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निर्माल्य-ग्रहण पाप है!

July 20, 2017विशेष आलेखaadesh

निर्माल्य-ग्रहण पाप है


देव, शास्त्र और गुरु के निमित्त जिस द्रव्य से स्व—स्वामीपना निकल गया है, उसे निर्माल्य द्रव्य कहते हैं। इसके स्थूल रूप से दो भेद हैं— (१) जो द्रव्य देव, शास्त्र, गुरु एवं अन्य किसी प्रकार के धर्मादा के लिए संकल्पित कर दिया गया है अथवा दे दिया गया है, वह निर्माल्य द्रव्य है। (२) जो द्रव्य देव, शास्त्र और गुरु को पूजन आदि में चढ़ा दिया गया है, वह निर्माल्य द्रव्य है। धर्म हेतु दिये हुए द्रव्य का उपयोग करने वालों के प्रति आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी रयणसार में कहते हैं कि—
जण्णुद्धार—पविट्ठा, जिणपूजा, तित्थवंदणं विसेयधणं। जो भुंजइ सो भुंजइ जिणदिट्ठ—णिरयगई दुक्खं।।
श्लोकार्थ —  श्री जिन मन्दिर का जीर्णोंद्धार, जिनबिम्ब प्रतिष्ठा, मन्दिर प्रतिष्ठा जिनेन्द्र—पूजा, जिनयात्रा, रथोत्सव और जिनशासन के आयतनों की रक्षा के लिए प्रदान किये गये दान को जो मनुष्य लोभवश ग्रहण करते हैं अर्थात् उस द्रव्य से भविष्य में होने वाले धर्मकार्य का विध्वंस कर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं, वे मनुष्य नरकगामी होते हैं; ऐसे जिनेन्द्र भगवान ने कहा है। जिनमन्दिर के जीर्णेद्धार हेतु प्राप्त द्रव्य को अपने उपयोग में लेना, जीर्णोद्धार हेतु आए हुए सामान (बल्लियाँ, रस्से, गैंती, फावड़ा आदि) को निजी उपयोग में लेना अथवा पदाधिकारी होने के नाते पदाभिमान के वशीभूत हो अपने इष्टमित्रों एवं सम्बन्धियों को दे देना, जीर्णोद्धार हेतु बोला हुआ रुपया वर्षों तक नहीं देना, इत्यादि अनेक ऐसे कार्य हैं जिनका फल मात्र दुर्गति है। जिनेन्द्र—पूजा के लिए प्रदत्त द्रव्य को पूजन में न लगा कर उसको स्वयं अन्यथा उपयोग कर लेना अथवा विषय भोगों में उसका उपयोग करना दुर्गति का कारण है। शास्त्रों म इसके उदाहरण मिलते हैं। यथा—हरिवंशपुराण सर्ग १८ में अन्धकवृष्टि के पूर्वभावों का वर्णन करते हुए सुप्रतिष्ठ केवली भगवान ने कहा कि वृषभनाथ के तीर्थ में अयोध्या का राजा रत्नवीर्य राज्य करता था। उसके राज्य में बत्तीस करोड़ दीनार का धनी जैनधर्म का परम श्रद्धालु सुरेन्द्रदत्त नाम का सेठ रहता था। उसके मित्र का नाम रुद्रदत्त था। किसी एक दिन सुरेन्द्रदत्त सेठ बारह वर्ष के लिए बाहर जाने को तैयार हुआ। उसने बारह वर्ष तक अष्टमी, चतुर्दशी, अष्टाह्लिका पर्व और चातुर्मासों में विशेष जिन पूजा के लिए उपयुक्त धनराशि रुद्रदत्त को दे दी। सुरेन्द्रदत्त के जाने के बाद रुद्रदत्त ने सब धन सप्त व्यसनों में नष्ट कर दिया, जिस पाप के फल से वह सातवें नरक में गया।देव—
स्वस्य विनाशेन, त्रयिंस्त्रशदु दन्वताम्। समं कालं महादु:ख, प्राप्योद्वत्र्या—भ्रमद् भवे।।१०२।।
