है।।१६९८।। ४००००/१९। ३६८४-४/१९। इसका शेष वर्णन सुषमदुषमा काल के सदृश है। विशेषता केवल यह है कि वह क्षेत्र हानि-वृद्धि रहित होता हुआ अवस्थितरूप अर्थात् एक सा है।।१७०३।।

इस क्षेत्र के बहुमध्य भाग में एक हजार योजन ऊँचा और इतने ही विस्तार वाला सदृश गोल शब्दावनि (शब्दवान्) नामक नाभिगिरि स्थित है।।१७०४।।

१०००।१०००। उन सब पर्वत की परिधि इकतीस सौ बासठ योजनप्रमाण है। यह पर्वत पल्य (कुशूल) के सदृश आकार वाला कनकमय वृत्त विजयाद्र्ध है।।१७०५।।

उस धवल पर्वत की ऊँचाई, मुखविस्तार, भूविस्तार और मध्यविस्तार क्रम से एक हजार, पाँच सौ, एक हजार और सात सौ पचास योजनप्रमाण है।।१७०६।।

उत्सेध १०००। मुखवि. ५००। भूवि. १०००। मध्यवि. ७५०। पाठान्तर। वह पर्वत मूल और उपरिम भागों में वेदी एवं उपवनों से संयुक्त है। वेदी और वनों का विस्तार हिमवान् पर्वत के समान ही जानना चाहिए।।१७०७।।

उस पर्वत की वनवेदी बहुत तोरणद्वारों से संयुक्त, विचित्र रत्नमयी, मार्ग व अट्टालिकाओं से विपुल और नाचती हुई अनेक ध्वजापताकाओं से आलोकित है।।१७०८।।

उस पर्वत के ऊपर बहुमध्यभाग में अनेक तोरण व वेदियों से युक्त और सुन्दर प्रतिमाओं से सहित दिव्य जिनभवन है।।१७०९।।

इस जिनभवन की ऊँचाई आदि के विषय में इस समय हमारे पास उपदेश नहीं है। जिनभवन के चारों ओर रत्नमय प्रासाद हैं।।१७१०।।

ये प्रासाद सात-आठ इत्यादि विचित्र भूमियों से भूषित, फहराती हुई ध्वजापताकाओं से संयुक्त और नाना प्रकार के रत्नों से शोभायमान हैं।।१७११।।

वहाँ पर दश धनुष ऊँचा, एक पल्यप्रमाण आयु से सहित और महान् शरीर का धारक शाली नामक व्यन्तरदेव बहुत परिवार से युक्त होकर रहता है।।१७१२।।

रोहितास्या नामक नदी पद्मद्रह के उत्तरभाग से निकलकर नाभिगिरि पहुँचने से दो कोस पूर्व ही पश्चिम की ओर मुड़ जाती है।।१७१३।।

वह नदी दो कोस से पर्वत को न पाकर अर्थात् पर्वत से दो कोस पूर्व ही रहकर पश्चिमाभिमुख हो जाती है। इसके पश्चात् फिर उत्तराभिमुख होकर कुटिलरूप से आगे जाती है और पर्वत के बहुमध्य प्रदेश को अपना मध्यप्रदेश करके परिवार नदियों से युक्त होती हुई पश्चिम की ओर चली जाती है।।१७१४-१७१५।।

इसकी परिवारनदियों का प्रमाण अट्ठाईस हजार है। इस प्रकार यह नदी जम्बूद्वीप की जगती के बिल में होकर लवणसमुद्र में प्रवेश करती है।।१७१६।। २८०००।

Tags: Madhyalok Jinmandir
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