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नारी की गरिमा!

July 6, 2017कहानियाँjambudweep

नारी की गरिमा



संसार की सृष्टि में स्त्री और पुरुष दो अंग हैं, जैसे-कुम्भकार के बिना चाक से बर्तन नहीं बन सकते अथवा कृषक के बिना पृथ्वी से धान्य की फसल नहीं हो सकती उसी प्रकार स्त्री पुरुष दोनों के संयोग के बिना सृष्टि की परंपरा नहीं चल सकती। इतना सब कुछ होते हुए भी नारी का दायित्व कुछ और ही है। वह क्या है ? उसी पर कुछ प्रकाश डाला जाता है। आज जब घर में कन्या का जन्म होता है तब घर वाले ही क्या अड़ोस-पड़ोस के लोग भी यही सोचने लगते हैं कि यह क्या बला आ गई ? उसका मूल कारण है दहेज, इस दहेज प्रथा ने कितने अनर्थों को जन्म दिया है, सब प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर हो रहा है। एक समय था जब कन्या को सबसे श्रेष्ठरत्न और उनके माता-पिता को सबसे श्रेष्ठ रत्नाकर माना जाता था। देखिये पूर्वाचार्यों के वाक्य- ‘‘कन्यारत्नात् परं नान्यद्।’’ कन्या रत्न से बढ़कर अन्य कोई रत्न नहीं है तथा-
रत्नाकरत्वदुर्गर्वमम्बुधि: श्रयते वृथा। कन्यारत्नमिदं यत्र तयोरेतद् विराजते१।।२९८।।
यह समुद्र अपने रत्नाकरत्व नाम के खोटे अभिमान को व्यर्थ ही धारण कर रहा है क्योंकि जहां इस कन्यारत्न ने जन्म लिया है ऐसे उसके माता-पिता ही सच्चे रत्नाकर ‘रत्नों की खान’ होते हैं। यह बात सुलोचना के स्वयंवर के प्रसंग पर श्री गुणभद्राचार्य ने कही है। वास्तव में जहां एक कन्या के स्वयंवर के समय करोड़ों राजा महाराजा आकर उपस्थित होते थे और सबके मन में यही आशा रहती थी कि यह कन्या मेरे गले में वरमाला डाले। इस विषय में सुलोचना, सीता, द्रौपदी आदि के प्रत्यक्ष उदाहरण आबाल-गोपाल प्रसिद्ध ही हैं लेकिन आज सर्वथा उसके विपरीत स्थिति देखने को मिलती है। कन्याओं के जन्म को हीन दृष्टि से देखने का मूल कारण जो दहेज है, उसका कैसे निर्मूलन किया जाए ? इस पर महिलाओं को सक्रिय कदम उठाना चाहिए। महिलाएँ ही महापुरुषों की जननी हैं, तीर्थंकर जैसे नर रत्नों को भी जन्म देने का सौभाग्य महिलाओं ने ही प्राप्त किया है। यही कारण है कि महामुनियों ने भी उनकी प्रशंसा में बहुत कुछ कहा है। श्री मानतुंगाचार्य के शब्दों से स्पष्ट है-
स्त्रीणां शतानि शतशो जनयन्ति पुत्रान्। नान्या श्रुतं त्वदुपमं जननी प्रसूता।।
सर्वा दिशो दधति भानि सहस्रश्म्ा। प्राच्येव दिग्जनयतिस्पुरदंशु जालम्।।
हे भगवान्। सैकड़ों स्त्रियाँ सैकड़ों पुत्रों को जन्म देती हैं किन्तु आप जैसे पुत्र को जन्म देने वाली माता विरले ही होती हैं, जो ठीक ही है क्योंकि सभी दिशायें नक्षत्रों को तो जन्म दे सकती हैं किन्तु हजारों किरणों से देदीप्यमान ऐसे सूर्य को एक पूर्व दिशा ही जन्म देती है। पातिव्रत्य धर्म में सीता और मैनासुन्दरी के उदाहरण प्रसिद्ध ही हैं। साथ ही पति को उन्मार्ग से हटाकर सन्मार्ग में लगाने के लिए रानी चेलना का पुरुषार्थ आज की महिलाओं के लिए प्रेरणास्पद उदाहरण है। प्राय: आज की महिलायें पति को प्रसन्न रखने के लिए उनके साथ क्लबों में घूमना व स्वच्छंद प्रवृत्ति करना ही अपना कत्र्तव्य समझ लेती हैं। कोई-कोई महलायें तो पति के साथ रात्रि भोजन ही क्या मदिरापान आदि भी करने लगती हैं। भोगों में ही सुख मानने वाली कुछ महिलायें तो पति को दुव्र्यसनों से नहीं रोकती हैं किन्तु धर्म, कार्यों से, गुरुओं के पास जाने से अवश्य रोक देती हैं। आज कितने ही ऐसे उदाहरण हैं, जो कि देखने में आते हैं। सचमुच में ऐसी महिलाओं को ही आचार्य ने दुर्गति का द्वार बतालाया है। यथा-
शरणमशरणं वो बंधवो बंधमूलं,चिरपरिचितदारा द्वारमापदगृहाणाम्१।।६०।।
जिस घर को शरण समझते हैं वह अशरण है, बंधुवर्ग बंधन के मूल कारण हैं और चिरकाल से परिचित भी स्त्रियां आपत्ति के घर का द्वार हैं, ये वाक्य श्रीगुणभद्रसूरि के हैं किन्तु शीलवती महिलायें इससे विपरीत हैं। सन्मार्गदर्शिका भी देखी जाती हैं। महिलाओं का अपनी संतान के प्रति भी क्या कत्र्तव्य है ? वास्तव में जो महिलायें सुशिक्षित हैं वे अपनी संतान को सुयोग्य संधि में ढाल सकती हैं क्योंकि माताओं की गोद ही बच्चों के लिए प्रारम्भिक पाठशाला है। माताएँ बच्चों को प्रारम्भ से ही लाड़-प्यार के साथ धर्म की घुट्टी पिलाकर सुसंस्कारों से हष्ट-पुष्ट बना सकती है। जब बच्चे कुछ समझने और बोलने लग जायें तब उन्हें महामंत्र सिखाना, अच्छे-अच्छे धार्मिक भजनों की पंक्तियाँ रटाना, जैसे-जैसे वे ३-४ वर्ष के होते जायें उन्हें छोटी-छोटी शिक्षाप्रद कथायें सुनाना, धार्मिक पाठशाला में कुछ न कुछ धर्म शिक्षा दिलाते रहना ही बच्चों को सुसंस्कारित करना है। किशोरावस्था में उन्हें कुसंगति से बचाना, मंदिर मे जाने की प्रेरणा देते रहना, गुरुओं के पास ले जाना, तीर्थयात्राओं की वंदना कराते रहना उनके जीवन में सद्विचारों के बीजारोपण करना है। खासकर ग्रीष्मावकाश में बालक-बालिकाओं को गुरुओं के पास, धर्मशाला में धार्मिक शिक्षा दिलाना, धार्मिक पढ़ाई में, शिक्षण शिवरों में भाग दिलाना छुट्टी के दिनों का बहुत बड़ा सदुपयोग है। युवकों को धर्म कक्षाओं के माध्यम से चारित्रवान बनाना है। मर्यादा पुरुषों में रामचन्द्रजी, जंबूकुमार, अकलंक-निकलंक आदि महापुरुषों के आदर्श बालकों के समक्ष पुन:-पुन: कहते रहने से उनमें वैसे ही बनने के संस्कार सहज ही हो सकते हैं। कन्याओं की शील की सुरक्षा कैसे रहे ? इस पर भी उनके माता-पिता को सावधान रहना चाहिए। छोटी-छोटी बालिकाओं को कुसंगति से बचाना, युवक नौकरों को घर में न रखना, अश्लील उपन्यास पढ़ने से, अश्लील सिनेमा आदि देखने से दूर रखना चाहिए। प्राचीन काल में भी राजघरानों में तथा सभ्य घरानों में वृद्ध कंचुकी नौकर रहते थे। जिससे कन्याओं की ही नहीं बल्कि महिलाओं के भी शील की सुरक्षा बनी रहती थी। सहशिक्षा की प्रणाली कदापि श्रेयस्कर नहीं है फलस्वरूप कुछ न कुछ अघटित घटनायें होती ही रहती हैं, किशोरावस्था की बालिकाओं को यदि युवक अध्यापक पढ़ाने आते हैं तो कदाचित् उनके शील के अपहरण का प्रसंग भी आ सकता है। अश्लील कहानियों और चलचित्रों का कुप्रभाव कोमल और सरल मस्तिष्क को विकृत बनाये बगैर नहीं रखता