श्लोकार्थ —  अर्थात् देवद्रव्य हड़पने से वह रुद्रदत्त तैंतिस सागर पर्यन्त नरक के भयंकर दु:ख भोगकर वहाँ से निकला और संसार में भ्रमण करता रहा। पद्यपुराण में भी निर्माल्य को अंगीकार करना नरक का कारण कहा गया है। तत्वार्थवृत्तिकार (६/२७) ने लिखा है कि—‘देव—नैवेद्य भक्षणम्’ ……..अर्थात् देव को सर्मिपत नैवेद्य का भक्षण करने से अन्तराय कर्म का बन्ध होता है। धार्मिक सम्पत्ति—वर्तमान समय में कुछ लोगों की बुद्धि ऐसी हो रही है कि मन्दिर की सम्पत्ति स्कूल, रात्रि—पाठशाला आदि कार्यों में व्यय कर लेनी चाहिए। इससे छात्रों को छात्रवृत्ति देनी चाहिए और गरीब जैन भाइयों को सहायता देनी चाहिए। इस विषय में चरित्रचक्रवर्ती आचार्य शान्तिसागर महाराज ने कहा था कि ‘‘मन्दिर का द्रव्य उपयुक्त कामो में व्यय करना योग्य नहीं है, क्योंकि जो भी व्यक्ति मन्दिर की सम्पत्ति खायेगा, उसका अहित होगा। मन्दिरों के जीर्णोद्धार के कार्यों में उस द्रव्य का व्यय करो, जिससे धर्म का रक्षण होगा।’’ जिन कुन्दकुन्द स्वामी के प्रति समाज उत्कट भक्ति दिखाकर अपने को कुन्दकुन्दान्वय वाला कहता है तथा ऐसे लेख प्रतिमाओं पर लिखवाता है और प्राचीन प्रतिमाओं पर उत्कीर्ण लेख पढ़ता है, तब यह देखना चाहिए कि उन मर्हिष की वाणी इस विषय में क्या कहती है ? आप रयणसार में कहते हैं कि—
पुत्त—कलत्त—विदूरो, दारिद्दो पंगु—मूक बहिरंधो। चांडालाइ कुजादो, पूजा—दाणाइ—द्रव्य हरो।।३३।।
अर्थात् पूजा दान आदि सम्बन्धी द्रव्य को लेने वाले व्यक्ति स्त्री पुत्र से रहित हो जाते हैं तथा दरिद्र, पंगु, मूक, बघिर, अन्धे और चण्डालादि नीच पर्यायों में उत्पन्न होते हैं। धर्मादा का उपयोग करने वाले जीवों को ऐसे दु:खों से न परिवार बचा सकेगा और न पंचायतों का प्रस्ताव बचा सकेगा? जैनधर्म में कर्मों का फल भोगने में कोई भी सिफारिश काम नहीं आती है, अत: जो व्यक्ति धर्मादा की रकम अपने काम में लेते हैं अथवा लोकोपयोगी कार्यों में लगाने का प्रस्ताव रखकर समाज के बीच विषमता तथा विसंवाद के कारण बने जाते हैं उन्हें मर्हिष कुन्दकुन्द स्वामी की उपर्युक्त चेतावनी पर ध्यान देना चाहिए वरना उन्हें भयंकर विपत्ति भोगनी पड़ेगी। शंका—आचार्यश्री ! अब देवद्रव्य पर सरकार रूपी दृष्टि पड़ गई है, ऐसी स्थिति में उस देवद्रव्य का क्या उपयोग हो सकता है ? समाधान—‘‘अपने ही मन्दिर में उसका उपयोग करने का व्यामोह मन्दिरों पर आत्मीयता का भाव रख कर यदि उनका जीर्णोद्धार तथा पूजन व्यवस्था आदि के छोड़कर और अन्य स्थानों के कमजोर छोड़कर और अन्य स्थानों के कमजोर द्वारा रक्षण करने में द्रव्य का उपयोग किया जाय तो विपत्ति नहीं आयेगी’’ (चारित्रचक्रवर्ती) धर्मादा द्रव्य का उचित उपयोग करने से मनुष्य समृद्ध होता है तथा वैभव सम्पन्न बनता है, किन्तु यदि उसी द्रव्य को स्वयं हजम करने लगे तो उसकी सम्पत्ति को क्षय रोग लग जाता है अर्थात आदमी पनपने नहीं पाता। जिन परिवारों में एवं प्रान्तों में धर्मादा द्रव्य का उपयोग स्वयं के लिये किया जाता है उनकी दरिद्रता देखकर दया आती है। अत: इस विषय में सावधानीपूर्वक प्रवृत्ति रखना श्रेयस्कर है। मानव को आगम से डरना चाहिए लोक मत से नहीं— कभी—कभी बड़े—बड़े व्यापारी लोग धर्मादा के नाम से द्रव्य लेते जाते हैं और उसका उपयोग स्वार्थ—साधनार्थ करते हैं, यह पद्धति अन्यायपूर्ण है। जो द्रव्य परर्मािथक कार्यों के लिए आपके पास है उसके प्रति बेईमानी करना अथवा उस अमानत को खा जाना बहुत बड़ा पाप है। दुर्गति के दु:खों से भयभीत व्यक्तियों का कत्र्तव्य है कि जीर्णोद्धार आदि कार्यों के