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प्रयाग परिक्षेत्र में जैन धर्म एवं कला

July 10, 2017जैन तीर्थjambudweep

प्रयाग परिक्षेत्र में जैन धर्म एवं कला


प्रयाग/इलाहाबाद परिक्षेत्र

प्रयाग/इलाहाबाद परिक्षेत्र के कुछ स्थल वैदिक धर्म के साथ—साथ जैन और बौद्ध धर्मों से भी प्राचीन काल से सम्बद्ध रहे हैं। मध्यकालीन तीर्थमालाओं में प्रयाग नगर को प्रथम तीर्थंकर ऋषभनाथ के दीक्षा और केवलज्ञान कल्याणकों से सम्बन्धित बताया गया है। ज्ञानसागर (१६वीं—१७वीं शती) ने सर्वतीर्थवन्दना नामक ग्रंथ में प्रयाग वट वृक्ष के नीचे ऋषभनाथ द्वारा ध्यान लगाने का उल्लेख किया है। प्रयाग के तीर्थ के रूप में प्रसिद्धि का कारण भी उन्होंने यही बताया है।
१ जैन धर्म की दृष्टि से प्रयाग परिक्षेत्र में कौशाम्बी, पभोसा, बालकमऊ, कड़ा, दारानगर, शहजादपुर, भीटा, लच्छागिर और सिंहपुर—कोहड़ार उल्लेखनीय हैं। इनमें कौशाम्बी महाजनपद काल से मध्य युग तक आर्थिक—सांस्कृतिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण नगर था। बौद्ध ग्रंथों में कौशाम्बी को छठवीं शती ई. पू. में वत्स महाजनपद की राजधानी बताया गया है। जैन ग्रंथों में तीर्थंकर पाश्र्वनाथ और महावीर तथा आर्य सुहस्ति और आर्य महागिरि द्वारा अनेक बार कौशाम्बी की यात्रा करने के उल्लेख मिलते हैं।
२ छठवें तीर्थंकर पद्मप्रभ का जन्मस्थान कौशाम्बी बताया गया है।
३ कौशाम्बी के इक्ष्वाकुवंशी शासक धरण और उनकी पत्नी सुसीमा उनके माता—पिता थे। पद्मप्रभ को कौशाम्बी के सहस्राम्रवन में प्रियंगु अथवा वट वृक्ष के नीचे कैवल्य प्राप्त हुआ था।
४ इस तीर्थंकर के च्यवन, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान कल्याणकों से सम्बद्ध होने के कारण जैन परम्परा में यह स्थान कल्याणक तीर्थ के रूप में पवित्र माना गया है।
५ बीसवें तीर्थंकर सुव्रतनाथ के पूर्वजन्म के कथा प्रसंग में एक स्थल पर कौशाम्बी के शासक सुमुख का उल्लेख है।
६ जैन ग्रंथों में तेइसवें तीर्थंकर पाश्र्वनाथ द्वारा कौशाम्बी के वन में कायोत्सर्ग मुद्रा में तपस्या करने, नागराज धरण द्वारा पाश्र्वनाथ का वन्दन करने और मेघमाली नामक असुर द्वारा पार्श्वनाथ की तपस्या में नानाविध उपसर्ग उपस्थित करने तथा अन्तत: निराश होकर पाश्र्वनाथ से क्षमा—याचना करने के सन्दर्भ हैं।
७ अन्तिम तीर्थंकर महावीर के कौशाम्बी आगमन पर वहाँ के शासक शतानीक द्वारा उनका सम्मान करने का उल्लेख है। शतानीक की बहिन जयन्ती जैन धर्मानुयायी और महावीर की अनन्य भक्त थी।
८ इस नगर में महावीर ने चन्दनबाला से भिक्षा ग्रहण की थी, जो कालान्तर में उनकी प्रथम शिष्या और श्रमणी संघ की सर्वप्रमुख गणिनी हुई।
९ पभोसा की दो गुहाओं में शुंगलिपि (प्रथम शती ई. पू.) में लेख उत्कीर्ण हैं जिनमें अहिच्छत्रा के आषाढसेन द्वारा कश्यपीय अर्हतों के उपयोग के लिए गुहाओं के निर्माण का उल्लेख है।
१० उल्लेखनीय है कि महावीर भी काश्यप गोत्रीय क्षत्रिय थे। संभवत: काश्यप गोत्र का उल्लेख यहाँ सोद्देश्य पाश्र्वनाथ के अनुयायियों एवं आजीविकों को उन गुहाओं का उपयोग करने से रोकने के लिए हुआ है।
११ पभोसा से ही प्राप्त एक जैन आयागपट्ट लेख में सिद्धराजा शिवमित्र के राज्य के बारहवें वर्ष में स्थविर बलदास के उपदेश से शिवनन्दी के शिवपालित द्वारा अर्हंत पूजा के लिए आयागपट्ट स्थापित किये जाने का उल्लेख है।
१२ प्रयाग परिक्षेत्र में गुप्तकाल से जैन मुर्तियाँ मिलने लगती हैं। पांचवीं शती की बालकमऊ से प्राप्त इलाहाबाद संग्रहालय में संरक्षित ऋषभदेव (ए. एम. ९९६), पाँचवीं शती की कौशाम्बी से प्राप्त लखनऊ राज्य संग्रहालय में संरक्षित ऋषभदेव (ओ. ७२) की मूर्ति,
