प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव की निर्वाणभूमि कैलाशपर्वत
-प्रो. टीकमचंद जैन, नवीनशाहदरा, दिल्ली
अनादिनिधन जैनधर्म में दो शाश्वत तीर्थक्षेत्र माने गये हैं-१. अयोध्या २. सम्मेदशिखर। अयोध्या तीर्थ को जहाँ अनन्तानन्त तीर्थंकरों की जन्मभूमि होने का गौरव प्राप्त है वहीं सम्मेदशिखर अनन्तानन्त तीर्थंकरों एवं मुनियों की निर्वाणभूमि के नाम से जाना जाता है। वर्तमान में हुण्डावसर्पिणी कालदोषवश केवल ५ तीर्थंकरों ने अयोध्या नगरी में जन्म लिया और शेष तीर्थंकर अलग-अलग स्थानों पर जन्में, इसी प्रकार बीस तीर्थंकर सम्मेदशिखर से मोक्ष गए और शेष चार तीर्थंकर अलग-अलग स्थानों से मोक्ष गए जिनमें से प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने कैलाशपर्वत से मोक्ष प्राप्त किया। इस पवित्र पर्वतराज को अष्टापद के नाम से भी जाना जाता है। भगवान ऋषभदेव के मोक्षगमन के पश्चात् उनके पुत्र सम्राट् भरत चक्रवर्ती ने भगवान ऋषभदेव की निर्वाणभूमि कैलाशपर्वत पर त्रिकाल चौबीसी (भूत, वर्तमान एवं भविष्यत्कालसंबंधी चौबीसों तीर्थंकर) की बहत्तर रत्नप्रतिमाएँ बनवाकर बहत्तर जिनमंदिरों में विराजमान की थीं ऐसा वर्णन ग्रंथों में आता है। उत्तरपुराण में पृष्ठ १० पर आचार्य श्री गुणभद्र ने सगर चक्रवर्ती द्वारा अपने पुत्रों से कैलाशपर्वत के चारों ओर खाई खोदने का वर्णन करते हुए कहा है-
अर्थात् राजा सगर ने अपने पुत्रों द्वारा कोई कार्य मांगने पर सोचा कि अभी धर्म का एक कार्य बाकी है। उन्होंने हर्षित होकर आज्ञा दी कि ‘‘भरत चक्रवर्ती ने कैलाशपर्वत पर महारत्नों से अरहन्त देव के चौबीस मंदिर बनवाएँ हैं, तुम लोग उस पर्वत के चारोें ओर गङ्गा नदी को उन मंदिरों की परिखा बना दो।’’ उन राजपुत्रों ने भी पिता की आज्ञानुसार दण्डरत्न से वह काम शीघ्र ही कर दिया। करोड़ों-करोड़ों वर्ष पूर्व निर्मित उन जिनमंदिरों का जीर्णोद्धार आज से नौ लाख वर्ष पूर्व अयोध्या के महाराजा दशरथ ने करवाया था ऐसा कथन जैन रामायण (पद्मपुराण) में आता है। पद्मपुराण के बाईसवें सर्ग में आचार्य रविषेण ने लिखा है-
ये भरताद्यैर्नृपतिभिरुद्धा: कारितपूर्वा जिनवरवासा:। भङ्गमुपेतान् क्वचिदपि रम्यान् सोऽनयदेतानभिनवभावान्।।१७९।।
अर्थात् भरतादि राजाओं ने जो पहले जिनेन्द्र भगवान के उत्तम मंदिर बनवाए थे वे यदि कहीं भग्नावस्था को प्राप्त हुए थे तो उन रमणीय मंदिरों को राजा दशरथ ने मरम्मत कराकर पुन: नवीनता प्राप्त कराई थी। यही नहीं, उसने स्वयं भी ऐसे जिनमंदिर बनवाए थे जिनकी कि इन्द्र स्वयं स्तुति करता था तथा रत्नों के समूह से जिनकी विशाल कान्ति स्पुâरायमान हो रही थी। भगवान ऋषभदेव के मोक्षगमन के पश्चात् उस पर्वत से अनेक मुनि मोक्ष गए हैं ऐसा वर्णन पुराण ग्रंथों में आता है। निर्वाणकाण्ड में भी लिखा है-
बाल महाबाल मुनि दोय, नागकुमार मिले त्रय होय। श्री अष्टापद मुक्ति मंझार, ते वंदौं नित सुरत संभार।।१६।।