हेतु जब आवश्यकता विद्यमान है तब उसकी उपेक्षा करके पूर्णतया लौकिक कार्यों में परमार्थ सम्बन्धी द्रव्य का उपयोग करना उन दानियों के प्रति प्रमाणिक व्यवहार के प्रतिकूल है, जिन्होंने कठिन कमाई के उस द्रव्य को मोक्ष मार्ग हेतु अर्पण किया था। पूर्व प्राप्त धर्मादा के द्रव्य को बहुमत के बल पर रत्नत्रय के असाधनों में लगाना अच्छा है या नहीं ? यह श्री कुन्दकुन्दाचार्य कथित परमागम के प्रकाश में स्वयं विचार करना चाहिए और जितेन्द्रिज्ञानुसार प्रवृत्ति कर अपने धर्म की रक्षा करनी चाहिए।

प्रबोधसार तत्व—दर्शन’ में भी कहा है कि

जीर्णोद्धार—प्रतिष्ठा—तीर्थवंदना जिन—पूजार्थ—वित्तम। यद्दन्तमपरेण तं भक्षयति तेन जात नरके।।६६।।
जीर्ण—शीर्ण मन्दिरों की मरम्मत के लिए, जिनबिम्ब प्रतिष्ठा के लिए, संघ—संचालन अथवा तीर्थ यात्रा के लिए जिनमंदिर या जिनबिम्ब के निर्माण के लिए अथवा अभिषेक, पूजा मण्डलविधान एवं आहार—दान आदि के लिए (दातारों के द्वारा) दिये हुए द्रव्य को जो खाता है वह नियम से नरक में जाता है। इतना ही नहीं, वह अन्य दु:ख भी भोगता है। यथा—
कुष्ठंमल—भगन्दर, भस्मक—व्याधिजलोदर—खिसर:। जन्मवने भरति दु:खं, पूजा—दानादि—द्रव्यहर:।।७०।।
अर्थात् जो मनुष्य देव—शास्त्र और गुरु की पूजा, प्रतिष्ठा एवं जीर्णोद्धार आदि के लिए दिया हुआ द्रव्य हड़प जाता है, वह उसी भव में अथवा दूसरे भवों में नियम से कुष्ठ, भगन्दर, भस्मक, जलोदर और खसरा आदि रोगों से पीड़ित रहता है और जन्म—जन्मान्तरों में भी भयंकर दु:खों को भोगता हुआ चारों गतियों में भटकता हैं आचार्य कुन्दकुन्ददेव ने रयणसार में कहा है कि—
खय—कुट्ठ—मुल—सूला लूय—भगन्दर जलोयरक्खि—सिरो। सीदुण्ह—वाहिरादी, पूयादाणंतराय—कम्मपलं।।३६।।
अर्थात् जो दानद्रव्य जिस निमित्त से दिया गया है, उस कार्य में विघ्न उत्पन्न करके उस द्रव्य का स्वयं उपभोग करते हैं, वे क्षय, कुष्ठ, मूल, शूल, वातिक रोग, भगन्दर, जलोदर, नेत्र रोग, सिर रोग और सन्निपात आदि अनेक रोगों से भव—भव में पीड़ित रहते हैं। जीर्णोद्धार आदि के लिए प्राप्त राशि किसी व्यक्ति विशेष के पास रख दी जाती है। लोभकपाय के वशीभूत हो वे उसे अलग नहीं रख पाते और व्यापार आदि में लगा लेते हैं सोचते यही हैं कि पंचों को जब आवश्यकता होगी, दुकान से उठाकर दे देंगे किन्तु समय अपने पर दे नहीं पाते, तब पंचायत में कुछ ऐसी आड़ खड़ी कर देते हैं कि वह कार्य प्रारम्भ हो ही नहीं पाता। इस अन्याय कर्म से उन्हें अनेकों दु:ख भोगने पड़ते हैं। संघ—संचालन के लिए, संघ को तीर्थक्षेत्रों की वन्दना कराने के लिए, पूजा—महोत्सव के लिए, शास्त्र प्रकाशन के लिए पाठशाला या विद्यालय के लिए औषधालय के लिए अनाथाश्रमों और विधवाश्रमों के लिए प्रदत्त दानद्रव्य का जो उपभोग करते हैं अथवा उसमें पेर—फार करते हैं अथवा दूसरों द्वारा प्रदत्त दान यथा स्थान लगाते हुए यह प्रचार करते हैं कि यह द्रव्य मैं व्यय कर रहा हूँ अथवा बिना रसीद काटे पैसा अपनी जेब में रख लेते हैं अथवा दाता की रसीद पर ५००० और रसीद बुक पर ५०० रुपया चढ़ा (लिख) कर ४५०० रुपया हड़प कर जाते हैं अथवा सुरक्षा हेतु रखे हुए मन्दिर जी के उपकरणों पर मन्दिर की दुकान/मकान आदि पर अपना अधिकार कर लेते हैं, या किराया कम कर देते हैं अथवा देते ही नहीं है, उनके प्रति आचार्य कुन्दकुन्द देव कहते हैं कि—