१३ पाँचवी शती का सम्भवत: कौशाम्बी से प्राप्त मथुरा राज्य संग्रहालय में संरक्षित जिन सिर (बी. ६१), छठवीं शती का कौशाम्बी से प्राप्त इलाहाबाद संग्राहलय में संरक्षित पाश्र्वनाथ का सिर (ए. एम. ५२३), सातवीं शती की कौशाम्बी से प्राप्त आसनस्थ अम्बिका मूर्ति (इला. संग्र. ८६१) और पभोसा पर्वत के ऊपरी पृष्ठ तल पर पांचवी शती की रखी ऋषभदेव मूर्ति महत्वपूर्ण पुरावशेष हैं। इन प्रमाणों के आलोक में डॉ. मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी का यह कथन स्वीकार करने योग्य नहीं है कि ‘‘प्रयाग मंडल में आठवीं शती से पूर्व की किसी जैन मूर्ति का न मिलना जैन परम्परा में प्रयाग, पभोसा और कौशाम्बी की प्राचीनता तथा विभिन्न तीर्थंकरों के जीवन से इन क्षेत्रों के सम्बन्धित होने तथा गुप्तकाल तक जैन मूर्तियों के निर्माणस्थलियों के पर्याप्त विस्तृत हो जाने की पृष्ठभूमि में सर्वथा आश्चर्यजनक है।’
१४ इस परिक्षेत्र से आठवीं से बारहवीं शती के मध्य की कुल २० जैन र्मूितयाँ प्राप्त हुई हैं, जिनमें से तेरह—मूर्तियाँ इलाहाबाद संग्रहालय, एक मूर्ति इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के संग्रहालय, एक मूर्ति चाहचन्द मुहल्ले में स्थित दिगम्बर पंचायती मंदिर और एक मूर्ति दारानगर के जैन, मन्दिर, एक पभोसा धर्मशाला संग्रहालय तथा तीन मूर्तियाँ बालकमऊ ग्राम में हैं। दारानगर मंदिर की मूर्ति चमकीले कृष्ण पाषाण की सं. १२३४ के अभिलेख से युक्त है, शेष सभी मूर्तियां बलुए प्रस्तर से निर्मित हैं। ये सभी तीर्थंकर मूर्तियाँ दिगम्बर परम्परा की हैं। दो सर्वतोभद्रिका प्रतिमाएँ दसवीं (इला. संग्र. ९४३)१५ और ग्यारहवीं (इला. संग्र. ५२२)१६ शती की इलाहाबाद संग्रहालय में संरक्षित हैं और एक ग्यारहवीं शती की सर्वतोभद्रिका प्रतिमा पभोसा की धर्मशाला के चैत्यालय के संग्रहालय में है। आठवीं शती के दो तीर्थंकर सिर (इला. संग्र. ४८६ एवं ८२५) भीटा से प्राप्त१७, छठवीं शती का तीर्थंकर पाश्र्वनाथ का एक सिर (इला. संग्र. ५२३) और नवीं शती का एक तीर्थंकर सिर (इला. संग्र. ३५१) इलाहाबद संग्रहाल में संरक्षित है। दसवीं शती का एक तीर्थंकर सिर पभोसा की धर्मशाला के चैत्यालय के संग्रहालय में है। एक मात्र जैन युगल र्मूित (इला. संग्र. २४४) लच्छागिर से मिली हुई है, जो आठवीं शती की है। प्रयाग परिक्षेत्र की प्राचीनतम ज्ञात तीर्थंकर मूर्तियाँ बालकमऊ (इला. संग्र. ९९६) और सम्भवत: कौशाम्बी (लखनऊ राज्य संग्र. ओ. ७२) से मिली हैं। प्रथम आवक्ष प्रतिमा केश लुंचित सिर, खुली आँखों और कंधों पर लटकती अलकों वाली पाँचवी शती की ऋषभनाथ की है। यह धूसर कृष्ण पाषाण से बनी है और इलाहाबाद संग्रहालय में संरक्षित है।२० दूसरी प्रतिमा विशालकाय (३.२० ² १.२२ मी.) है और लखनऊ राज्य संग्रहालय में संरक्षित है। यह गहरे भूर रंग के बलुए पत्थर की है। इस प्रतिमा के चरण और दायाँ हाथ टूट गये हैं। यह भी दिगम्बर ऋषभनाथ की प्रतिमा है। इसके केश घुंघराले और कंधे पर लटें दर्शायी गयी हैं। उदर की रेखाएँ और नाभि को स्पष्ट रूप से दिखलाया गया है। हाथ में नाखूनों को भी स्पष्ट रूप से बनाया गया है। अर्हन्त प्रतिमा लक्षणों के अनुरूप मुख का भाव प्रशान्त और आकृति तरुण एवं रूपवान है। कंधे और मुख के बीच प्रभामण्डल का अंश विद्यमान है। यह प्रतिमा पाँचवीं शती की है२१ (चित्र १)। पभोसा की पहाड़ी के पृष्ठतल पर एक सिर विहीन ऋषभनाथ की प्रतिमा पड़ी हुई है। वह पद्मासन में ध्यानमुद्रा में बैठे हुए प्रतीत होते हैं। उनके कंधों पर लटकती लटें दृष्टिगोचर हैं। पादपीठ पर धर्मचक्र के दोनों ओर पीछे की ओर मुख किये हुए सिंह उकेरित हैं। दायीं ओर धर्मचक्र की ओर अभिमुख बैठे हुए वृषभ का भी अंकन है। भूरे बलुए पत्थर की यह प्रतिमा आठवीं शती की प्रतीत होती है (चित्र २)। कौशाम्बी से सात स्वतंत्र जिन मूर्तियाँ मिली हैं जिनमें से एक की पहचान (इला. संग्र. ६०६, १०वीं शती) लांछन के अभाव में सम्भव नहीं है। इस मूर्ति में यक्ष—यक्षी भी आकारित नहीं है। एक उदाहरण के अतिरिक्त , अन्य सभी में श्रीवत्स चिह्न से युक्त जिन ध्यानमुद्रा में विराजमान हैं। एक उदाहरण (इला. संग्र. ५२७) में सात सर्प फणों के छत्र से शोभित पार्श्वनाथ (.५९० ² .३१७ मी.) को निर्वस्त्र और कायोत्सर्ग में निरूपित किया गया है। यहाँ पाश्र्वनाथ के साथ केवल इन्द्र और उपेन्द्र नामक चामरधरों और उपासक दम्पत्ति को आकारित किया गया है।२२ अन्य मूर्तियां चन्द्रप्रभ (इला. संग्र. २९५, नवीं शती), शान्तिनाथ (इला. संग्र. ५३५, नवीं शती), सुव्रतनाथ (इला. संग्र. ५६०, नवीं शती), पद्मप्रभ (इला. विश्वविद्यालय, नवीं शती) और ऋषभदेव (इला. संग्र. ५६१ स, ग्यारहवीं शती) तीर्थंकरों की हैं।२३ धूसर बलुए पत्थर की ध्यानमुद्रा में पद्मासन में बैठी ऋषभनाथ की र्मूित के बायें पाश्र्वनाथ खड़े हैं और पीठिका पर बायीं ओर अन्त में यक्षी चक्रेश्वरी आकारित है।२४ शेष चारों मूर्तियां मनोज्ञ, आनुपातिक अंग योजना और इकहरे बदनवाली तथा प्रतिमाशास्त्र की दृष्टि से विकसित कोटि की हैं। शैली की दृष्टि से ये मूर्तियां सारनाथ और वाराणसी की गुप्तकालीन मूर्तियों के निकट हैं। इनमें पद्मासन पर विराजमान तीर्थंकरों की केश रचना छोटे—छोटे गुच्छकों ओर उष्णीष के रूप में प्रर्दिशत है।२५ तीर्थंकरों के साथ अष्टप्रातिहार्यों में से केवल सिंहासन के सूचक सिंह, चामरधारी सेवक, प्रभामण्डल, त्रिछत्र, उड्डीयमान मालाधर और देवदुन्दुभि उत्कीर्ण हैं। सिंहासन के मध्य में धर्मचक्र भी उत्कीर्ण है। तीन उदाहरणों में त्रिछत्र के दोनों ओर अशोक वृक्ष की पत्तियाँ भी बनी हैं।

प्रतिमा विवरण

१. ऋषभनाथ .२९२ ² .३४३ मी. बालकमऊ ५वीं शती ए. एम. ९९६
२. ऋषभनाथ .९१४४ ² .९०९६ मी पभोसागिरि ८वीं शती ३. ऋषभनाथ
३.२० ² १.२२ मी. कौशाम्बी ५वीं शती एल. एम. ओ. ७२
४. अम्बिका .३९० ² .२५० मी. कौशाम्बी ७वीं शती ए. एम. ८६१
५. युगलिया मूर्ति .४०० ² .३४० मी. लच्छागिर ८वीं शती ए. एम. २४४
६. चन्द्रप्रभ १.१५० ² .७४० मी. कौशाम्बी ९वीं शती ए. एम. २९५
७. शान्तिनाथ १.२५० ² .७०० मी. कौशाम्बी ९वीं शती ए. एम. ५३५
८. सुव्रतनाथ .८०० ² .५९५ मी. कौशाम्बी ९वीं शती ए. एम. ५६०
९. पद्मप्रभ १.५२० ² .३२० मी. कौशाम्बी ९वीं शती इला. विश्वविद्यालय
१०. तीर्थंकर .९४० ² .९४० मी. कौशाम्बी १०वीं शती ए. एम. ६०६
११. कायोत्सर्ग तीर्थंकर १.३९५ ² .५१० मी. कड़ा १०वीं शती ए. एम. ४९४
१२. कायोत्सर्ग तीर्थंकर .५८० ² .३६० मी. भीटा १०वीं शती ए. एम. ५०१
१३. शान्तिनाथ १.०४० ² .७५० मी. पभोसा ११वीं शती ए. एम. ५३३
१४. ऋषभनाथ .६७५ ² .५६० मी. कौशाम्बी ११ वीं शती ए. एम. ५६१
१५. तीर्थंकर पभोसा ११वीं शती ए. एम. ५३६
१६. पाश्र्वनाथ कायोत्सर्ग १.३७१६ ² .६०९ मी. चाहचन्द ११ वीं शती
१७. ऋषभनाथ (कृष्ण पाषाण) .६६०४².३५५६ मी.दारानगर सं. १२३४
१८. कायोत्सर्ग पाश्र्वनाथ .५९० ² .३१७ मी. कौशाम्बी १२वीं शती ए. एम. ५२७
१९. पाश्र्वनाथ .७६० ² .५०० मी. बालकमऊ १०वीं शती
२०. अजितनाथ .९६० ² .७४० मी बालकमऊ १०वीं शती
२१. महावीर १.२५६४ ² .८२५ मी.बालकमऊ १०वीं शती
२२. सर्वतोभद्र ५३० ² .२२० मी. कौशाम्बी १०वीं शती ए. एम. ९४३
२३. सर्वतोभद्र .४२० ² .२४० मी. कौशाम्बी ११ वीं शती ए. एम. ५२२
