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23. पूर्व पुष्करार्धद्वीप ऐरावत क्षेत्र वर्तमान तीर्थंकर स्तोत्र

January 23, 2014Booksjambudweep

(चौबीसी नं. २३)


पूर्व पुष्करार्धद्वीप ऐरावत क्षेत्र वर्तमान तीर्थंकर स्तोत्र

नरेन्द्र छंद

पूरब पुष्कर ऐरावत के, वर्तमान तीर्थंकर।

चिच्चैतन्य सुधारस प्यासे, भविजन को क्षेमंकर।।

उनको नितप्रति शीश नमाके, प्रणमूँ मन-वच-तन से।

आतम अनुभव अमृत हेतु, वंदूँ अंजलि करके।।१।।

दोहा

निज में ही रमते सदा, सिद्धिवधू भरतार।

इसी हेतु भविजन नमें, भुक्ति मुक्ति करतार।।२।।

दोहा

श्री ‘शंकर’ जिनदेवजी, जग में शं करतार।

शीश नमाकर मैं नमूँ, होवे निज पद सार।।१।।

‘अक्षवास’ जिनराज को, मिला सौख्य निर्वाण।

हृदय कर्णिका में सदा, मुनिजन करते ध्यान।।२।।

श्री ‘नग्नाधिप’ देव तुम, बहिरंतर निग्र्रंथ।

नग्न दिगम्बर रूप तुम, सत्य मोक्ष का पंथ।।३।।

श्री ‘नग्नाधिपतीश’ हो, नमन करें सुरवृंद।

मैं वंदूँ नित भक्ति से, हरो सकल दुख द्वंद।।४।।

नाथ ‘नष्टपाखंड’ को, विश्व नमाता माथ।

मैं भी शीश नमाय के, फिर ना होऊँ अनाथ।।५।।

‘स्वप्नदेव’ जिननाथ को, नमूँ-नमूँ तन शीश।

हरो अमंगल विश्व के, भरो सकल सुख ईश।।६।।

आप ‘तपोधन’ आत्मधन, पाकर भये सुतृप्त।

वंदूँ भक्ति बढ़ाय के, पाऊँ सौख्य प्रशस्त।।७।।

‘पुष्पकेतु’ जिनराज हैं, मुक्तिरमा भरतार।

वंदूँ भक्ति बढ़ाय के, पाऊँ सौख्य अपार।।८।।

श्री ‘धार्मिक’ जिनराज का, धर्मचक्र हितकार।

जो भविजन शरणा गहें, नाशें निज संसार।।९।।

‘चंद्रकेतु’ भगवान को, नमते नाग नरेश।

स्याद्वाद अम्भोधि के, वर्धन हेतु महेश।।१०।।

श्री ‘अनुरक्त’ सुज्योति को, नमन करूँ शतबार।

तुम में जो अनुरक्त जन, वे उतरें भव पार।।११।।

‘वीतराग’ जिनदेव के, चरण कमल का ध्यान।

जो जन करते भाव से, पावें सौख्य निधान।।१२।।

श्री ‘उद्योत’ जिनेश तुम, ज्ञान भानु तमहार।

वंदूँ सकल विभाग तज, लहूँ ज्ञान भंडार।।१३।।

‘तमोपेक्ष’ भगवान के, गुणगण अपरंपार।

गणधर भी नहिं गा सकें, मैं वंदूँ सुखसार।।१४।।

श्री ‘मधुनाद’ जिनेन्द्र को, सुरनर खगपति आय।

वंदूं भक्ति बढ़ाय के, मैं नितप्रति हरषाय।।१५।।

श्री ‘मरुदेव’ महान हो, अद्भुत तुम माहात्म्य।

मैं वंदूँ नित भक्ति से, होऊँ सब जन मान्य।।१६।।

श्री ‘दमनाथ’ जिनेश को, नमें जितेन्द्रिय साधु।

मैं भी वंदूँ भक्ति से, हरूँ सकल दुख बाध।।१७।।

‘वृषभस्वामि’ आनंदघन, चिन्मय ज्योति स्वरूप।

जो वंदें श्रद्धान धर, पावें सौख्य अनूप।।१८।।

अहो ‘शिलातन’ तीर्थपति, व्रतगुणशील निधान।

तुम्हें नमें जो भक्ति से, करें अमंगल हान।।१९।।

‘विश्वनाथ’ के ज्ञान में, झलके विश्व समस्त।

त्रैकालिक पर्याययुत, सकल वस्तु प्रत्यक्ष।।२०।।

श्री ‘महेन्द्र’ भगवान हैं, त्रिभुवनपति महनीय।

मैं वंदूँ नित आप मुझ, हरो दशा दयनीय।।२१।।

जिनवर ‘नंद’ जगत प्रभो, परमानंद निमग्न।

तुमको वंदें जो मुदित, वे नर सदा प्रसन्न।।२२।।

सकल ‘तमोहर’ आप हैं, भविजन कमल दिनेश।

जो वंदें तुम प्रीति धर, हरें सकल दुख क्लेश।।२३।।

श्री ‘ब्रह्मज’ जिनदेव को, वंदूँ बारंबार।

हरूँ मोक्ष पथ विघ्न सब, लहॅूँ सकल सुखकार।।२४।।

गीता छंद

जो आप में ही आप रत हो, आपको वश पा लिया।

उन चरण में शत इंद्र ने भी, आप शीश झुका दिया।।

वंदत मिले सज्ज्ञानमति, वे सौख्य के भण्डार हैं।

वे काम मोह व मृत्यु तीनों, मल्ल के हंतार हैं।।२५।।

Tags: Trikalik Tirthankara Stotra
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