इच्छिदफलं ण लब्भदि, जदि लब्भदि सो भुञ्जदे णियदं। वाहीणमायरो सो, पूयादाणादि द्रव्य—हरो।।३४।।
गद—हत्थ—पाद—णासिय—कण्णउरंगुल विहीण—दिट्ठीए। जो तिव्व—दुक्ख—मूलो, पूयादाणादि द्रव्य—हरो।।३५।।
अर्थात् पूजा, दान आदि द्रव्य का अपहरण करने वाला इच्छित फल को प्राप्त कर नहीं पाता और यदि प्राप्त कर ही लेता है तो उसे भोग नहीं पाता, यह निश्चित है। वह निरन्तर व्याधियों का घर बना रहता है।।३४।। जो पूजा, दान आदि के द्रव्य का अपहरण करने वाला है वह हाथ, पैर नाक, छाती और अंगुली आदि से हीन अर्थात् लूला, लंगड़ा, नकटा या कनफटा तथा विकलांग एवं अंधा होता है और भव—भव में तीव्र दु:खों का भाजन होता है।।३५।। प्रबोधसार तत्व दर्शन में भी ऐसा ही कहा गया है कि—
मूकश्चान्धो बाधिर: दारिद्र—पंगु—चण्डाल—कुलेषु जात:। जननी—जनक—बान्धव:, विनश्यन्ति जन्मकाले।।७१।।
दातारों द्वारा शुभ कार्य हेतु दिये हुए द्रव्य को जो हजम कर लेता है, यह भव भव में मूक, अन्धा, बहिरा, दरिद्री और लंगड़ा होता है। चण्डाल आदि नीच कुल में जन्म लेता है तथा जन्म लेते ही उसके माता—पिता तथा बांधवजन मरण को प्राप्त हो जाते हैं। अत: वह बहुत दु:खों का भाजन बनता है।
नारक—तिर्यग्योनिषु, बहुकाल दु:खं भरति भवार्णवे। विश्रान्ति—मो—क्षणमपि—पूजा दानादि द्रव्य—हरम्।।७२।।
दानद्रव्य ग्रहण करने के फलस्वरूप कोई जीव नरकगति में जाकर अनिर्वचनीय दु:ख भोगते हैं। कोई पृथ्वी—जल—अग्नि और वायुकायिकों में तथा इतर निगोदादि में जन्म लेकर दु:ख भोगते हैं। कोई लट, वेंचुआ, चींटी, मकोड़ा, बिच्छू आदि में कोई भौंरा, मक्खी, मच्छर आदि पर्यायों में, कोई असंज्ञियों में जन्म लेकर असहय दु:ख भोगते हैं। कोई सैनी पन्चेन्द्रिय होकर छेदन—भेदन, ताडन, भारवाहन, शीतांतप और भूख—प्यास के अपरिमित दु:ख भोगते हैं। इसी प्रकार अन्य भी दु:खों के भाजन बन कर संसार—समुद्र डूबते हैं। उस पाप का फल उन्हें एक क्षण की भी विश्रान्ति नहीं लेने देता है। और भी कहा है कि—
सदुर्गन्धं गात्रं प्रभवति नरा दुर पुनरपि। न किञिचद्विश्रान्ति सुलभ—नभवेऽमंगल—मिदम्।।
मुहु—र्भुक्तोच्छिष्टै—र्भरति जठरं मा खलु सुखम्। प्रतिष्ठा—जीर्णोद्धार—धनं हरणाधान्ति मनुजा:।।७४।।
जो दाता द्रव्यदान निकाल कर उस द्रव्य को धर्मक्षेत्र में न लगाकर अपने घर में ही व्यय कर देता है (यथा समाज के बीच में आहार, औषधि या ज्ञानदान के लिए ५०००) की विज्ञप्ति करदी, तत्पश्चात् नहीं दी और माँगने पर कह दिया कि मेरे माता—पिता भी व्रती हैं अथवा विधवा बहिन बीमार है अथवा छोटा भाई गरीब है, उसके बच्चों को पढ़ा रहा हूँ इत्यादि प्रकार से घर में ही आहार, औषधि एवं ज्ञान देकर दान की खातार्पूित कर ली अथवा पिताजी द्वारा मन्दिर में चढ़ाया हुआ स्वर्ण का छत्र आदि ‘‘अपना ही है’’ ऐसा विचार कर घर में रख लेना इत्यादि। दान दी हुई राशि से व्यापार करना, बोली की रकम से ब्याज कमाना, दुकान पर प्रतिदिन धर्मादा निकाल कर जमा करते जाना तत्पश्चात् उसी द्रव्य से कलश आदि बढ़ाने के लिए बोलियाँ ले लेना तथा ग्राहकों से भी धर्मादा लेना, पश्चात् उसे अपने नाम से देना; दान—राशि में इस प्रकार की छल—छिद्रता करने वाला पापी कहलाता है। ऐसा जीव मरण कर दुर्गन्ध शरीर वाला होता है, लोग उसे धिक्कारते रहते हैं। उसके यहाँ नित्य अमंगल और अपशकुन ही होते रहते हैं जिससे वह दिन—रात दु:खी रहता है, एक क्षण भी सुख से नहीं बैठ पाता। जन्म के उपरान्त ही माता—पिता आदि का मरण हो जाने से दूसरों की जूठन खाकर उदर—र्पूित करता है, इस प्रकार के अनेक दु:ख भोगता रहता है। और भी कहते हैं कि—