२४. सर्वतोभद्र .४२० ² .२४० मी. पभोसा धर्मशाला मन्दिर ११वीं शती
२५. तीर्थंकर सिर ७१ सेमी. ऊँचा कौशाम्बी ५वीं शती एम. एम. बी. ६१
२६. पाश्र्वनाथ सिर कौशाम्बी छठीं शती ए. एम. ५२३
२७. तीर्थंकर सिर भीटा ८वीं शती ए.एम. ४८६
२८. तीर्थंकर सिर भीटा ८वी शती ए. एम. ८२५स
२९. तीर्थंकर सिर कौशाम्बी ९वीं शती ए. एम. ५२८
३०. तीर्थंकर सिर कड़ा १३वीं शती ए. एम. ३५१
३१. तीर्थंकर सिर पभोसा धर्मशाला मंदिर १०वीं शती चन्द्रप्रभ का लांछन, अर्धचन्द्र, पद्मासन पर उत्कीर्ण (चित्र ३), किन्तु शान्तिनाथ की र्मूित में मृगलांछन की दो आकृतियाँ धर्मचक्र के दोनों ओर बनी हैं (चित्र ४)। ज्ञातव्य है कि सर्वप्रथम राजगिर तथा वाराणसी की क्रमश: नेमिनाथ (पाँचवीं शती) एवं महावीर (छठवीं शती) र्मूितयों में ही धर्मचक्र के दोनों ओर लांछनों की दो आकृतियों के प्रदर्शन की परम्परा प्रारम्भ हुई२६, जो आगे की शताब्दियों में भी प्रचलित रही।
सुव्रतनाथ की र्मूित में पद्मासन के मध्य में शय्या पर लेटी हुई एक स्त्री का अंकन हुआ है, जो सुव्रतनाथ की यक्षी है। कुछ अन्य स्थलों की दिगम्बर परम्परा की र्मूितयों (नवीं—बारहवीं शती) में भी सुव्रतनाथ की बहुरूपिणी यक्षी को ठीक इसी प्रकार दिखाया गया है२७, जिसके कुछ प्रमुख उदाहरण बारभुजी गुफा (खण्डगिरि, ओडीशा, ११वीं—१२वीं शती), वैभारगिरि (राजगिर, बिहार, ११वीं शती), अजरामठ (ग्यारसपुर, विदिशा, म. प्र. नवीं शती) और आशुतोष संग्रहालय कोलकाता में हैं। वैभारगिरि और आशुतोष संग्रहालय की र्मूितयों में सुव्रतनाथ का कूर्मलांछन भी उत्कीर्ण है। बहुरूपिणी यक्षी युक्त बारहवीं शती की एक खण्डित मूर्ति पभोसा की धर्मशाला के चैत्यालय के संग्रहालय में भी सुरक्षित है। चन्द्रप्रभ की मूर्ति (इला. संग्र. २९५) सभी मूर्तियों में सर्वाधिक सुन्दर और अलंकृत है (चित्र ३)। अलंकरण का भाव प्रभामण्डल के निर्माण में पूरी तरह स्पष्ट है। चन्द्रप्रभ के साथ द्विभुज यक्ष एवं यक्षी का भी अंकन हुआ है। यक्ष के रूप में एक हाथ में धन का थैला लिए सर्वानुभूति या कुबेर निरुपित है, जिसका दाहिना हाथ सम्भवत: अभयमुद्रा में है। यक्षी के दाहिने हाथ में पुष्प है और बायाँ हाथ खण्डित है। सुव्रतनाथ की मूर्ति में यक्षी को पद्मासन के मध्य में लेटे हुए दिखाया गया है और पीठिका के बायें छोर पर यक्षी के स्थान पर नमस्कार मुद्रा में सामान्य उपासिका की मूर्ति बनी है। दाहिने छोर पर द्विभुज यक्ष का अंकन हुआ है। ललितमुद्रा में विराजमान यक्ष के करों में फल और धन का थैला है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के प्राचीन इतिहास विभाग के संग्रहालय में संरक्षित पद्मप्रभ की मूर्ति में पद्मलांछन पीठिका पर उत्कीर्ण है (चित्र ५)। शैली की दृष्टि से इकहरे बदन वाली यह सुन्दर मूर्ति चन्द्रप्रभ र्मूित के समान है। यहाँ चामरधारी सेवकों की आकृतियाँ भी प्रभामण्डल से युक्त हैं और त्रिछत्र के दोनों ओर की पत्तियाँ दो अलग—अलग वृक्षों की हैं। बायीं ओर अशोक वृक्ष की पत्तियाँ हैं, जबकि दाहिनी ओर की पत्तियों की पहचान सम्भव नहीं है। उड्डीयमान गन्धर्वों के पैरों की स्थिति तथा उनके पीछे बादलों की पृष्ठभूमि के प्रदर्शन द्वारा उनके आकाशगामी होने का भाव सुन्दर रूप में व्यक्त है, जो अयहोल की चालुक्यकालीन गन्धर्व र्मूितयों का स्मरण कराती है। कौशाम्बी से दसवीं शती की एक सर्वतोभद्रिका प्रतिमा (इला. संग्र. ९४३) मिली है, जिसमें चार दिशाओं में चार अलग—अलग तीर्थंकरों की कायोत्सर्ग मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं (चित्र ६)।
