आज की परिस्थिति में परिवार नियोजन की आवश्यकता को नकारा नहीं जा सकता। यह हमारी राष्ट्रीय नीति का एक अंग है और हर राष्ट्रभक्त नागरिक का यह कर्तव्य है कि वह राष्ट्र और अपने परिवार की खुशहाली के लिए अपना परिवार सीमित रखे।
परिवार नियोजन के लिए सरकारी प्रचार तंत्र से आज देश के कोने—कोने में अनेकों उपाय जैसे ‘निरोध’, ‘कॉपर टी’, खाने की गोलियाँ ‘माला डी’ आदि बताए जाते हैं व कुछ ऐसे छोटे—छोटे ऑपरेशन भी न केवल बताए जाते हैं अपितु नि:शुल्क किए भी जाते हैं जिनसे फिर गर्भाधान हो ही नहीं पाता। इसके अतिरिक्त प्राय: सभी चिकित्सा पद्धतियों में भी गर्भ निरोध के लिए कुछ औषधियाँ बताई गई हैं।
प्राचीन मान्यतानुसार रजोदर्शन के चौथे दिन से सोलहँवे दिन तक ही गर्भाधान हो पाता है, अन्य तिथियों में नहीं होता। अत: इनमें से जिसको जो उचित लगे वह उपाय अपना कर ऐसा प्रयत्न करें कि गर्भाधान होवे ही नहीं किन्तु यदि किसी कारण से गर्भाधान हो जाता है। तो उसका गर्भपात (Abortion) कराना सर्वथा अनुचित, घ्रणित, क्रूर, हिंसक, निन्दनीय व अमानवीय कार्य है क्योंकि गर्भपात किसी भी समय कराया जाए उसमें हर अवस्था में एक निर्दोष जीवित प्राणी की जानबूझ कर नृशंस हत्या होती ही है।
हमारे शास्त्रों में विवाह संस्कार की ही भाँति सन्तानोत्पत्ति के उद्देश्य से संभोग को भी पवित्र गर्भाधान संस्कार कहा गया है व केवल सन्तानोत्पत्ति के उद्देश्य से ही सम्भोग को उचित माना है। दूसरे अर्थों में संभोग को नियन्त्रित व सीमित करके परिवार नियोजन सुझाया गया है।
किन्तु आज की स्थिति में जब संयम व ब्रह्मचर्य की बात करना कठिन व हास्यास्पद बन गयी है व सन्तान को जब वासनापूर्ति के प्रतिफल में प्राप्त हो जाने वाली अनिच्छित, अनावश्यक वस्तु (By Product) माना जाने लगा है, तब ऊपर लिखे किसी भी आधुनिक परिवार नियोजन के साधन को अपना कर अपना परिवार सीमित रखें। किन्तु फिर भी यदि किसी भूल के कारण गर्भाधान हो जाता है तो फिर गर्भपात (Abortion) कराकर किसी दूसरे निर्दोष जीवित शिशु की हत्या कराने की दूसरी भूल तो न करें। यदि स्वयं में या अपने परिवार में भूल से उत्पन्न हो गई सन्तान को पालने का सामर्थ्य नहीं हो, तो उसे किसी नि:सन्तान सद्गृहस्थ को दे दें किन्तु अपनी सन्तान की स्वयं हत्या करने की महाभूल व जघन्य पाप न करें।
आधुनिक विज्ञान ने यह सिद्ध कर दिया है कि पुरुष के (Sperm) शुक्राणु का स्त्री के (Egg) डिंब से मेल होते ही एक नए जीव का जीवन प्रारम्भ हो जाता है। इनविटरो फर्टिलाइजेशन (Invitro ferilization) के तरीके से जो विश्व के अनेक भागों में हजार से भी अधिक बार दोहराया जा चुका है, यह निर्विवाद सिद्ध हो चुका है कि गर्भाधान के समय ही एक ऐसा भिन्न व्यक्तित्व उत्पन्न हो जाता है जिसमें अनेक वर्षों तक प्रगति करने की क्षमता होती है।
