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14. पश्चिम धातकीखण्ड भरतक्षेत्र वर्तमान तीर्थंकर स्तोत्र

January 23, 2014Booksjambudweep

(चौबीसी नं. १४)


पश्चिम धातकीखण्ड भरतक्षेत्र वर्तमान तीर्थंकर स्तोत्र

नरेन्द्र छंद

पश्चिम द्वीपधातकी में वर, अचलमेरु नित सोहे।

उसके दक्षिण दिश मे सुंदर, भरतक्षेत्र मन मोहे।।

वर्तमान चौबीस जिनेश्वर, चौथे युग में जानो।

मन-वच-तन से शीश नमाकर, भव-भव का दु:ख हानो।।१।।

दोहा

‘विश्वचंद्र’ तीर्थेश नित, करते भवि मन बोध।

शीश नमाकर मैं नमूँ, पाऊँ निज-पर बोध।।१।।

जिनवर ‘कपिल’ अतुल्य सुख, लक्ष्मी के भंडार।

सुर-इंद्रों से वंद्य पर, नमत हनूँ संसार।।२।।

पंचपरावर्तन स्वयं, नाश भये शिव ईश।

‘वृषभदेव’ के पद कमल, नमूँ नमा निज शीश।।३।।

श्री ‘प्रियतेज’ जिनेन्द्र का, मानस्तंभ अनूप।

अस्सी कोशों तक करे, प्रभा नमूँ जिनरूप।।४।।

नाथ ‘प्रशमजिन’ क्रोध से, रहित तथापी आप।

कर्मशत्रु संहारिया, नमूँ हरूँ भव ताप।।५।।

श्री ‘विषमांग’ जिनेन्द्र तुम, साम्य सुधारस लीन।

समरस अनुभव के लिये, मैं नमूँ भवहीन।।६।।

‘चारितनाथ’ जिनेश का, यथाख्यात चारित्र।

पंचमचारित हेतु मैं, नमूँ हरूँ दारिद्र।।७।।

‘प्रभादित्य’ जिननाथ की, प्रभा अलौकिक ख्यात।

कोटि सूर्य लज्जित हुये, वदूँ मैं सुखदात।।८।।

‘मुंजकेश’ जिन आपने, दशमुंडन का रूप।

बतलाया मुनिराज को, वंदूँ तिहुंजग भूप।।९।।

नग्न दिगम्बर रूप तुम, ‘वीतवास’ अभिराम।

दु:खमूल परिग्रह कहा, नमूँ-नमूँ शिवधाम।।१०।।

नाथ ‘सुराधिप’ आप हैं, देवदेव के देव।

वंदूँ भक्ति समेत मैं, लहूँ सौख्य स्वयमेव।।११।।

‘दयानाथ’ मुझ दीन पर, दया करो निज जान।

मोह दुष्ट से रक्ष कर, भरो भेदविज्ञान।।१२।।

श्री ‘सहस्रभुज’ आपको, सहस नेत्र से देख।

इंद्र तृप्त नहिं होत हैं, मैं वंदूँ पद देख।।१३।।

श्री ‘जिनसिंह’ महान तुम, कामहस्ति मद चूर।

पाई आतम शक्ति को, नमूँ सौख्य भरपूर।।१४।।

जिनवर ‘रैवतनाथ’ ने, घात घातिया कर्म।

भविजन को उपदेशिया, नमत लहूँ निज मर्म।।१५।।

‘बाहु स्वामि’ गुण के धनी, कीर्ति ध्वजा फहरंत।

जो वंदें तुम पद कमल, स्वातम सुख विलसंत।।१६।।

तीर्थंकर ‘श्रीमालि’ का, समवसरण अतिभव्य।

मैं वंदूँ अतिभाव से, बनूँ पूर्ण कृतकृत्य।।१७।।

पूज्य‘अयोग’ जिनेश तुम, मन-वच-काय निरोध।

शेष कर्म चकचूर कर, किया मृत्यु प्रतिरोध।।१८।।

प्रभू ‘अयोगीनाथ’ ने, शुक्लध्यान को ध्याय।

निज आतम को शुद्धकर, अविचल शिवपद पाय।।१९।।

नाथ ‘कामरिपु’ तीर्थकर, कामदेव मद नाश।

धर्मतीर्थ के चक्र को, धारा मुक्ति सनाथ।।२०।।

श्री जिनवर ‘आरंभ’ तुम, सब आरंभ सुत्याग।

निरारंभ परिग्रह रहित, कीना स्वपर विभाग।।२१।।

‘नेमिनाथ’ भगवान तुम, नियम सार उपदेश।

रत्नत्रय द्वयविध प्रगट, बने पूर्ण परमेश।।२२।।

‘गर्भज्ञाति’ जिनराज तुम, पुनर्जन्म से मुक्त।

वंदूँ शीश नमाय मैं, होऊँ कर्म विमुक्त।।२३।।

श्री ‘एकार्जित’ स्वामि को, जो वंदें धर भाव।

अतिशय पुण्य उपाज्र्य के, पावें चारित नाव।।२४।।

रोला छंद

पंचमहाकल्याण, स्वामी शिवपथ नेता।

सकल तत्त्वविद् नाथ, कर्माचल के भेत्ता।।

मन-वच-तन से नित्य, प्रभुपद शीश नमाऊँ।

ज्ञानमती कर पूर्ण, निज अनुभव सुख पाऊँ।।२५।।

Tags: Trikalik Tirthankara Stotra
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