ये आकृतियाँ निर्वस्त्र और लम्बकर्ण हैं तथा इनकी केश रचना छोटे—छोटे गुच्छकों और उष्णीष के रूप में हैं।२८ यहाँ लटकती हुए जटाओं के आधार पर केवल ऋषभनाथ की पहचान सम्भव है। अन्य तीर्थंकर आकृतियों के लांछन नष्ट हो चुके हैं। चौमुखी जिन र्मूितयों में या तो एक ही तीर्थंकर या चार अलग—अलग तीर्थंकरों की चार मूर्तियों को आकारित किया जाता है। पभोसा के धर्मशाला चैत्यालय के संग्रहालय में सुरक्षित सर्वतोभद्रिका प्रतिमा में भी केवल पाश्र्वनाथ को पहचाना जा सकता है। चार अलग—अलग तीर्थंकरों का अंकन बिहार, बंगाल और उ. प्र. में विशेषतया प्रचलित था। कौशाम्बी से ग्यारहवीं शती का एक जिन चौबीसी पट्ट (इला. संग्र. ५०६) भी प्राप्त हुआ है। इस पट्ट पर पाँच पंक्तियों में चौबीस तीर्थंकरों की ध्यानस्थ मूर्तियाँ उकेरी गई हैं।२९ कड़ा से दसवीं शती की एक तीर्थंकर मूर्ति मिली है, जो इस समय इलाहाबाद संग्रहालय (सं. ४९४) में है। लांछन के अभाव में तीर्थंकर की पहचान सम्भव नहीं है। जिन यहाँ निर्वस्त्र और कायोत्सर्ग मुद्रा में दो चामरधारी सेवकों, प्रभामण्डल, त्रिछत्र, उड्डीयमान मालाधर आदि प्रातिहार्यों के साथ निरूपित है।३० पभोसा से दसवी—ग्यारहवीं शती की दो जिन र्मूितयाँ मिली हैं।३१ इनमें एक मूर्ति शांन्तिनाथ (इला. संग्र. ५३३) की है और अन्य मूर्ति (इला. संग्र. ५३६) की पहचान लांछन के अभाव में सम्भव नहीं है। पभोसा की शान्तिनाथ मूर्ति (११वीं शती) प्रतिमा लक्षण और शिल्पगत वैशिष्ट्य की दृष्टि से उत्कृष्ट है३२ (चित्र ७)। मूर्ति में मृगलांछन और यक्ष—यक्षी दोनों का अंकन है। मूलनायक ध्यानमुद्रा में एक अलंकृत आसन पर विराजमान हैं जिसके नीचे सिंहासन की सूचक दो उग्र सिंह आकृतियाँ बनी हैं। इनके मध्य धर्मचक्र और उसके ऊपर मृगलांछन आकारित हैं। तीर्थंकर के मुख पर मन्दस्मिति और गम्भीर चिन्तन का भाव अभिव्यक्त है। मूलनायक के पाश्र्वों में कायोत्सर्ग मुद्रा में दो निर्वस्त्र जिन मूर्तियाँ आकारित हैं। शान्तिनाथ अलंकृत प्रभामण्डल, मालाधारी गन्धर्व, त्रिछत्र, अशोक वृक्ष, दुन्दुभिवादक एवं अभिषेक हेतु कलश लिए गजारुढ़ आकृतियों से शोभित हैं। इसमें मूलनायक के ऊपर चार अलग—अलग स्तरों में कुल दस मालाधारी गन्धर्वों का उत्कीर्णन हुआ है। पाश्र्ववर्ती जिन र्मूितयों के साथ भी पद्म अलंकरण वाले प्रभामण्डल, त्रिछत्र, दुन्दुभिवादक एवं अशोक वृक्ष का अंकन है। शान्तिनाथ की केश—रचना छोटे गुच्छकों के रूप में प्रर्दिषत है, जबकि पाश्र्ववर्ती जिनों के केश पीछे की ओर सँवारे गये हैं। उष्णीष सभी के साथ प्रर्दिशत है। पाश्र्ववर्ती जिनों के ऊपर ध्यानस्थ जिनों की दो अन्य लघु मूर्तियाँ उकेरी गयी हैं। इस आधार पर इसे शान्तिनाथ की पंचतीर्थी कहा जा सकता है। इस मूर्ति के छोरों पर गज—व्याल और मकर अलंकरण तथा दो चामरधारी सेवकों की र्मूितयां बनी हैं। यहाँ शान्तिनाथ के साथ चामरधरों का अंकन नहीं हुआ है। र्मूित छोरों की चामरधर मूर्तियाँ शान्तिनाथ सहित पाश्र्ववर्ती तीर्थंकरों के लिए भी बनायी गयी है। िंसहासन के छोरों पर ललितमुद्रा में द्विभुज यक्ष और यक्षी तथा स्तुतिमुद्रा में उपासकों की मूर्तियाँ उकेरी गयी हैं। यहाँ शान्तिनाथ के पारम्परिक यक्ष—यक्षी, गरुड और महामानसी के स्थान पर सर्वानुभूति (कुबेर) और अम्बिका का निरुपण हुआ है, जो परम्परया बाइसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के यक्ष—यक्षी हैं। किंचित् घटोदर सर्वानुभूति के दाहिने कर में (मदिरा) पात्र तथा बायें में धन का थैला (नकुलक) है। बायीं ओर की अम्बिका र्मूित के दाहिने हाथ में आम्रलुम्बी और बायें में बालक है। भीटा से एक तीर्थंकर मूर्ति (इला. संग्र. ५०१) मिली है जो दसवीं शती की है (चित्र ८)। इस दिगम्बर र्मूित में लटकती केश—बल्लरियों से शोभित ऋषभनाथ को कायोत्सर्ग में आकारित किया गया है। मूर्ति पर्याप्त खण्डित है। इसमें केवल वाम पाश्र्व में चामरधारी इन्द्र या उपेन्द्र की आकृति ही सुरक्षित है।