लभतेऽनिष्ट—संयोगमिष्ट—सयोग—धन—धान्यादि—क्षयम्। यत्रैवं गच्छेत्येव तत्रैवापमानं दृश्यते।।७३।।
द्रव्यदातारों ने सप्त क्षेत्रों१ के लिए जो दान दिया है, उसका अपहरण करने वाला निरन्तर अनिष्टसंयोग को प्राप्त करता है उसे इष्टसंयोग मिलता ही नहीं। किसी भवान्तर के पुण्य से यदि धन—धन्यादि ईष्टसंयोग मिलता ही नहीं। किसी भवान्तर के पुण्य से यदि धन—धनादि ईष्टसंयोग मिल भी जाये तो शीघ्र ही उसे उनके वियोग का दु:ख भोगना पड़ता है अर्थात् वह शीघ्र ही नष्ट हो जाता है। वह जहाँ भी जाता है वहीं उसका अपमान होता है तथा उसे देखते ही लोग घृणा करते हैं संसार के भयंकर दु:खों से भयभीत भव्यजनों को इस निर्माल्य ग्रहण रूपी पाप से अवश्यमेव बचना चाहिए। दानं पूजा च सिद्धान्त—लेखनं सप्तक्षेत्रकम्।
अर्थ —  जन प्रतिमा, जिन मंदिर, तीर्थयात्रा, पञ्चकल्याणक प्रतिष्ठा, आहारादि चारों दान, जिनेन्द्रपूजा और जिनागम प्रकाशन—ये सात क्षेत्र दान देने योग्य हैं। पद्यकृत श्रावकाचार में भी कहा है कि—
देव—शास्त्र—गुरु—पूजा तणो, जे जन खाय निर्माल्य। वंश—छेद रोग पामी ने, नरके दु:ख सहे बाल।।६।।
निर्माल्य खाई जे जीव घणुं, तेहथी रुडुं विषभक्ष्य। एव भवे विष दु:ख देवे, निर्माल्य बहु भव दु:ख।।७।।
भट्टारक सकलर्कीित विरचित सुभाषितावली के ‘निर्माल्यं तज’ शीर्षक के अन्तर्गत कहा गया है—
जनस्याग्रे धृतं येन, फलं तस्मिन् गृहं गते। यो मूढस्तच्च गृहलाति, न विद्यस्तस्य का गति:।।२५१।।
देवशास्त्रगुरूणां भो! निर्माल्यं स्वीकरोति य:। वंशच्छेदं परिप्राप्य, पश्चात् स दुर्गतिं व्रजेत्।।२५२।।
ढौकयेच्च फलं कश्चिद् , भव्यो गृह्याति य: कुधी:। जिनाग्रे तद्धि विं तेन, एवं ज्ञात—मजरामरम्।।२५३।।
रत्नत्रयं समुच्चार्य, गुरुपादौ प्रपूजितौ। पूजयतां च यो गृहान्, प्राधूर्णों दुर्गते: स ना।।२५३।।
जिनेश्वर मुखोत्पन्नं, शास्त्रं केनापि र्अिचतम्। अर्चयतां हि यो गृहणन्, मूकादि—कुजनो भवेत्।।२५५।।
देव—द्रव्येषु यो वृद्धो, गुरू—द्रव्चेषु यत्सुखम्। तत्सुखं कुलनाशाय, भूयोऽपि नरकं व्रजेत्।।२५६।।
अर्थ — जिसने जिनेन्द्र भगवान के आगे फल चढ़ाया, वह अपने घर चला गया। पश्चात् उस फल को जो मूर्ख ग्रहण करता है उसकी क्या गति होती है यह हम नहीं जानते।।२५१।। हे मित्र ! जो देव—शास्त्र—गुरु को निर्माल्य की स्वीकृत करता है, वह वंशच्छेद को पाकर पश्चात् दुर्गति को प्राप्त होता है।।२५२।। कोई भव्य जिनेन्द्रदेव के आगे फल चढ़ाता है, उसे जो मूर्ख ग्रहण करता है, उसने क्या अपने धन को अजर—अमर समझा है ? भावार्थ—निर्माल्य को ग्रहण करने वाले का सब धन नष्ट हो जाता है।।२५३।। किसी ने रत्नत्रय का अच्छी तरह उच्चारण कर गुरु के चरणों की पूजा की। पूजा करने वालों की उस चढ़ाई हुई सामग्री को जो ग्रहण करता है वह मनुष्य दुर्गति का पाहुना होता है।।