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पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के ५० स्वर्णिम वर्ष एवं वर्षायोग

July 20, 2017ज्ञानमती माताजीjambudweep

पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी के ५० स्वर्णिम वर्ष एवं वर्षायोग


 

मनुष्य जन्म की शोभा सम्यग्दर्शन के साथ संयम परिपालन में है। स्वर्ग के देवेन्द्र भी मनुष्य पर्याय को प्राप्त करने की सदा कामना किया करते हैं, उसका कारण यही है कि संयम, रत्नत्रयरूप धर्म, वीतराग मोक्षमार्ग मात्र मनुष्य पर्याय से ही प्राप्त हो सकता है।
 
किसी भी भव्य जीव को सम्यग्दर्शन की प्राप्ति तो नरक, स्वर्ग और तिर्यंच गति में हो सकती है लेकिन सकल संयमरूप चारित्र की प्राप्ति मनुष्य पर्याय के अतिरिक्त कहीं सुलभ नहीं है। आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव ने समयसार की गाथा नं. ४ में क्या अद्भुत बात लिखी है-
 
सुदपरिचिदाणुभूदा सव्वस्स वि कामभोगबंधकहा ।
 
एयत्तस्सुवलंभो णवरि ण सुलहो विहत्तस्स ।।
 
देखे, सुने और अनुभव में आए हुए ऐसे काम भोग और बंध की कथा तो अनादिकाल से सुनते आ रहे हैं। लेकिन वीतराग शुद्ध आत्मा का कथन करने वाले ऐसे जिनधर्म की प्राप्ति बड़ी ही दुर्लभ है।
 
वास्तव में रत्नत्रय रूप वीतराग धर्म का कुतूहल मात्र से ग्रहण करने वाले भी अनेक प्राणी इस संसार समुद्र से पार हो गये, तो जो साक्षात् रत्नत्रय की मूर्ति हैं, ऐसे महान वंदनीय वर्तमान आचार्य, उपाध्याय एवं साधु परमेष्ठी निश्चित ही मोक्षमार्ग के दर्पण हैं। लेकिन खेद है कि करोड़ों अरबों की आबादी में मात्र ११०० के लगभग संयमी दिगम्बर जैन साधु-साध्वी रत्नत्रय धर्म का पालन करने वाले हैं।
 
इन सभी रत्नत्रय मूर्तियों में कुछ संयमी जो विशिष्ट प्रतिभा सम्पन्न हैं, जिनसे स्वकल्याण के साथ समाज को भी कुछ उपलब्धि हुई है उनमें परमश्रद्धेय पूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के नाम को भुलाया नहीं जा सकेगा। पूज्य माताजी वैशाख कृ. २, १५ अप्रैल २००६ को अपनी आर्यिका दीक्षा के ५० वर्ष पूर्ण कर रही हैं।
 
इस आर्यिका दीक्षा स्वर्ण जयंती महोत्सव के अवसर पर हम पूज्य माताजी के पावन चरण कमलों में यही कामना करते हैं कि माताजी दीर्घायु होकर हम सभी को इसी प्रकार रत्नत्रय मार्ग को दिखाती रहें।
 
पूज्य माताजी ने १८ वर्ष की लघुवय में आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत (सप्तम प्रतिमा) एवं चैत्र कृष्णा १, सन् १९५३ में श्री महावीर जी क्षेत्र पर १०८ आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज से क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण की।
 
३ वर्ष बाद वैशाख कृ. २, सन् १९५६ में माधोराजपुरा (राज.) में आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज से आर्यिका दीक्षा लेकर भारतवर्ष के विभिन्न अंचलों में मंगल विहार एवं चातुर्मास करके जो ज्ञान गंगा प्रवाहित की है, उनका संक्षिप्त वर्णन इस खण्ड में प्रस्तुत किया जा रहा है।
 
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