३३ प्रयाग नगर के चाहचन्द मुहल्ले में दिगम्बर जैन पंचायती छोटे मंदिर में मूलनायक पाश्र्वनाथ की कायोत्सर्ग दिगम्बर प्रतिमा विराजमान है। यह ग्यारहवीं शती की है। इसकी अवगाहना १.३७१६ ² .७०१६ मी. है। वर्ण सिलैटी है। इसका पाषाण रवादार है। नीचे दोनों ओर चामरधारी इन्द्र और उपेन्द्र तथा यक्ष—यक्षी उकेरे गये हैं। और ऊपर सप्त सर्पफण हैं जिनमें एक फण खण्डित है। फण के अगल—बगल में मालाधारिणी विद्याधारियाँ तथा ऊपर दो गज हैं जिन पर दो—दो देव अंजलिबद्ध मुद्रा में आसीन हैं।३४ किंवदन्ती है कि यह प्रतिमा किले में खुदाई करते समय निकली थी और बाद में लाकर वर्तमान मंदिर में स्थापित की गयी थी (चित्र ९)। यह किंवदन्ती एक मिथ्या प्रवाद के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। लच्छागिर से आठवीं शती की एक युगल र्मूित (इला. संग्र. २४४) मिली है जिसमें किसी तीर्थंकर के माता—पिता का अंकन हुआ है (चित्र १०)। दिगम्बर स्थलों पर स्त्री—पुरुष युगल र्मूितयों का निर्माण लगभग छठवीं शती के बाद प्रारम्भ हुआ। देवगढ़ और खजुराहो सहित उ. प्र. और म. प्र. के विभिन्न दिगम्बर स्थानों पर इनकी प्रचुर र्मूितयां मिलती हैं। इन मूर्तियों में स्त्री—पुरुष युगल को ललितमुद्रा में एक वृक्ष के नीचे आसीन और एक हाथ से वरद या अभय मुद्रा व्यक्त करते हुए दिखाया गया है। स्त्री की गोद में सामान्यत: बालक प्रर्दिशत होता है। पुरुष का बायाँ हाथ या तो घुटने पर होता है या उसमें पद्म प्रर्दिशत होता है। कभी—कभी पुरुष के इस हाथ में एक बालक भी दिखाया गया है। शीर्षभाग के वृक्ष के मध्य में इनमें तीर्थंकर की बिना लांछन वाली एक ध्यानस्थ मूर्ति भी बनी होती है। ऐसी जैन युगल मूर्तियों की पहचान विवादास्पद रही है। इन्हें तीर्थंकरों के माता—पिता के रूप में पहचानने में कुछ विद्वानों ने संकोच का अनुभव किया है। किन्तु खजुराहों के पाश्र्वनाथ मन्दिर के आहाते में एक जैन मन्दिर की अजलांछन के साथ उकेरित कुन्थुनाथ (१७वें तीर्थंकर) की र्मूित के आधार पर ऐसी युगल मूर्तियों की पहचान निश्चित रूप से तीर्थंकरों के माता—पिता के रूप में की जा सकती है।
इस मूर्ति की पीठिका की स्त्री—पुरुष युगल आकृतियाँ नि:सन्देह कुन्थुनाथ के माता—पिता हैं। इसी प्रकार र्जािडन संग्रहालय (क्रमांक १५९५) में संग्रहीत खजुराहों की एक र्मूित में स्त्री—पुरुष युगल आकृतियों के नीचे वृषभ का अंकन उनके ऋषभनाथ के माता—पिता होने का संकेत करता है। दिगम्बर स्थलों की युगल र्मूितयों के शीर्ष भाग में प्रर्दिशत अलग—अलग वृक्ष सम्भवत: तीर्थंकरों के कैव्लया वृक्ष हैं, यद्यपि आलंकारिक बनावट के कारण इन वृक्षों को पहचानना कठिन है। लच्छागिर की मूर्ति में अर्धपर्यंकासन में एक पीठिका पर बैठी स्थूलकाय पुरुष आकृति का दाहिना हाथ अभयमुद्रा में है और बायाँ घुटने पर स्थित है। स्त्री का दाहिना हाथ अभयमुद्रा में है, जबकि बायाँ गोद में बैठे बालक के ऊपर रखा है। पीठिका पर छ: छोटी आकृतियाँ बनी हैं, जिनमें कुछ के हाथ अभयमुद्रा में हैं और कुछ वार्तालाप करती हुई प्रर्दिशत हैं। शीर्ष पर वृक्ष की शाखाओं के मध्य एक ध्यानस्थ लघु तीर्थंकर मूर्ति भी उकेरी गयी है। चौदहवीं से अठारहवीं शती की दो दर्जन से अधिक र्मूितयाँ चाहचन्द मुहल्ले में स्थित दिगम्बर जैन पंचायती छोटे और बड़े मंदिरों में मिलती हैं जो प्राय: शहजादपुर, कौशाम्बी और कड़ा से लाकर उन्नीसवीं शती में यहाँ विराजमान की गयी हैं। संगमरमर की कुछ ध्यान मुद्रा वाली र्मूितयाँ जीवराज पापडीवाल के सम्वत् १५४८ के अभिलेख से युक्त हैं। श्वेत पाषाण की अम्बिका देवी की एक र्मूित के पीठासन पर संवत् १४३३ का लेख है। अन्य उल्लेखनीय र्मूितयों में कायोत्सर्ग मुद्रा में शान्तिनाथ, पद्मप्रभ और वुंâथुनाथ हैं।