२५४।। किसी ने जिनेन्द्र भगवान के मुख से उत्पन्न शास्त्र की पूजा की। पूजा करने वाले मनुष्यों की सामग्री को जो ग्रहण करता है, वह गूंगा आदि खोटा मनुष्य होता है।।२५५।। देवद्रव्य रखकर जो मनुष्य वृद्धि को प्राप्त होता है अथवा गुरु का द्रव्य रखकर जो सुख को प्राप्त होता है उसकी वह वृद्धि ओर सुख कुल के नाश के लिए होता है तथा वह मनुष्य तत्पश्चात् नरक को प्राप्त होता है।।२५६।। श्रीमान् हीरालाल जी जैन द्वारा सम्पादित जैन शिलालेख संग्रह के तीन भाग क्रमश: ‘जैन सन् १९२८, १९५२ और १९५७ में श्री मणिकचन्द्र दिगम्बर जैन ग्रंथ माला समिति के प्रकाश्ाित हुए हैं इन तीन भागों में अनुमानत: ६३५० शिलालेखों का वर्णन है जो ईसा पूर्व १५० वर्ष प्राचीन है। शिलालेखों को पढ़ने से ज्ञात होता है कि जिनाभिषेक, पूजन एवं जीर्णोद्धार आदि के लिए (भूमि, खेत, मकान, बाग बगीचा, वूâप, बावड़ी, स्वर्ण, चाँदी एवं रुपया आदि) अचल तथा चल सम्पत्ति का दान देकर पाषाण एवं ताम्रपत्र आदि पर जो दानपत्र लिखे गये हैं, उनमें दान की पूरी विगत लिखने के बाद दान में दी गई अचल—चल सम्पत्ति की रक्षा के लिए विशेष अनुरोध किया गया है। देवालय, धर्मशाला, पाठशाला और औषधालय आदि के खेत, मकान, दुकान आदि अचल सम्पत्ति का तथा स्वर्ण और चाँदी आदि के छत्र, चंवर, चाँदी के उपकरण एवं पूजन के बर्तन, वस्त्र, (धोती, दुपट्टा जाजम आदि) एवं नगद रुपया आदि चल सम्पत्ति का कृत, कारित, अनुमोदना से जो स्वयं भोग करता है अथवा करवाता है (अर्थात् मन्दिर की दुकान, मकान आदि का पर अपना अधिकार कर लेना किराया नहीं देना अथवा किराया कम देना अथवा धर्मशाला या मन्दिर की दुकान आदि का स्वयं कम किरया देना और वही दुकान—मकान दूसरों को किराये पर देकर धनोपार्जन करना। खेत एवं बाग—बगीचे बेच लेना अथवा उनमें उत्पन्न होने वाली वस्तुओं को बेच कर धनोपार्जन करना, अथवा बिना मूल्य दिये उन वस्तु का स्वयं भोग करना। धर्मादा के रुपयों से व्यापार करना, धर्मायतनों का और धर्मशाला के वस्त्र, बर्तन, फर्नीचर तथा बिजली आदि का किराया दिये बिना उपभोग करना अथवा अल्प किराया देना। बोली गयी रकम नहीं देना अथवा अधिक समय में देना। उस रकम से व्यापार करना अथवा ब्याज कमाना, धर्मादा नहीं देना, धर्मायतनों का हिसाब नहीं देना। संघ संचालन के लिए आये हुए द्रव्य का स्वयं भोग करना अथवा बेच लेना। संघ संचालन के लिए आये द्रव्य से भोजनशाला चलाना और उस पर नाम अपना देना। धर्मादा के संचित द्रव्य से र्मूित मंगाकर उसे अपने नाम से स्थापित करना अथवा उस द्रव्य से क्षेत्रों आदि पर अपने नाम के कमरे निर्माण करा देना वह महान् पाप है, जो दुर्गतियों में ले जाने वाला है। शिलालेखों में दानद्रव्य में बाधा देने वाले, दानद्रव्य को क्षति पहुँचाने वाले अथवा उस द्रव्य को हड़पने वालों की भत्र्सना की गई है। शिलालेखों के कुछ श्लोक शिक्षा प्राप्त करने हेतु यहाँ उद्धृत किये जाते हैं। श्रवणबेलगोल में चन्द्रगिरि पर्वत पर शक सं. ७२२ (वि. सं. ८५७) में लेख सं. २४ (३५) में लिखे हुए दानपत्र पर यह उल्लेख है—
स्वदत्तां परदत्तां वा यो हरेत् वसुंधराम्। परदत्ता—सहस्राणि, विष्टायां जायते कृमि।। (जैनशिलालेख संग्रह भाग १—पृ. ३६३)
