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पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी का स्वर्णिम व्यक्तित्व

July 7, 2017ज्ञानमती माताजीjambudweep

पूज्य गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी का स्वर्णिम व्यक्तित्व



  पूज्य गणिनी आर्यिकाश्री का परिचय निम्न चार पंक्तियों से प्रारंभ होता है-
 
नैराश्यमद में डूबते, नर के लिए नव आस हो।
कोई अलौकिक शक्ति हो, अभिव्यक्ति हो विश्वास हो।।
 
कलिकाल की नव ज्योति हो, उत्कर्ष का आभास हो।
मानो न मानो सत्य है, तुम स्वयं में इतिहास हो।।
 
सच, जिनके आदर्श हिमालय पर्वत से भी ऊँचे हैं, जिनकी वाणी से नि:सृत ज्ञानगंगा नीलनदी (जिसकी लम्बाई ६ हजार किमी. है) से भी बड़ी है, जिसकी कीर्तिप्रसार के समक्ष एशिया महाद्वीप का क्षेत्रफल भी छोटा प्रतीत होने लगता है और जिनके हृदय की गंभीरता प्रशान्त महासागर को भी उथला सिद्ध करने लगी है, उस महान व्यक्तित्व ‘गणिनी श्री ज्ञानमती माताजी’ का परिचय भला शब्दों में कैसे बांधा जा सकता है? विक्रम संवत् १९९१ (२२ अक्टूबर ईसवी सन् १९३४) की शरदपूर्णिमा (आश्विन शु. पूर्णिमा) की रात्रि के प्रथम प्रहर में जिला बाराबंकी के टिकैतनगर ग्राम में श्रेष्ठी श्री छोटेलाल जी की धर्मपत्नी श्रीमती मोहिनी देवी ने इस कन्या को जन्म देकर अपना प्रथम मातृत्व धन्य कर लिया था।
 
उनके दाम्पत्य जीवन की बगिया का यह प्रथम पुष्प सारे संसार को अपनी मोहक सुगंधि से सुवासित करेगा, यह बात तो वे कभी सोच भी नहीं सके थे किन्तु सरस्वती के इस अवतार को जन्म देने मे उनके जन्म-जन्मान्तर के संचित पुण्य कर्म ही मानो सहायक बने थे। अवध प्रान्त में जन्म लेने वाली इस नारीरत्न का परिचय बस यही तो है कि सरयू नदी की एक बिन्दु आज ज्ञान की सिन्धु बन गई है, शरदपूर्णिमा का यह चाँद आज अहर्निश सारे संसार को सम्यग्ज्ञान के दिव्य प्रकाश से आलोकित कर रहा है।
 
बालिका का नाम रखा गया-मैना! मैना पक्षी की भाँति मधुरवाणी जो घर से निकलकर गली-मोहल्ले और सारे नगर में गुंजायमान होने लगी थी। पूर्व जन्मों की तपस्या एवं माँ की घूंटी से जो नैसर्गिक धर्म-संस्कार प्राप्त हुए थे, उन्होंने किशोरावस्था आते ही इन्हें ब्राह्मी और चन्दना का अलंकरण पहना दिया। परिवार में प्रथम कन्या के जन्म से सभी हर्षित थे। कन्या के जन्मते ही प्रसूतिगृह में फैले अलौकिक प्रकाश को देखकर बूढ़ी दादी के मुँह से निकला कि अवश्य ही आज मेरे घर मे कन्या के बहाने कोई देवी ने अवतार लिया है।
 
बस, आशीर्वाद की फुलझड़ियाँ वृद्धा के मुख से फूट पड़ीं-इसी प्रकाश से सदैव प्रकाशित रहे मेरी नन्हीं बेटी, मेरी बहू का प्रथम पुष्प चिरंजीवी हो तथा उसकी सुगंधि से दोनों कुल सुवासित होवें इत्यादि। इधर अपनी नन्हीं कली के जन्म की विशेषताओं को सुनकर माँ मोहिनी भी अपनी प्रसव पीड़ा भूलकर अपने अतीत और भविष्य का चिन्तन कर रही थीं।
 
वे भी अपनी सासू जी का आशीर्वाद प्राप्त करके कहने लगीं-माँ! मैं तो इसे अपने पूज्य पिताजी का प्रसाद समझती हूँ क्योंकि उन्होंने मुझे विदा करते समय एक अमूल्य दहेज जो दिया था-‘‘पद्मनंदिपंचविंशतिका’’। मैंने विवाह के बाद प्रतिदिन उस ग्रंथ का स्वाध्याय कर-करके न जाने कितनी शुभ भावनाएँ भायी थीं, उसी के फलस्वरूप मुझे यह कन्यारत्न प्राप्त हुई है।
 
कन्या के जन्म पर भी पुत्र जन्मोत्सव जैसी खुशियाँ मनाई गर्इं। पिता छोटेलाल जी भी अपनी सन्तान की प्रशंसा सुन-सुनकर फूले नहीं समाते थे। प्र्काम भी नाम के अनुसार ही- बचपन से ही ‘‘पद्मनंदिपंचविंशतिका’’ ग्रंथ के स्वाध्याय से इनके मन में वैराग्य के अंकुर प्रस्पुटित हो चुके थे इसलिए गुरु उपदेश के बिना ही त्यागमार्ग पर अग्रसर होने का इन्होंने पुरुषार्थ प्रारंभ कर दिया। कौन जानता था कि एक छोटे से ग्राम में जन्मी इस बालिका में एक दिन इतना साहस प्रगट हो जाएगा कि सारे संसार में अपनी प्रतिभा के द्वारा ‘‘’’ का नाम अमर कर देगी।
 
किन्तु संसार में एक लोकोक्ति है-‘‘फूल अपनी सुगंधि दशों दिशाओं में बिखेरने के लिए दूसरों की खुशामद नहीं करते, बादल कभी मोर के पास अपना कमीशन एजेंट नहीं भेजते हैं कि हम आकाश के आंगन में छा गए हैं, तुम थिरको और नाचो। फूल खिलते हैं वातावरण स्वयं महक उठता है, बादल छाते ही मोर नाचने लगते हैं। उसी प्रकार महानता किसी के दरवाजे पर कभी प्रचार, प्रसार या प्रशंसा की भीख मांगने नहीं जाती, यह सब तो स्वयमेव उसकी झोली में आ गिरते हैं।
 
महानता, गुरुता और गुणों की पूजा-अर्चना की व्यवस्था सदियों से प्रकृति करती चली आ रही है। पूज्य ज्ञानमती माताजी भी उन्हीं महान आत्माओं मे से एक हैं, जिनकी गुणसुरभि से सम्पूर्ण जगत सुगंधि प्राप्त कर रहा है। समय के सूक्ष्म तन्तुओं ने उस बाल प्रतिभा को निखारना प्रारंभ किया, माता के द्वारा पिलाई गई जन्मघूंटी से मैना का धार्मिक स्वास्थ्य वृद्धिंगत होने लगा और वह अपने यौवन की पगडंडी पर कदम रखने लगी।
 
मैना अपने प्रारंभिक जीवन के सत्रह वर्षों को पूर्ण कर अट्ठारहवें वर्ष में प्रवेश कर रही थी, इसके साथ ही वह नारी जीवन के चरमलक्ष्य को भी सिद्ध करने के लिए प्रयत्नशील थी जबकि माता-पिता एवं समस्त परिवार अपनी उस गुणवती कन्या के हाथ पीले करने के समस्त उद्यम कर चुके थे।

शरदपूर्णिमा तिथि की प्रतीक


 शरदपूर्णिमा तिथि तो प्रतिवर्ष आती और जनश्रुति के अनुसार अमृत बरसाकर चली जाती थी किन्तु सन् १९३४ की शरदपूर्णिमा ने धरती पर अपनी अमिट छाप छोड़ दी और मानों यहाँ के निवासियों से यह कहकर चली गई कि इस पूर्णिमा के चाँद के समक्ष मेरी शीतल रश्मियाँ भी व्यर्थ हैं, मैंने स्वयं भी अब इस चन्द्रमा से अमृत ग्रहण करने का निर्णय किया है।
 
जिसने मुझे भी धन्य और अमर कर दिया है, क्या मैं इनका उपकार जन्म-जन्म में भी भूल सकती हूँ? अर्थात् अब इस अवनीतल पर ‘‘पूर्णा तिथि की प्रतीक’’ कन्यारत्न के जन्म ने शरदपूर्णिमा तिथि को अक्षय पद प्राप्त करा दिया, जिसे युगों-युगों तक कोई मिटा नहीं सकता।

स्वप्न भी होनी को बताने आय


 महापुरुषों के भविष्य को बताने हेतु शुभ-अशुभ स्वप्नों का दिग्दर्शन भी हुआ करता है। जैसे-भगवान ऋषभदेव को आहार देने से पूर्व हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस ने सुमेरु पर्वत, कल्पवृक्ष आदि सात स्वप्न देखे थे। नारी इतिहास को प्रारंभ करने वाली मैना ने भी रात्रि के पिछले प्रहर में एक स्वप्न देखा- ‘‘’मैं पूजन की थाली लेकर मंदिर जा रही हूँ, मेरे साथ आकाश में चन्द्रमा और नीचे उसकी शुभ्र चाँदनी पीछे-पीछे चल रही है, सभी नर-नारी मुझे आश्चर्यचकित हो देख रहे हैं।’
 
त्याग के लिए मैना का अन्तरंग पुरुषार्थ तो चल ही रहा था, इस स्वप्न ने उन्हें संंबल प्रदान किया और प्रात:काल मैना सोचने लगी-मेरी विजय अवश्य होगी। मैना ने सवेरे अपने छोटे भाई वैलाशचंद से स्वप्न की बात बताई तो वे भी एकदम बोल पड़े-‘‘जीजी! ऐसा लगता है कि आप भविष्य में महान साध्वी बनेंगी और आपके पुण्य एवं यश की चाँदनी चारों ओर अपना प्रकाश फैलाएगी।’’
 
अत्यन्त कुशाग्रबुद्धि वाले लघुभ्राता के मुँह से भी ऐसी अनुकूल बात सुनकर मैना को बहुत ही अच्छा लगा। वे स्वयं तो साध्वी पद प्राप्ति के सपने संजोया ही करती थीं किन्तु इस युग में चल रही नारी की परतन्त्रता देखकर परिवार के समक्ष कुछ भी कहने की हिम्मत नहीं पड़ती थी। फिर भी उन्होंने अपनी माँ से अपना अडिग संकल्प कई बार बताया था अत: घर में चर्चा तो फैल ही चुकी थी।

पिता का आश्वासन


 पुत्री के त्याग की प्रबल भावना को देखकर एक दिन पिता ने कहा-बेटी! मैंने सुना है श्री सम्मेदशिखर सिद्धक्षेत्र पर इन दिनों एक बड़ा मुनि संघ विराजमान है। उसमें कई एक आर्यिकाएँ भी हैं। हम तुम्हें वहाँ ले चलेंगे.। अब क्या था, मैना ने तो वहाँ ले चलने के लिए धुन ही लगा दी। तब पिता ‘‘कुछ दिन बाद ले चलेंगे’’ ऐसा कह-कहकर सान्त्वना देते रहे और समय निकालते रहे चूँकि मोह का उदय भला पुत्री को कैसे भेज सकता था?

कुमारिकाओं की पथ-प्रदर्शिका


 कन्या के अधिकारों का मूल्यांकन कराने वाली मैना ने जीवन के मधुमास में प्रवेश करने से पूर्व ही नारी उद्धार का संकल्प लिया और स्वयंभू होकर उसकी पूर्ति के सपने संजोने लगीं। न जाने कहाँ से ऐसी-ऐसी बातें ये सीखकर आई थीं क्योंकि तब तक तो इन्हें किसी गुरु का संयोग भी प्राप्त नहीं हुआ था। माता मोहिनी तो तब दंग रह जातीं, जब मैना की सखियाँ उनसे कहतीं कि आज हमें मैना ने शीलव्रत पालन का नियम मंदिर में दिलवाया है।
 
अन्ततोगत्वा विक्रम संवत् २००९ (ईसवी सन् १९५३) में भारत गौरव आचार्यरत्न श्री देशभूषण जी महाराज के मंगल सानिध्य में शरदपूर्णिमा के ही दिन बाराबंकी में उनकी हार्दिक इच्छा की सम्पूर्ति हुई, जिसके फलस्वरूप मैना का मधुमास सप्तमप्रतिमारूप आजन्म ब्रह्मचर्य में परिवर्तित हो गया।
 
उस समय उन्होंने पारिवारिक एवं सामाजिक संघर्षों को झेलकर अपनी ही नहीं प्रत्युत् समस्त कुमारिकाओं के हाथों में जकड़ी परतन्त्रता की बेड़ियाँ तोड़कर असीम साहस और वीरता का परिचय दिया था। इनसे पूर्व बीसवीं शताब्दी की किसी कन्या ने इस कंटीले मार्ग पर कदम नहीं बढ़ाया था। इसीलिए इन्हें ‘‘कुमारिकाओं की पथ प्रदर्शिका’’ कहने में हम सभी गौरव का अनुभव करते हैं।

वीर की अतिशय भूमि पर बनीं वीरमती आप


 आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत लेने के पश्चात् ब्रह्मचारिणी कु. मैना मात्र एक श्वेत साटिका में लिपटी आर्यिका की भाँति आचार्यश्री के संघ में रहने लगीं। इनके साथ लखनऊ की एक ब्रह्मचारिणी चाँदबाई भी थीं। तभी संघ अतिशयक्षेत्र श्रीमहावीरजी पर पहुँचता है और वहीं मैना की क्षुल्लिका दीक्षा का मुहूर्त निकाला जाता है। अभी विक्रम संवत् २००९ ही चल रहा था कि ईसवी सन् १९५३ में प्रविष्ट हुआ, जब महावीर जी में होली का दीर्घकाय मेला लगा हुआ था, उसी समय माता-पिता को सूचित किये बिना मैना ने चैत्र कृष्णा एकम् को क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण कर ली।
 
आचार्यश्री देशभूषण जी महाराज ने मैना की वीरता और वीरप्रभु की अतिशय भूमि पर दीक्षा होने के कारण शिष्या का नाम ‘‘क्षुल्लिका वीरमती’’ रखा। तभी बालसती क्षुल्लिका वीरमती की जयकारों से अतिशय क्षेत्र का अतिशय द्विगुणित हो गया। अब यहाँ से दो वीरों का इतिहास जुड़ गया-एक तीर्थंकर महावीर का और दूसरा श्री वीरमती जी क्षुल्लिका का।

कहाँ से कहाँ?


मुनिराज सुकुमाल की भाँति एक कोमलांगी सुकुमारी साध्वी के रूप में आचार्य संघ के साथ पद विहार करने लगी। पैरों से टपकती खून की धार, पूर्व की अनभ्यासी, तीव्र गति चाल से उत्पन्न हृदय की धड़कनों को न वहाँ कोई पहचानने वाला ही था और न बताने वाला। क्षुल्लिका वीरमती जी सोचती थीं कि मैंने किसी मजबूरी या दूसरे की जबर्दस्ती से तो दीक्षा ली नहीं है, पूर्णस्वेच्छा से ली गई उस दीक्षा से वे कभी खेदखिन्न नहीं हुर्इं।
 
अपने तीव्रतम वैराग्यपूर्वक ली गई उस क्षुल्लिका दीक्षा से भी वे पूर्ण सन्तुष्ट कहाँ थीं, उन्हें तो नारी जीवन के उच्चतम शिखरस्वरूप आर्यिका दीक्षा लेने की पुन: धुन लग गई। नीचे धरती माता और ऊपर आकाशरूपी पिता के संरक्षण में रहती हुर्इं आज की ज्ञानमती माताजी ने क्षुल्लिका अवस्था में आचार्य श्री देशभूषण जी महाराज के साथ दो चातुर्मास किये, जिसमें सन् १९५३ का उनका प्रथम चातुर्मास उनकी जन्मभूमि टिवैतनगर में हुआ और दूसरा सन् १९५४ का चातुर्मास जयपुर में हुआ, जहाँ उन्होंने मात्र २ माह में संस्कृत की कातन्त्र रूपमाला व्याकरण पढ़कर अपने सतमंजिले ज्ञान महल की मजबूत नींव डाली।
 
टिवैâतनगर में उन्हें दक्षिण से आई हुई एक क्षुल्लिका विशालमती जी का समागम प्राप्त हुआ। आचार्यश्री के समक्ष क्षुल्लिका वीरमती जी यदा-कदा अपनी आर्यिका दीक्षा के लिए निवेदन किया करती थीं किन्तु आचार्यश्री कहते थे-बेटा! अभी तक मैंने किसी को आर्यिका दीक्षा प्रदान नहीं की है तथा मेरे साथ तुम्हें बहुत अधिक चलना पड़ेगा क्योंकि मैं तेज चाल से प्रतिदिन ३०-४० किमी.चलता हूँ। तुम अत्यन्त कमजोर हो और इस लघुवय में इतना नहीं चल सकती हो।
 
हाँ, यदि तुम्हें आर्यिका दीक्षा लेनी ही है तो चारित्र चक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज के शिष्य आचार्यश्री वीरसागर महाराज के संघ में मैं तुम्हें भेज दूँगा। सुना है, वहाँ वृद्धा आर्यिकाएँ हैं और वे विहार भी थोड़ा-थोड़ा करते हैं अत: वहाँ तुम ठीक से रह सकोगी। दूसरे संघ से अपरिचित और गुरुवियोग की बात से यद्यपि वीरमती जी कुछ दु:खी हुर्इं किन्तु और कोई चारा भी तो नहीं था उनके समक्ष आर्यिका दीक्षा ग्रहण करने का।
 
खैर! संयोग-वियोग को सरलता से सहन करना तो उन्होंने जन्म से ही सीख लिया था क्योंकि अपने दो वर्षीय भाई रवीन्द्र को, जो उनके बिना सोता ही नहीं था, जीजी की धोती पकड़कर, अंगूठा चूसकर ही जिसकी सोने की आदत थी, उसे किस निर्ममतापूर्वक छोड़कर आई थीं। जब छोटा भैय्या चारपाई पर सो ही रहा था, इन्होंने अपनी धोती धीरे से खींचकर उसके पास दूसरा कपड़ा रख दिया, जिसे जीजी की धोती समझकर वह चूसता रहा और निद्रा के हिलोरें लेता रहा।
 
उस मासूम को हमेशा के लिए छोड़ते हुए एक आँसू भी तो इनकी आँखों में नहीं आया था। २२ दिन की बहन मालती को शायद बाह्य स्नेहवश माँ से लेकर थोड़ा सा प्यार किया और भाईयों के राखी बंधवाई चूँकि रक्षाबंधन का पावन दिवस था। फिर चल दी थीं बाराबंकी की ओर देशभूषण महाराज को अपना पाठ सुनाने। क्या किसी को उस दिन यह पता भी चल सका था कि मेरी बेटी, मेरी बहना, मेरी पोती और मेरी भतीजी अब कभी हमें माँ, भाई, दादी, चाचा आदि कहने इस घर में आएगी ही नहीं! उस १८ वर्ष प्राचीन जन्मजात वियोग के समक्ष दो वर्षों से प्राप्त गुरु सानिध्य का वियोग तो शायद कुछ भी नहीं होगा।
 
हो भी, तो वीरमती जी का वैराग्य हृदय उसे कब स्थान देने वाला था, उसे तो अपनी मंजिल पर पहुँचना जो था। एक दिन सुना, ‘‘चारित्र चक्रवर्ती श्री शान्तिसागर महाराज वुंâथलगिरि सिद्धक्षेत्र पर यमसल्लेखना ले रहे हैं’’ तब ये आतुर होकर गुरु आज्ञापूर्वक क्षुल्लिका विशालमती जी के साथ उस जीवन्त तीर्थ के दर्शनार्थ निकल पड़ीं और दक्षिण भारत के ‘नीरा’ ग्राम में पहुँचकर युगप्रमुख आचार्र्यश्री के प्रथम दर्शन किये।
 
क्षुल्लिका विशालमती जी से इनका परिचय सुनकर वे करुणा के सागर आचार्यश्री बहुत प्रसन्न हुए और ‘उत्तर की अम्मा’ कहकर इन्हें कुछ लघु सम्बोधन प्रदान किए। क्षुल्लिका वीरमती जी तो मानो यहाँ साक्षात् तीर्थंकर भगवान् महावीर की छत्रछाया पाकर कृतार्थ ही हो गई थीं। बार-बार गुरुदेव की पदरज मस्तक पर चढ़ाती हुई उनकी गुरु भक्ति अन्तर्हृदय की पावनता दर्शा रही थी।
 
कुछ देर की मूक भक्ति के पश्चात् वेदना की शब्दावलियाँ पूâटती हैं, जो गुरुवर्य से चिरकालीन भव भ्रमण कथा कह देना चाहती हैं किन्तु वीरमती जी उन्हें अपने एक वाक्य में समेटकर व्यक्त करती हैं- ‘हे संसार तारक प्रभो! मैं आपके करकमलों से आर्यिका दीक्षा लेना चाहती हूँ।’ अनुकम्पा की साक्षात् मूर्ति आचार्यश्री की देशना मिली- अम्मा! मैंने अब दीक्षा देने का त्याग कर दिया है, मैं समाधि ग्रहण करने कुंथलगिरि जा रहा हूँ।
 
तुम मेरे शिष्य मुनि वीरसागर जी के पास जाकर आर्यिका दीक्षा प्राप्त करो, मेरा तुम्हें पूर्ण आशीर्वाद है। आशा की किरणावलियाँ फूटीं वीरमती जी के हृदयांगन में और उन्होंने आर्यिका दीक्षा से पूर्व महामना, उपसर्गविजयी चारित्र चव्रवर्ती आचार्यश्री का पण्डितमरण देखने का निर्णय किया अत: सन् १९५५ का चातुर्मास क्षुल्लिका विशालमती जी के साथ महाराष्ट्र प्रान्त के ‘‘म्हसवड़’’ नगर में किया।

दो अविस्मरणीय उपलब्धियाँ


 २० वर्षीय क्षुल्लिका वीरमती जी से जहाँ म्हसवड़ की आम जनता अतिशय प्रभावित रही, वहीं यहाँ उन्हें दो शिष्याओं का लाभ मिला-कु. प्रभावती, जो आर्यिका श्री जिनमती जी हुर्इं और सौ. सोनूबाई, जिन्होंने आर्यिका पद्मावती बनकर मासोपवास करके सन् १९७१ में उत्तम समाधिमरण प्राप्त किया। यह तो रही शिष्याओं की प्रथम उपलब्धि और दूसरी उपलब्धि उनके ज्ञान सूर्य की प्रथम किरण यहीं प्रस्पुâटित हुई।
 
उन्होंने अपने व्याकरण ज्ञान का प्रयोगात्मक उपयोग यहाँ ‘‘जिनसहस्रनाम मंत्र’’ की रचना से किया। भगवान् के एक हजार नामों में चतुर्थी विभक्ति लगाकर नम: शब्द के साथ उनकी ज्ञान प्रतिभा एकदम निखर उठी। क्षुल्लिका विशालमती जी ने तत्काल ही व्रत विधि सहित उन मंत्रों को लघु पुस्तक रूप में प्रकाशित किया।
 