३६ पभोसा की धर्मशाला के एक कक्ष में सोलहवीं शती की ध्यानमुद्रा में आसीन पद्मप्रभ की मनोज्ञ र्मूित विराजमान है। चम्पहा बाजार में .७६२ मी. अवगाहना वाला एक चौबीसी पट्ट मंदिर में विराजमान है, जिसमें मूलनायक ऋषभनाथ हैं। यह पट्ट पन्द्रहवीं शती का प्रतीत होता है। मेजा से ८ किमी. दूर तमसा (टोंस) नदी के दाहिने तट पर स्थित और सोमदेव कृत यशस्तिलकचम्पू (१०वीं शती) नामक ग्रंथ में उल्लिखित सिंहपुर ग्राम से विनिर्गत होकर सभी जैन धर्मानुयायी या तो समीपवर्ती कोहड़ार बाजार में बस गये हैं या व्यापार—वाणिज्य के लिए देश के विभिन्न नगरों में जा बसे हैं। कोहड़ार के दिगम्बर जैन मंदिर में कोई मूर्ति पन्द्रहवीं शती के पूर्व की नहीं है और सभी मूर्तियाँ श्वेत संगमरमर पत्थर की हैं। किन्तु सिंहपुर से ४ किमी. दूर खैरागढ़ के किले के पास एक सिर विहीन तीर्थंकर मूर्ति पड़ी है जो बारहवीं शती की है।३७ उपर्युक्त अध्ययन से स्पष्ट है कि जैन धर्म और परम्परा की दृष्टि से महत्वपूर्ण होने के बावजूद भी प्रयाग परिक्षेत्र में जैन मूर्तिकला का विशेष विकास नहीं हुआ। यह तथ्य मूर्ति संख्या और उनके शिल्प से स्पष्ट है। मथुरा, वाराणसी, राजगिर, आकोटा, खजुराहों तथा देवगढ़ जैसे स्थलों की तुलना में प्रयाग परिक्षेत्र की मूर्तियों का प्रतिमा—लक्षण की दृष्टि से भी कोई मौलिक योगदान नहीं रहा है। तीर्थंकरों के निरूपण में इस परिक्षेत्र के शिल्पियों (कौशाम्बी—पभोसा केन्द्र) ने अन्य क्षेत्रों की विशेषताओं को ही स्वीकार किया है, जो इस परिक्षेत्र की शान्तिनाथ एवं सुव्रतनाथ की मूर्तियों से पूर्णतया स्पष्ट है।

टिप्पणी

यह लेख डॉ. मारुति नन्दन प्रसाद के ‘प्रयाग मंडल में जैन धर्म और कला (इतिहास संकलन समिति पत्रिका, अंक—२, १९८४, पृ. २१०-२१५) का संशोधित, परिर्विधत और पारिर्मािजत संस्करण है।

संदर्भ

१. बलभद्र जैन, भारत के दिगम्बर जैन तीर्थ, भाग १, बम्बई, १९७४, पृ. १३४-१३६. जैन ने त्रुटिवश इस संदर्भ को काष्ठासंघ नन्दीतट गच्छ के नयनसागर से सम्बन्धित किया है। जैन ने प्रयाग के चाहचन्द मुहल्ले में ९वीं शती के दिगम्बर जैन पंचायती मंदिर का उल्लेख किया है, जिसमें ऋषभनाथ, पद्मप्रभ और पाश्र्वनाथ की १०वीं ११वीं शती की र्मूितयाँ प्रतिष्ठापित हैं (पृ. १३७-१३८) किन्तु उल्लिखित मंदिर १९वीं शती के पूर्वाद्र्ध का है और उसमें प्राचीनता का कोई प्रमाण नहीं है। अधिकांश मूर्तियाँ चौदहवीं शती के बाद की है। ऋषभनाथ का प्रयाग से कोई सम्बन्ध प्राचीन जैन गूंथों से प्रमाणित नहीं है। इस समस्या का विवेचन आंग्ल भाषा में निबद्ध इसी कृति में प्रकाशित एक लेख में किया गया है।
२. नायाधम्मकहाओ, पृ. २३०; निशीथर्चूिण, पृ. ४३७; जे. सी. जैन, लाइफ इन ऐन्शण्ट इण्डिया ऐज डिपिक्टेड इन दि जैन केनन्स, बम्बई, १९४७, पृ. ३०१.
३. तिलोयपण्णत्ति, ४.५३१; पद्मपुराण, ९८.१४५; उत्तरपुराण, ५२.१८.
४. त्रिषष्टिशलाकापुरुष चरित्र, सेकण्ड ५.१६-१९७; उत्तरपुराण, ५२.१८-२७.
५. जिनप्रभसूरिकृत विविधतीर्थकल्प, शान्ति निकेतन, १९३४, पृ. २३.
६. त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित्र, ७.७३
७. बी. सी. भट्टाचार्य, दि. जैन आइकोनोग्राफी, दिल्ली, १९७४, पृ. ५९-६०.