अर्थ —  जो स्वयं के द्वारा या दूसरों के द्वारा धर्मादा में दी हुई भूमि (सम्पत्ति) का अपहरण (उपभोग) करते हैं, वे साठ वर्षों तक विष्टा में कीड़ा होते हैं। गन्धवारण जिनमंदिर बना कर उसकी रक्षा हेतु भूमिदान देकर शक सं. १०५० चैत्र शु. ५ (वि. सं. ११८५) का जो लेख लिखा गया है उसमें अंकित है कि ‘‘जो कोई इस दानद्रव्य में हस्तक्षेप करेगा, वह सात करोड़ ऋषियों, वेदज्ञ पण्डितों एवं कपिल गायों के पाप का भागी होगा।।
’’स्वादत्तां—द्विगुणं पुण्यं, परदत्तानुपालने। परदत्तापहारेणं, स्व—दुत्तं निष्फलं भवेत्।।
अर्थ —  स्वयं दान देने में जो पुण्य होता उससे दुगुना पुण्य दूसरों के द्वारा दिये हुए द्रव्य का रक्षण करने से होता है। समर्थ होते हुए भी यदि दान—द्रव्य का रक्षण नहीं करेगा तो स्वयं का दिया हुआ दान निष्फल हो जाता है।
स्वदत्ता पूत्रिका धात्री, पितृ—दत्ता सहोदरी। अन्य—दत्ता तु माता स्याङ् दत्तां भूमिं परित्यजेत्।।(भाग १—पृ. ३६३)
अर्थ —  धर्मायतनों में स्वयं द्वारा दी हुई भूमि आदि चल—अचल सम्पत्ति पुत्री समान, पिता द्वारा दी हुई बहिन समान और अन्य सज्जनों द्वारा दी हुई सम्पत्ति माता समान है, इसलिए दान में दी हुई भूमि आदि सम्पत्ति को निज के उपयोग में नहीं लेना चाहिए। जो इसका उल्लंघन करता है अर्थात् दान—द्रव्य का भोग करता है, वह मानव माता बहिन और पुत्रों के सेवन सदृश्य पाप का भागी होता है। ‘शिलालेख’ भाग २ में गुप्तकाल से पूर्व—संवतं, ४२५ ई. के शिलालेख में लिखा है कि—
‘‘योऽस्य लोभाद् प्रमादाद् वाऽपि हर्ता स पञ्च—महापातकसंयुक्क्तो भवति।’’
अर्थात् जो लोभ से या प्रमाद से दानद्रव्य का उपभोग करता है वह पांच पाप रूपी महा—पातकी होता है अर्थात् पांचों पाप करने वाले को जो पाप लगता है वह सब पाप धर्मादा ग्रहण करने वाले को लगता है।
स्व दातुं सुमहच्छक्यं, दु:ख मन्यार्थं—पालनम्। दानं वा पालनं वेति, दानाच्छे योनुपालनम्।।(शि. ले. भाग २—पृ. ६८।
अर्थ —  स्वयं दान देना कठिन नहीं है किन्तु दूसरों के द्वारा दिये हुए दानद्रव्य का रक्षण करना कठिन है। अत: स्वयं दान देने की अपेक्षा दान द्रव्य का रक्षण करना अति श्रेष्ठ है। इस श्लोक का यह भाव है कि यदि—बुद्धि—बल वचन—बल, और धैर्य—बल अर्थात् सहनशक्ति हैं तो नगरसेठ, ट्रस्टी, अध्यक्ष महामन्त्री और कोषाध्यक्ष आदि को व्यवस्थापक का पद ग्रहण करके जिनवाणी एवं संघों की अर्थात् धर्मायतनों की चल—अचल सम्पत्ति का रक्षण नेत्र की ज्योति के सदृश करना चाहिए; उपेक्षा भाव नहीं रखना चाहिए क्योंकि धर्मायतनों की रक्षा से ही धर्म की रक्षा हो सकती है। इसीलिए भाग ३ पृ. २६० पर कहा है कि—
गण्यते पांसवो भूमे—र्गण्यते वृष्टि—विन्दव:। न गण्यते विधाताऽपि, धर्मसंरक्षणे फलम्।।
अर्थ —भूमि के रजकणों का प्रमाण जान लेना शक्य है और जल—वर्षा के बिन्दुओं का प्रमाण जान लेना भी कथञ्चित् शक्य है किन्तु विधाता के द्वारा भी धर्म अर्थात् धर्मायतनों की रक्षा के पुण्यफल का प्रमाण जान लेना शक्य नहीं है। अर्थात् धर्म और धर्मायतनों (नव देवताओं) की रक्षा का पुण्यफल अचिन्त्य है। अत: धन तो क्या प्राण देकर भी इनकी रक्षा करनी चाहिए। जो समर्थ होकर भी धर्म की रक्षा नहीं करते, उनके विषय में भाग ३ पृ. २६१ पर कहा गया है कि—