है। कन्या विवाह के बाद गृहस्थाश्रम में प्रवेश कर माता बनती है। जिस प्रकार से कोयले की खान से कोयला और हीरे की खान से हीरा निकलता है उसी प्रकार अच्छे संस्कारों से संस्कारित शीलवती माता से अच्छे-अच्छे नररत्न और कन्यारत्नों का जन्म होता है। दुराचारिणी माता की संतान कभी भी अच्छी नहीं मानी जा सकती है। कुछ प्राकृतिकसृष्टि की व्यवस्था ही ऐसी है। चक्रवर्ती, अर्धचक्रवर्ती आदि महापुरुषों के अनेक रानियां होती हैं किन्तु यदि कोई महिला अनेक पुरुष से समागम करती हो तो वह स्वयं यह निर्णय नहीं दे सकती है कि इस मेरे पुत्र का पिता कौन है ? यही कारण है कि अपने यहाँ भारतीय संस्कृति में महिलाओं के लिए एक पति ही माना गया है। वैसे यह विषय अति सूक्ष्म है। विशेष जिज्ञासु महिलाओं को अपने धर्मगुरु व गुर्वानियों के पास में इस विषय को समझना चाहिए इसीलिए पुन: विवाह, विधवा विवाह, विजातीय विवाह आदि परंपरायें संस्कृति से बाहर हैं। शीलवती नारियां मनुष्यों से ही नहीं देवों से भी पूज्यता प्राप्त कर लेती हैं शील के प्रभाव से अग्नि का जल हो जाना, नाग का हार हो जाना, वज्र के फाटक खुल जाना आदि उदाहरण मात्र कल्पनायें नहीं हैं। यह नियम है कि पंचमकाल के अंत तक भी शीलवती महिलायें रहेंगी और आगे के छठे काल में भी उनकी परंपरा चल सकेगी। पुनरपि आने वाले चतुर्थकाल में उन्हीं शीलवती महिलाओं के वंश में तीर्थंकर आदि महापुरुष जन्म लेंगे। यह तो सब एकदेश ब्रह्मचर्य अणुव्रत की महत्ता है। ऐसी ब्रह्मचर्याणुव्रत करने वाली महिलायें गृहस्थाश्रम में रहने वाली देवपूजा, स्वाध्याय आदि करते हुए धर्म की परंपरा को अक्षुण्ण रखती हैं। अनंतर सखना से मरण करके सम्यक्त्व और अणुव्रत के प्रभाव से स्त्रीलिंग को छेदकर सौधर्म आदि स्वर्गों में देव हो जाती हैं। कालांतर में पुरुषलिंग प्राप्त कर जैनेश्वरी दीक्षा लेकर मोक्ष प्राप्त कर लेती हैं। जो महिलायें पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत पालन करती हैं। व्रत, प्रतिमा आदि व्रतों से अपने शरीर को अलंकृत करती हैं। क्षु¼का अथवा आर्यिका बन जाती हैं वे महिलायें ब्राह्मी-सुंदरी के समान सर्वजनों में पूज्य हो जाती हैं। चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण आदि महापुरुष भी उनकी पूजा करते हैं, उन्हें आहारदान आदि देकर अपने को धन्य मानते हैं। इन्द्र भी उनके चरणों की वन्दना करते हैं। इस प्रकार से वे स्त्रियाँ सर्वश्रेष्ठ आर्यिका पद मे तीनों लोकों में वंद्य हो जाती हैं। आज भी चंदनबाला, अनंतमती जैसी कन्यायें हैं। सीता, मैना, मनोरमा जैसी पतिव्रता है, चेलना जैसी कर्तव्यपरायणा है और ब्राह्मी, सुन्दरी के पदचिह्नों पर चलने वाली आर्यिकायें हैं, हमारी बहनों को उनसे शिक्षा लेनी चाहिए। प्रतिवर्ष एक माह नहीं तो कम से कम एक सप्ताह उनके सानिध्य में जाकर उनसे कुछ सीखना चाहिए और स्त्री समाज में बढ़ती हुई दहेज प्रथा, सह शिक्षा आदि कुरीतियों को दूर करने में अपने समय, शक्ति और धन को लगाना चाहिए। 
 
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