पद्मपुराण ग्रंथ में आचार्य श्री रविषेण ने बालि मुनि की कथा का बड़ा ही रोमांचकारी वर्णन किया है कि-महामुनि बालि दुद्र्धर तप करते हुए कैलाशपर्वत पर ध्यानस्थ थे। एक समय दशानन अर्थात् रावण नित्यलोक नगर के राजा नित्यालोक की पुत्री रत्नावली से विवाह कर लंका की ओर जा रहा था। मार्ग में कैलाशपर्वत के ऊपर से उड़ते हुए उसका पुष्पक विमान वायुमार्ग में एकाएक अकारण ही स्तम्भित हो गया। विमान को कीलित देख रावण ने अपने मंत्री मारीच से इसका कारण पूछा तब मारीच ने कहा-हे स्वामी! यह अत्यन्त पवित्र कैलाशगिरि है। यहाँ पर ही प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव का निर्वाण कल्याणक हुआ था। इस पर जिनेन्द्र भगवान के अनेक अतिशययुक्त मंदिर हैं तथा देखिए, पर्वत पर कोई महाऋद्धि के धारक मुनिराज ध्यानारूढ़ कायोत्सर्ग खड़े हैं। अतएव चलिए, नीचे उतरकर चैत्यालयोें की वंदना करें तथा मुनिराज को नमस्कार कर आगे बढ़ें अथवा विमान को पीछे लौटाकर किसी अन्य मार्ग से होकर चलें। यदि हठपूर्वक यहाँ से जाने का उद्यम किया जायेगा तो विमान खण्ड-खण्ड होकर पृथ्वी पर गिर पड़ेगा।’’ यह सुनकर गर्वोन्मत्त रावण नीचे उतरकर कैलाशगिरि की सुरम्यता का अवलोकन करने लगा। कुछ दूर आगे जाने पर महामुनि बालि को देख वह वैरभाव के कारण उनको यद्वा-तद्वा कहते हुए पर्वत को उखाड़कर समुद्र में फैकने के अभिप्राय से अपना विराट रूप कर क्रोधावेश में पर्वत की तली में घुसा और हुंकार कर दोनों बाहुओं से गिरिराज कैलाश को उठाने लगा। गिरि के किंचित् चलायमान होने से उस पर रहने वाले पशु-पक्षी आकुलित हो उठे, वनक्रीड़ा कर रहे देवगण आश्चर्यचकित हो आकाश में उड़ गए और बड़े-बड़े पेड़ गिरने लगे तब धीर-वीर, क्रोधरहित, पूर्ववत् निश्चल खड़े महामुनि सोचने लगे कि इस पर्वतराज पर भरत चक्रवर्ती के द्वारा निर्मित अनेक उत्तम चैत्यालय हैं, जहाँ निरन्तर सुर-असुर एवं विद्याधर वन्दना को आते हैं। कदाचित् पर्वत के चलायमान होने से वे जिनालय नष्ट न हो जाएं तथा पर्वत पर रहने वाले असंख्य जीवों की प्राण हानि न हो जाये, इस हेतु महामुनि बालि ने अपने चरण का अंगुष्ठ किंचित् दबाया तब तो दशानन मानो भार से दबने लगा और करुण रुदन करने लगा तब उसकी रानी ने महामुनि को करबद्ध नमस्कार कर पति के प्राणों की भिक्षा माँगी और उन परम दयालु महामुनि ने अपना अंगुष्ठ किंचित् ढीला कर दिया। तब रावण का गर्व चूर-चूर हो गया और उसने मुनि से बार-बार क्षमायाचना कर उनकी तीन प्रदक्षिणा लगाकर स्तुति की। महामुनि बालि ने जो दशानन पर किंचित् क्षोभ किया था अतएव गुरु के निकट जाकर उसका प्रायश्चित किया फिर उग्र तपश्चर्या कर कर्म शत्रुओं को परास्त कर उस पर्वत से निर्वाण पद प्राप्त किया। तात्पर्य यह है कि नौ लाख वर्ष पूर्व तक कैलाशपर्वत पर नर-नारी उन मंदिरों के दर्शन हेतु सम्मेदशिखर की भाँति जाते रहते थे और