कर्मणा मनसा बाचा, य: समर्थोप्युपेक्षते। सभ्यस्तथैव चाण्डाल:, सर्वं—धर्म—बहिष्कृत।।
अर्थ — जो मन, वचन और शरीर की शक्ति से समर्थ होते हुए भी धर्मायतनों की एवं धर्मादा की रक्षा की उपेक्षा करते हैं वे सभ्य अर्थात् सज्जन होते हुए भी सर्व धर्मों से रहित चाण्डाल के सदृश हैं। संसारी जीव अनन्तानन्त हैं और कर्म आठ हैं। इन आठ कर्मों के अनन्तर भेद १४८ हैं। इन १४८ प्रकृतियों में प्रत्येक प्रकृति के असंख्यात लोक—प्रमाण भेदे हैं। अर्थात् जिस लोक में हम रहते हैं उसके असख्ंयात प्रदेश हैं, इन असंख्यात प्रदेशों में असंख्यात का ही गुणा कर दें, उसका जो प्रमाण प्राप्त हो, उतने प्रमाण भेद एक—एक कर्मप्रकृति के होते हैं। जीव परिणाम भी इतने ही प्रमाण होते हैं अत: कर्मबन्ध भी उतने ही प्रकार का होता है। धर्मादा द्रव्य ग्रहण करने के विषय में भी इतने प्रकार के परिणाम बन सकते हैं और उसी प्रकार से उनका कर्मबन्ध भी होता है जिसका फल चतुर्गति के जीव भोग ही रहे हैंं यदि हम संसार के दु:खों से अपनी आत्मा की रक्षा करना चाहते हैं तो अपने परिणामों की परख करते रहना चाहिए। सब पापों में भयावह पाप धर्मादा द्रव्य—ग्रहण है। यह पाप आशीविष सर्प, अग्नि और हलाहल विष से भयंकर है, इसीलिए कहा गया है कि—
देव—स्वंतु विषं लोके, न विषं—मुच्यते। विषमेकाकिनं—हन्ति देव—स्वं पुत्र—पौत्रिकम्।।भाग २ पृ. १६१।।
अर्थ — लोक में जिसे विष कहा है, यथार्थ में वह विष नहीं है, क्योंकि उस विष के भक्षण करने से एक (भक्षण करने वाले) का ही घात होता है। यथार्थ विष तो देवद्रव्य अर्थात् धर्मादा का द्रव्य है जिसका भक्षण स्वयं के साथ—साथ पुत्र—पौत्र आदि कुटुम्ब के भी घात का कारण है और नरक की गोद में ले जाने वाला है। (२) जो द्रव्य देव, शास्त्र गुरु को मंत्र बोल कर चढ़ा दिया गया है उसके प्रति तो यह प्रथा प्राय: सभी प्रान्तों में प्रचलित है कि यदि पूजन करते समय पूजन की थाली (जिसमें द्रव्य चढ़ाया जा रहा है उसका स्पर्श भी हो जाता है तो तुरन्त हाथ धोते हैं। यदि उस थाली से श्रीफल या बादाम आदि भूल से गिर जाय तो उसे फिर नहीं उठाते। पूजन करते समय इतना परहेज करते हुए भी व्यवस्थापक जन उसका मूल्यांकन करते हैं और उसी मूल्य के आधार पर उसका उपभोग होता है। यथा—मंदिर जी की सफाई आदि के लिए जो व्यास या माली या सेवक रखा जाता है, उसे वेतन के रूप में प्राय: वहीं द्रव्य दिया जाता है। यदि कुछ वेतन देते भी हैं तो भी यही कहा जाता है कि आपको इतना द्रव्य मिल जाता है और इतना नगद दे देते हैं। यदि मन्दिर की सफाई आदि में वह प्रमाद करता है तब भी यही कहा जाता है कि अभी तुम्हें सिद्धचक्रविधान में ५०००) की आमदनी हुई है फिर भी कार्य ठीक से नहीं करते हो ? अर्थात् उस चढ़े हुए द्रव्य का भी बुद्धिपूर्वक उपभोग होता रहता है। यह सब विषय गहन दृष्टि से विचारणीय है। यहाँ मनुष्य ही विशिष्ट बुद्धि का अधिकारी है अत: उसे बुद्धि का सदुपयोग करते हुए अपनी आत्मा को पाप पंक से बचाना ही चाहिए।
आर्यिका १०५ विशुद्धमती माताजी ( समाधिस्थ )
शिष्या-आचार्य श्री शिवसागर महाराज
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