आज ज्ञानमती माताजी की प्रथम साहित्यिक कृति ‘जिनसहस्रनाम मंत्र’ का नाम लेते ही मेरे मन में अमिट विश्वास जम गया है कि जिस लेखनी का शुभारंभ ही श्री जिनेन्द्र के एक हजार आठ नामों से हुआ हो, उसके द्वारा दो-ढाई सौ ग्रंथ लिखा जाना कोई विशेष बात नहीं है। यदि माताजी के पास उत्तम स्वास्थ्य और साधु क्रियाओं में व्यतीत होने वाला समय और अधिक मिल जाता, तो निश्चित ही ग्रंथों की संख्या हजार तक पहुँचने में देर न लगती।

वीरमती से ज्ञानमती


 म्हसवड़ चातुर्मास के मध्य ही जब उन्होंने सुना कि आचार्यश्री ने कुंथलगिरि में यम सल्लेखना ले ली है, तब वे क्षुल्लिका विशालमती जी के साथ वहाँ अंतिम दर्शन करने और समाधि देखने पहुँच गर्इं। द्वितीय भादों शुक्ला दूज को आचार्यश्री ने बड़े ही शान्तिपूर्वक ‘‘ॐ सिद्धाय नम:’’ मंत्र ध्वनि बोलते एवं सुनते-सुनते अपने नश्वर शरीर का त्याग किया। उस समय पूरे एक माह तक क्षुल्लिका वीरमती जी को वहाँ रहने का सौभाग्य मिला। इस मध्य गुरुदेव के मुख से दो-चार लघु अनमोल शिक्षाएँ भी प्राप्त हुर्इं।
 
पुन: म्हसवड़ का चातुर्मास सम्पन्न करके वीरमती जी अपनी उभय शिष्याओं के साथ जयपुर (खानियाँ) में विराजमान आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज के संघ में पहुँचीं। गौरवर्णी, लम्बे कद और प्रतिभासम्पन्न लघुवयस्क व्यक्तित्व को देखकर आचार्यश्री एवं समस्त साधु-साध्वी आश्चर्यचकित थे। मूलाचार ग्रंथानुसार पहले तो सब तरफ से गुप्तरीत्या क्षुल्लिका वीरमती जी की परीक्षाएँ हुर्इं किन्तु साधु-साध्वी, ब्रह्मचारी-ब्रह्मचारिणी सभी तो एक स्वर से इन्हें प्रथम श्रेणी का प्रमाण-पत्र देते हुए यही कह रहे थे-अरे! यह तो साक्षात् सरस्वती ही प्रतीत हो रही हैं।
 
प्रात: ३ बजे से उठकर रात्रि के १० बजे तक यह न तो पुस्तकों का पीछा छोड़ती हैं और न ही अपनी शिष्याओं को चैन लेने देती हैं, हर वक्त उन्हें ज्ञानाराधना में व्यस्त रखती हैं। इसके साथ ही सामायिक, प्रतिक्रमण और स्वाध्याय आदि समस्त क्रियाएँ शास्त्रोक्त समयानुसार करती हैं। किसी भी पाठ के लिए इन्हें पुस्तक देखने की भी तो जरूरत नहीं है।
 
पूरा दैवसिक-रात्रिक प्रतिक्रमण आदि भी कण्ठस्थ है। आखिर इसे पूर्व जन्म का संस्कार माना जाये या इस जन्म की तपस्या एवं सतत ज्ञानाराधना का फल! कुछ भी हो, आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज ने एक कुशल जौहरी की भाँति इस हीरे को परखा और शीघ्र ही इन्हें आर्यिका दीक्षा प्रदान करने का निर्णय लिया।
 
संघ अब जयपुर से विहार करके राजस्थान के ‘‘माधोराजपुरा’’ नगर में पहुँचा, तब वहीं विक्रम संवत् २०१३ (सन् १९५६) में वैशाख वदी दूज के शुभ मुहूर्त में क्षुल्लिका वीरमती जी को आचार्य श्रीवीरसागर जी महाराज ने आर्यिका दीक्षा प्रदान कर ‘‘ज्ञानमती’’ नाम से सम्बोधित किया। इस प्रकार बीसवीं शताब्दी की प्रथम ज्ञानमती को जन्म दिया आचार्य श्री वीरसागर जी ने। जो नाम कबीरदास जी के निम्न दोहे को असत्य साबित कर रहा है-
 
रंगी को नारंगी कहते, कहें तत्त्व को खोया।
चलती को गाड़ी कहें, देख कबीरा रोया।।
 
अर्थात् सार्थक नामधारी ज्ञानमती माताजी को यदि कबीरदास जी देख लेते, तो शायद उनके रोने की नौबत न आती। आचार्यश्री ने अपनी नवदीक्षित शिष्या को अधिक शिक्षाएँ देने की आवश्यकता भी नहीं समझी। उनकी एक वाक्य की लघु शिक्षा ने ही ज्ञानमती माताजी के अन्दर पूर्ण आलोक भर दिया-ज्ञानमती जी! मैंने जो तुम्हारा नाम रखा है, उसका सदैव ध्यान रखना।
 
बस, इसी शब्द ने आज माताजी को श्रुतज्ञान के उच्चतम शिखर पर पहुँचा दिया है, जहाँ आध्यात्मिक आनन्द के समक्ष शारीरिक अस्वस्थता भी नगण्य प्रतीत होने लगी है। नये गुरुदेव और अपने नये नाम के साथ आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी का नवजीवन प्रारंभ हुआ। आचार्य संघ पुन: विहार करता हुआ कुछ दिनों के बाद जयपुर खानियाँ में ही आ गया, वहीं सन् १९५६ का वर्षायोग सम्पन्न हुआ।
 
अपनी शारीरिक शिथिलता के कारण आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज ने उसके पश्चात् जयपुर शहर के सिवाय कहीं विहार नहीं किया। वे मितभाषी एवं स्वाध्याय प्रेमी थे। शाम को प्रतिक्रमण के पश्चात् शिष्यों के सुख-दु:ख सुनकर किंचित् मुस्कराहट में उन सबका दु:ख दूर कर दिया करते थे।
 
वे कभी-कभी कहा करते-मुझे दो रोग सताते हैं। शिष्यगण उत्सुकतावश गुरुवर के दु:ख जानने को आतुर होते, तभी उनकी मुस्कराहट बिखरती और वे कहते-एक तो नींद आती है और दूसरी भूख लगती है। इन दो रोगों से तो सभी संसारी प्राणी ग्रस्त हैं अत: उनकी बात पर शिष्यों को हँसी आ जाती और वे अपना भी दु:ख-दर्द भूल जाते। सच, गुरु के लिए तो ये पंक्तियाँ सार्थक ही सिद्ध होती हैं-
 
त्वमेव माता च पिता त्वमेव, त्वमेव बन्धुश्च सखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणं त्वमेव, त्वमेव सर्वं मम देवदेव।।
 
आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज की छत्रछाया में उनकी नई शिष्या आर्यिकाश्री ज्ञानमती माताजी को माता-पिता एवं गुरु का स्नेह प्राप्त हो रहा था। गुरुदेव की शिथिलता दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही थी अत: सन् १९५७ का चातुर्मास भी जयपुर खानिया में ही रहा। पूज्य ज्ञानमती माताजी कई बार अपने गुरुवर के प्रति असीम श्रद्धा व्यक्त करती हुई बताती हैं कि महाराज जी हमेशा धवला की पुस्तकों का स्वाध्याय किया करते थे और कहा करते थे कि भले ही इसमें कुछ विषय ऐसे हैं, जो समझ में नहीं आते हैं किन्तु पढ़ते रहने से अगले भवों में अवश्य ही ज्ञान का फल प्राप्त होगा।
 
चातुर्मास चल रहा था तभी आश्विन कृ. अमावस्या को आचार्यश्री वीरसागर जी महाराज मध्यान्ह के लगभग ११ बजे समाधि लगाकर पद्मासन में बैठ गए और उनकी आत्मा इस जीर्ण शरीर से निकलकर देवलोक चली गई। गुरु वियोग से दुखी चतुर्विध संघ ने वहीं पर अपना नया संघनायक चुना। संघ के सर्ववरिष्ठ मुनिराज श्री शिवसागर जी महाराज इस परम्परा के द्वितीय पट्टाचार्य बने और संघ का कुशलतापूर्वक संचालन किया।

गुरुता से लघुता भली


 आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी गुरुदेव के मरणोपरान्त भी आचार्य श्री शिवसागर महाराज के संघ में रहीं और उनकी आज्ञा से कई मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक आदिकों को विविध धर्मग्रंथों का अध्ययन कराया किन्तु उन्होंने अपनी इस गुरुता को कभी प्रगट नहीं किया। किसी मुनि के द्वारा यह कहने पर कि ‘‘ज्ञानमती माताजी मेरी शिक्षा गुरु हैं’’ वे खेद महसूस करतीं और कहतीं कि महाराज! मैं तो आप सबके साथ स्वाध्याय करती हूँ न कि पढ़ाती हूँ।
 
यह उनके हृदय की महानता ही थी, वे हमेशा कहा करती हैं कि गुरुता के भार से मनुष्य अधिक दबता जाता है और लघुता से तराजू के खाली पलड़े की भाँति ऊपर उठता जाता है। धन्य है उनका व्यक्तित्व! जिन्होंने गुरु बनकर भी गुरुता स्वीकार नहीं की, इसीलिए आज उन्होंने सम्पूर्ण भारतीय जैन समाज में सर्वोच्च विदुषी पद को प्राप्त कर लिया है। उनकी अध्यापन शैली भी इतनी सरल और रोचक है कि हर जनमानस बिना कठिन परिश्रम किए हर विषय को समझ सकता है।
 
अध्ययन काल में शिष्यों को शास्त्रीय विषयों के माध्यम से उनके द्वारा न जाने कितनी अमूल्य व्यवहारिक शिक्षाएँ भी प्राप्त हो जाती हैं, यह उनके वैदुष्य का सबल प्रमाण है। सन् १९५७ से सन् १९६२ तक माताजी इसी आचार्य संघ में रहीं। इस मध्य आर्यिका पद्मावती जी, आर्यिका जिनमती जी, आर्यिका आदिमती जी, आर्यिका श्रेष्ठमती जी, आर्यिका संभवमती जी आदि को आचार्य श्री शिवसागर महाराज के करकमलों से दीक्षा दिलवाई।
 
सन् १९६१ में सीकर (राज.) चातुर्मास के अंतर्गत ब्र. राजमल जी को अनेक प्रेरणाएँ देकर मुनि दीक्षा के लिए उत्साहित किया, जो वहीं मुनि श्री अजितसागर बने। वे चतुर्विध संघ की सहमति से इस परम्परा के चतुर्थ पट्टाचार्य बने।

आर्यिका संघ की मंगलमयी तीर्थयात्रा


 ईसवी सन् १९६२ (वि. सं. २०१९) के लाडनूं चातुर्मास के पश्चात् आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने अपने गुरुभाई आचार्यश्री शिवसागर जी महाराज की आज्ञा से चार आर्यिका एवं एक क्षुल्लिका का संघ लेकर सम्मेदशिखर और गोम्मटेश्वर यात्रा के लिए विहार किया। इस आर्यिका संघ का सर्वप्रथम चातुर्मास सन् १९६३ (वि. सं. २०२०) में कलकत्ता महानगरी में हुआ। श्री ज्ञानमती माताजी ही इस संघ की प्रमुख बड़ी आर्यिका थीं, शेष सभी तो उनके द्वारा हस्तावलंबन को प्राप्त संसार कर्दम से निकली शिष्याएँ थीं अत: माताजी को ही संघ की जिम्मेदारी का सारा भार वहन करना पड़ता।
 
इनकी प्रवचन कला तो प्रारंभ से ही आकर्षक रही है। आगम में छिपे रहस्यों को जब रोचक शैली से प्रवचन में उद्घाटित करतीं, तब हर्षातिरेक में कई विद्वान श्रावक तो इन्हें श्रुतकेवली की संज्ञा प्रदान कर भी तृप्त न होते थे। शुद्ध जल का नियम दिलाकर आहार लेने पर भी चौकों की भरमार रहती और क्यू लाइन लगवाकर लोग १-१ ग्रास आहार दे पाते। आहार में मीठा, नमक, तेल, दही आदि रसों का त्याग ही था, प्राय: एक अन्न या दो अन्न मात्र ग्रहण करती थीं अत: उनके नीरस और अल्पाहार को देखकर सबको आश्चर्य होता और वे सोचने को मजबूर हो जाते कि माताजी इतना परिश्रम कैसे कर लेती हैं?
 
कहाँ से शक्ति आती है? किन्तु ज्ञानमती माताजी के जीवन का एक छोटा सा सूत्र समस्त साधु समाज के लिए अनुकरणीय है- जैसे गाय घास खाकर मीठा दूध देती है उसी प्रकार साधु रूखा-सूखा भोजन करके समाज को धर्मामृत प्रदान करते हैं। इसीलिए साधुओं की वृत्ति ‘‘गोचरीवृत्ति’’ कही गई है। इसी सूत्र को सार्थक करती हुई आर्यिकाश्री ने अपने कमजोर औदारिक शरीर से कठोर परिश्रम कर संसार को अथाह ज्ञानामृत पिलाया है। इसी तरह हैदराबाद, श्रवणबेलगोल, सोलापुर और सनावद आदि स्थानों पर किए गए आपके चातुर्मास भी ऐतिहासिक रहे हैं।

कतिपय उपलब्धियाँ


 सन् १९६३ में कलकत्ता से आचार्यकल्प श्री श्रुतसागर जी की गृहस्थावस्था की सुपुत्री कु. सुशीला को अनेक संघर्षों के मध्य घर से निकाला और सन् १९७४ में दिल्ली में आचार्य श्री धर्मसागर जी से दीक्षा दिलाकर ‘‘आर्यिका श्रुतमती’’ बनाया, जो वर्तमान में पूज्य ज्ञानमती माताजी की शिष्या आर्यिका श्री आदिमती माताजी के पास हैं।
 
सन् १९६४ में (वि. सं. २०२१) आंध्रप्रदेश के हैदराबाद शहर में आर्यिका संघ के चातुर्मास के मध्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी गंभीर रूप से बीमार हुर्इं। वहाँ की स्थानीय समाज ने भरपूर सेवा की, वैद्यराज जी भी कलकत्ता से आए, उनका इलाज चला। इसी बीच संघस्थ ब्र. कु. मनोवती ने माताजी से ही दीक्षा लेने का आग्रह किया। यहाँ एक अचम्भे और हँसी की बात है कि दीक्षा का नाम सुनते ही माताजी का स्वास्थ्य सुधरने लगा। हैदराबाद की जनता आश्चर्यचकित थी, वैद्य जी की औषधि से अधिक आरोग्यता तो उन्हें दीक्षा के नाम से प्राप्त हो गई थी।
 
कोई सोच भी नहीं सकता था कि इस कमजोर हालत में माताजी पांडाल तक जाकर मनोवती का दीक्षा संस्कार कर पाएँगी किन्तु श्रावण शुक्ला सप्तमी तिथि को माताजी स्वयं चलकर पांडाल तक पहुँचीं तथा अपनी गृहस्थावस्था की लघु बहन कु. मनोवती को विशाल जनसमूह के मध्य क्षुल्लिका दीक्षा प्रदान कर उनका ‘‘अभयमती’’ नाम घोषित किया। आंध्र प्रदेश में जैन दीक्षा का यह प्रथम अवसर था जो वहाँ के इतिहास का अविस्मरणीय पृष्ठ बन गया।
 
श्रवणबेलगोल गोम्मटेश्वर बाहुबली के इस ऐतिहासिक तीर्थ पर सन् १९६५ (वि. सं. २०२२) के चातुर्मास ने तो आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी को एक ऐतिहासिक साध्वी का रूप प्रदान किया है। बाहुबली स्वामी के पादमूल में १५ दिन की अखंड मौनपूर्वक की गई ध्यान-साधना ने उन्हें तेरह द्वीप के माध्यम से सब कुछ प्रदान कर दिया था। आगे चलकर यह तेरह द्वीप मात्र एक जम्बूद्वीप के रूप में परिवर्तित हुआ हस्तिनापुर की पावन वसुन्धरा पर।
 
जिसे दक्षिण-उत्तर का सेतु मानकर सारे देश के तीर्थयात्री तो देखने आते ही हैं, विदेशों से भी अनेक पर्यटक इस दर्शनीय स्थल को देखकर अत्यन्त प्रसन्न होते हैं। सन् १९६६ (वि. सं. २०२३) सोलापुर के श्राविकाश्रम चातुर्मास में शिक्षण शिविरों के माध्यम से जो ज्ञान का अलख जगाया, वह वहाँ के इतिहास का अविस्मरणीय पृष्ठ बन गया है।
 
वहाँ की प्रमुख ब्रह्मचारिणी ब्र. कु. विद्युल्लता जी शहा (संचालिका-श्राविकाश्रम) ने आज भी उन पावन स्मृतियों को हृदय में संजो रखा है। सन् १९६७ (वि. सं. २०२४) में सनावद (म.प्र.) का चातुर्मास तो अद्यावधि जीवन्त है क्योंकि वहाँ के श्रेष्ठी स्व. श्री अमोलकचंद जैन सर्राफ के सुपुत्र ब्र. मोतीचंद जी एवं उनके चचेरे भाई यशवन्त कुमार को अपना संघस्थ बनाकर पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी ने मोक्षमार्ग की अनेक अमूल्य शिक्षाओं से उनके जीवन बदल दिये। जिनमें से यशवन्त कुमार को आचार्य वर्धमानसागर बनाने का श्रेय आपको ही है।
 
ब्र. मोतीचंद जी क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी के रूप में अद्यावधि आपकी छत्रछाया में जम्बूद्वीप संस्थान को अपनी कर्मभूमि के रूप में स्वीकार कर सतत ज्ञानाराधना में तत्पर हैं। जम्बूद्वीप रचना निर्माण, ज्ञानज्योति प्रवर्तन तथा पूज्य माताजी के प्रत्येक कार्यकलापों में ब्र. मोतीचंद जी की प्रमुख भूमिका होने के नाते सनावद चातुर्मास हस्तिनापुर के इतिहास से सदा के लिए जुड़ गया है।

पुन: संघीय मिलन


 इस पंचवर्षीय भ्रमण योजना के पश्चात् आचार्य श्री शिवसागर महाराज की प्रबल प्रेरणावश ज्ञानमती माताजी अपने संघ सहित पुन: संघ में पधारीं। तब आचार्य संघ के साथ सन् १९६८ (वि. सं. २०२५) का चातुर्मास राजस्थान के ‘‘प्रतापगढ़’’ नगर में हुआ।
 
अनन्तर अधिक दिनों तक श्री शिवसागर महाराज का सानिध्य न मिल सका क्योंकि सन् १९६९ में ही फाल्गुन कृ. अमावस्या को श्री शांतिवीर नगर-महावीर जी में आचार्यश्री का अल्पकालीन बीमारी से अचानक समाधिमरण हो गया पुन: चतुर्विध संघ ने परम्परा के वरिष्ठ मुनिराज श्री धर्मसागर जी को तृतीय पट्टाचार्य मनोनीत किया और होने वाला पंचकल्याणक महोत्सव उन्हीं के सानिध्य में सानंद सम्पन्न हुआ तथा मुनि-आर्यिकाओं की ११ दीक्षाएँ भी उनके करकमलों से प्रथम बार सम्पन्न हुई।

आचार्य श्री धर्मसागर जी के साथ भी


 आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के लिए आचार्य श्री शिवसागर जी महाराज के समान ही धर्मसागर जी महाराज भी गुरु भाई थे क्योंकि ये भी आचार्य श्री वीरसागर महाराज द्वारा दीक्षित मुनि शिष्य थे। होनहार की प्रबलता कहें या कालदोष, द्वितीय पट्टाचार्य श्री शिवसागर जी महाराज की समाधि के पश्चात् यह विशाल संघ २-३ टुकड़ों में बंट गया।
 
आचार्यकल्प श्री श्रुतसागर महाराज, अजितसागर जी, सुबुद्धिसागर जी, श्रेयांससागर जी आदि अनेक साधु तथा विशुद्धमती माताजी आदि कई आर्यिकाएँ संघ से अलग हो गए किन्तु आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी नूतन आचार्यश्री के आग्रह पर उसी संघ में रहीं। चतुर्मुखी प्रतिभा से सम्पन्न, अलग विहार एवं धर्मप्रभावना में कुशल तथा संघ की अपेक्षा अलग रहकर समाज को अधिक लाभ देने में सक्षम साधुगण प्राय: अपने दीक्षागुरु के अनुशासन में रहने में परतन्त्रता और कठिनाई का अनुभव करते हैं किन्तु माताजी प्रारंभ से ही हर प्रकार के माहौल में रहने की अभ्यस्त रही हैं क्योंकि उनका तो लक्ष्यमात्र यही रहा कि ‘‘दीक्षा प्रभावना के लिए नहीं, आत्मकल्याण के लिए ग्रहण की जाती है।’’
 
सन् १९६९ (वि.संं. २०२६) में आचार्य श्री धर्मसागर जी के साथ ही माताजी का चातुर्मास भी जयपुर के बख्शी चौक में हुआ। यहाँ मैंने प्रथम बार ज्ञानमती माताजी के दर्शन किये थे जिसकी आज भी मुझे पूरी स्मृति है। मैंने वहाँ देखा था कि माताजी दिन के छ: घण्टे मुनि-आर्यिका आदि को अष्टसहस्री, कातंत्रव्याकरण, राजवार्तिक आदि कई ग्रंथों का अध्ययन कराती थीं। एक आचार्यसंघ में साधुओं के शिक्षण की विधिवत् व्यवस्था का वह अनुकरणीय उदाहरण था।
 
यह समुचित क्रम चला सन् १९७१ के अजमेर चातुर्मास तक। इससे पूर्व टोंक (राज.) में सन् १९७० का चातुर्मास भी आचार्य संघ के साथ ही माताजी ने किया। घड़ी, दिन, महीने और वर्षों ने अब संघ की वृद्धि में भी चार चांद लगा दिए थे। अजमेर चातुर्मास के मध्य भी कई दीक्षाएँ हुर्इं, जिसमें माताजी की गृहस्थावस्था की माँ मोहिनी देवी ने भी अपने विशाल परिवार का मोह छोड़कर आचार्यश्री धर्मसागर जी महाराज से आर्यिका दीक्षा ग्रहणकर ‘‘रत्नमती’ नाम प्राप्त किया था।
 
 मोइनिया इस्लामिया स्कूल के विशाल प्रांगण में ज्ञानमती माताजी ने अत्यन्त निर्ममतापूर्वक अपनी माता का केशलोंच किया था। वहाँ की जनता रो रही थी, परिवार बिलख रहा था, हम सभी बच्चे माँ की ममता पाने को तरस रहे थे किन्तु ज्ञानमती माताजी और आर्यिका बनने वाली रत्नमती माताजी के चेहरों पर अपूर्व चमक तथा प्रसन्नता थी जो सांसारिक राग पर विजयश्री प्राप्त करने की बात स्पष्ट झलका रही थी। इसके बाद पुत्री और माता का संबंध गुरु और शिष्य में परिवर्तित हो गया था।

निर्बाध संयम साधना


 ईसवी सन् १९६५ से मस्तिष्क में आई जम्बूद्वीप रचना पृथ्वी पर बनने का संयोग प्राप्त हुआ १० वर्ष पश्चात् १९७५ में। १० वर्षीय मानसिक योजना प्रारंभ होने के बाद १० वर्ष के अंतराल में ही पूर्ण हुई, तभी सन् १९८५ में उसका प्रतिष्ठापना महोत्सव मनाया गया। हालांकि इस दीर्घकाल के मध्य कहीं पर माताजी के द्वारा रुकने का आश्वासन न देने के कारण ही अब तक इसका निर्माण न हो सका था।
 
उनके मन में कई बार यह शंका उठ जाती कि इस निर्माण से मेरे संयम में कहीं कोई बाधा न आ जाए अत: उन्होंने अपने शिष्य ब्र. मोतीचंद जी, ब्र. रवीन्द्र जी तथा मुझसे स्पष्ट कहा था- मैं इस रचना निर्माण के लिए किसी से पैसा नहीं मागूँगी और न आहार संबंधी व्यवस्था की कोई चिंता करूँगी। यदि तुम लोग मुझसे निर्माण की प्रेरणा चाहते हो, तो सारी जिम्मेदारी का भार तुम लोगों पर होगा अन्यथा मुझे जम्बूद्वीप निर्माण में कोई रुचि नहीं है। मेरे संयम में किसी तरह का दोष लगना मुझे स्वीकार नहीं है।’’
 
उनके सभी शिष्यों ने आश्वासन प्रदान कर उन्हें चिन्तामुक्त किया और आज इस बात की प्रसन्नता है कि पूज्य माताजी ने हस्तिनापुर, दिल्ली, खतौली, सरधना, मांगीतुंगी, अयोध्या, प्रयाग, कुण्डलपुर आदि स्थानों पर चातुर्माए किए किन्तु उनके संयम में किसी प्रकार की कोई बाधा कभी नहीं आई।
 
न तो उन्होंने कभी जम्बूद्वीप निर्माण के लिए किसी श्रावक से पैसे की याचना की और न ही अपने आहार आदि की व्यवस्था हेतु किसी को कहा। उनके जीवन का एक संकल्प प्रारंभ से रहा है कि ‘‘आहार में कभी संस्था के दान का एक पैसा भी नहीं लगना चाहिए और न ही साधु को अपने आहार के लिए श्रावकों से कहना चाहिए।’’ उनके इस नियम का अभी तक हम सभी ने पूर्णरूपेण पालन किया है और भविष्य में भी पूज्य माताजी की तरह निर्दोष संयम पालन की भावनावश इस नियम का पालन करने की उत्कट इच्छा है।

जम्बूद्वीप की प्रारंभिक उपज कहाँ से ?