रत्न प्रतिमाओं का सम्पूर्ण इतिहास तब तक मौजूद था। वर्तमान मेें यद्यपि कैलाशपर्वत पर कहीं भी वे प्राचीन अवशेष नहीं पाए जा रहे हैं फिर भी रामायण के नायक राम, सीता, लक्ष्मण आदि इतिहास पुरुषों की भाँति उन मंदिरों और मूर्तियों का इतिहास भी हमें स्वीकार करना पड़ेगा। वह कैलाशपर्वत आज भी यद्यपि हमारे लिए सम्मेदशिखर पर्वत के समान ही पूज्य है किन्तु आज उसके साक्षात् दर्शन न होने से श्रद्धालु उस प्रथम निर्वाणस्थल की वंदना के पुण्य से वंचित इसलिए रहते हैं क्योंकि कई वर्षों से देश का वह भूभाग दूसरे देश चीन की सीमा में माना जा रहा है जहाँ पहुँच पाना अत्यन्त कठिनाई भरा है। शायद यही कारण रहा है कि जैन समाज तो पूर्णरूपेण उस ओर से उपेक्षित हो गई और तीर्थंकर की कल्याणक भूमियों में से इस प्रथम निर्वाणभूमि को सब लोग भूल ही गए किन्तु इतिहासकारों से ज्ञात होता है कि ‘‘कैलाश मानसरोवर’’ के नाम से जाना जाने वाला स्थान (पर्वत) ही वह असली कैलाशपर्वत है जहाँ से भगवान ऋषभदेव ने निर्वाण प्राप्त किया था। कुछ जैन बंधु २-३ वर्ष पूर्व कैलाशयात्रा के लिए गए और वहाँ से आकर उन्होंने पत्रकारों को बताया कि-‘‘जब हम कैलाश के पर पहुँचे तो हमारा तिब्बती-चीनी मार्गदर्शक (उल्ग्) हमारे नामों के पीछे ‘‘जैन’’ देखकर हमारे पास आया और बोला कि उसके पिता-दादा-पड़दादा कहते आए हैं कि वहाँ से ३ घण्टे पैदल चढ़ाई के बाद जो पहाड़ है वह ‘‘अष्टापद’’ है और वहाँ से जैनों के एक भगवान को निर्वाण प्राप्त हुआ है। वहाँ पर एक गुफा है, जिसमें उन्होंने अंतिम तपस्या की और आठ सीढ़ियाँ चढ़कर अलोप हो गए। डेढ़-दो सौ वर्ष पूर्व तो वहाँ ऊपर मंदिर में जैन-मूर्तियाँ थीं और तीर्थयात्री आते थे, पर बाद में वह बौद्ध मंदिर बन गया और मूर्तियाँ कहीं भारत में ले जायी गयीं।’’ उन जैन यात्रियों का मानना है कि वहाँ से प्राप्त तथ्यों के अनुसार वही कैलाशपर्वत प्राचीन अष्टापद है। ‘‘गोलालारे जैन जाति का इतिहास’’ नामक पुस्तक के पृष्ठ १२६-१३४ पर ब्रह्मचारी लामचीदास जी द्वारा भी कैलाशतीर्थ की यात्रा का प्रकरण दृष्टव्य है। जो भी हो, अप्राप्त प्रथम निर्वाणक्षेत्र असली कैलाशपर्वत खोज का विषय तो है ही, हम सभी की श्रद्धा का केन्द्र भी है। पुणे (महाराष्ट्र) के इंजीनियर श्री सी.आर. जैन पाटिल इस कैलाश मानसरोवर की यात्रा दो बार कर चुके हैं जो अपने साक्षात् अनुभव भी हमें बताते रहते हैं कि कितनी कठिनाई से वहाँ पहुँचा जाता है। परमपूज्य गणिनीप्रमुख श्री ज्ञानमती माताजी की पावन प्रेरणा से मनाए गये ‘‘भगवान ऋषभदेव अंतर्राष्ट्रीय निर्वाण महामहोत्सव’’ के अवसर पर राजधानी दिल्ली के लालकिला मैदान में ४ फरवरी २०००, माघ कृष्णा चतुर्दशी के शुभ दिन एक ऐसा ही अस्थायी कैलाशपर्वत निर्मित हुआ जो वास्तविक कैलाशपर्वत का दिग्दर्शन करा रहा था। उसी प्रकार के उपवन और बगीचे, झरने और गुफाएँ जहाँ पर्वत के प्राकृतिक सौंदर्य को