उस व्यक्तित्व की ऊँचाई, बौद्धिक स्तर, चलने की रीति, रक्त की जाति (Blood Group) आदि भी तभी निश्चित हो जाती हैं। इस प्रथम क्षण से ही उस जीव की विकास यात्रा प्रारम्भ हो जाती है जो एक निश्चित कार्यक्रमानुसार निरन्तर चलती रहती है। उसका जीवन माँ के जीवन से पृथक् होता है और वह जीवित प्राणी माँ से अलग अपनी निरन्तर प्रगति करता रहता है।
वह जीवित प्राणी प्रथम नौ माह तक अपनी माँ की कोख वाले निवास में रहकर प्रगति करता है और जब उसकी उत्तरोत्तर प्रगति के लिए वह निवास छोटा पड़ने लगता है तब वह माँ की कोख से बाहर आकर दूसरे बड़े निवास, संसार में आगे प्रगति करता है। शिशु का जन्म लेना तो उस नौ माह की आयु वाले प्राणी का निवास स्थान परिवर्तन करना मात्र है।
जन्म लेना उस प्राणी की आयु की प्रथम तिथि नहीं, अपितु उसके माँ की कोख से बाहर संसार में आने की तिथि, जन्म लेने की तिथि (Date of Birth) है। जन्म लेने के दिन तो उसकी आयु नौ माह हो चुकी होती है। जैसे हम परिवार का आकार बढ़ने पर अपना छोटा निवास स्थान त्याग कर बड़े निवास में रहने लगते हैं उसी प्रकार शिशु माँ की कोख वाले छोटे निवास को त्याग कर बाहर की दुनिया के बड़े निवास स्थान में रहने को आ जाता है।
हत्या चाहे छोटे निवास स्थान में की जाए, चाहे बड़े निवास में हत्या तो समानरूप से हत्या ही है। जन्म के नौ माह पूर्व गर्भाधान के क्षण भी वह वही जीवित प्राणी था जो जन्म के बाद। जब भी उसमें उतनी ही जान थी जितनी जन्म लेने के बाद।
चाहे कोई जीव प्रगति की प्रारम्भिक अवस्था में हो अथवा अन्तिम में, चाहे वह गर्भ के अन्दर वाले निवास में हो अथवा बाहर वाले निवास में, प्रत्येक अवस्था में हत्या तो समानरूप से हत्या ही है। गर्भपात (Abortion), गर्भाधान के बाद चाहे जितनी भी जल्दी कराया जाए, उसमें एक जीवित शिशु की हत्या अनिवार्य है। जब तक माँ को अपने गर्भवती होने का आभास होता है तब तक तो उसकी कोख में पल रहे बच्चे का दिल धड़क रहा होता है, मस्तिष्क विकसित हो जाता है और वह अपने हाथ पांव हिलाने व प्रतिक्रिया व्यक्त करने लगता है।
अपने ही लहू से बने, अपने ऐसे जीते जागते व दाम्पत्य प्रेम के प्रतीक शिशु को गर्भपात द्वारा कटवा कर टुकड़े—टुकड़े करा कर निर्मम हत्या करवाने वाले माँ, बाप, सम्बन्धी व ऐसे जघन्य कार्य के लिए प्रेरित करने वाले इन्सानों को केवल अपराधी या पापी कहना बहुत न्यून है। धर्मशास्त्रों ने तो पंचेन्द्रिय वध को नरक गति का कारण कहा है व गर्भ हत्यारिणी स्त्री की ऩजरों के सामने भोजन करने तक को मना किया है।
जैनधर्म की मान्यतानुसार तो गर्भपात होने पर भी उसी प्रकार सूतक मानने का विधान है जैसे एक पूर्ण आयु के व्यक्ति की मृत्यु पर होता है। सूतक की अवधि, जितने माह का गर्भपात हो उतने ही दिन का सूतक मानने का विधान है।
भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक निर्णय सुनाते हुए वेदों का उदाहरण देते हुए कहा कि किसी का जीवन लेना केवल अपराध ही नहीं अपितु पाप भी है। महान न्यायाधीशों ने यह भी कहा कि (Foetus is regarded as a “human life” from the moment of Fertilization) गर्भाधान के समय से ही भ्रूण को एक मानव जीवन माना जाता है। महात्मा गाँधी के कथन को दोहराते हुए उन्होंने कहा (“God alone can take life because he alone gives it”) जीवन केवल भगवान ही ले सकता है क्योंकि केवल एक वही जीवन देने वाला है।
हर छोटे बड़े प्राणी को जीने का पूर्ण अधिकार है। किसी का जीवन नष्ट करने का अधिकार किसी को भी नहीं है और न ही किसी माँ बाप को अपनी जीती जागती सन्तान की हत्या करवाने की छूट विश्व के किसी भी धर्म ने प्रदान की है। अत: भ्रूण हत्या (एबोर्शन) जैसे नृशंस, अमानवीय व हिंसक कार्य को जो सम्पूर्ण मानव जाति पर एक कलंक है, उसे न केवल स्वयं त्यागना, अपितु उसे पूर्णरूप से रोकने के लिए भरसक प्रयत्न करना भी हम सब मानवों का प्रथम कर्तव्य है।
एबोर्शन यानि गर्भपात कराने को अधिकांश व्यक्ति एक साधारण सी ऐसी शल्य क्रिया मानते हैं जैसे कि शरीर में हुई एक रसौली अथवा पथरी को निकलवा देना। यह धारणा बिलकुल गलत है। अबोर्शन तो एक जीते जागते निर्दोष प्राणी की सुनियोजित नृशंस हत्या है। गर्भ में जीव का अस्तित्व तो गर्भाधान के क्षण से ही हो जाता है और जब तक माँ को यह पता लगता है कि वह गर्भवती है तब तक उसकी कोख के शिशु के प्राय: सब अंग बन चुके होते हैं, मस्तिष्क विकसित हो चुका होता है, दिल धड़कना प्रारम्भ कर चुका होता है अर्थात् वह एक पूर्णरूपेण जीवित प्राणी बन चुका होता है।
अपने ऐसे जीवित शिशु की अबोर्शन द्वारा हत्या करवाने का निश्चय करने वाले माँ—बाप यदि यह जान लें कि इस क्रिया द्वारा उनकी जीती जागती निश्चितरूप से पूर्ण विकसित सन्तान की किस निर्ममता व निर्दयता से यातना दे दे कर हत्या की जाती है, तो निश्चित है कि वे अपने गर्भस्थ शिशु की हत्या अर्थात् अबोर्शन कराने को फिर कभी तैयार नहीं होंगे।
एबोर्शन की मुख्य विधियाँ निम्न हैं :
१. चूषण पद्धति (Suction Aspiration) : यह सर्वाधिक प्रचलित विधि है। इसमें गर्भाशय (Womb) का मुख खोलकर उसके अन्दर (Suction curette) एक खोखली नालिका जिसका सिरा चाकू जैसा होता है व नालिका के साथ एक पम्प जुड़ा होता है, डाली जाती है और पम्प के तेज दबाव व खिंचाव से बच्चे के शरीर को फाड़ कर टुकड़े—टुकड़े कर दिये जाते हैं। इसके चाकू की चपेट में बच्चे का कभी कोई तो कभी कोई, छाती, पेट, सिर आदि जो भी अंग आता जाता है कटता फटता जाता है और ये कटे फटे टुकड़े बोटी—बोटी कर इस प्रकार बाहर खेंच लिए जाते हैं मानो कोई कूड़ा करकट हो।