 ईसवी सन् १९६५ में आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने अपने संघ सहित कर्नाटक के श्रवणबेलगोला तीर्थक्षेत्र पर भगवान बाहुबली के चरण सानिध्य में चातुर्मास स्थापना किया। उस समय माताजी के संघ में आर्यिका पद्मावती जी, आर्यिका जिनमती माताजी, आर्यिका आदिमती जी, क्षुल्लिका श्रेयांसमती एवं क्षुल्लिका अभयमती जी थीं।
 
आर्यिका आदिमती जी व क्षुल्लिका अभयमती जी की अस्वस्थता के कारण माताजी को वहाँ पर लगभग एक वर्ष रुकना पड़ा। जिसके मध्य कई बार विंध्यगिरि पर्वत पर भगवान बाहुबलि के चरण सामीप्य में माताजी को ध्यान करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। ध्यान की धारा निरन्तर बढ़ती गई। एक बार १५ दिन तक मौनपूर्वक लगातार पहाड़ पर रहकर ध्यान किया। मात्र आहार के समय नीचे उतरना, आहार के अनंतर पुन: ऊपर जाकर रात्रि वहीं व्यतीत करती थीं।
 
आर्यिका पद्मावती जी हमेशा माताजी के साथ ही रहती थीं। इसी मध्य एक दिन माताजी द्वारा भगवान बाहुबलि का ध्यान करते-करते उसी ध्यान की धारा में तेरहद्वीप के चार सौ अट्ठावन जिन चैत्यालयों की वंदना, वहाँ की अकृत्रिम छटा, वन खण्ड, स्वयंसिद्ध प्रतिमाएँ सब कुछ यथावत् मस्तिष्क में दृष्टिगत होने लगा। विशेष आनन्दानुभव के साथ ध्यान सन्तति समाप्त हुई। माताजी के हर्ष का पारावार नहीं था।
 
जब प्रात:काल आहार के समय पहाड़ से नीचे आई तो करणानुयोग के त्रिलोकसार ग्रंथ को उठाकर उसमें ज्यों की त्यों रचना का वर्णन पढ़कर अत्यधिक प्रसन्न हुर्इं। १५ दिन बाद मौन की अवधि समाप्त होने पर उन्होंने अपनी शिष्या आर्यिकाओं को भी सारी घटना बताई। माताजी की शिष्या आर्यिका जिनमती जी ने कहा कि यह रचना पृथ्वी पर अवश्य साकार होनी चाहिए। माताजी अपने प्रवचनों में भी जब अकृत्रिम चैत्यालयों का वैभव, उनकी प्राकृतिक छटा का वर्णन करतीं, उस समय सभी श्रोता एक क्षण को वहीं पहुँचकर स्वयंसिद्ध प्रतिमाओं के ध्यान में लीन हो जाते।
 
जैसा कि यह सूक्ति प्रसिद्ध ही है कि ‘‘वक्त्रं वक्ति हि मानसम्’’ ठीक इसी प्रकार माताजी के अन्त:करण से निकले हुए शब्द श्रोताओं को प्रभावित किए बिना नहीं रहते। आज भी उनकी यही अन्तरंग भावना रहती है कि ‘‘कब उन अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना साक्षात् करने का सौभाग्य मुझे प्राप्त होगा।’’ भगवान उनकी इस भावना को अवश्य पूर्ण करेगा।

कुछ दिनों के बाद श्रवणबेलगोला


 से विहार करके आर्यिका संघ सोलापुर (महाराष्ट्र) आया। यहाँ पर एक श्राविकाश्रम है, जिसकी संस्थापिका स्व. पद्मश्री पं. सुमतिबाई शहा कर्मठ महिला थीं। साथ में वहाँ की संचालिका बाल ब्र. विदुषी विद्युल्लता शहा (श्राविकाश्रम की संचालिका) भी माताजी की अनन्य भक्तों में से हैं।
 
इनकी मां आर्यिका चन्द्रमती जी, माताजी के साथ ही आचार्य वीरसागर जी महाराज के संघ में रहती थीं और ज्ञानमती माताजी से कुछ न कुछ अध्ययन भी करती थीं। यही कारण था कि उनकी माताजी के प्रति विशेष भक्ति थी अत: इन लोगों के आग्रह से माताजी ने सोलापुर के महिलाश्रम में ही चातुर्मास स्थापन किया।
 
उसी समय आचार्य श्री विमलसागर महाराज का संघ सहित चातुर्मास सोलापुर में ही शहर में हुआ। दोनों संघों का संगम वहाँ की धर्मप्रभावना में विशेष सहकारी बना। ज्ञानमती माताजी के सानिध्य में शिक्षण शिविर का आयोजन हुआ, जिसमें प्रौढ़ स्त्री-पुरुषों ने सक्रिय रूप से भाग लेकर ज्ञानार्जन किया। माताजी प्रतिदिन विभिन्न विषयों के साथ-साथ जैन भूगोल पर अच्छा प्रकाश डालतीं, जिससे ब्र. सुमतिबाई के हृदय में भी इस रचना को पृथ्वी पर बनाने की लालसा जागृत हुई।
 
उन्होंने सोलापुर में इस रचना हेतु कई स्थल चयन किए और माताजी से कुछ दिन यहीं रहकर मार्गदर्शन प्रदान करने के लिए निवेदन किया। उन्होंने बहुत आग्रह किया कि माताजी! हम आपकी चर्या में किसी प्रकार का दोष नहीं लगने देंगे, हमें मात्र आपके द्वारा दिशा-निर्देश चाहिए क्योंकि यह रचना आज तक कहीं भी बनी नहीं है, किसी इंजीनियर या आर्कीटेक्ट के गम्य भी यह विषय नहीं है।
 
नंदीश्वर द्वीप की रचना, समवसरण की रचना तो कई जगह निर्मित हो चुकी हैं अत: उसकी नकल करने में हमें कोई परेशानी नहीं होगी किन्तु यह रचना मात्र आपके मस्तिष्क में है, आप ही इसका सही मार्गदर्शन दे सकती हैं, किन्तु माताजी के वहाँ नहीं रुकने के कारण वहाँ का कार्य संभव न हो सका।
 
सोलापुर में ब्र. सुमतिबाई और कु. विद्युल्लता जी ने जिस तन्मयता से पूज्य माताजी की व संघ की वैयावृत्ति की, उसका उदाहरण माताजी के प्रवचन में कई बार सुनने को मिलता है-‘‘विद्वत्ता के साथ-साथ साधु सेवा का गुण वास्तव में सोने में सुगंधि का कार्य करता है।’’ इस प्रकार से सोलापुर का चातुर्मास माताजी के जीवन का अविस्मरणीय पृष्ठ है।

माताजी की हार्दिक इच्छा


 तो हमेशा रही कि मेरे मस्तिष्क की रचना कहीं न कहीं पृथ्वी पर अवश्य साकार हो जाए किन्तु वे इसमें माध्यम नहीं बनना चाहती थीं। इनकी इच्छा थी कि कोई इसे स्वयं अपनी जिम्मेदारी पर करवाए। यही कारण रहा कि कहीं इसका योग नहीं बना। वैसे तो ऐसे-ऐसे महान कार्य किसी साधु-संतों के आश्रय के बिना असंभव ही होते हैं।
 
इस शताब्दी के पुराने इतिहास को देखने से भी यही ज्ञात होता है कि धार्मिक साहित्य तथा तीर्थों का उद्धार साधुओं के द्वारा ही हुआ है। चारित्र चक्रवर्ती आचार्य सम्राट श्री शांतिसागर महाराज की प्रेरणा से प्राचीन सिद्धान्त ग्रंथ ताम्रपट्ट पर उत्कीर्ण हुआ, जो फलटण में आज भी विराजमान है। युगों युगों तक यही साहित्यिक धरोहर जैन धर्म की प्राचीनता को दर्शाएगा।
 
इसी प्रकार से कुंथलगिरि में देशभूषण और कुलभूषण मुनिराजों की प्रतिमाओं की स्थापना भी आचार्यश्री की प्रेरणा से ही हुई। वह तीर्थ आचार्यश्री को अत्यंत प्रिय था इसीलिए उन्होंने वहीं पर सल्लेखनापूर्वक अपने अंतिम शरीर का त्याग किया। कुंभोज बाहुबली जो महाराष्ट्र का जीवन्त तीर्थ है, उसका उत्थान भी आचार्य श्री की प्रेरणा से ही हुआ।
 
इसका सुन्दर वर्णन ज्यों की त्यों डा. श्री सुभाषचन्द अक्कोले ने ‘‘आचार्य शांतिसागर जन्मशताब्दी महोत्सव स्मृति ग्रन्थ’’ में किया है। उन्होंने किस प्रकार से मुनि समन्तभद्र जी को कुम्भोज में बाहुबली की प्रतिमा स्थापित करने की प्रेरणा और आशीर्वाद प्रदान किया। देखिए-
 
‘‘तुमची इच्छा येथे हजारों विद्याथ्र्यांनी राहावे 
शिकावे हा तुम्हा सर्वांना आशीर्वाद आहे।’
 

इसका हिन्दी अर्थ यह है


 ‘‘आपकी आन्तरिक इच्छा यह है कि यहाँ पर हजारों विद्यार्थी धर्माध्ययन करते रहें इसका मुझे परिचय है। यह कल्पवृक्ष खड़ा करके जा रहा हूँ। भगवान का दिव्य अधिष्ठान सब काम पूरा कराने में समर्थ है। यथासम्भव बड़े पाषाण को प्राप्त कर इस कार्य को पूरा कर लीजिए।’’ मुनिश्री समन्तभद्र जी की ओर दृष्टि कर संकेत दिया-‘‘आपकी प्रकृति (स्वभाव) को बराबर जानता हूँ। यह तीर्थ भूमि है।
 
मुनियों को विहार करते रहना चाहिए इस प्रकार सर्वमान्य नियम है, फिर भी विहार करते हुए जिस प्रयोजन की पूर्ति करनी है उसे एक स्थान में यहीं पर रहकर कर लो। यह तीर्थक्षेत्र है, एक जगह पर रहने के लिए कोई बाधा नहीं है। जिस प्रकार से हो सके, कार्य शीघ्र पूरा करने का प्रयत्न करना। कार्य अवश्य ही पूरा होगा, सुनिश्चित पूरा होगा।
 
आप सबको हमारा शुभाशीर्वाद है।’’ आचार्यरत्न श्री देशभूषण महाराज ने अयोध्या में १००८ भगवान ऋषभदेव की विशाल प्रतिमा स्थापित करवाई, जयपुर खानिया का चूलगिरि पर्वत उन्हीं की देन है। उन्होंने अपनी गृहस्थावस्था की जन्मभूमि कोथली में कितना विशाल कार्य करवाया। गुरुओं की प्रेरणा व आशीर्वाद भक्तों के कार्यकलापों में संबल प्रदान करता है।
 
आचार्यश्री विमलसागर महाराज ने सम्मेदशिखर में समवसरण की रचना बनवाई, सोनागिरि में उनकी प्रेरणा से नंग-अनंग की मूर्ति तथा गुरुकुल की स्थापना हुई। इसी प्रकार जगह-जगह आचार्यश्री की प्रेरणा से बहुत से धार्मिक कार्य हुए हैं। आचार्यश्री विद्यासागर महाराज की प्रेरणा से सागर एवं जबलपुर (म.प्र.) में ब्राह्मी विद्या आश्रम की स्थापना हुई, जिसमें सैकड़ों अल्पवयस्क बालिकाएँ ज्ञानार्जन करके आत्मकल्याण के पथ पर अग्रसर हैं।
 
इसी प्रकार धर्मगुरुओं की प्रेरणा से हमेशा समाज एवं धर्म की उन्नति हुई है। निन्दा और प्रशंसा की ओर इन साधुओं का लक्ष्य न होकर आत्म और पर के कल्याण की ओर ही होता है। निन्दा करने वाले मात्र अपने कर्म का बंध कर लेते हैं जो कि उन्हें भव-भव में स्वयं को भोगना पड़ता है। एक भव की अज्ञानता अनेक भव परिवर्तनों का कारण बनती है। तभी तो आचार्यों ने कहा है-
 
भुक्तिमात्रप्रदाने तु का परीक्षा तपस्विनाम्।
ते सन्त: सन्त्वसन्तो वा गृही दानेन शुद्ध्यति।।
 
अर्थात् गृहस्थ को साधुओं की निंदा करने से क्या प्रयोजन? वह तो आहारदानादि अपनी क्रियाओं को करके शुभ भावों का बंध कर ही लेता है। साधु में यदि साधुता नहीं है, तो उसका फल उन्हें स्वयं भोगना प़ड़ेगा, श्रावक तो उसके फल में हकदार हो नहीं सकता। वर्तमान में मनुष्यों की स्थिति यह है कि व्यापारिक उलझनों में उलझकर रिश्वत में हजारों, लाखों रुपया देकर भी चैन की नींद नहीं सो सकते।
 
जबकि सुबह से शाम तक एड़ी से चोटी तक परिश्रम करके खून पसीना बहा करके केवल पारिवारिक संतुष्टियों के लिए सब कुछ किया जाता है। यदि इसकी जगह संतोषपूर्वक न्याय से थोड़ा धन कमाया जाए, उसी में से थोड़ा धर्मकार्यों में दान किया जाए, साधुओं की प्रेरणा से किसी धर्मतीर्थ का जीर्णोद्धार करा दिया जाए तो वह अधिक श्रेयस्कर है लेकिन इसका मूल्यांकन कोई विरले पुरुष ही कर सकते हैं।
 
पूज्य ज्ञानमती माताजी ने जब तक इस रचना कार्य में स्वयं को नहीं डाला, तब तक वह प्रादुर्भूत न हो सकी। सोलापुर से विहार करके माताजी भ्रमण करते-करते इंदौर (म.प्र.) में अपने संघ सहित आ गर्इं। इंदौर से लगभग ६० किमी. दूर सनावद (म.प्र.) की भाक्तिक जैन समाज के आग्रह से माताजी के संघ का सन् १९६७ का चातुर्मास सनावद में हो गया। यहाँ पर भी विशिष्ट व्यक्तियों ने जब माताजी के मस्तिष्क की रचना को सुना और समझा तो रुचिपूर्वक वहीं पर इसे बनवाने का विचार करने लगे।
 
पास में ही सनावद से ८-१० किमी. दूर सिद्धवरवूâट सिद्धक्षेत्र पर स्थान भी चयन किया गया। चातुर्मास समाप्ति के अनंतर सनावद वालों की प्रेरणा से माताजी ने सिद्धवरकूट यात्रा के लिए विहार किया। साथ में श्री रखबचंद जी कमलाबाई पांड्या, ब्र. मोतीचंद जी (क्षु. मोतीसागर), श्रीचंद जी, त्रिलोकचंद जी आदि बहुत से लोग थे।
 
सिद्धवरकूट नर्मदा नदी के तट पर बसा होने के कारण विशेष आकर्षण का केन्द्र है। नाव से एक मील नदी के रास्ते को तय करके यात्रीगण उस क्षेत्र पर पहुँचते हैं। यात्रा संघ में गए हुए मोतीचन्द आदि सभी लोगों ने इस दृष्टि से उस स्थान को रचना निर्माण के लिए चुना, जहाँ नर्मदा का जल सुविधापूर्वक प्राप्त करके अपने निर्माण में नदी-समुद्रों के लिए तथा फौव्वारों की सुन्दरता के लिए जल पर्याप्त अवस्था में प्राप्त कर सवें।
 
बहुत लम्बी-चौड़ी जगह का माप लिया गया। रमणीक स्थान होने के कारण चउमुखी दृष्टियों का केन्द्र बनता किन्तु वहाँ का भी योग नहीं था। अचानक आचार्यश्री शिवसागर जी महाराज के संघ से सूचना आ गई कि माताजी से कहो कि यह रचना महावीर जी तीर्थक्षेत्र पर बनेगी अत: वे शीघ्र ही आर्यिका संघ के साथ यहाँ आने का प्रयास करें। माताजी के हृदय में प्रारंभ से ही अटूट गुरु भक्ति थी। गुरु भाई आचार्यश्री का संदेश मिलते ही जल्दी ही संघ में जा पहुँचीं। तब तक तो माताजी के मन में तेरहद्वीप की रचना का ही प्लान था।

होनहार बहुत बलवान होती है


 आचार्य संघ महावीर जी पहुँचा ही था कि वहाँ पर आकस्मिक आचार्य श्री शिवसागर महाराज बीमार पड़ गए और देखते ही देखते फाल्गुनी अमावस्या को उनकी समाधि हो गई। अब उस संघ का नेतृत्व आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज के हाथों में आ गया। आचार्यश्री की समाधि से संघ का वातावरण शोकाकुल सा रहा। माताजी का उत्साह भी ठंडा पड़ चुका था अत: आगे कोई बात नहीं की गई। माताजी भी संघ के साथ में विहार व धर्मप्रभावना करती रहीं।
 
महावीर जी के बाद सन् १९६९ में जब संघ का चातुर्मास जयपुर (राज.) में था, तब माताजी ने वहाँ पर जैन ज्योतिर्लोक विषय पर शिविर लगाया, उस समय जनता को करणानुयोग के विषय में नया दिशाबोध मिला। संघस्थ ब्र. मोतीचन्द जी ने परिश्रमपूर्वक कुछ विशेष नोट्स भी तैयार किए। कुछ दिनों बाद उन्हीं नोट्स के आधार पर एक पुस्तक ‘‘जैन ज्योतिर्लोक’’ लिखी गयी, जो आज भी त्रिलोक शोध संस्थान में उपलब्ध है। माताजी को तो जैसे करणानुयोग का सारा विषय हृदयंगम ही हो चुका था। यदि स्वप्न में भी कोई तत्संबंधी प्रश्न कर देवे, तो उसका उत्तर आगम आधारपूर्वक प्रस्तुत रहता था।
 
अवश्य ही इन्हें कोई न कोई पूर्व भव के प्रबल संस्कार ही कहना पड़ेगा। सन् १९७१ का चातुर्मास आचार्य संघ के साथ ही अजमेर (राज.) में हुआ। वहाँ के सर सेठ भागचन्द जी सोनी और उनकी धर्मपत्नी ज्ञान से प्रभावित होने के कारण पूज्य माताजी के पास अधिक समय निकाल कर स्वाध्याय आदि का लाभ लेते। चातुर्मास सोनी जी की नशिया में ही हुआ था अत: वहीं पर प्रवचन भी होते थे। एक दिन सेठ जी के सामने माताजी की बात हुई, उन्होंने बड़ी रुचिपूर्वक माताजी को उसी नशिया में ऊपर कमरे में बनी हुई रचना को दिखाया, उसमें भी कुछ-कुछ वही झलक थी, बीच में पाँच मेरु भी बनाए गए थे।
 
आज भी देश भर के पर्यटक उसे देखने जाते हैं। माताजी की मनोभावना थी कि कहीं खुले स्थान पर पृथ्वी पर यह रचना बने लेकिन तेरहद्वीप की रचना उस समय के लिए करोड़ों की लागत का कार्य था अत: प्रश्नवाचक चिन्ह बनकर खड़ा होता कि यह राशि कहाँ से आयेगी?
 