८. एस. स्टीवेन्सन, दि आर्ट ऑव जैनिज्म, आक्सफोर्ड, १९१५, पृ. ४०
९. त्रिषष्टिशलाकापुरुचरित्र, ४.५१६-६००; विविधतीर्थकल्प, पृ. २३.
१०. ए. फ्यूरर, ‘पभोसा इन्सिक्रिटप्शन्स’, एपिग्राफिया इण्डिका, खण्ड २, पृ. २४३.
११. यू. पी. शाह, स्टडीज इन जैन आर्ट, वाराणसी, १९५५, पृ. ८.
१२. बलभद्र जैन, पूर्व निर्दिष्ट, पृ. १५१.
१३. भ्रमवश इलाहाबाद संग्रहालय की मुर्ति भरवारी और लखनऊ संग्रहालय की र्मूित को इलाहाबाद से प्राप्त संग्रहालय अभिलेखों में लिखा गया है।
१४. मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी, ‘प्रयाग मंडल में जैन धर्म और कला’, भारतीय इतिहास संकलन समिति पत्रिका, अंक २, १९८४, पृ. २१२.
१५. प्रमोदचन्द्र, स्टोन स्कल्पचर्स इन दि इलाहाबाद म्यूजियम, पूना, १९००, पृ. १४४, फलक संख्या १३२.
१६. कृष्णदेव एवं एस. डी. त्रिवेदी, स्टोन स्कल्पर्स इन दि इलाहाबाद म्यूजियम, सेकण्ड दिल्ली, १९९६, पृ. ५८, चित्र फलक संख्या २२२ ए.
१७. उपरोक्त, पृ. ५६, चित्र फलक संख्या १९७ और पृ. ५६, चित्रफलक संख्या १९८.
१८. उपरोक्त, पृ. ५५, चित्र फलक संख्या १९६ और पृ. ५६, चित्रफलक संख्या २००.
१९. उपरोक्त, पृ. ५९, चित्रफलक संख्या २२७.
२०. उपरोक्त, पृ. ५५, चित्रफलक संख्या १९५.
२१.शैलेन्द्र कुमार रस्तोगी, लखनऊ संग्रहालय की जैन प्रतिमाएं, लखनऊ, २००२, पृ. ४०. रस्तोगी ने इस र्मूित को तृतीय—चतुर्थ शती का बताया है।
२२. प्रमोदचन्द्र, कृष्णदेव और एस. डी. त्रिवेदी ने अपने ग्रंथों में केवल चन्द्रप्रभ और ऋषभदेव की मुर्तियों की ही पहचान की है। दृष्टव्य, प्रमोदचन्द्र, पूर्वनिर्दिष्ट, पृ. १४२-१४४ और कृष्णदेव तथा एस. डी. त्रिवेदी, पूर्वनिर्दिष्ट, पृ. ५८ शेष मूर्तियों की पहचान मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी ने किया है। दृष्टव्य, पूर्वनिर्दिष्ट, पृ. २१३.
२३. कृष्णदेव और एस. डी. त्रिवेदी, पूर्वर्नििष्ट , पृ.५८.
२४. तीन उदाहरणों में मुखभाग सम्प्रति खण्डित है।
२५. आर. पी. चन्दा, ‘जैन रिमेन्स एट राजगिर’, आक्र्यालाजिकल सर्वे ऑव इण्डिया एनुअल रिपोर्ट, १९२५-२६, पृ. १२५-१२६, मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी, ‘एन अनपब्लिस्ड जिन इमेज इन दि भारत कला भवन’, विश्वेश्वरानन्द इण्डोलाजिकल जर्नल, खण्ड १३ (१-२), १९७५, पृ. ३७३-३७५.
२६. देबला मित्रा, ‘आइकनोग्राफिक नोट्स’ जर्नल ऑव एशियाटिक सोसाइटी, खण्ड १ (१), पृ. ३७-३९.
२७. प्रमोचन्द्र पूर्वनिर्दिष्ट, पृ. १४४.
२८. उपरोक्त, पृ. १४७.
२९. उपरोक्त, पृ. १३८.
३०. मारुति नन्दन प्रसाद तिवारी ने (भारतीय इतिहास संकलन समिति पत्रिका, अंक २, पृ. २१४) पभोसा से तीन जिन र्मूितयाँ मिलने का उल्लेख किया है, किन्तु इनमें से एक (इला. संग्र. ५३५) मुर्ति ध्यानमुद्रा में शान्तिनाथ की कौशाम्बी से मिली थी।
३१. प्रमोदचन्द्र,पूर्वनिर्दिष्ट, पृ. १५८.
३२. कृष्णदेव एवं एस. डी. त्रिवेदी, पूर्वनिर्दिष्ट, पृ. ५७.
३३. बलभद्र जैन, पूर्वनिर्दिष्ट, पृ. २७.
३४. प्रमोदचन्द्र, पूर्वनिर्दिष्ट पृ. १५३-१५४.
३५. पन्नालाल जैन, ‘प्रयोग का जैन पुरा वैभव’, प्राचीन तीर्थ जीर्णोद्धार, अंक ७ (११), २०१०, पृ. १४-१८, बलभद्र जैन, पूर्वनिर्दिष्ट पृ. २७-२८.
३६. देवीप्रसाद दुबे एवं नीलम सिंह, इलाहाबाद के कतिपय ऐतिहासिक स्थलों का अभिज्ञान’, त्रिवेणी, १९९६, इलाहाबाद पृ. ११४-११७.
डॉ. देवी प्रसाद दुबे उत्तर प्रदेश में जैन पुरावशेष प्रथम संस्करण २०१२
 
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