२. फैलाव व निष्कासन विधि (Dilllation and Evcuation) : यह विधि तीन से नौ माह तक के बच्चे के लिए प्रयोग में लाई जाती है। इसमें गर्भाशय (Womb) के मुँह को खींचकर काफी खोला जाता है व विशेष प्रकार के औजार से बच्चे के शरीर को काटा जाता है व उसकी खोपड़ी को तोड़ा जाता है। बच्चे के अंगों के कटे व कुचले टुकड़ों को गोल छल्लेदार वैंâची से निकाला जाता है। बच्चे के टुकड़े—टुकड़े , कुचला हुआ सिर, लहुलुहान आंतें, धड़कता हुआ नन्हा हृदय सब कूड़े करकट के ढेर की तरह फेंक दिये जाते हैं।
३. Dllatation and Curettage (D & C) विधि : यह भी प्रथम विधि जैसी ही होती है। इस विधि में चाकू एक तेज धार वाले लूप की शक्ल का होता है जो गर्भाशय में बच्चे को काट डालता है। कटे हुए अंगों के टुकड़ों को एक चम्मच जैसे साधन (Cervix) से गर्भाशय के मुँह में से निकालते हैं।
४. जहरी क्षार वाली पद्धति : एक लम्बी मोटी सुई गर्भाशय में लगा कर उसमें पिचकारी की सहायता से नमक का क्षार वाला द्रव छोड़ दिया जाता है। चारों ओर से घिरा बालक क्षार का कुछ अंश निगल जाता है व जहर खाये व्यक्ति की भाँति गर्भाशय में तड़फने लगता है, उसकी चमड़ी—श्याम पड़ जाती है और वह घुट—घुट कर वहीं मर जाता है, फिर उसे बाहर निकाल लिया जाता है।
गर्भपात (एबोर्शन) या भ्रूण हत्या से जहाँ एक ओर निरपराध गर्भस्थ शिशु की निर्मम हत्या होती है वहीं दूसरी ओर गर्भपात कराने वाली माँ को भी कई जटिलताओं, समस्याओं का न्यूनाधिक संकट उत्पन्न हो ही जाता है। इनमें से कुछ संभावित जटिलताएँ तत्कालिक प्रभाव वाली व कुछ दीर्घकालीन प्रभाव वाली होती हैं जो माँ को न केवल आगे के लिए बाँझ बना सकती हैं बल्कि उसकी जान तक को खतरा उत्पन्न कर सकती हैं।
१. हैमरेज (रक्त—स्राव) (Haemorrhage) : गर्भपात के दौरान रक्त की हानि होने के कारण माँ को इसका खतरा हो सकता है व रक्त चढ़ाने की आवश्यकता पड़ सकती है।
२. रोग संक्रमण (Infection) : गर्भपात के दौरान गर्भस्थ शिशु के शरीर का कोई कटा फटा अंग या भाग गर्भाशय में बचा रह जाने पर या ऑपरेशन के समय कोई अन्य कमी रह जाने की अवस्था में टयूबल इन्फैक्शन हो सकता है व आगे के लिए वह बांझ भी बन सकती है।
३. गर्भाशय को नुकसान (Damaged Cervix) : गर्भपात के दौरान औजारों के प्रयोग के लिए जो गर्भाशय का मुख खोलना पड़ता है उससे उसको आघात लगने पर भविष्य में स्वत: गर्भपात हो जाने अथवा समय पूर्व ही शिशु को जन्म दे देने की अवस्था हो सकती है।
४. गर्भाशय में छेद होना (Perforation of The Uterus) : गर्भपात के लिए प्रयोग किए गए औजार (Curette) से बच्चेदानी में छेद हो सकता है और परिणामस्वरूप उसे निकालना भी पड़ सकता है और स्त्री आगे के लिए बांझ बन सकती है।
५. अँतड़ियों में सुराख होना (Perforation of the Bowl) : गर्भपात में प्रयुक्त औजारों से अँतड़ी में सुराख हो सकता है।
दीर्घकालीन जटिलताएँ-
१. मृत अथवा अपंग बच्चे (Stillborn or Handlcapped bobies) : जिन स्त्रियों का रक्त (RH-negative) होता है और जिन्हें गर्भपात के बाद (RHO-gam) नहीं मिल पाता, उनकी भावी सन्तान को ऐसा खतरा उत्पन्न हो जाता है।