कौन इसकी जिम्मेदारी लेगा? अन्ततोगत्वा सोच-विचार करके यह निष्कर्ष निकाला गया कि केवल जम्बूद्वीप की योजना को साकार करना चाहिए। अजमेर चातुर्मास समाप्त होने पर संघ का विहार हुआ। यहाँ से कुछ दूर ही ‘‘पीसांगन’’ नाम के गांव से पूज्य माताजी ने ब्यावर (राज.) की ओर विहार कर दिया।

रवीन्द्र कुमार जी कैसे आये संघ में


 सन् १९५२ में जब माताजी ने दीक्षा के लक्ष्य से घर छोड़ा, अर्थात् बाराबंकी में विराजमान आचार्य श्री देशभूषण महाराज के दर्शन का बहाना बनाकर घर से निकलीं, तब रवीन्द्र कुमार (सबसे छोटे भाई) मात्र दो वर्ष के थे। उन्होंने उस समय तो अपनी जीजी को अच्छी तरह से देखा भी नहीं था किन्तु बाद में लखनऊ विश्वविद्यालय में बी.ए. का अध्ययन करते हुए रवीन्द्र जी अपने माता-पिता, भैय्या-भाभी के साथ सन् १९६८ में चातुर्मास के मध्य प्रतापगढ़ (राज.) आए थे।
 
उस समय पूज्य माताजी आचार्य श्री शिवसागर महाराज के संघ में थीं। उन्होंने रवीन्द्र जी की कुशाग्र बुद्धि देखकर उन्हें उस समय घर से निकलने की प्रेरणा दी थी, जो उनके हृदय में नींव की तरह बैठ गई, पुन: उसने साकार रूप लिया सन् १९७२ में। उससे पूर्व सन् १९७०-७१ में इनका संघ में थोड़ा-थोड़ा रहना तो हुआ किन्तु बाद में भाईयों ने घर ले जाकर अप्रैल १९७२ में इन्हें रेडीमेड कपड़ों का नया शोरूम खुलवाकर उसमें व्यस्त कर दिया।
 
यह सुनकर ब्यावर (राज.) में अपने आर्यिका संघ सहित विराजमान पूज्य ज्ञानमती माताजी की प्रेरणा पाकर संघस्थ ब्रह्मचारी मोतीचंद जी (वर्तमान में क्षुल्लक मोतीसागर हैं) ने टिवैâतनगर जाकर इन्हें समझाया कि चलो, नये व्यापार के लिए माताजी का आशीर्वाद तो ले आओ। रवीन्द्र जी की इच्छा होते हुए भी नये व्यापार की जिम्मेदारी एवं पारिवारिक मोहपूर्ण दबाव के कारण उन्होंने जाने से मना कर दिया लेकिन मोतीचंद जी ने टिवैतनगर से वापस चलते-चलते भी पुरुषार्थ किया कि केवल दो दिन में वापस आ जाना. आदि।
 
उनके मार्मिक शब्दों ने बिना किसी तैयारी के भी रवीन्द्र जी को माताजी के पास पहुँचा दिया, फिर तो माताजी ने अपने चुम्बकीय उद्बोधन द्वारा उन्हें वैराग्य की घूंटी पिलाकर आजन्म ब्रह्मचर्यव्रत लेने को राजी कर लिया और नागौर (राज.) में विराजमान पूज्य आचार्य श्री धर्मसागर महाराज के पास शीघ्र ही मोतीचंद जी के साथ रवीन्द्र जी को भेजकर आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत दिलवा दिया। उसके बाद भी यद्यपि कुछ दिन उन्होंने घर जाकर व्यापार संभाला किन्तु पुन: माताजी की प्रेरणा रही कि जब विवाह नहीं करना है तो व्यापार किसके लिए करना?
 
अपना अमूल्य समय अब व्यर्थ मत व्यतीत करो, ज्ञानार्जन में ही जीवन की सार्थकता है  आदि प्रेरणाओं ने रवीन्द्र जी को घर से निकालकर संघ में रहने में अहम् भूमिका निभाई और अवध प्रान्त के एकमात्र बालब्रह्मचारी नवयुवक के रूप में उस कर्मयोगी का नाम समस्त नवयुवकों के लिए उदाहरण स्वरूप बन गया। इस जीवन्त कथानक में जितना श्रेय पूज्य ज्ञानमती माताजी को प्राप्त है, उससे कहीं अधिक पुरुषार्थ ब्र. मोतीचंद जी का सराहनीय रहा है, जिसे कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता है।

भारत की राजधानी दिल्ली में पदार्पण


 अजमेर चातुर्मास के पश्चात् पुन: आचार्य संघ से कुछ साधुओं ने अलग-अलग विहार किया। संघस्थ मुनि श्री सुपाश्र्व सागर जी के निर्देशन में कुछ मुनियों का संघ सम्मेदशिखर, बुंदेलखण्ड आदि तीर्थों की यात्रा हेतु निकला एवं आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी अपने आर्यिका संघ के साथ पीसांगन (राज.) से आचार्यश्री की आज्ञा लेकर ब्यावर पधारीं।
 
ब्यावर में दिल्ली के कुछ गणमान्य व्यक्ति पूज्य माताजी के पास दिल्ली की ओर मंगल विहार करने हेतु प्रार्थना करने आये। सन् १९७२ की महावीर जयंती के पश्चात् आर्यिका संघ का विहार दिल्ली की ओर हुआ। वैशाख, ज्येष्ठ मास की चिलचिलाती धूप में कभी-कभी २४-२५ किमी. भी चलना पड़ता।
 
आर्यिका श्री रत्नमती माताजी के जीवन में यह प्रथम पदयात्रा थी, वृद्धावस्था में इस लम्बे विहार के कारण उनके पैरों में सूजन आ गई अत: डोली की व्यवस्था भी की गई। पूज्य माताजी के इस प्रवास में लघुवयस्क दो मुनिराज (मुनि श्री संभवसागर एवं मुनि श्री वर्धमान सागर) भी थे जो कि प्रारंभ में माताजी के ही शिष्य रहे थे और माताजी की प्रेरणा से ही मुनि बने थे, वे दोनों सन् १९७५ तक साथ में रहे।

पच्चीस सौवें निर्वाणोत्सव में सानिध्य


 ईसवी सन् १९७४ में भगवान महावीर स्वामी का पच्चीस सौंवा निर्वाण महोत्सव राष्ट्रीय स्तर पर मनाया गया, जिसमें पूज्य आर्यिकाश्री की पावन प्रेरणा एवं अथक प्रयासों से दिल्लीवासी आचार्यश्री धर्मसागर महाराज के विशाल संघ को दिल्ली लाए। उस समय तक दिल्ली की जनता को भय था कि यहाँ इतने बड़े संघ का निर्वाह कैसे होगा?
 
उन साधुओं को शूद्रजल त्याग करके आहार कौन देगा इत्यादि किन्तु माताजी ने यह कहकर वहाँ के शिष्टमंडल को आचार्यश्री के पास अलवर भेजा कि साधुओं के आहार की जिम्मेदारी मेरी है, तुम लोग तो मात्र उन्हें प्रार्थनापूर्वक दिल्ली तक ले आओ। आखिर हुआ भी यही, आचार्यश्री संघ सहित दिल्ली पधारे और पूरे शहर में अनगिनत चौके लगे, मानो वहाँ चतुर्थकाल का दृश्य उपस्थित हो गया था।
 
आर्यिकाश्री में संकल्प शक्ति अद्भुत है, वे जिस कार्य को भी हाथ में लेती हैं, उसे पूर्ण सफलता के साथ सम्पन्न करके दिखलाती हैं। इस प्रकार आचार्यश्री धर्मसागर महाराज के दिल्ली पधारने से पच्चीस सौंवे निर्वाणोत्सव में चार चाँद लगे, जिसका अन्तरंग श्रेय पूज्य माताजी को है।
 
उस समय कई सामाजिक एवं शास्त्रीय विवादास्पद विषयो में आचार्यश्री इन्हीं आर्यिकाश्री से विचार-विमर्श कर समस्याओं का गंभीरतापूर्वक समाधान करते थे जो उनकी सिंहवृत्ति का परिचायक बना। आज दिल्ली और सम्पूर्ण पश्चिमी उत्तरप्रदेश ही नहीं अपितु सम्पूर्ण भारत की जैन-जैनेतर समाज उनकी निस्पृहता, भोलेपन तथा सिंहवृत्ति को स्मरण करती है।

तीर्थक्षेत्र हस्तिनापुर का उद्धार


 हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र के वीरान जंगल ने आर्यिकाश्री को अपने संरक्षण हेतु पुकारा और उनकी पदरज पाकर हँसने मुस्कराने लगा। सन् १९७४ में चातुर्मास से पूर्व श्री ज्ञानमती माताजी अपनी एक शिष्या को लेकर हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र की यात्रा करने दिल्ली से निकलीं, साथ में ब्र. मोतीचंद जी थे। संयोगवश उन्हें यह तीर्थ पसंद आया और यहीं पर उन्होंने मोतीचंद जी द्वारा हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र कमेटी के महामंत्री बाबू सुकुमार चंद, मवाना के सेठ बूलचंद जी, लखमीचंद जी आदि महानुभावों के सहयोग से एक छोटी-सी भूमि का चयन कराया और सुमेरु पर्वत की नींव डलवाकर वे पुन: तीव्र गति से दिल्ली पहुँच गर्इं, जहाँ आचार्य संघ के साथ चातुर्मास सम्पन्न किया।
 
दिल्ली के इस ऐतिहासिक चातुर्मास के पश्चात् उन्होंने अपनी शिष्या कु. सुशीला को मगशिर कृ. १० को आचार्यश्री से आर्यिका दीक्षा दिलाई जिनका नाम आर्यिका श्रुतमती जी रखा गया। जनवरी सन् १९७५ में आपने अपने आर्यिका संघ सहित हस्तिनापुर की ओर विहार किया पुन: फरवरी में आचार्यश्री भी अपने चतुर्विध संघ सहित ज्ञानमती माताजी की प्रारंभिक कर्मभूमि के अवलोकनार्थ हस्तिनापुर पधारे। माताजी तथा समस्त संघ प्राचीन बड़े मंदिर तथा गुरुकुल परिसर में ठहरा।
 
आचार्य संघ का हस्तिनापुर में लगभग ४ माह का प्रवास रहा, इस मध्य तीर्थक्षेत्र के जल मंदिर, बाहुबलि मंदिर एवं जम्बूद्वीप स्थल पर विराजमान होने वाले कल्पवृक्ष भगवान महावीर स्वामी प्रतिमा की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा सम्पन्न हुई, जिसमें आचार्यश्री ने समस्त प्रतिमाओं को सूरिमंत्र प्रदान किए तथा द्वितीय महाकार्य संघस्थ मुनि श्री वृषभसागर महाराज की विधिवत् सल्लेखनापूर्वक समाधिमरण का हुआ।
 
दोनों महायज्ञों में आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी की महत्वपूर्ण भूमिका रही। इन्हीं की प्रेरणा विशेष से सोलापुर (महा.) के प्रतिष्ठाचार्य पं. श्री वर्धमान जी शास्त्री ने समाज के आमंत्रण पर पधारकर आर्ष परम्परानुसार प्रतिष्ठा विधि सम्पन्न कराई।
 

अपनत्व भरी एक वार्ता


 आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज ९ अप्रैल १९७५ को संघ सहित जब हस्तिनापुर से सहारनपुर की ओर विहार करने लगे, तो उन्होंने प्रवचन सभा में पूज्य ज्ञानमती माताजी को बड़े वात्सल्यपूर्वक सम्बोधित करते हुए कहा- ‘‘माताजी! यहाँ आपके रुके बिना जम्बूद्वीप निर्माण का महान कार्य सम्पन्न नहीं हो सकता है।
 
तीर्थक्षेत्र पर अधिक दिन रुकने में कोई बाधा नहीं है अत: आप निर्विकल्प होकर हस्तिनापुर तीर्थ पर रहें। जम्बूद्वीप रचना शीघ्र पूर्ण होकर आपका मनोरथ सिद्ध होवे, यह मेरा आपको खूब-खूब आशीर्वाद है।’’ आचार्यश्री की इस अपनत्व भरी वार्ता ने पूज्य माताजी को संबल प्रदान किया और उनके दृढ़ संकल्प का प्रतीक जम्बूद्वीप रचना आज संसार को अपना साकार रूप दर्शा रही है।

जल तें भिन्न कमल का अनुपम उदाहरण


 महापुरुष अपनी महानता का प्रचार करने हेतु किसी के द्वार पर नहीं जाते बल्कि महानता स्वयं ही उनके चरण चूम-चूमकर स्वयं को धन्य करती है। यही बात पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी के जीवन में चरितार्थ हुई है। उन्होंने गृहत्याग किया तो निज आत्मोद्धार के लिए, दीक्षा धारण की तो अपनी स्त्रीपर्याय का छेद करने के लिए, साहित्य सृजन किया तो निज आत्मा की पवित्रता और मन की एकाग्रता के लिए, शिष्यों का निर्माण किया तो अपने सम्यग्दर्शन के संवेग, अनुकम्पा आदि गुणों की वृद्धि हेतु तथा शिष्य को संसार समुद्र से पार करने के लिए एवं जम्बूद्वीप तथा कमल मंदिर आदि के निर्माण में प्रेरणा प्रदान की, तो अपने पिण्डस्थ ध्यान को साकार करने हेतु।
 
उन्होंने आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी द्वारा कथित ‘आदहिदं कादव्वं’ वाला सूत्र अपनाया, जिससे आत्महित के साथ-साथ परहित तो स्वयमेव ही हो रहा है। आज हस्तिनापुर में आने वाले प्रत्येक तीर्थयात्रियों के मुँह से भक्ति के अतिरेक में यही निकल जाता है कि- माताजी! आपने तो जंगल में मंगल कर दिया है, यहाँ की तो आपने काया ही पलट दी है, यहाँ आकर असीम शान्ति मिलती है जैसे मानों स्वर्ग में ही आ गये हों।
 
ज्ञानमती माताजी का उस समय मन्द मुस्कराहट मुद्रा में उत्तर होता है- ‘‘अरे भाई! हम तो अकिंचन साधु हैं, न हमारे पास पैसा है न कौड़ी, ऐसी स्थिति में तुम अपने (समस्त जैन समाज के) द्वारा किये कार्य को मेरा क्यों कहते हो? हाँ! मैंने तो मात्र शास्त्रों में छिपी जम्बूद्वीप रचना का नक्शा बताया है, बाकी मेरा इसमें कुछ भी नहीं है।’’ उनका यह आन्तरिक निस्पृहतापूर्वक दिया गया समाधान भक्तों को और भी अधिक अपनत्व भाव से भर देता है।
 
तब वे समझने लगते हैं कि हाँ, सचमुच! यह जम्बूद्वीप तो हम सभी का है, हमने ही तो ज्ञानज्योति के माध्यम से अथवा यहाँ इसका साक्षात् निर्माण चलता देखकर सैकड़ों, हजारों, लाखों रुपये खर्च करके इसे बनाया है और पूज्य माताजी की दैवी प्रेरणा ने हमें संबल प्रदान किया है। शत प्रतिशत सत्यता भी यही है कि गणिनी आर्यिका श्री जम्बूद्वीप की पावन प्रेरिका हैं निर्मात्री नहीं, क्योंकि उनके दैनिक जीवन का अर्धभाग तो साहित्य सृजन-लेखन में व्यतीत होता है।
 
चौथाई भाग अपनी नित्य नैमित्तिक साधु क्रियाओं में और चौथाई भाग मजबूरीवश कमजोर शरीर के पालन में व्यतीत होता है, जिसका प्रत्यक्ष लाभ समाज को प्राप्त हो रहा है उनके वृहद् विधान, पूजन, अध्यात्म, सिद्धान्त, न्याय, कथा आदि साहित्य के द्वारा। अभिवन्दनीय गणिनी माताजी के जीवन की यह व्यक्तिगत विशेषता देखी गई है कि हस्तिनापुर में करोड़ों रुपये के इस वृहद् निर्माण के पीछे उन्हें आज तक यह नहीं ज्ञात है कि कहाँ से? वैâसे? कितना रुपया?
 
किस निर्माण के लिए आया और खर्च हुआ है। पैसा छूने की बात तो बहुत दूर है, वे अपने समक्ष रुपयों की बात भी नहीं करने देती हैं। संस्था तथा मूर्ति-मंदिर आदि के निर्माण की प्रेरणा देने वाले साधुओं की प्राय: आज का विद्वत् समाज आलोचना करता है किन्तु उनके लिए पूज्य माताजी का निस्पृह जीवन अवश्य ही अवलोकनीय है।
 
उनका जीवन एक खुली पुस्तक के समान किसी भी समय नजदीकी से देखा जा सकता है। जैसा कि सन् १९७५ में प्रâांस की एन. शान्ता नामक एक महिला, जैन साध्वियों पर रिसर्च करते समय पूज्य माताजी के पास हस्तिनापुर आकर लगभग १५-२० दिन रुकीं और २४ घण्टे उनके समीप रहकर आहार, विहार, धोती पहनना, सामायिक करना, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, शयन आदि सब कुछ सूक्ष्मतापूर्वक अवलोकन करती थी।
 
यहाँ तक कि वह महिला माताजी के आहार के पश्चात् उन्हीं की थाली में परोसा गया बिना नमक, बिना घी, बिना मीठे का नीरस भोजन भी करती और कहती कि अनुभव किये बिना इनकी चर्या का वर्णन थिसिस में कैसे लिखा जा सकता है? इस साक्षात् अनुभव एवं अध्ययन के पश्चात् उस शोधकत्र्री ने (अज्ञात तीर्थयात्री) नाम से लिखित अपने शोधग्रंथ में दिगम्बर जैन साध्वी एवं पूज्य ज्ञानमती माताजी के विषय में अच्छा उल्लेख किया है। उनमें से कुछ पंक्तियाँ यहाँ भी दृष्टव्य हैं-
 
Mataji shuns publicity. She pursues her task ardently, living her life in accordance with the stricth obervance of the Digambaras, caring nothing for honours nor for making a name for herself. She is truly called ‘Jnanamati’ and Sramani, as being one for whom the daily acquisition, enlargement and deepening of knowledge is the supreme task and it is this knowledge that she spontaneously and ceaselessly communicates to others, more by her life and her writings than by word of mouth.
 
For her, knowing and teaching are one and the same thing. Mataji has many interests and an openness of spirit, but she is totally gripped by and absorbed in the Digambara tradition and preeminently concerned to transmit it to others, which in itself is an enormous task. Within this tradition her particular interest is in those values which, just because they are truly spiritual, are also universal.
 
However, the tradition through which these values are transmitted has become, during the course of the centuries, overloaded with certain subsidiary and sectarian practices and tendencies, furthermore, its close confinement within an, at time, fierce orthodoxy has often made it impenetrable, if not hostile, to other interpretations or to salutary changes. This fact Mataji does not always realise.
 
She is even on occasion somewhat militant, in this sense that she is fully persuaded that the orthodox Digambara tradition is superior to others and that it maintains a rigorous fidelity to the teaching of the tirthankaras, which teaching, she believes, must be revitalised.
 
This naturally leads to a certain critical and negative attitude towards the other sampradayas. Mataji’s criticisms come from a sincere heart, one that is firmly determined to uphold what she believes to be the pure and original dharma, that men have gradually altered through their ignorance and cowardice.
 
She considers, very reasonably, that the Scriptures and the works of the first acaryas are still available to recall us to the right path. So let us study them, she argues, and come out of our century old ignorance. And Mataji devotes all her energies to enlightening her disciples, the sravakas, sravikas and whoever comes to meet her.
 
पूज्य माताजी का यह विशेष पुण्य ही मानना होगा कि ब्र.मोतीचंद जी (वर्तमान क्षुल्लक मोतीसागर जी) एवं ब्र. रवीन्द्र जी इन्हें पुष्पदन्त और भूतबली के समान ऐसे सुयोग्य शिष्य मिले, जिन्होंने माताजी को कभी निर्माण तथा रुपये संबंधी सिर दर्द ही नहीं होने दी। वास्तव में संयम साधना के क्षेत्र में योग्य शिष्यों का भी महत्वपूर्ण योगदान रहता है।
 
दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान की पूरी कमेटी इस बात से परिचित है कि ‘‘ज्ञानमती माताजी सचमुच जल तें भिन्न कमल’’ का अद्वितीय उदाहरण हैं। वर्तमान में साधु समाज में व्याप्त कुछ शिथिलाचारों को देखकर लोग सभी साधुओं को एक कोटि में लेकर निंदा शुरू कर देते हैं किन्तु मैं अपने अनुभव और तर्वâ के आधार पर गौरवपूर्वक कह सकती हूँ कि आज सर्वथा शिथिलाचारी साधु नहीं हैं, सूक्ष्मता एवं सामीप्य से देखने पर ७५ प्रतिशत शुद्ध परम्परा मिल सकती है, इसमें कोई संदेह नहीं है।
 
खैर! पर के द्वारा प्रमाणित अथवा अप्रमाणित मान लिए जाने पर सच्चे साधु की आत्मसाधना पर कोई असर नहीं पड़ता, वह तो मुक्तिमार्ग का पथिक होने के नाते अपना आत्म शोधन करता है, यही शोधन कार्य मोक्षप्राप्ति में उसे सहायक होता है। इस कलियुग में पूज्य ज्ञानमती माताजी को यदि ब्राह्मी माताजी का अवतार कहा जाये तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी।

पंचकल्याणकों में पावन सानिध्य


 यूँ तो अपने दीर्घकालीन दीक्षित जीवन में आर्यिकाश्री ने अनेक स्थानों पर पंचकल्याणक प्रतिष्ठाओं में अपना सानिध्य प्रदान किया है किन्तु त्रिलोक शोध संस्थान को जम्बूद्वीप परिसर के अनेक पंचकल्याणकों में उनका मंगल सानिध्य प्राप्त करने का सौभाग्य मिल चुका है-
 
१. फरवरी सन् १९७५ भगवान महावीर स्वामी की प्रतिष्ठा (कमल मंदिर)
२. मई सन् १९७९ सुदर्शन मेरु पंचकल्याणक प्रतिष्ठा
३. मई सन् १९८५ श्री जम्बूद्वीप जिनबिम्ब प्रतिष्ठापना महोत्सव ४. मार्च सन् १९८७ श्री पार्श्वनाथ पंचकल्याणक महोत्सव
५. मई सन् १९९० जम्बूद्वीप महोत्सव  
 
इसके अतिरिक्त मार्च सन् १९९२, अप्रैल १९९२, सन् २००० एवं सन् २००५ में ऐसी चार लघु पंचकल्याणक प्रतिष्ठाएं भी आपके सानिध्य में जम्बूद्वीप स्थल पर सम्पन्न हो चुकी हैं। इसके अतिरिक्त सन् २००० में दिल्ली में त्रिकाल चौबीसी की ७२ रत्न प्रतिमाओं की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हुई पुन: सन् २००२ और सन् २००३ में आपके प्रयाग एवं कुण्डलपुर प्रवास के मध्य दो पंचकल्याणक प्रतिष्ठाएँ हस्तिनापुर में सम्पन्न हुर्इं जिसमें पीठाधीश क्षुल्लक श्री मोतीसागर जी महाराज का सानिध्य प्राप्त हुआ।

चातुर्मास कहाँ-कहाँ ?