दर्शा रहे थे वहीं पर्वत के विभिन्न स्थलों पर चक्रवर्ती भरत द्वारा बनाए गए बहत्तर मंदिरों में त्रिकाल चौबीसी की बहत्तर (७२) रत्नप्रतिमाओं की प्रतिकृति के रूप में निर्मित यहाँ भी बहुमूल्य रत्नप्रतिमाएँ चतुर्थकाल का दृश्य उपस्थित कर रही थीं जिसके समक्ष १००८ निर्वाणलाडू चढ़ाए गए और प्रथम निर्वाणलाडू चढ़ाने का सौभाग्य भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी ने प्राप्त किया था, साथ ही स्वयं को गौरवान्वित महसूस करते हुए उस धर्मसभा में कहा था-कि अभी पूज्य माताजी कह रही थीं कि कई लोग तो यह समझते हैं कि जैनधर्म की स्थापना भगवान महावीर ने की है, जबकि सच्चाई यह है कि वे २४वें तीर्थंकर थे उनके पहले २३ तीर्थंकर और हुए हैं। मेरे सरकारी दफ्तर के कमरे में तेईसवें तीर्थंकर भगवान पाश्र्वनाथ जी की मूर्ति रखी हुई है।’’ यह ऐतिहासिक कैलाशपर्वत वर्तमान में हस्तिनापुर-जम्बूद्वीप स्थल पर एक विशाल भवन के अन्दर विराजमान है। उसके पश्चात् भी पूज्य गणिनी माताजी की पावन प्रेरणा से प्रीतविहार-दिल्ली में मंगल चातुर्मास के अंतर्गत ‘‘कैलाशपर्वत मानसरोवर यात्रा’’ का सफल आयोजन हुआ जिसमें दिल्ली के विकासमार्ग पर कैलाश पर्वत की प्रतिकृति बनाकर लोगों को भगवान ऋषभदेव की निर्वाणभूमि एवं वहाँ विराजमान ७२ जिनप्रतिमाओं की प्रतिकृति रूप तीन चौबीसी प्रतिमाओं के दर्शन कराए गए, उस समय भी उस यात्रा को करने के लिए अपार जनसमूह उमड़ पड़ा था और जो लोग वास्तविक कैलाशपर्वत की यात्रा के अनिर्वचनीय सुख से वंचित रहे हैं उन्होंने उसकी कई-कई (१०८-१०८) वन्दना कर उस पर्वतराज को परोक्ष में ही नमस्कार किया था। निर्वाण महोत्सव के समापन अवसर पर सन् २००१ में भगवान ऋषभदेव की दीक्षा एवं केवलज्ञान भूमि प्रयाग में बनारस हाइवे पर पूज्य गणिनी माताजी की प्रेरणा से ‘‘तीर्थंकर ऋषभदेव तपस्थली तीर्थ’’ का निर्माण हुआ है। वहाँ भी ‘दीक्षाकल्याणक तपोवन’ एव ‘समवसरणरचना’ के साथ ही विशाल कैलाशपर्वत निर्मित किया गया है जो पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र है। इसी प्रकार अन्य अनेक स्थानों (हस्तिनापुर, खेरवाड़ा-राज., अडिंदा पाश्र्वनाथ) में भी जैनसमाज द्वारा कृत्रिम कैलाशपर्वत के वृहत् निर्माण हुए हैं तथा बद्रीनाथ के अंदर भी अष्टापद कैलाशपर्वत की मान्यता को दर्शाने वाला निर्माण भी दृष्टव्य है। वस्तुत: आज भी उस प्रथम निर्वाणभूमि कैलाशपर्वत के प्रति जन-जन की आस्था, श्रद्धा व अटूट भक्ति है और यह भक्ति ही एक दिन परम पद निर्वाण की प्राप्ति कराने में सक्षम है। हम भी उस पवित्र पर्वतराज कैलाशपर्वत की परोक्ष वन्दना कर प्रत्यक्ष वन्दना की सदैव मन में भावना रखें और यह तीर्थ सभी श्रद्धालुओं की श्रद्धा का केन्द्र बना रहकर आत्मा में केवलज्ञान की ज्योति जलावे, यही प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव के पावन चरण कमलों में मंगलकामना है।