२. गर्भस्राव (Miscarriages) : जिन स्त्रियों ने गर्भपात कराया होता है उन्हें गर्भस्राव का खतरा ३५ प्रतिशत अधिक हो जाता है।
३. विकृत गर्भ क्षमता (Impaired Child-bearing abillity) : गर्भपात के बाद होने वाली आगामी सन्तानों की उत्पत्ति में जन्मते समय जटिलता उत्पन्न हो सकती है।
४. अवधि पूर्व जन्म (Premature births) : अधिक गर्भपात करा लेने पर समय से पूर्व ही बच्चे के जन्म हो जाने का खतरा २ से ३.३ गुना बढ़ जाता है।
५. कम वजन के शिशु का होना (Low birth weight) : गर्भपात के बाद होने वाली आगामी सन्तान कम भार वाली होने का खतरा २ से २.२५ गुना बढ़ जाता है।
६. बच्चे का फैलोपियन टयूब में बढ़ना (Ectopic Pregenancies) : इसमें माँ की जान को बहुत खतरा हो जाता है क्योंकि बच्चा गर्भाशय की बजाए (Falliopian Tube) फैलोपियन टयूब में बढ़ता है। इस प्रकार की घटनाओं की काफी बढ़ोतरी हो गई है। जिसमें तत्काल आपरेशन कराना पड़ जाता है।
गर्भजल परीक्षण (Prenatal testing) या एमिनोसिन्टेसिस का प्रारम्भ, आनुवंशिक विकृतियों, वंशानुगत रोगों तथा गुणसूत्रों में दोषों का पता लगाने के उद्देश्य से किया गया था। यह एक वैज्ञानिक उपलब्धि थी क्योंकि इन परीक्षणों से ७२ असाध्य एवं वंशानुगत रोगों की पुष्टि की जा सकती थी और गर्भस्थ शिशु में कोई रोग या दोष होने पर उसका तभी से उपचार प्रारम्भ करना संभव हो जाता था। निश्चित ही, यह एक वरदान व सराहनीय प्रयास था, किन्तु इस परीक्षण से शिशु के लिंग की जानकारी भी मिल जाने के कारण यह शीघ्र ही वरदान से अभिशाप में परिवर्तित हो गया।
प्रारम्भ में तो यह परीक्षण गर्भस्थ शिशु के बारे में पूरी जानकारी प्राप्त कर लेने की उत्सुकता को रोक नहीं पाने के कारण कराया जाता रहा। किन्तु शीघ्र ही उत्सुकता व ममता का स्थान बेटी को बेटे से हीन मानने वाली दुर्भावना ने ले लिया और ये परीक्षण ऐसी कुटिल, स्वार्थी व द्वेषपूर्ण भावना से कराए जाने लगे कि गर्भ में कहीं लड़के की बजाए लड़की ही तो नहीं है।
बेटी को बेटे से दोयम दर्जे का अथवा एक प्रकार का भार मानने वाली समाज की इस मानसिकता से कुछ स्वार्थी तत्वों को अपना व्यवसाय चमकाने का अच्छा अवसर प्राप्त हो गया और देखते ही देखते प्राय: सभी शहरों में ऐसे क्लीनिकों की बाढ़ आ गई जहाँ गर्भ परीक्षण और गर्भपात द्वारा भ्रूण नष्ट करने की सुविधा प्राप्त होने लगी। कुछ लोभी व्यक्तियों ने तो गर्भस्थ लड़की सन्तान की हत्या को उकसाने वाले ऐसे नारे ‘‘दहेज का सस्ता विकल्प—गर्भपात’’ तक फैलाने में भी संकोच नहीं किया।
परिणाम स्वरूप लिंग परीक्षण के बाद होने वाले गर्भपातों में ९७ प्रतिशत अर्थात् प्राय: सभी में गर्भस्थ लड़की की ही हत्या हुई। गर्भस्थ लड़के की हत्या कराने से प्राय: सभी माँ बाप कतराते हैं भले ही उनके पहले से ही कई पुत्र क्यों न हों।