 सन् १९५२ में गृहपरित्याग के बाद लगभग ४-५ माह तक तो ब्रह्मचारिणी अवस्था में कु. मैना ने बिताया चूँकि उस समय काफी संघर्ष एवं सामाजिक विरोधों के कारण वे दीक्षा न ले सकी थीं पुन: उचित अवसर पाते ही सन् १९५३ में चैत्र कृ. एकम् को उन्होंने क्षुल्लिका दीक्षा ग्रहण की तथा सन् १९५६ में वैशाख कृ. दूज को आर्यिका दीक्षा ग्रहण कर देश के विभिन्न अंचलों में पदयात्रा करते हुए खूब धर्मप्रभावना की एवं अद्यावधि कर रही हैं।
 
उनके अब तक (सन् १९५३ से २००५ तक) ५३ चातुर्मास निम्न स्थानों पर सम्पन्न हो चुके हैं- क्रम स्थान ईसवी सन्
 
१. टिकैतनगर (उ.प्र.) (क्षुल्लिका अवस्था में) १९५३ २. जयपुर (राज.) (क्षुल्लिका अवस्था में) १९५४ ३. म्हसवड़ (महा.) (क्षुल्लिका अवस्था में) १९५५
४. जयपुर खानिया (आर्यिका अवस्था से आगे १९५६ के ५० चातुर्मास) ५. जयपुर खानिया १९५७ ६. ब्यावर (राज.) १९५८
७. अजमेर (राज.) १९५९
८. सुजानगढ़ (राज.) १९६० ९. सीकर (राज.) १९६१
१०. लाडनूं (राज.) १९६२
११. कलकत्ता (प. बंगाल) १९६३ १२. हैदराबाद (आंध्र प्रदेश) १९६४
१३. श्रवणबेलगोला (कर्नाटक) १९६५ १४. सोलापुर (महा.) १९६६ १५. सनावद (म.प्र.) १९६७
१६. प्रतापगढ़ (राज.) १९६८
१७. जयपुर (राज.) १९६९ १८. टोंक (राज.) १९७०
१९. अजमेर (राज.) १९७१ २०. दिल्ली (पहाड़ी धीरज) १९७२ २१. दिल्ली (नजफगढ़) १९७३
२२. दिल्ली (लाल मंदिर) १९७४
२३. हस्तिनापुर (बड़ा मंदिर) १९७५ २४. खतौली (उ.प्र.) १९७६
२५. हस्तिनापुर (बड़ा मंदिर) १९७७ २६. हस्तिनापुर (बड़ा मंदिर) १९७८ २७. दिल्ली (मोरीगेट) १९७९
२८. दिल्ली (कम्मो जी की धर्मशाला) १९८० २९. हस्तिनापुर (जम्बूद्वीप स्थल) १९८१ ३०. दिल्ली (कूचा सेठ) १९८२
३१. हस्तिनापुर (जम्बूद्वीप स्थल) १९८३
३२. हस्तिनापुर (जम्बूद्वीप स्थल) १९८४ ३३. हस्तिनापुर (जम्बूद्वीप स्थल) १९८५
३४. हस्तिनापुर (जम्बूद्वीप स्थल) १९८६ ३५. हस्तिनापुर (जम्बूद्वीप स्थल) १९८७ ३६. हस्तिनापुर (जम्बूद्वीप स्थल) १९८८
३७. हस्तिनापुर (जम्बूद्वीप स्थल) १९८९
३८. हस्तिनापुर (जम्बूद्वीप स्थल) १९९० ३९. सरधना (मेरठ) उ.प्र. १९९१
४०. हस्तिनापुर (जम्बूद्वीप स्थल) १९९२ ४१. अयोध्या १९९३ ४२. टिकैतनगर (बाराबंकी) उ.प्र. १९९४
४३. हस्तिनापुर (जम्बूद्वीप स्थल) १९९५
४४. मांगीतुंगी सिद्धक्षेत्र (महा.) १९९६ ४५. दिल्ली-चाँदनी चौक १९९७
४६. हस्तिनापुर (जम्बूद्वीप स्थल) १९९८ ४७. राजाबाजार, कनॉट प्लेस (दिल्ली) १९९९ ४८. दिल्ली-प्रीतविहार २०००
४९. दिल्ली-अशोकविहार २००१ ५०. ऋषभदेव दीक्षास्थली प्रयाग तीर्थ (इलाहाबाद) २००२ ५१. कुण्डलपुर (नालंदा-बिहार) २००३
५२. कुण्डलपुर (नालंदा-बिहार) २००४ ५३. जम्बूद्वीप- हस्तिनापुर २००५ ५४. जम्बूद्वीप- हस्तिनापुर २००६
५५. जम्बूद्वीप- हस्तिनापुर २००७ ५६. जम्बूद्वीप- हस्तिनापुर २००८ ५७. जम्बूद्वीप- हस्तिनापुर २००९
५८. जम्बूद्वीप- हस्तिनापुर २०१० ५९. जम्बूद्वीप- हस्तिनापुर २०११ ६०. जम्बूद्वीप- हस्तिनापुर २०१२
६१. जम्बूद्वीप- हस्तिनापुर २०१३
 
इनमें से प्रत्येक चातुर्मासों में शिविर, सेमिनार, मंडल विधान आदि अनेक अविस्मरणीय प्रभावनात्मक वृहद् कार्य सम्पन्न हुए हैं।

व्यक्तित्व से कृतित्व की ओर


 दीक्षा लेने के बाद शिष्यों का संग्रह, ज्ञान, ध्यान आदि तो प्राय: समस्त साधुओं का लक्ष्य होता है किन्तु ज्ञानमती माताजी ने इन कार्यों के साथ-साथ कुछ ऐसे अविस्मरणीय कार्य किए हैं जिनके द्वारा युग-युग तक उनका नाम इतिहास पटल पर अंकित रहेगा।
 
१. साहित्य रचना का शुभारंभ करके कठिन से कठिन और सरल से सरल ग्रंथों का निर्माण किया।आपके द्वारा रचित गंरथों की संख्या दो सौ से भी अधिक है जिनमें से लगभग दो सौ ग्रंथ लाखों की संख्या में दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान, हस्तिनापुर में स्थापित वीर ज्ञानोदय ग्रंथमाला से प्रकाशित भी हो चुके हैं।
 
२. करणानुयोग साहित्य में वर्णित जम्बूद्वीप रचना को पृथ्वी पर मूर्तरूप देने की प्रेरणा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से निर्माण के क्षेत्र में सदैव अविस्मरणीय रहेगी। जिस प्रकार आचार्यश्री शान्तिसागर जी महाराज की प्रेरणा से वुंâथलगिरि और कुम्भोज बाहुबली तीर्थ का उद्धार हुआ है, उसी प्रकार तीर्थ निर्माण के क्षेत्र में आपका भी भरपूर योगदान है।
 
हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप रचना, प्रयाग में दीक्षास्थली तीर्थ का निर्माण, कुण्डलपुर (नालंदा) में भव्य तीर्थ का निर्माण, अयोध्या तीर्थ का विकास, मांगीतुंगी तीर्थ का विकास एवं वहाँ पर्वत पर भगवान ऋषभदेव की १०८ फुट उत्तुंग ऋषभदेव प्रतिमा निर्माण की प्रेरणा आदि कार्य आपके ही विराट व्यक्तित्व के द्वारा सम्पन्न हो सके हैं।
 
३. प्राचीन साहित्य एवं भगवान महावीर के सिद्धान्तों को राष्ट्रीय स्तर पर प्रसारित करने का शुभ संकल्प पूरा करके नारी जाति का सम्मान बढ़ाया। जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति रथ का प्रवर्तन ४ जून १९८२ को भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी ने आपकी प्रेरणा से ही किया था, जिसके माध्यम से अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर जम्बूद्वीप रचना को ख्याति प्राप्त हो सकी है।
 
४. शिक्षा के क्षेत्र में आपने सम्पूर्ण जैन समाज में अपना कीर्तिमान स्थापित किया है। आपकी प्रेरणा से दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान ने छोटे-ब़ड़े प्रादेशिक, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय शिविर-सेमिनारों के आयोजन भी सम्पन्न किए हैं।
 
५. भक्ति-संगीत के क्षेत्र में तो आपने एक नई मिशाल ही कायम करके दिखाई है। इन्द्रध्वज, कल्पदु्रम, तीनलोक, सर्वतोभद्र, सिद्धचक्र, विश्वशांति महावीर विधान आदि वृहद् पूजन विधानों की रचना करके आपने जैन समाज के ऊपर महान उपकार किया है।
 
आज से २०-२५ वर्ष पूर्व तो एक सिद्धचक्र विधान का ही लोग यदा-कदा अनुष्ठान कर लिया करते थे किन्तु जब से पूज्य ज्ञानमती माताजी ने इन विधानों को रचा है, तब से भारत भर में लगभग प्रतिदिन विधानों का तांता सा लगा रहता है, जिसके माध्यम से जैन समाज के हजारों लोग धार्मिक अनुष्ठानों को करते रहते हैं। स्वयं गायन-वादन कला के आस्वाद से रहित होते हुए भी छन्दशास्त्र का तलस्पर्शी अध्ययन आपकी कवित्व शक्ति का परिचय देता है।
 
 एक-एक विधानों में लगभग ७०-८० छंदों का प्रयोग करके चतुरनुयोग रूप जिनवाणी को ही उनमें निबद्ध कर दिया है। जब किसी नगर या शहर में इन विधानों की संगीतमयी ध्वनि मुखरित होती है, तब उस समय अच्छे-अच्छे नास्तिकों के कदम भी उसी ओर बढ़ने लग जाते हैं, न जाने कितने सुप्त हृदय जागृत हो जाते हैं।

माताजी की तपोभूमि हस्तिनापुर का संक्षिप्त ऐतिहासिक वर्णन


 आज से कोड़ाकोड़ी वर्षों पूर्व तृतीय काल में इन्द्र की आज्ञा से धनपति कुबेर ने तीर्थंकर आदि त्रेसठ शलाका महापुरुषों के लिए अयोध्या, सम्मेदशिखर, कुण्डलपुर, पावापुर, उज्जयिनी, हस्तिनापुर आदि नगरियों की रचना की थी। अनादिकालीन परम्परा के अनुसार अयोध्या हमेशा ही तीर्थंकरों की जन्मभूमि रही है और सम्मेदशिखर निर्वाणभूमि रही है किन्तु वर्तमान में हुण्डावसर्पिणी काल के प्रभाव से कुछ तीर्थंकरों ने अन्यत्र जन्म लिया और मोक्ष भी अन्य क्षेत्रों से प्राप्त किया।
 
यही कारण है कि हस्तिनापुर की पुण्यभूमि को भी तीर्थंकर की जननी होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। भगवान शांतिनाथ, कुंथुनाथ और अरहनाथ इन तीर्थंकरत्रय ने जन्म लेकर इसी भूमि पर एकछत्र राज्य किया, ये तीनों ही चक्रवर्ती और कामदेव पद के धारी हुए। हस्तिनापुर इनकी राजधानी थी। चक्रवर्ती का वैभव भोगकर पुन: उसका त्याग कर जैनेश्वरी दीक्षा लेकर घाति-अघाति कर्मों का नाश करके सम्मेदशिखर पर्वत से निर्वाण प्राप्त किया।
 
इससे भी पूर्व प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव भी वर्षोपवास के अनंतर हस्तिनापुर नगरी में आहार चर्या के लिए आए थे, राजा श्रेयांस और सोमप्रभ ने अपने पूर्वभव के जातिस्मरण हो जाने से उन्हें विधिवत् नवधाभक्तिपूर्वक पड़गाहन कर इक्षुरस का आहार दिया। आज भी वह पवित्र दिवस अक्षयतृतीया के नाम से जगप्रसिद्ध है।
 
हस्तिनापुर और उसके चारों ओर आज भी इक्षु (गन्ने) की सघन खेती देखी जाती है, जिससे यहाँ पर आने वाले हर यात्री का मुँह अनायास ही मीठा हो जाता है। इस प्रकार अयोध्या के समान ही हस्तिनापुर की भी प्राचीनता सिद्ध हो जाती है। हाँ! काल प्रभाव से ये नगरियाँ अब छोटी हो गई हैं। इनके आसपास का बहुभाग पर्वत, नदी तथा अन्य प्रदेशों में विभक्त हो गया है। यहीं पर अकंपनाचार्य आदि सात सौ मुनियों पर राजा बलि ने उपसर्ग किया था।
 
विष्णुकुमार मुनि ने उपसर्ग का निवारण कर रक्षाबंधन पर्व का शुभारंभ किया जिसे आज भी लोग श्रावण शुक्ला पूर्णिमा के दिन परस्पर में रक्षासूत्र बांधकर मनाते हैं, अभिनंदन आदि पाँच सौ मुनियों को राजा की आज्ञा से यहीं पर घानी में पेला गया था, सेमल की रुई गुरुदत्त मुनि के शरीर में लपेटकर भयंकर अग्नि का उपसर्ग हुआ।
 
इस प्रकार अनेकों इतिहास यहाँ से जुड़े हुए होने से यह क्षेत्र ऐतिहासिक तीर्थक्षेत्र माना जाता है। होनहार की बात होती है। कोड़ाकोड़ी वर्षों पूर्व जिस सुदर्शन मेरु पर्वत को हस्तिनापुर के राजा श्रेयांस ने अपने स्वप्न में देखा था, उसे साकार करने का श्रेय पूज्य आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी को मिला।

दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान की स्थापना


 आर्यिका संघ का मंगल पदार्पण आषाढ़ शु.११ को दिल्ली के पहाड़ी धीरज पर हुआ और सन् १९७२ का चातुर्मास पहाड़ी धीरज की ‘‘नन्हेंमल घमण्डीलाल जैन धर्मशाला’’ में सम्पन्न हुआ।
 
दिल्ली में आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी का यह प्रथम चातुर्मास अपने आप में ऐतिहासिक रहा क्योंकि ‘‘दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान’’ की स्थापना सन् १९७२ में ही पहाड़ी धीरज पर हुई, जिसके माध्यम से आज देश-विदेश में विस्तृत धर्म प्रभावना हो रही है।
 
 हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप रचना का निर्माण, गंरथों का प्रकाशन, सम्यग्ज्ञान मासिक पत्रिका का प्रकाशन, पूरे देश में शिक्षण-प्रशिक्षण शिविरों एवं राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सेमिनारों के आयोजन, भगवान ऋषभदेव की दीक्षाभूमि प्रयाग में तीर्थंकर ऋषभदेव दीक्षास्थली तीर्थ का निर्माण, भगवान महावीर जन्मभूमि कुण्डलपुर में नंद्यावर्त महल नाम से तीर्थ का निर्माण, अयोध्या, मांगीतुंगी आदि तीर्थों के विकास आदि विभिन्न कार्य इसी रजिस्टर्ड संस्थान द्वारा हस्तिनापुर कार्यालय से संचालित किए जाते हैं।

हस्तिनापुर तीर्थ विकास का प्रथम चर


 यहाँ यह बता देना उचित होगा कि सन् १९७२ में दिल्ली पहाड़ी धीरज पर डॉ. कैलाशचंद जी, लाला श्यामलाल जी, वैद्य शान्तिप्रसाद जी, कैलाशचंद जी करोलबाग आदि महानुभावों के सहयोग से एक संस्था की स्थापना की गई थी, जिसका नाम ‘‘दिगम्बर जैन त्रिलोक शोध संस्थान’’ रखा गया।
 
उसी संस्थान के नाम से हस्तिनापुर की प्रारंभिक भूमि क्रय की गई। पूज्य माताजी ने पुन: सन् १९७४ में हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र की ओर विहार किया। पूज्य माताजी के पास फिलहाल उस समय ब्र. मोतीचन्द के सिवाय कोई पुरुषार्थी शिष्य नहीं था। रवीन्द्र जी भी उस समय घर गए हुए थे। अब मोतीचंद जी के साथ मेरठ के श्रेष्ठी बाबू सुकुमारचंद जी व मवाना के सेठ बूलचंद जी, लक्ष्मीचंद जी आदि लोगों का सहयोग मिलने लगा।
 
पूज्य माताजी के आशीर्वाद और लगन का फल रहा कि हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र पर ही मंदिर से आधा फर्लांग दूर नसिया मार्ग पर उस भूमि के केन्द्र बिन्दु से बीचोंबीच में सुदर्शन मेरु पर्वत का जुलाई १९७४ में शिलान्यास करवाकर माताजी निर्वाणोत्सव के निमित्त से पुन: दिल्ली विहार कर गर्इं। तब तक आचार्य धर्मसागर जी महाराज का संघ भी दिल्ली पदार्पण कर चुका था। आचार्यसंघ के साथ ही माताजी ने भी दिल्ली के लाल मंदिर में चातुर्मास स्थापना की।
 
विभिन्न आचार्य और मुनियों के सानिध्य में राजधानी में चारों सम्प्रदायों की ओर से भगवान महावीर २५००वाँ निर्वाण महोत्सव राजनेताओं के सहयोग से आशातीत सफलताओं के साथ सम्पन्न हुआ। पूज्य ऐलाचार्य श्री विद्यानन्दि महाराज कई विषयों में माताजी से परामर्श करते-करते अक्सर कहते कि माताजी! हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र पर इस रचना की महत्ता अत्यधिक बढ़ेगी।
 
सौभाग्य से आचार्यश्री धर्मसागर जी का संघ और एलाचार्य विद्यानन्दि जी महाराज भी फरवरी १९७५ में हस्तिनापुर पधारे और बड़ी रुचिपूर्वक रचना स्थल पर भगवान महावीर प्रतिमा की स्थापना होते समय आचार्यश्री ने प्रतिमा के नीचे अचलयन्त्र स्थापित किया। वह छोटा सा महावीर मंदिर जम्बूद्वीप रचना की चउँमुखी उन्नति में अनुपम प्रभावशाली सिद्ध हुआ।
 
आचार्य श्री धर्मसागर जी का संघ हस्तिनापुर में लगभग ४ महीने रहा। सरधना के निवासियों ने उस समय बड़ी तत्परता से वैयावृत्ति और चौके लगाकर आहार दान का लाभ लिया। आचार्यश्री जब हस्तिनापुर से मंगल विहार करने लगे, उस समय माताजी को आशीर्वाद प्रदान करके जम्बूद्वीप रचना के निमित्त हस्तिनापुर मे ही रहने की प्रेरणा दी। अब माताजी के संघ में आर्यिका श्री रत्नमती माताजी रहीं।
 
आर्यिका रत्नमती माताजी और ब्रह्मचारी-ब्रह्मचारिणियों सहित माताजी तीर्थक्षेत्र के बड़े मंदिर में रहती थीं। ब्र. मोतीचन्द जी, ब्र. रवीन्द्र कुमार जी, जो इस रचना के कर्ताधर्ता और नींव थे, वे लोग मंदिर बाउण्ड्री के बाहर कमरे में रहते और माताजी तथा संघस्थ हम सभी ब्रह्मचारिणियाँ मंदिर के कमरों में रहते थे। मंदिर से जम्बूद्वीप स्थल तक जाने में घने जंगल के कारण भय प्रतीत होता था। हम लोग भी कभी अकेले यहाँ तक आने की हिम्मत नहीं कर पाते थे।
 
माताजी के साथ लगभग प्रतिदिन या एक-दो दिन बाद आते थे। जम्बूद्वीप स्थल पर मात्र एक चौकीदार का परिवार रहता था। ऑफिस के मैनेजर के रहने के लिए स्थल पर अभी तक कोई निर्माण नहीं हो सकने के कारण वे भी बड़े मंदिर में ही बाहर के एक कमरे में रहते थे।
 
बाबू सुकुमारचंद जी संघ का विशेष ध्यान रखते और आवश्यकतानुसार सारी सुविधाएँ भी प्रदान करते थे। उनकी ध.प. प्रतिमाधारी व्रतिक महिला थीं वे जब भी हस्तिनापुर आतीं, हमेशा आहारदान तथा वैयावृत्ति के भावों से माताजी की सेवा करतीं। कभी स्वयं अपना चौका लगातीं और कभी संघ के चौके में आकर आहार देतीं। पूज्य माताजी के निमित्त से अब हस्तिनापुर में राजस्थान, कर्नाटक, गुजरात, आसाम और उत्तरप्रदेश सभी ओर से लोग आने लगे।
 
पिछड़ा और विस्मृत क्षेत्र अब प्रकाश में आने लगा। तीर्थक्षेत्र कमेटी के सभी पदाधिकारी एवं सदस्य बड़े प्रसन्न होते और कहते कि माताजी! आपके निमित्त से हमारा हस्तिनापुर तीर्थक्षेत्र अवश्य ही शीघ्र टूरिस्ट सेण्टर बन जाएगा। इस क्षेत्र के मंदिर में दान की रकम तो हमारी बढ़ती जा रही है, आपका जम्बूद्वीप बन जाने पर तो विदेशी पर्यटकों का भी यहाँ पर आना जाना रहेगा और तब यह जैन भूगोल के अनुसंधान का विशेष केन्द्र बन जाएगा।
 
बाहर से आने वाले हर दर्शनार्थी के मुँह से भी यही सुना जाता कि हम लोग मेरठ-सरधना तक तो हमेशा व्यापारिक निमित्त से आते रहते थे लेकिन हस्तिनापुर के दर्शन कभी नहीं किए थे। ज्ञानमती माताजी के दर्शन से हमें दोहरा लाभ प्राप्त हो रहा है, यह खुशी की बात है। माताजी ने कभी भी किसी से जम्बूद्वीप रचना तथा अन्य किसी निर्माण आदि के लिए पैसे की बात नहीं कही।
 
चूँकि माताजी भी बड़े मंदिर में ही रहती थीं अत: हर यात्री वहीं पर दान की रकम देते थे और अपनी इच्छानुसार जम्बूद्वीप में भी दान देते। जम्बूद्वीप स्थल पर सुमेरुपर्वत का निर्माणकार्य यथाशक्ति चल रहा था। यहाँ पर एक ऑफिस की अत्यन्त आवश्यकता महसूस हो रही थी, जिससे निर्माण की गतिविधि सुचारूरूप से चल सके।
 
सन् १९७५ में ऑफिस की नींव रखी गई, कुछ दिनों में वह तैयार हो गया। तब से लेकर आज तक उसी कार्यालय की गतिविधियों से छोटे-बड़े समस्त आयोजन सफल हो रहे हैं। संस्थान के मैनेजर कार्यालय में बैठते और दोनों संघस्थ ब्रह्मचारी (मोतीचन्द और रवीन्द्र कुमार) सुबह से शाम तक स्थल पर निर्माण आदि की कार्यवाही देखते और रात को सोने के लिए बड़े मंदिर में ही जाते। मैं प्रात:काल पूज्य माताजी के साथ ही बड़े मंदिर से पूजन सामग्री और बाल्टी में शुद्ध जल तथा मंदिर की चाभी लेकर जम्बूद्वीप स्थल पर आती क्योंकि हम सभी लोग भगवान महावीर के मंदिर में ही अभिषेक-पूजन करते थे।
 
माताजी को शुरू से ही धार्मिक अनुष्ठानों, विधि-विधानों में अधिक रुचि रही है, उसी के अनुसार हम लोगों से भी सिद्धचक्र, गणधरवलय, शान्तिविधान, ऋषिमण्डल आदि अनेक विधान करवाए। माताजी स्वयं भी लाखों मंत्रों का जाप्य किया करती थीं, मैं समझती हूँ कि उनकी तपस्या एवं मंत्रों का ही प्रभाव है कि त्रिलोक शोध संस्थान के प्रत्येक कार्य निर्विघ्न सम्पन्न हुए हैं।जम्बूद्वीप स्थल पर सुमेरु पर्वत का कार्य द्रुतगति से चल रहा था।
 
दिल्ली के इंजीनियर श्री के.सी. जैन, के.पी. जैन, एस.एस. गोयल तथा रुड़की के प्रसिद्ध इंजीनियर श्री डॉ. ओ.पी. जैन की विशेष सलाह लेकर १०१ फुट ऊँचे सुमेरुपर्वत का निर्माण हुआ। जिसमें नीचे से ऊपर तक १३६ सीढ़ियाँ बनाई गर्इं। गुलाबी संगमरमर पत्थर से बना हुआ सुमेरु पर्वत भक्तों के लिए विशेष आकर्षण का केन्द्र है। इसमें १६ जिनप्रतिमाएँ हैं जो अकृत्रिम बिम्बों के समान ही वीतरागी छवि से युक्त हैं।
 
यह एक अनुभवगम्य विषय है कि जो भी दर्शक इन प्रतिमाओं के समक्ष नजदीकी से जाकर दर्शन कर आत्मावलोकन करते हैं, उन्हें अभूतपूर्व शान्ति प्राप्त होती है। ज्ञानमती माताजी इस पर्वत के ऊपर पांडुकवन में जाकर बहुधा घण्टों ध्यान किया करती थीं। आज भी यदा-कदा करती हैं। प्रात:, मध्याह्न और सायं तीनों समय यह पर्वत रंग बदलता हुआ सा प्रतीत होता है। पूर्व दिशा के उगते सूर्य की लालिमा जब सुमेरु पर्वत पर पड़ती है, तब उसकी आभा केशरिया रंग से युक्त हो जाती है। सामने भद्रसाल वन की प्रतिमा का दर्शन करते हुए पीछे सूर्य का बिम्ब चमकते भामण्डल जैसा प्रतीत होता है।
 
मध्याह्न ११ बजे के अनन्तर तप्तायमान सूर्य की किरणें उस पूरे पर्वत को स्वर्णिम रूप में परिवर्तित कर देती हैं पुन: संध्याकाल में विशेषरूप से शुक्लपक्ष की चाँदनी रात्रि में धवल दुग्ध के समान चन्द्रमा की शीतल किरणे अभिषेक करती हुई प्रतीत होती हैं यह कोई अतिशयोक्ति नहीं बल्कि सुमेरुपर्वत में विराजमान स्वयंसिद्ध प्रतिमाओं का अतिशय ही इसे चमत्कृत कर रहा है।

सूर्योदय और सूर्यास्त के मनोरम दृश्य


 सुमेरु पर्वत में ऊपर पाण्डुकवन में चढ़ने पर प्रात: सूर्य के उदय का और शाम को अस्ताचल की ओर जाते हुए सूर्य बिम्ब का दर्शन बड़ा सुन्दर लगता है। अन्य पर्वतीय क्षेत्रों की भांति इसका भी विशेष महत्त्व प्रदर्शित किया जा सकता था किन्तु हस्तिनापुर में इस विषय का प्रचार इसलिए नहीं किया गया कि ऊपर चढ़ते हुए स्थान अत्यन्त संकुचित रह गया है, जहाँ अधिक लोग एक साथ न चढ़ सकते हैं और न वहाँ बैठने की ही पर्याप्त जगह है वर्ना यह जम्बूद्वीप माउण्ट आबू जैसी ख्याति को प्राप्त हो सकता था।
 
ख्याति तो यूँ भी बहुत है, इस रम्य क्षेत्र में लोग जम्बूद्वीप के दर्शन करने प्रात: ५ बजे से ही आने प्रारंभ हो जाते हैं। मध्याह्न की कड़कड़ाती धूप में भी सतत सुमेरु पर्वत पर यात्रियों का आवागमन चला करता है, रात्रि होते-होते भी यात्रियों के दिल में दर्शन की एवं सुमेरु पर चढ़ने की जिज्ञासा बनी रहती है किन्तु व्यवस्था की दृष्टि से अंधकार होने से पूर्व ही जम्बूद्वीप के दरवाजे बंद कर दिए जाते हैं।

सुदर्शन मेरु पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव


 उपरोक्त वर्णित सुमेरु पर्वत का निर्माण सन् १९७९ में हुआ पुन: उसका पंचकल्याणक महोत्सव भी २९ अप्रैल से ३ मई १९७९ तक सम्पन्न हुआ था। इस महोत्सव से पूर्व ज्ञानमती माताजी अपने संघ सहित दिल्ली में धर्मप्रभावना कर रही थीं। संस्थान के कार्यकर्ताओं ने पूज्य माताजी से महोत्सव में पधारने का आग्रह किया, उस समय प्रथम बार माताजी के संघ को जम्बूद्वीप स्थल पर ही ठहराया गया।

स्थल पर फ्लैट का प्रथम निर्माण


 सन् १९७८ में हस्तिनापुर में पूज्य आचार्यकल्प श्री श्रुतसागर जी महाराज पधारे, उसी समय दिल्ली से श्री उम्मेदमल जी पाण्ड्या सपरिवार दर्शनार्थ आए थे। महाराज श्री ने यहाँ पर स्थानाभाव देखकर पाण्ड्या जी को प्रेरणा दी। उनकी प्रेरणानुसार दो कमरे, बाथरूम, लैट्रीन, रसोई, स्टोर सहित फ्लैट का निर्माण हुआ। धीरे-धीरे और प्रगति हुई, दानियों की भावनाएँ हुर्इं अत: इन्हीं फ्लैट के ऊपर २-३ कमरे बनाए गए। सुदर्शन मेरु प्रतिष्ठा महोत्सव का समय नजदीक आ रहा था।
 
माताजी के संघ का आगमन होने वाला था। संघ को ठहराने के लिए इन्हीं फ्लैट के सामने फूस की २-३ झोपड़ियाँ बनाई गर्इं, उन्हीं में माताजी को ठहराया गया। प्रतिष्ठा के २-४ दिन पूर्व उम्मेदमल पाण्ड्या महोत्सव की व्यवस्था देखने हेतु हस्तिनापुर आये और उन्होंने माताजी को आग्रहपूर्वक फ्लैट में ठहराया, स्वयं वे टेण्टों में ठहरे, यह उनकी गुरुभक्ति का नमूना था।
 
सुदर्शन मेरु जिनबिम्ब पंचकल्याणक महोत्सव के कार्यक्रम प्रारंभ हुए। इसी सुअवसर पर पूज्य मुनि श्री श्रेयांससागर जी महाराज, जो १० जून सन् १९९० को चारित्रचक्रवर्ती आचार्यश्री शांतिसागर जी महाराज की परम्परा के पंचम पट्टाचार्य बने, अपने संघ सहित पधारे। उन्हीं के करकमलों से समस्त प्रतिमाओं को सूरिमंत्र प्रदान किए गए। मुनिश्री के साथ में आर्यिका अरहमती माताजी और श्रेयांसमती माताजी थीं (जो क्रम से उनकी गृहस्थावस्था की माँ और पत्नी थीं) पूज्य ज्ञानमती माताजी के साथ आर्यिका श्री रत्नमती माताजी थीं।
 
यह तो सर्वविदित ही है कि आर्यिका रत्नमती जी ज्ञानमती माताजी की जन्मदात्री माँ हैं जो स्वयं ज्ञानमती माताजी का शिष्यत्व स्वीकार करके रत्नत्रय साधना की ओर अग्रसर थीं। पूज्य रत्नमती माताजी ने अपनी शारीरिक अस्वस्थता के कारण जम्बूद्वीप रचना के निमित्त हस्तिनापुर में सर्दी, गर्मी, मच्छर आदि अनेकों कष्टों को सहन करके सदैव माताजी को सहयोग दिया, तभी निर्विघ्नरूप से जम्बूद्वीप का सफलतापूर्वक निर्माण हो सका।
 
भारत की समस्त जैनसमाज एवं महोत्सव समिति के सफल संयोजन में यह प्रतिष्ठा महोत्सव सानन्द सम्पन्न हुआ। प्रतिष्ठाचार्य ब्र. सूरजमल जी ने तन्मयता के साथ महोत्सव कराया। इस प्रतिष्ठा में भगवान शांतिनाथ जी विधिनायक थे, जिनके माता-पिता बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ कटक निवासी सेठ श्री पूषराज जी एवं उनकी धर्मपत्नी को।

सर्वोत्तम दर्शनीय पैड़


 इस महोत्सव में सर्वाधिक आकर्षण का केन्द्र वह पैड़ बनी, जिसके द्वारा १०१ फुट ऊँचे सुमेरु पर्वत के ऊपर पांडुक वन में जाकर भगवान का जन्माभिषेक किया गया। यह पैड़ लोहे के पाइपों से दिल्ली निवासी श्री नरेश कुमार जैन बंसल ने अथक परिश्रम के द्वारा बनवाई। इस पैड़ को देखने के लिए हजारों नरनारी प्रतिदिन आते और ऊपर चढ़कर भगवान का अभिषेक करके आनंदित होते थे।
 
३० अप्रैल १९७९ को भगवान शांतिनाथ का जन्माभिषेक महोत्सव इसी मेरु की पांडुक शिला पर सौधर्मादि इन्द्रों द्वारा किया गया था। वह मनोरम दृश्य साक्षात् अकृत्रिम मेरु पर चढ़ते हुए इन्द्र परिकर का सा आनन्द उपस्थित कर रहा था। इस प्रकार से विविध आयोजनों के साथ प्रतिष्ठा महोत्सव का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। ३ मई १९७९ को १६ जिनबिम्ब सुदर्शन मेरु के भद्रसाल, नन्दन, सौमनस और पांडुक वनों में विराजमान हो गए, जिसके फलस्वरूप जीवन्त मेरु पर्वत अप्रतिम प्रतिभा का धनी हो गया और मानवमात्र के मनोरथ सिद्ध करने लगा।
 
इसके पश्चात् तो जम्बूद्वीप स्थल पर मई सन् १९८५ में ‘जम्बूद्वीप जिनबिम्ब प्रतिष्ठापना महोत्सव’ विशाल स्तर पर हुआ, जिसमें देश भर से लाखों यात्रियों ने हस्तिनापुर पधारकर जम्बूद्वीप रचना के दर्शन किये। परमपूज्य आचार्यश्री धर्मसागर जी महाराज के संघस्थ साधुगण इस महामहोत्सव में पधारे पुन: मार्च सन् १९८७ में ‘‘श्री पाश्र्वनाथ पंचकल्याणक प्रतिष्ठा एवं ब्र. श्री मोतीचंद जी की क्षुल्लक दीक्षा सम्पन्न हुई। इस महोत्सव में परमपूज्य आचार्यरत्न श्री विमलसागर जी महाराज का ससंघ पदार्पण हुआ।
 
इसके बाद मई सन् १९९० में श्री महावीर जिन पंचकल्याणक महोत्सव’’ हुआ। यह मेला ‘‘जम्बूद्वीप महामहोत्सव’’ के नाम से आयोजित किया गया था। पूज्य गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के निर्देशानुसार प्रत्येक पांच वर्षों के बाद यह ‘‘जम्बूद्वीप महामहोत्सव’’ व्यापक स्तर पर मनाया जाता है और आगे भी मनाया जाता रहेगा। इसी शृंखला में सन् १९९०, १९९५, २००० और २००५ के चार महामहोत्सव सफलतापूर्वक सम्पन्न हुए हैं तथा पूज्य माताजी के सानिध्य में जम्बूद्वीप स्थल पर अनेकों पंचकल्याणक प्रतिष्ठा महोत्सव हुए हैं।

ज्ञानज्योति प्रवर्तन का शुभ संकल्प


 १८ जुलाई १९८१ का वह शुभ दिवस, हस्तिनापुर में जम्बूद्वीप स्थल पर नवनिर्मित धर्मशाला नं. २ के कमरा नं. १२ में प्रथम मीटिंग हुई। आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी ने अपने मस्तिष्क में जम्बूद्वीप के मॉडल को सम्पूर्ण भारत में भ्रमण कराने हेतु एक भाव संजोया था। उसी के विचार हेतु यह मीटिंग बुलाई गई थी।
 
८ दिन पूर्व से आयोजित इन्द्रध्वज मण्डल विधान विशाल पैमाने पर चल रहा था। अनेक स्थानों के महानुभाव विधान में भाग लेने आए हुए थे। मीटिंग के विषय से प्रभावित होकर कई विद्वान एवं श्रीमान् भी हस्तिनापुर पधारे। मध्यान्ह १.०० बजे से मीटिंग प्रारंभ हुई। मंगलाचरण किया-पंडित श्री कुंजीलाल जी गिरिडीह वालों ने। संस्थान के मंत्री रवीन्द्र कुमार जी ने कार्यक्रम की रूपरेखा बताई-माताजी की यह इच्छा है कि जम्बूद्वीप के एक मॉडल को रथ के रूप में सुसज्जित करके सारे हिन्दुस्तान में उसका भ्रमण कराया जाए ताकि अहिंसा और नैतिकता का व्यापक प्रचार होकर जम्बूद्वीप का महत्त्व जनसामान्य तक पहुँच सके।
 
सर्वप्रथम उस भ्रमण करने वाले रथ के नाम पर विचार करने का निर्णय हुआ। तदनुसार उपस्थित समस्त महानुभावों ने नाम प्रेषित किए-
 
१. जम्बूद्वीप रथ २. जम्बूद्वीप ज्ञान रथ
 
३. ज्ञानचक्र
४. जम्बूद्वीप चक्र
 
५. जम्बूद्वीप ज्ञान चक्र इत्यादि
 
 
कई नामों में से कोई नाम निश्चित नहीं हो सका। अन्त में एक नाम आया-जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति। जो सर्वसम्मतिपूर्वक पास किया गया। उसमें यह निर्णय लिया गया कि जम्बूद्वीप का मॉडल बनाकर बिजली, फौव्वारों से सुसज्जित करके एक वाहन पर समायोजित किया जाए। ज्ञान के प्रतीक में विस्तृत साहित्य का प्रचार किया जाए एवं ज्योति शब्द को द्योतित करने के लिए एक विद्युत् ज्योति प्रज्वलित की जाए।
 
यह तो रहा जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति रथ के समायोजन का शुभसंकल्प, अब इस महती योजना को सफलतापूर्वक संचालन करने के लिए उपस्थित समस्त विद्वानों ने सहयोग प्रदान करने हेतु अपनी-अपनी स्वीकृति प्रदान की। सर्वप्रथम पं. बाबूलाल जी जमादार, पं. कुंजीलाल जी, प्राचार्य श्री नरेन्द्र प्रकाश जी (फिरोजाबाद), डॉ. श्रेयांस कुमार जैन (बड़ौत), डॉ. सुशील कुमार जैन (मैनपुरी), श्री शिवचरणलाल जी (मैनपुरी) आदि अनेक विद्वानों ने अपना पूर्ण सहयोग देने को कहा।
 
सफलतापूर्वक मीटिंग की कार्यवाही चली, जिसमें कतिपय श्रीमन्तों की ओर से यह एक सुझाव भी आया कि यह सब कुछ करने का प्रयोजन तो एक ही है-जम्बूद्वीप का निर्माण कराना। अत: इन सब झंझटों और ऊहापोहों से तो अच्छा है कि हम ५० श्रेष्ठियों से एक-एक लाख रुपया लेकर ५० लाख रुपया एकत्र करके जम्बूद्वीप को बना देंगे।
 
ज्ञानज्योति के भ्रमण में तो पैसा और शक्ति दोनों लगेगा, जो बड़ा कठिन कार्य है। पूज्य माताजी ने उनके इस प्रस्ताव को सुना किन्तु माताजी के गले यह बात नहीं उतरी, उन्होंने उपस्थित जनसमुदाय को सम्बोधित करते हुए कहा-हमें मात्र जम्बूद्वीप नहीं बनाना है प्रत्युत् सारे देश में जैन भूगोल, अहिंसा धर्म और चरित्र निर्माण की योजना का प्रचार करना है। जैन समाज में पैसे की कमी नहीं है किन्तु जन-जन का आर्थिक एवं मानसिक सहयोग पाकर यह रचना सम्पूर्ण विश्व की बने, मेरी यह भावना है।
 
माताजी के पास में मोतीचंद और रवीन्द्र कुमार ये दो प्रमुख स्तंभ ऐसे रहे, जिनके सबल कंधों पर जम्बूद्वीप निर्माण जैसे महान कार्य को प्रारंभ किया था और उन्हीं के ऊपर ज्योति प्रवर्तन के कार्य का बीड़ा भी उठाया गया। कमेटी तो कार्य प्रारंभ होने पर सहयोग देती ही रही है और देगी ही।
 
इन्हीं दृढ़ संकल्पों के आधार पर माताजी ने निर्णय लिया कि ज्योति का प्रवर्तन अवश्य होगा। कुल मिलाकर जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन की बात तय हुई। अब प्रश्न यह उठा कि इसका उद्घाटन कहाँ से और किसके द्वारा कराया जावे?

ज्योति प्रवर्तन भारत की राजधानी से


 त्रिलोक शोध संस्थान के कार्यकर्ताओं ने पूज्य माताजी के समक्ष निवेदन किया कि आपकी भावनानुसार अगर इस ज्योतिरथ का प्रवर्तन दिल्ली से एवं किन्हीं राजनेता के द्वारा कराया जाये, तो इसका राष्ट्रीय स्तर पर सम्मान भी होगा और व्यापकरूप में अहिंसा धर्म का प्रचार भी होगा। इसकी प्रारंभिक रूपरेखा एवं प्रवर्तन-उद्घाटन जैसा महान कार्य आपके आशीर्वाद के बिना संभव नहीं है अत: आप दिल्ली विहार का विचार बनाइये।
 
यद्यपि पूज्य माताजी की इच्छा दिल्ली के लिए विहार करने की बिल्कुल भी नहीं थी किन्तु लोगों के अति आग्रह से चातुर्मास के पश्चात् दिल्ली के विहार का प्रोग्राम बनने लगा। संघस्थ आर्यिका श्री रत्नमती माताजी की बिल्कुल इच्छा नहीं थी दिल्ली जाने की, क्योंकि दिल्ली का वातावरण उनके स्वास्थ्यानुकूल नहीं पड़ता था लेकिन इस महान कार्य की रूपरेखा सुनकर वे भी मना न कर पार्इं और आर्यिका संघ का मंगल विहार फाल्गुन वदी ३, मार्च सन् १९८२ में हो गया। १५ दिन में माताजी दिल्ली पहुँच गई।

ऐतिहासिक प्रवर्तन का पूर्व संचालन मोरीगेट-दिल्ली से


 दिल्ली मोरीगेट की जैन समाज के विशेष आग्रह पर संघ वहीं पर जैन धर्मशाला में ठहरा। अब तो सबका यही लक्ष्य था कि जम्बूद्वीप का सुन्दर मॉडल शीघ्र तैयार कराया जाए और भारत की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरा गांधी के करकमलों से ज्योति का उद्घाटन कराया जाए।

श्रेयॉंसि बहुविघ्नानि


 बड़े-बड़े कार्यों में प्राय: विघ्न भी आया ही करते हैं। ज्ञानज्योति प्रवर्तन की व्यापक रूपरेखा सुन-सुनकर कतिपय विघ्न संतोषियों ने अपना कार्य शुरू कर दिया। कई ज्योतिषियों की भविष्यवाणी हुई कि ज्योति प्रवर्तन कदापि नहीं हो सकता है, इन्दिरा जी किसी कीमत पर नहीं आ सकती हैं। एक ज्योतिषाचार्य जी ने कहा कि प्रधानमंत्री द्वारा उद्घाटन का तो कोई प्रश्न ही नहीं है एवं ढाई महीने से अधिक रथ का भ्रमण हो ही नहीं सकता है इत्यादि ।
 
अनेकों बातें अपनी-अपनी बुद्धि के अनुसार लोग कहने लगे किन्तु ज्ञानमती माताजी के ऊपर किसी की बात का कभी असर नहीं हुआ, उन्होंने सदा संस्था के कार्यकत्र्ताओं को भी यही उपदेश दिया है कि ‘‘अपने कार्य में सदा लगे रहो, बुराई करने वाले का कभी प्रतिकार मत करो, संघर्षों को चुनौती समझकर पुरुषार्थ करने में पीछे मत रहो।’’ इन्हीं सूक्तियों के अनुसार मोतीचन्द जी, रवीन्द्र कुमार जी व पं. बाबूलाल जी जमादार तथा अन्य पदाधिकारीगण अपने कार्य में लगे रहे।

प्रधानमंत्रीके पास डेपुटेशन


 त्रिलोक शोध संस्थान का एक डेपुटेशन प्रधानमंत्री के निवास स्थान पर उद्घाटन प्रस्ताव लेकर पहुँचा। थोड़ी देर की बातचीत के बाद इन्दिरा जी ने स्वीकृति नहीं दी। कई बार उच्चाधिकारियों के द्वारा कोशिशें कराई गर्इं किन्तु सब व्यर्थ था। जब प्रधानमंत्री के आने की विशेष उम्मीद नहीं दिखी, तब कई लोगों ने माताजी से अनुरोध किया कि इसका प्रवर्तन किसी सामाजिक व्यक्ति से करवाकर प्रारंभ किया जाये किन्तु माताजी ने यही कहा कि यह धर्म प्रचार का कार्य है, इन्दिरा जी अवश्य आएंगी, यह मुझे विश्वास है।

जे.के. जैन का अमूल्य सहयोग


 प्रधानमंत्री जी को लाने के प्रयास बराबर जारी रहे। एक बार यह ज्ञात हुआ कि संसद सदस्य जे.के. जैन इन्दिरा जी के निकटवर्ती हैं अत: उनसे संपर्व किया गया, उन्होंने प्रयास करने का वचन दिया। होनहार की बात, उन दिनों मोतीचंद जी,रवीन्द्र जी और हम लोग कोई दिल्ली में नहीं थे। अथक प्रयासों के बाद २५ मई १९८२ को जे.के. जैन का टेलीफोन डॉ. कैलाशचंद जी के पास पहुँचा कि प्रवर्तन के लिए इन्दिरा जी ने स्वीकृति प्रदान कर दी है।
 
डॉ. साहब ने आकर माताजी को खुशखबरी सुनाई और दूसरे दिन हम लोग जब जयपुर से आए, तो यह समाचार ज्ञात हुआ पुन: २-३ दिन बाद ४ जून १९८२ को उद्घाटन की तारीख निश्चित हो गई। बस फिर क्या था, सबकी भावनाएँ सफल हुर्इं, तैयारियाँ अब बहुत जोरों से होने लगीं।
 
समय भी अल्प ही था किन्तु मोतीचंद, रवीन्द्र कुमार जी के साथ समस्त कार्यकर्ता उत्साहपूर्वक जुटे हुए थे। सारी दिल्ली में प्रचारार्थ खूब बैनर लगाए गए, पूरे देश में खबरें भेजी गर्इं, दैनिक अखबारों में प्रतिदिन विज्ञापन छपने लगे और नये ट्रक चेचिस में जम्बूद्वीप का सुन्दर मॉडल सुसज्जित किया गया, जिसका ‘‘जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति’’ रथ के नाम से प्रवर्तन प्रारंभ होने वाला था।

ऐतिहासिक दिवस


 देखते ही देखते ४ जून की तारीख भी आ गई। २ जून से ही लालकिला मैदान में विशाल पांडाल और मंच बनाने की व्यवस्था चल रही थी। सुमेरु पर्वत के आकार का सुन्दर द्वार पांडाल के प्रमुख प्रवेश द्वार पर बनाया गया। सारी दिल्ली में प्रधानमंत्री के स्वागतार्थ तरह-तरह के सुन्दर तोरण बनाए गए। मंच की सारी व्यवस्थाएँ जे.के. जैन देख रहे थे, वह फूलों से और दीपों से सजा हुआ मंच अपने अतिथि की आतुरता से प्रतीक्षा कर रहा था।
 
सभा मंच के बायीं ओर पूज्य ज्ञानमती माताजी और रत्नमती माताजी के लिए अलग मंच बनाया गया एवं मंच के दायीं ओर एक फूस की झोपड़ी थी, जहाँ माताजी सभा से पूर्व बैठी हुई थीं तथा आने-जाने वाले दर्शनार्थियों को उनके दर्शन का सौभाग्य प्राप्त हो रहा था।

इन्दिरा जी का आगमन और सर्वप्रथम माताजी का आशीर्वाद


 मध्यान्ह के ठीक २.३० बजे जन-जन का स्वागत स्वीकार करती हुई प्रधानमंत्री की कार उस ऐतिहासिक लालकिला मैदान में प्रविष्ट हुई। उनके साथ में गृहमंत्री श्री प्रकाशचंद सेठी, केन्द्रीय मंत्री एवं कई संसद सदस्य भी आए। श्री जे.के. जैन ने सर्वप्रथम इन्दिरा जी व सभी साथियों को पूज्य माताजी के दर्शन कराए, अनंतर सभी लोग मंच पर आ गए किन्तु इन्दिरा जी माताजी से कुछ व्यक्तिगत वार्ता करने हेतु वहीं रुक गर्इं।
 
एक महिला होने के नाते उन्होंने पूज्य माताजी से अपने हृदय के कुछ उद्गार व्यक्त करते हुए समाधान पूछा, बातें तो जो और जिस रूप में उन्होंने की हों, यह मुझे नहीं मालूम, किन्तु इन्दिरा जी की धर्म के प्रति जो निष्ठा और विश्वास मैंने देखा, वह सचमुच अविस्मरणीय है। पूज्य माताजी ने उन्हें एक पैण्डन में यंत्र रखकर दिया जिसे उन्होंने श्रद्धावनत होकर तत्काल गले में पहन लिया।
 
इसके साथ ही माताजी ने जिस मूँगे की माला पर करोड़ों मंत्रों का जाप्य किया था, उस माला को उन्हें देते हुए कहा कि इस माला के द्वारा प्रतिदिन ‘‘ॐ नम:’’ मंत्र की एक माला अवश्य पेरें, इन्दिरा जी सिर झुकाकर सहर्ष उस माला को भी गले में डालकर बहुत प्रसन्न हुर्इं। उन्होंने २० मिनट तक माताजी से बातचीत की और असीम शांति का अनुभव किया। इस मध्य माताजी और इन्दिरा जी के सिवाय अन्य कोई भी वहाँ उपस्थित नहीं था।
 
उधर माताजी और प्रधानमंत्री का वार्तालाप चल रहा था, इधर हजारों की संख्या में उपस्थित जनसमुदाय आतुरतापूर्वक अपने प्रिय नेता की प्रतीक्षा कर रहा था। २० मिनट बाद पूज्य माताजी अपने मंच पर पधारीं और प्रधानमंत्री जी अपने मंच पर। इनके पदार्पण करते ही सारी जनता ने करतल ध्वनि से गड़गड़ाहटपूर्वक स्वागत किया। उस स्वागत का प्रत्युत्तर इन्दिरा जी ने हाथ जोड़कर अभिवादनपूर्वक दिया। सभा का कार्यक्रम अपनी गति से चला। पूज्य माताजी ने अपना आशीर्वाद सभी को प्रदान किया।

परमपूज्य आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी के आशीर्वचन


‘‘ॐ नम: सिद्धेभ्य:, ॐ नम: सिद्धेभ्य:, ॐ नम: सिद्धेभ्य:’’
 
तज्जयति परं ज्योति: समं समस्तैरनन्त पर्यायै:।
दर्पणतल इव सकला प्रतिफलति पदार्थ मालिका यत्र।।
 
युग की आदि में तीर्थंकर ऋषभदेव जब राज्य सभा में विराजमान थे, प्रजा ने आकर अपनी समस्या रखी कि हे देव! अभी तक हम लोग कल्पवृक्ष से भोजन आदि सामग्री प्राप्त करते आये थे और आज वह कल्पवृक्ष फल नहीं दे रहे हैं, तो हम अपनी आजीविका का पालन वैâसे करें तथा अपना जीवनयापन वैâसे करें?
 
तीर्थंकर ऋषभदेव उसी समय उसी जम्बूद्वीप के अंतर्गत विदेह क्षेत्र में जो स्थिति है, उसके बारे में देखकर-सोचकर युग की आदि से ही इस पृथ्वीतल पर भी ६ क्रियाओं का उपदेश दिया, वह विदेह क्षेत्र इसी जम्बूद्वीप के बीचोंं बीच में है। उसी विदेह क्षेत्र में सुमेरु पर्वत है, जो एक लाख योजन ऊँचा है उससे और स्वर्ग में मात्र एक बाल का अन्तर है अर्थात् वह मध्यलोक का मापदण्ड है। उस सुमेरु पर्वत पर ऋषभदेव से लेकर महावीरपर्यंत चौबीस तीर्थंकरों का जन्माभिषेक किया जा चुका है।
 
अनंत-अनंत तीर्थंकरों का जन्माभिषेक उस पर मनाया जा चुका है और भविष्य में भी इसी पर्वत पर अनंत-अनंत तीर्थंकरों का जन्माभिषेक उत्सव मनाया जायेगा। यही कारण है कि यह पर्वत महान् पूज्य है, जो कि जम्बूद्वीप के बीचोंबीच में है। आज भी आप लोग पंडितों के मुख से, पुरोहितों के मुख से सुनते होंगे, प्रशस्ति के उच्चारण में, किसी भी संकल्प में जम्बूद्वीपे, भरतक्षेत्रे, आर्यखण्डे इत्यादिरूप से, तो यह भरतक्षेत्र इसी जम्बूद्वीप का ही एक हिस्सा है जो कि जम्बूद्वीप के एक सौ नब्बेवाँ भाग प्रमाण है। इस भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में ही आज का उपलब्ध सारा विश्व है।
 
इस जम्बूद्वीप की रचना में उपलब्ध पृथ्वी के अतिरिक्त भी पृथ्वी इस भूमण्डल पर है, यह दिशा-निर्देश वैज्ञानिकों को दिया जा रहा है। हमारे यहाँ साधन कुछ अल्प हैं, वैज्ञानिकों के यांत्रिक साधन विशेष हैं और वे खोज में आगे बढ़कर के आपके सामने कुछ न कुछ नई चीज उपस्थित करेंगे, ऐसा पूर्ण विश्वास है। हमारे महर्षियों ने यह बताया था कि पेड़ और पौधों में भी जीव है।
 
आज के युग में वैज्ञानिकों ने भी सिद्ध कर दिया कि हाँ! पेड़ और पौधों में भी जीव है। ऐसे अनेक विषय हैं जिन्हें वैज्ञानिकों ने सिद्ध करके स्वीकार कर लिया है कि महर्षियों का कथन सत्य है। इस प्रकार ये जो हमारा आर्यखण्ड है, जिसमें हम लोग रहते हैं अनादिकाल से और इस युग की आदि से, यह समझिये अनेक महापुरुषों ने यहाँ जन्म लिया है ये महर्षियों का, पुण्यशाली तपस्वियों का क्षेत्र है।
 
उन्होंने यहाँ पर अपनी साधना और तपस्या के बल से अपने को तो पवित्र बनाया ही, साथ ही देश में सत्चारित्र का निर्माण करके तमाम प्राणियों को पवित्र बनाया है और सुख-शांति की स्थापना की है। मुझे जैन रामायण की एक सूक्ति याद आती है-
 
यस्य देशं समाश्रित्य साधव: कुर्वते तप:।
षष्ठमंशं नृपस्तस्य लभते परिपालनात् ।।
 
जिस देश का आश्रय करके साधु तपस्या करते हैं, वहाँ के शासक उनका प्रतिपालन करने से उन साधुओं की तपश्चर्या का छटा भाग पुण्य प्राप्त कर लिया करते हैं। तो मैं ये स्पष्ट कहूँगी कि साधुओं के तपश्चरण का पुण्य इन्दिरा जी को स्वयंं ही मिल रहा है। वे उस पुण्य को स्वयं ही ले लिया करती हैं, यह इस भारत भूमि का एक विशेष माहात्म्य है।
 
वास्तव में ये तो कहना ही पड़ेगा कि इन्दिरा जी बहुत सौभाग्यशाली हैं। इस दशक में मैंने अनुभव किया कि अनेक धार्मिक आयोजनों में वे अपने अमूल्य समय को निकाल कर भाग लेती आ रही हैं। जैन समाज का भी यह गौरव कम नहीं है कि जैन समाज के प्रति उनकी इतनी प्रीति है। धर्मचक्र और मंगलकलश का प्रवर्तन भी उन्हीं के हाथ से होना और आज देखिये! ये जम्बूद्वीप ज्ञान ज्योति प्रवर्तन का पुण्य अवसर भी इन्हीं को मिल रहा है।
 
आप सोचेंगे एक प्रधानमंत्री के प्रधानमंत्रित्वकाल में इतने-इतने आयोजन होवें और उन्हें ही पुण्य अवसर मिले, यह कम पुण्य की बात नहीं है। मैं यही कहूँगी कि सचमुच में इन्दिरा जी जैसी साहसी महिला रत्न, जिनने इस युग में एक क्रान्ति लाई है सचमुच में यह ज्योति उनके हाथ से प्रवर्तित होकर न जाने भारत के कितने प्राणियों के हृदय के अंधकार को दूर करेगी, कितने मानुष के अंधकार को दूर करेगी।
 
देखिये! संसार में अज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई अंधकार नहीं है और ज्ञान से बढ़कर विश्व में दूसरा कोई प्रकाश नहीं है। यह ज्ञानज्योति सारे भारतवर्ष में भ्रमण कर कोने-कोने में प्राणियों के अज्ञानरूपी अंधकार को दूर करे और ज्ञान का प्रचार करे, उसके साथ ही साथ सुख और शांति की सारे विश्व में स्थापना करे और प्रधानमंत्री इन्दिरागांधी के शुभ हस्तों से ऐसे-ऐसे पुण्य कार्य सदैव होते रहें तथा यह जनतंत्रशासन जनता में धर्मनीतिमय अनुशासन करता रहे, मेरा यही शुभाशीर्वाद है।

जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति प्रवर्तन के शुभ अवसर पर ४ जून १९८२ को प्रधानमंत्री श्रीमती इन्दिरागांधी का भाषण


 ‘‘पूज्य ज्ञानमती माताजी और उपस्थित सज्जनों, भाईयों और बहनों! मुझे बहुत प्रसन्नता है कि इस शुभ अवसर पर आपने मुझे बुलाया है। जब ऐसा अवसर होता है विशेष करके धार्मिक अवसर, जब देश के कोने-कोने से बहन और भाई सब लोग आते हैं तो भारत की एकता का एक दृश्य देखने को मिलता है। हमारा भारत एक ऐसा देश है, जहाँ प्राय: विश्व के सभी धर्म हैं।
 
हमारी नीति रही है कि सभी धर्मों का आदर हो, किसी का भी किसी प्रकार से न अपमान हो, न नीचा करने की कोई बात हो क्योंकि सभी धर्म में कुछ ऐसे सिद्धान्त होते हैं, जो व्यक्ति को ऊपर उठाने की कोशिश करते हैं, जो उसकी आत्मा को शक्ति देते हैं, ताकत देते हैें और जो जीवन की सख्त कठिनाइयां होती हैं, जैसे सभी के जीवन में होती हैं चाहे कोई बड़ा हो या छोटा, उसका सामना करने की ताकत देते हैं।
 
जैसे व्यक्ति को मिलता है उसी प्रकार से अगर सारे देश में धर्म का आदर होगा तो सारा देश ऊपर उठेगा। हमारा प्रयत्न यही है कि इस देश को ऊँचा उठाया जाये। आर्थिक दृष्टिकोण से लोगों का जीवन स्तर ऊँचा उठे, गरीबी कम हो, पिछड़ापन हट जाये लेकिन केवल आर्थिक प्रगति काफी नहीं है, यह शुरू से ही गांधी जी तथा अन्य नेताओं ने हमको बतलाया कि संग-संग भारत की संस्कृति, भारत की सभ्यता, भारत की परम्परा और भारत के ऊँचे विचार इन चीजों पर यदि ध्यान नहीं दिया जायेगा तो केवल आर्थिक प्रगति से देश महान नहीं हो सकेगा।
 
जम्बूद्वीप का वर्णन हमारे सभी शास्त्रों में है जैसे बौद्धिक, जैनधर्म के और वैदिक में जो वर्णन है, वह केवल भारतवर्ष का नहीं है उससे बहुत बड़ा है। इससे कोई यह न समझे कि हमारी नीयत दूसरों पर है या हम दूसरों से कुछ चाहते हैं। हम अपनी धरती से और अपनी जनता से ही संतुष्ट हैं और यूं तो इनकी सेवा करना इतना बड़ा काम है कि प्रयत्न ही हम कर सकते हैं। सम्मुख लड़ाई के लिए भी जो शक्ति चाहिए और जो साहस चाहिए।
 
वह धर्म के द्वारा ऊँची विचारधारा, ऊँचे मूल्यों के द्वारा मिल सकते हैं। यह बड़े दु:ख की बात है कि मनुष्य जाति एक ऐसे समय, जब विज्ञान के द्वारा जानकारी बहुत बढ़ी है, जब बहुत सी प्राकृतिक ताकतें काबू में आई हैं, बड़े-बड़े काम मनुष्य कर सकता है, ऐसे समय बजाय इसके कि इस ताकत को वो उसमें लगायें जो हमारे दुर्बल भाई और बहन हैं उनको उठायें, जो दुर्बल देश हैं उनकी सहायता करें, मनुष्य जाति इस ताकत को अक्सर लड़ाई-झगड़े में लगाती है, एक-दूसरे से मुकाबला करने में, नीचे घसीटने में।
 
लेकिन कभी-कभी धर्म के बारे में भी आपने देखा होगा कि इधर कुछ कौमी दंगे हुए जिससे कुछ ऐसे घटनाएं हुई जिससे किसी न किसी धर्म का लगता था कि कोई अपमान करना चाहता है। यह हमारी भारतीय परम्परा में नहीं है और न किसी भी धर्म में ऐसा कहा है और मेरी जब-जब बातें हुई लोगों से, तो देखा कोई ऐसा नहीं चाहता है। हम सब लोगो की बड़ी कोशिश होनी चाहिए कि हम कौमी एकता एवं सब धर्म में आदर विशेष करें क्योंकि ये अफवाह उड़ाई गई है कि शायद मैं धर्म को नहीं मानती, यह वैâसे हो सकता है।
 
मैं एक धार्मिक परिवार से आई हूँ एक परम्परा में मेरा पालन-पोषण हुआ जिसमें धर्म का, भारत की संस्कृति, सभ्यता का आदर, यहाँ यह सिखलाया गया कि ऊँचा रखने के लिए कोई भी कुर्बानी देने के लिए तैयार होना चाहिए। तो हम तो ऐसा विचार कर ही नहीं सकते कि किसी भी प्रकार से धर्म पर कोई हमला हो, अपमान हो या नीचा दिखाया जाये। बल्कि हम समझते हैं कि धर्म ऊँचा होगा तो समाज ऊँचा होगा, देश ऊँचा होगा और देश को बल मिलेगा।
 
जो अपने देश के भीतर की कठिनाईयाँ हैं उनका भी वह सामना कर सकेगा। जैनधर्म के जो ऊँचे विचार हैं वे भी भारत की धरती से निकले हैं, भारत की विचारधारा से निकले हैं और स्वयं उसी विचारधारा पर अपना प्रभाव गहरा डाले हैं। आप सबका जो भारत है व जो किसी का भी कुछ धर्म है मैं सोचती हूँ कि वे जैनधर्म के ऊँचे विचार हैं, उनको सभी मानें। हमें मालूम है कि हमारी आजादी की लड़ाई में कितना महत्व इन विचारों को गांधी जी ने दिया।
 
वे चूँकि हमारे नेता थे और उनके चरणों में बैठ के हमने सीखा, तो हमारे भी रोम-रोम में ये चीजें आती हैं। हमारा आन्दोलन अहिंसा का था जो कि दुनिया के इतिहास में कभी नहीं देखा था। सबसे पहले बड़ा आन्दोलन इस रास्ते से हुआ। इसी प्रकार से हमें देखना है कि आजकल के जीवन में चाहे गरीबी हटाने का कार्यक्रम हो, देश को बलवान बनाने का कार्यक्रम हो, इसी रास्ते से बन सकता है।
 
अहिंसा के रास्ते से, सहनशीलता के रास्ते से, सादगी में रहने से, इतनी बातें जो भगवान महावीर ने अपने वचन से छोड़ी हैं हमारे संग, वो चीजें हैं जो देश को मजबूत करती हैं ऊपर उठाती हैं। यह प्रसन्नता का विषय है कि पूज्य ज्ञानमती माताजी ने यह जम्बूद्वीप का मॉडल बनवाकर तथा जो हस्तिनापुर में बनाया जा रहा है, इससे लोग इसके बारे में ज्यादा से ज्यादा ठीक जानकारी प्राप्त कर सकेगे ।
 
और जहाँ-जहाँ यह ज्योति जायेगी, वहाँ भी इसके द्वारा एक नई धार्मिक भावना जगेगी। मैं आपके सामने आभार ही प्रकट कर सकती हूँ कि ऐसे शुभ अवसर पर आपने मुझे बुलाया कि मैं इसका प्रवर्तन करूॅँ। यह देखकर मुझे बहुत खुशी है और माताजी को भी मैं बार-बार नमन करती हूँ।’’

तव चरणों में सब झुकते हैं


 सन् १९७९ में सुमेरुपर्वत के जिनचैत्यालयों की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में उत्तरप्रदेश के मंत्री रेवतीरमण जी आये। सन् १९८० में अक्टूबर में माताजी के जन्मदिवस पर केन्द्रीय नागरिक उड्डयन मंत्री ए.पी. शर्मा और केन्द्रीय मंत्री श्री प्रकाशचंद सेठी आए। पूज्य माताजी के सानिध्य में सन् १९८२ में दिल्ली के लालकिला मैदान में तत्कालीन भारत की प्रधानमंत्री इन्दिरागांधी ने पधारकर जम्बूद्वीप ज्ञानज्योति के मॉडल का शुभ प्रवर्तन प्रारंभ किया।
 
३१ अक्टूबर सन् १९८२ को दिल्ली में श्री राजीव गांधी संसद सदस्य ने जम्बूद्वीप सेमिनार का उद्घाटन करके शुभाशीर्वाद प्राप्त किया। जनवरी सन् १९८५ में केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री श्रीमती मोहसिना किदवई पूज्य आर्यिकाश्री के दर्शनार्थ पधारीं। माताजी के शुभाशीर्वाद से उन्हीं के सानिध्य में सन् १९८५ के जम्बूद्वीप जिनबिंब प्रतिष्ठापना महोत्सव की रूपरेखा बनाने के लिए नारायणदत्त तिवारी (तत्कालीन मुख्यमंत्री उत्तरप्रदेश) ने आकर यहाँ हस्तिनापुर के रत्नत्रयनिलय में बैठकर कमेटी के कार्यकर्ताओं से घंटों चर्चाएं की थीं।
 
प्रो. वासुदेवसिंह (मंत्री-उ.प्र.) ने अक्षयतृतीया के दिन झण्डारोहण करके ‘‘अंतर्राष्ट्रीय जैन गणित एवं त्रिलोक विज्ञान सेमिनार’’ का उद्घाटन किया पुन: २८ अप्रैल १९८५ को तत्कालीन केन्द्रीय रक्षामंत्री नरसिंहराव ने जंबूद्वीप स्थल पर हेलीकॉप्टर से आकर ‘‘जंबूद्वीप अखंडज्ञानज्योति’’ को स्थापित किया था।
 
अनंतर नारायणदत्त तिवारी (तत्कालीन मुख्यमंत्री उत्तरप्रदेश) ने ३० अप्रैल १९८५ के प्रतिष्ठा समारोह में पधारकर भगवान के राज्याभिषेक कार्यक्रम में भाग लिया और पचासों हजार की जनता को संबोधित करके साधुवर्गों और पूज्य माताजी का शुभाशीर्वाद ग्रहणकर जंबूद्वीप का उद्घाटन करके विद्युत् दीपों और फव्वारों से जंबूद्वीप को जगमगा दिया था।
 
इसी प्रतिष्ठा के मध्य विधानसभा अध्यक्ष श्री हुकुमसिंह, भूतपूर्व राज्यपाल किदवई जी आदि अनेक नेतागण पधारे। सन् १९८७ की पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में आचार्यश्री विमलसागर जी महाराज अपने विशाल संघ सहित यहाँ पधारे थे, तब ८ मार्च को ब्र.मोतीचंद की क्षुल्लक दीक्षा के दिवस श्री माधवराव सिंधिया तत्कालीन रेलमंत्री- भारत सरकार पधारे थे। सन् १९९० में जंबूद्वीप महामहोत्सव एवं पंचकल्याणक प्रतिष्ठा में श्री अजितसिंह तत्कालीन उद्योगमंत्री भारत सरकार और बी. सत्यनारायण रेड्डी महामहिम राज्यपाल उत्तरप्रदेश पधारे थे।
 
सन् १९९१ के सरधना चातुर्मास में २३ अक्टूबर के दिन पूज्य माताजी के जन्मदिवस समारोह में श्री मुरली मनोहर जोशी (राष्ट्रीय अध्यक्ष भारतीय जनता पार्टी) और डॉ.जे.के. जैन (राज्यसभा सदस्य) पधारे। १५ फरवरी १९९२ को उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री श्री कल्याणसिंह पूज्य माताजी के दर्शनार्थ हस्तिनापुर पधारे एवं १९ अगस्त १९९२ को मध्यप्रदेश के लोकनिर्माण विभाग के मंत्री श्री हिम्मतसिंह कोठारी ने सपरिवार हस्तिनापुर पधारकर जंबूद्वीप रचना के दर्शन किए एवं पूज्य माताजी से शुभाशीर्वाद प्राप्त किया। इसके बाद सन् १९९४ में अयोध्या में तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने पूज्य माताजी के दर्शन करके अपने जीवन को धन्य किया।
 
प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जी ने दो बार (सन् १९९८ एवं २००० में) पूज्य माताजी के दर्शन किये तथा सन् २००३ में राष्ट्रपति ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने तो दर्शन करके अपने को बहुत ही धन्य-धन्य समझा। पूज्य माताजी के दिल्ली, गुजरात एवं महाराष्ट्र आदि प्रदेशों में मंगल पदार्पण के अवसर पर वहाँ के मुख्यमंत्री, राज्यपाल आदि ने दर्शन करके धर्मलाभ प्राप्त किया। यह सब पूज्य माताजी के महनीय व्यक्तित्व का ही प्रभाव है जो वे सभी को उदारतापूर्वक अपना आशीर्वाद प्रदान करती हैं।
 
यह अनेक राजनेताओं का जंबूद्वीप आदि के कार्यक्रमों में आगमन पूज्य गणिनी र्आियका श्री ज्ञानमती माताजी के मंगल आशीर्वाद का ही सुफल है। इन नेताओं ने आकर पूज्य माताजी से राज्य में शांति हेतु अनेक चर्चायें की थीं। माताजी ने भी प्राय: सभी को मांस, मद्य आदि का त्याग कराकर अनेक उपदेश देकर धर्म के यंत्र, मंत्र, जपमाला आदि भी दी हैं।
 
यहाँ एवं अन्यत्र भी एम.एल.ए., एम.पी., आई.जी., डी.आई.जी., कमिश्नर, कलेक्टर, सुप्रीमकोर्ट, हाईकोर्ट के न्यायाधीश आदि पधारकर पूज्य माताजी से आशीर्वाद ग्रहण करते रहते हैं तथा एन.सी.सी., मिलिट्री आदि के वैम्प भी प्राय: हस्तिनापुर के प्राकृतिक वातावरण में आयोजित होते हैं, जिनमें शिविरार्थी जम्बूद्वीप स्थल पर आकर इन गरिमामयी व्यक्तित्व के समक्ष नतमस्तक होते हुए इनसे कल्याणकारी उपदेश एवं आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।

केशलोंच


 दिगम्बर मुनि-आर्यिकाओं की चर्या में केशलोंच उनका एक मूलगुण है जो उत्तम, मध्यम, जघन्य विधि अनुसार दो, तीन, चार महीने में सम्पन्न करना होता है। पूज्य माताजी ने अपने ५३ वर्षीय दीक्षित जीवन में लगभग २०० बार केशलोंच किए। प्रारंभ में तो दो से तीन माह के अंदर शास्त्रोक्त मध्यम चर्यानुसार केशलोंच करना ही इन्हें इष्ट था। यह क्रम लगभग ३० वर्ष तक चला है। उसके पश्चात् शारीरिक अस्वस्थता के कारण ३ से ४ माह के बीच में करने लगीं, वह तारतम्य वर्तमान में भी चल रहा है।
 
चाहे कैसी विकट परिस्थितियाँ इनके जीवन में क्यों न आर्इं किन्तु अपने मूलगुणों के पालन में पूज्य माताजी सर्वदा सावधान देखी गर्इं। ये हम शिष्यों को हमेशा यही शिक्षा देती रहती हैं कि ‘‘शरीर तो भव-भव में प्राप्त होता है किन्तु संयम बड़ी दुर्लभता से मिला है। शरीर-स्वास्थ्य के लिए संयम की कभी विराधना नहीं करनी चाहिए, चाहे वह छूटे अथवा रहे।’’
 
इसी सूत्र का अनुसरण इन्होंने अपनी गंभीर अस्वस्थता में भी किया है। सन् १९८५-८६ में जब म्यादी बुखार एवं पीलिया के कारण ये मरणासन्न अवस्था में थीं, तो भी अपने केशलोंच के समय का इन्हें पूरा ध्यान रहा और एक दिन मुझसे बोलीं-तुम मुझे राख लाकर दे दो, मैं आज लोंच करूँगी। समय अभी ८-१० दिन शेष था ४ माह में, किन्तु उठकर अपने हाथों से ही अपने सिर के पूरे केशों का लोंच किया और नियमानुसार उपवास किया।
 
मैंने कुछ सहारा लगाने का प्रयत्न भी किया किन्तु प्रारंभ से ही अपने हाथ से करने की आदत होने के कारण धीरे-धीरे स्वयं करती रहीं, मुझे एक बाल भी नहीं उखाड़ने दिया। इस दृश्य से हम सभी आश्चर्यचकित थे क्योंकि उन दिनों माताजी अशक्तता के कारण दीर्घशंका, लघुशंका के लिए खड़ी भी नहीं हो पाती थीं।
 
यहाँ तक कि कुछ दिन तक करवट भी स्वयं बदलने में असमर्थ रहीं। मेरी लगभग २४ घंटे उनके पास ड्यूटी होती थी और सभी शिष्यगण परिचर्या में लगे हुए थे। ऐसे गंभीर अस्वस्थ क्षणों में दो घण्टे लगातार बैठकर अपने हाथों से केश उखाड़ना मात्र कोई दैवीशक्ति एवं असीम आत्मबल का ही प्रतीक था। तपस्या की इसी दृढ़ता ने इन्हें सदैव नवजीवन प्रदान किया है। इनकी छत्रछाया मुझे भी ऐसी चारित्रिक दृढ़ता प्रदान करे, यही जिनेन्द्र भगवान से प्रार्थना है।

अपूर्व कार्यक्षमता


 उस दीर्घकालीन अस्वस्थता के पश्चात् माताजी आज भी एक स्वस्थ व्यक्ति से कहीं अधिक कार्य करती हैं। उन्हें शिष्यों का भी एक मिनट खाली बैठना पसंद नहीं है। जीवन के एक-एक क्षण का सदुपयोग करने की शिक्षा उनके सानिध्य से सहज प्राप्त हो सकती है। तभी तो उन्होंने सन् १९८६ की मरणोन्मुखी अस्वस्थता के बाद भी कल्पद्रुम, सर्वतोभद्र, तीनलोक, जम्बूद्वीप आदि वृहद् मंडल विधानों की रचना की तथा समयसार ग्रंथ का अनुवाद किया, अनेक मौलिक ग्रंथों का सृजन किया तथा अब तक सद्धचक्र, ऋषभदेव, पाश्र्वनाथ, विश्वशांति महावीर विधान, गणधरवलय आदि लगभग ४० विधानों की रचना की।
 
वर्तमान में षट्खण्डागम की सिद्धान्तचिंतामणि नामक संस्कृत टीका लेखन का नवीन कार्य चल रहा है। इसके अतिरिक्त उनका समय अपनी दैनिक क्रियाओं में तथा स्वाध्याय और भाक्तिकों को आशीर्वाद प्रदान करने में व्यतीत होता है।

शुद्धप्रासुक लेखनी चिरकाल तक जीवन्त रहेगी


 आचार्य श्री कुंदकुंद, उमास्वामी, समन्तभद्र, अकलंकदेव तो हमने नहीं देखे, जो हमें अपने हाथों से लिखकर अमूल्य साहित्यिक कृतियाँ प्रदान कर गए किन्तु उन सबका मिलाजुला रूप हमें वर्तमान में गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी के अन्दर दृष्टिगत हो रहा है जिन्होंने पूर्वाचार्यों की वाणी से अनुस्यूत एक-एक शब्द अपने ग्रंथों में संजोया है, पापभीरुता जिनमें कूट-कूट कर भरी हुई है, मनग़ढ़ंत एक शब्द भी जिनकी कृतियों में उपलब्ध नहीं हो सकता, ऐसी शुद्ध लेखनी को जग का बारम्बार प्रणाम है।
 
प्रासुक लेखनी से हमारे पाठक भ्रमित हो सकते हैं कि पानी, दूध तथा खाद्य पदार्थ प्रासुक किये जाते हैं, क्या लेखनी भी किसी की प्रासुक हो सकती है? हाँ, लेखनी भी प्रासुक है तभी तो उनके द्वारा लिखित ग्रंथों में अतिशय देखा जा रहा है। सूखी नीली कोरस टिकिया का बुरादा अपने कमंडलु के जल में घोलकर फाउन्टेन पेन से डुबोकर उन्होंने सदैव लेखनकार्य किया। चौबीस घण्टे की मर्यादा के बाद पुन: कमंडलु के गरम-प्रासुक जल से पेन की निब धोकर दूसरी नई स्याही घोलकर लिखना यही उनका दैनिक लेखन क्रम था। सन् १९६९-७० में अष्टसहस्री अनुवाद की ९ कापियाँ तो कच्ची पेंसिल से लिखी हैं और १ कापी स्याही से लिखी है।

हस्तिनापुर तथा आसपास नगरों का मंगलमयी प्रवास


 भगवान ऋषभदेव की प्रथम पारणा स्थली, भगवान शान्ति, कुंथु, अरहनाथ की चार कल्याणक भूमि एवं अनेक इतिहासों को अपने गर्भ में संजोए हुए हस्तिनापुर नगरी ऐतिहासिक एवं पौराणिक तो है ही, जंबूद्वीप के निर्माण ने इस चेतना के स्वरों में नवजीवन प्रदान कर दिया है। अपनी कर्मभूमि एवं तपोभूमि जंबूद्वीप स्थल पर निर्मित ‘‘रत्नत्रय निलय’’ वसतिका में भी पूज्य माताजी का ससंघ वास्तव्य रहता है।
 
उनकी शारीरिक अशक्तता ने जहाँ उन्हें हस्तिनापुर में अधिक प्रवास के लिए बाध्य किया है, वहीं देश-विदेश की जनता को उनसे असीम लाभ प्राप्त हो रहा है। जंबूद्वीप दर्शनार्थ आने वाले अधिकतर यात्रियों को यहाँ यदि विहार कर रहीं ज्ञानमती माताजी के दर्शन नहीं होते हैं, तो वे अपनी यात्रा अधूरी समझकर उन्हें ढूंढते हुए कहीं न कहीं पहुँचकर दर्शन करके ही यात्रा को पूर्ण मानते हैं।
 
सन् १९८९-९० में जब बड़ौत, मोदीनगर, मेरठ, अमीनगर सराय आदि नगरों में शीतकालीन प्रवास के समय देश के सुदूरवर्ती प्रान्तों से आए हुए भक्तगण स्थान का पता लगा-लगाकर दर्शनार्थ पहुँचे, उस समय बड़ौत के निकट एक पोयस नामक बहुत छोटे से ग्राम में विदेश (जापान) से पधारे हुए योशिमाशा मिचिवाकी पूज्य माताजी एवं संघ के दर्शनकर अत्यन्त प्रसन्न हुए।
 
उनके साथ में पधारे डॉ. अनुपम जैन (इंदौर-म.प्र.) ने उन्हें जैन साधुओं के पद विहार, कठिन तपश्चर्या आदि के विषय में बतलाया जिसे सुनकर वे बड़े प्रभावित हुए। इसी प्रकार सन् १९९१ में हस्तिनापुर से ५० किमी. दूर सरधना नगर में पूज्य माताजी का जब संघ सहित चातुर्मास हुआ, तब वहाँ प्रतिदिन मेला सा लगा रहा।
 
राजस्थान, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि अनेक प्रान्तों से यात्री बसों का तांता लगा रहा। सरधना निवासी बड़ी प्रसन्नता पूर्वक अतिथियों का आतिथ्य-सत्कार करते तथा अपने नगर को एक जीवंत तीर्थ मानते हुए पूâले नहीं समाते। हस्तिनापुर के आस-पास सैकड़ों ग्रामों एवं शहरों में विशाल जैन समाज है, उन सभी की अपने-अपने नगरों में माताजी को ले जाकर सानिध्य प्राप्त करने एवं ज्ञान लाभ लेने की तीव्र अभिलाषा रहती है।

पश्चिमी उत्तरप्रदेश में साधुसंघ विहार की प्रेरिका


 जम्बूद्वीप रचना के माध्यम से श्री ज्ञानमती माताजी ने पश्चिमी उत्तरप्रदेश को जहाँ एक विश्व की अद्वितीय धरोहर प्रदान की है, वहीं बड़े-बड़े साधु संत भी आपकी प्रेरणा से इस प्रान्त में पधारे, जिससे जैनत्व का विस्तृत प्रचार हुआ है। परमपूज्य आचार्यश्री १०८ धर्मसागर महाराज के पदार्पण के पश्चात् सन् १९७५ में आचार्यकल्प श्री श्रुतसागर महाराज का हस्तिनापुर एवं उत्तरप्रदेश के कुछ नगरों में पदार्पण हुआ पुन: सन् १९७९ में सुमेरु पर्वत की प्रतिष्ठा महोत्सव में आचार्यकल्प श्री श्रेयांससागर महाराज का ससंघ पदार्पण हुआ, जो सन् १९९० में आचार्य श्री शान्तिसागर महाराज की परम्परा के पंचम पट्टाचार्य बने।
 
सन् १९८५ में जंबूद्वीप जिनबिम्ब प्रतिष्ठापना महोत्सव पर आचार्यश्री धर्मसागर महाराज संघस्थ मुनिश्री निर्मलसागर जी एवं कतिपय मुनि-आर्यिकाओं का आगमन हुआ तथा आचार्यश्री सुबाहुसागर महाराज ससंघ पधारे। पूज्य माताजी की सदैव यह हार्दिक इच्छा रही है कि संसार में प्रथम बार निर्मित जम्बूद्वीप रचना के दर्शनार्थ एवं उत्तरप्रदेश की जनता के धर्मलाभ हेतु साधु संघ हस्तिनापुर एवं इस प्रान्त में पधारें। अपने निकटस्थ भक्तों को वे इसके लिए प्रेरणा भी प्रदान करती रहती हैं।
 
इसी प्रेरणा के फलस्वरूप सन् १९८७ में सन्मार्ग दिवाकर आचार्यश्री विमलसागर महाराज के विशाल संघ का हस्तिनापुर पदार्पण हुआ और मेरठ, बड़ौत आदि शहरों में भी कुछ समय तक संघ का प्रवास रहा। इसी प्रकार सन् १९८९ में पूज्य माताजी की प्रेरणा से आचार्यश्री कुंथुसागर महाराज के चतुर्विध संघ का हस्तिनापुर पदार्पण हुआ।
 
यहाँ ४० दिवसीय प्रभावनापूर्ण प्रवास के पश्चात् बड़ौत, मुजफ्फरनगर आदि नगरों में उनके चातुर्मास भी हुए। पश्चिमी उत्तरप्रदेश की जनता पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी की इस प्रेरणा, उदारता से अपने को सौभाग्यशाली मानती है। इसके अतिरिक्त आचार्य श्री सुमतिसागर महाराज, आचार्यश्री दर्शनसागर जी, आचार्यश्री कल्याणसागर जी आदि के संघ इस प्रदेश में पधारते रहे हैं, वे जंबूद्वीप रचना के निमित्त से हस्तिनापुर भी अवश्य पहुँचते हैं, यह सब पूज्य माताजी की प्रबल प्रेरणा एवं धर्मवात्सल्य का ही फल है।

तन्मयता ने चिन्मयता दी


 कुशल व्यापारी जब व्यापार में तन्मय होता है, तो एक दिन सेठ बन जाता है, कुशल चित्रकार अपनी चित्रकारी में तन्मय होकर अचेतन चित्रों में जान फूक देता है, कुशल डाक्टर तन्मयता पूर्वक मरीजों का इलाज, ऑप्रेशन आदि के द्वारा उसे नवजीवन प्रदान कर देता है, ध्यानी दिगम्बर मुनि ध्यान में तन्मय होकर केवलज्ञान को प्राप्त कर लेते हैं, शिष्य तन्मयतापूर्वक अध्ययन करके ऊँची-ऊँची डिग्री प्राप्त कर लेते हैं, गुरु तन्मयतापूर्वक शिष्यों को पढ़ाकर उसे अपने से भी अधिक योग्य बना देते हैं।
 
कहने का मतलब यह है कि तन्मयता प्राणी को उन्नति के शिखर पर पहुँचा देती है। तत् शब्द में मयट् प्रत्यय लगकर तद्रूप अर्थ में ‘तन्मय’ शब्द प्रयुक्त होता है। पूज्य श्री ज्ञानमती माताजी जब अपने लेखन में तन्मय हो जाती हैं, तब उन्हें अपने दर्शनार्थ आने वाले यात्रियों का भान ही नहीं रहता। आश्चर्य तो तब होता है, जब हम लोगों के द्वारा बताए जाने पर कि दूर-दूर से दर्शनार्थी आए हैं, आपने इन्हें हाथ उठाकर आशीर्वाद भी नहीं दिया, तब वे कहती हैं कि मुझे तो कुछ पता ही नहीं था, मैं लेखन करती हुई साक्षात् समवसरण या अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शनार्थ पहुँच गई थी।
 
३ जुलाई सन् १९९२ की बात है-तहसील फतेहपुर (उ.प्र.) से पुतानचन्द जी के सुपुत्र यशवन्त कुमार एवं सुपुत्री आदि हस्तिनापुर आए, माताजी के दर्शन किए, मैं दूसरे कमरे में बैठी लिख रही थी, मेरे पास आए, दर्शन किए और बोले-शायद बड़ी माताजी ने हमें पहचाना नहीं। मैं उन्हें लेकर १५ मिनट बाद फिर माताजी के पास पहुँची, माताजी ने उन्हें देखा और उन लोगों से पुतानचंद जी के बारे में भी पूछा। फिर कहने लगीं कि तुम लोग कब आए हो?
 
मैंने कहा-ये तो अभी आपके दर्शन करके गए हैं। माताजी मुस्कराने लगीं और बोलीं-मैं सिद्ध भगवान के गुणों में मगन थी (उस समय वे सिद्धचक्र विधान की रचना कर रही थीं) मुझे कुछ पता नहीं कि कौन, कब मेरे दर्शन करने आया? खैर! वे लोग तो बेचारे माताजी की प्रवृत्ति जानते थे, इसलिए बुरा न मानकर पुन: उनका आशीर्वाद ग्रहण किया किन्तु कितनी ही बार ऐसे प्रसंगों में कुछ भक्तगण नाराज भी होते हैं।
 
उनका कहना रहता है कि माताजी कम से कम हमारी ओर देखकर आशीर्वाद तो प्रदान करें, हम लोग दूर-दूर से केवल इन्हीं के दर्शनार्थ तो आते हैं, उनकी एक दृष्टिमात्र से हमारी सारी थकान दूर हो जाती है। किसी अंश में भक्तों की अपनत्व भरी यह शिकायत मुझे सत्य ही प्रतीत होने लगती है और मैं माताजी से हँसी-हँसी में कहती भी हूँ कि लेखन के समय आपके साथ तो ‘मयट्’ प्रत्यय ही लग जाता है, तब आप सचमुच तद्रूप परिणत हो जाती हैं।
 
उस समय माताजी का कहना होता है कि तन्मय हुए बिना सुन्दर कार्य की उपलब्धि नहीं होती है। अधिक जोर देने पर वे कहने लगती हैं-ध्यान और अध्ययन तो साधु का लक्षण ही है इसमें भी श्रावक यदि बुरा मानें, तो मैं क्या कर सकती हूँ? अब भक्तगण इस विषय पर स्वयं विचार करें और लिखाई-पढ़ाई में व्यस्त पूज्य माताजी से उनके बातचीत के समय पर ही बात करने का प्रयास करें क्योंकि उनकी यह तन्मयता जहाँ उनके स्वयं के लिए हितकारी है, वहीं लाखों लोगों को ज्ञान और भक्ति का मार्ग भी प्रशस्त करती है। यही तन्मयता उन्हें चिन्मयता प्रदान करती है।

चरित्रचन्द्रिका नाम की सार्थकता


आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी के वाक्य ‘‘चारित्तं खलु धम्मो’’ के अनुसार जैनधर्म की नींव चारित्र पर ही टिकी है एवं सम्यग्दर्शन के साथ धारण किया गया अल्प चारित्र भी मोक्षमार्ग में साधक होता है, जबकि सम्यक्त्वरहित बहुत त्याग-तपस्यायुक्त चारित्र संसार का ही कारण होता है। कसायपाहुड़ सूत्र गंरथ की जयधवला टीका में श्री वीरसेनाचार्य ने कहा भी है-
 
णाणं पयासओ तवो सोहओ संजमो य गुत्तियरो।
तिण्हं पि समाजोए, मोक्खो जिणसासणे भणिदं।।
 
अर्थात् ज्ञान स्व-परप्रकाशक होता है, तप से आत्मतत्त्व का शोधन होता है तथा संयम से आत्मा की रक्षा होती है एवं इन तीनों के संयोग-एकीकरण से प्राप्त अवस्था को जिनशासन में मोक्ष की संज्ञा प्रदान की गई है। इसी मोक्षपद की शाश्वत सत्ता को प्राप्त करने हेतु अनादिकाल से मनुष्यगति में सर्वांगीण योग्य स्त्री-पुरुषों द्वारा अणुव्रत एवं महाव्रतरूप चारित्र धारण करने की परम्परा रही है। इन्हीं अवस्थाओं को देशचारित्र और सकलचारित्र के नाम से जाना जाता है।
 
गृहस्थ श्रावक-श्राविकाएँ पाँच अणुव्रत, बारहव्रत, ग्यारह प्रतिमा आदि व्रतों को पालन करके देशसंयमी कहलाते हैं तथा पाँच महाव्रत, पाँच समिति, तीन गुप्तिरूप तेरह प्रकार के चारित्र को धारण करने वाले सकलसंयमी होते हैं। इस ग्रंथ की मूलनायिका के रूप में जिन पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिकाशिरोमणि श्री ज्ञानमती माताजी के जीवन दर्शन को ‘‘चारित्रचन्द्रिका’’ नामक इस ग्रंथ में प्रस्तुत किया गया है, उनके लिए कवि की ये पंक्तियाँ बिल्कुल सार्थक लगती हैं-
 
इनका कहना हम ज्ञान रखे, लेकिन चारित्र न खो डालें।
आचरण छूट जावे जिससे, हम ऐसा बीज न बो डालें।।
 
चारित्रहीन यदि ज्ञान मिला, तो बेड़ा पार नहीं होगा।
केवल कोरी इन बातों से, जग का उद्धार नहीं होगा।।
 
अर्थात् दृढ़ सम्यक्त्व के साथ इन्होने १८ वर्ष की अल्प आयु से चारित्र के जिस दुर्गम कंटीले पथ पर कदम रखकर फूलों जैसा सुगंधित उपहार संसार को प्रदान किया है, उसी से प्रभावित होकर अयोध्या में श्रद्धालु भक्तों ने इन्हें ‘‘चारित्रचन्द्रिका’’ अलंकरण के द्वारा सम्मानित कर सचमुच में अपनी अमूल्य निधि का मूल्याकंन किया।
 
सन् १९९३ में प्राप्त इस उपाधि की सार्थकता से सम्पूर्ण देश परिचित हो इसी भावना से पूज्य ज्ञानमती माताजी के जीवन की असीमित विशेषताओं को अपने सीमित शब्दों में प्रस्तुत करने का यह मेरा अभिप्राय उनके चारित्र चन्द्रमा की चाँदनी से अपने अमावसी अंधियारे जीवन को प्रकाशित करने का प्रयास मात्र है। मैंने सन् १९६९ से इन्हें एक कर्मठ साध्वी एवं जन-जन की हितकारिणी जगन्माता के रूप में देखा है तथा सन् १९७१ से तो आजन्म ब्रह्मचर्य व्रत लेकर छाया की तरह हर पल पास रहकर इनके वैराग्यमयी जीवन के समस्त पहलुओं से एक जन्मजात शिशु की तरह परिचित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है।
 
इनके चारित्र की चन्द्रिका-धवल चाँदनी से सैकड़ों सुकुमारिकाओं ने अमृतपान करके निज को धन्य किया है, इसीलिए बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य चारित्रचक्रवर्ती गुरुवर्य आचार्यश्री शान्तिसागर महाराज (मुनि परम्परा के जीर्णोद्धारक) के समान ये भी बालब्रह्मचारिणी आर्यिकापरम्परा की युगप्रवर्तिका के रूप में मानी जाती हैं।
 
Tags: Meri Smritiyan
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