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प्रस्तावना…!

July 20, 2017जैन व्रतjambudweep

प्रस्तावना


ऊँ नम: सिद्धेभ्य:
श्रीमन्तं वर्धमानेशं भारतीं गौतमं गुरुम्।
नत्वा वक्ष्ये तिथीनां वै निर्णयं व्रतनिर्णयम्।।१।।

अर्थ —श्रीमन्त—अनन्तचतुष्टयरूप अन्तरंगश्री और समवसरण आदि विभूति रूप बहिरंग श्री से युक्त भगवान् महावीरस्वामी को, जिनवाणी को—सरस्वती रूप दिव्यध्वनि को एवं गुरु गौतम गणधर को नमस्कार कर निश्चय से व्रत निर्णय और तिथिनिर्णय को कहता हूँ।

श्रीपद्मनन्दिमुनिना पद्मदेवेन वाऽपरा।
हरिषेणेन देवादिसेनेन प्रोक्तमुत्तमम्।।२।।
ग्राह्यं तच्चेदिवान्यद्वा चतुर्गुणप्रकल्पितम्।
विधानं च व्रतानां वै ग्राह्यं प्रोत्तं समुत्तमम्।।३।।

अर्थ — श्री पद्मनन्दिमुनि, अपर पद्मदेवमुनि, हरिषेण एवं देवसेन से जो चतुर्गुण प्रकल्पित—यथा समय नियत तिथि को धारण, विधिपूर्वक पालन, विधेय मन्त्र का जाप और प्रोषधोपवासयुक्त उत्तम व्रत कहे गये हैं, उन्हें ग्रहण करना चाहिये। अथवा इन्हीं आचार्यों के समान अन्य आचार्यों के द्वारा प्रतिपादित व्रतों को ग्रहण करना चाहिए। व्रतों के लिए जो विधान—विधि, नियत तिथि, जाप्य मन्त्र, अनुष्ठान करने के नियम; बताया गया है, उसे निश्चयपूर्वक ग्रहण करना चाहिए।

श्रुतसागरसूरीशभावशर्माभ्रदेवक: ।
छत्रसेनादित्यर्कीित्तसकलादिसुकीर्तिभि:।।४।।

अर्थ — श्रुतसागर आचार्य, भावशर्मा, अभ्रदेव, छत्रसेन, आदित्यर्कीित्त, सकलर्कीित आदि आचार्यों के द्वारा प्रतिपादित व्रततिथिनिर्णय को कहता हूँ।

क्रमतोऽहं प्रवक्ष्ये वै तिथिव्रतसुनिर्णयौ।
मतं ग्राह्यं साम्प्रतं कुलाद्रिघटिकाप्रभम्।।५।।

अर्थ — क्रम से मैं तिथि निर्णय और व्रतनिर्णय को कहता हूँ। इस समय व्रत के लिए छ: घटी प्रमाण तिथि का मान ग्रहण करना चाहिए।

विवेचन

प्राचीन भारत में हिमाद्रि और कुलाद्रि दो मत व्रत—तिथियों के निर्णय के लिए प्रचलित थे। हिमाद्रि मत का आदर उत्तर भारत में था और कुलाद्रि मत का दक्षिण भारत में। हिमाद्रि मत में वैदिक आचार्य तथा कतिपय श्वेताम्बराचार्य परिगणित हैं। हिमाद्रि मत में साधारणत: व्रततिथिका मान दस घटी प्रमाण स्वीकार किया गया है। हिमाद्रि मत केवल व्रतों का निर्णय ही नहीं करता है, बल्कि अनेक सामाजिक, पारिवारिक व्यवस्थाओं का प्रतिपादन भी करता है। हिमाद्रि मत के उद्धरण देवीपुराण, विष्णुपुराण, शिवसर्वस्व, भविष्य एवं निर्णयसिन्धु आदि ग्रथों में मिलते हैं। इन उद्धरणों को देखने से स्पष्ट ज्ञात होता है कि प्राचीनकाल में उत्तर भारत में इसका बड़ा प्रचार था। पारिवारिक और सामाजिक जीवन की अर्थव्यवस्था, दण्डव्यवस्था, जीवनोन्नति के लिए विधेय अनुष्ठान आदि का निर्णय उक्त मत के आधार पर ही प्राय: उत्तरभारत में किया जाता था। ऋषिपुत्र की संहिता के कुछ उद्धरण भी इस मत में समाविष्ट हैं। हेमचन्द्राचार्य द्वारा प्ररूपित नियम भी हिमाद्रि मत में गिनाये गये हैं। गर्ग, वृद्ध गर्ग और पाराशर के वचन भी हिमाद्रि मत में शामिल हैं। कुलाद्रि मत दक्षिण भारत में प्रचलित था। इस मत की द्रविड संज्ञा भी पायी जाताी है। दिगम्बर जैनाचार्यों की गणना भी इस मत में की जाती थी, किन्तु प्रधानरूप से केरलपक्ष ही इसमें शामिल था। इस मत में वही तिथि व्रत के लिए ग्राह्य मानी जाती थी, जो सूर्योदय काल में छ: घटी हो। यों तो इस मत में भी कई शाखा—उपशाखाएँ प्रचलित थीं, जिनमें व्रततिथिकी भिन्न—भिन्न घटिकाएँ परिगणित की गयी हैं।

ज्योतिष शास्त्र के अनुसार

ज्योतिष शास्त्र में वर्ष, अयन, ऋतु, मास, पक्ष और दिवस ये छ: काल के भेद बताये गये हैं । वर्ष के सावन, सौर, चान्द्र, नाक्षत्र और बार्हस्पत्य ये पाँच भेद हैं । हेमाद्रिमत में सौर, चान्द्र और बार्हस्पत्य ये तीन वर्ष के भेद माने गये हैं । सावन वर्ष में ३६० दिन, सौर वर्ष में ३६६ दिन, चान्द्र वर्ष में ३५४—१२/१३ दिन तथा अधिक मास सहित चान्द्रवर्ष में ३८३ दिन २१—१८/६२ मुहूत्र्त और नक्षत्र वर्ष में ३२७—५१/६७ दिन होते हैं । बार्हस्पत्य वर्ष का प्रारम्भ ई. पू. ३१२८ वर्षों से हुआ है । यह माघ से लेकर प्राय: माघ तक माना जाता है । इसकी गणना बृहस्पति की राशि से की जाती है, बृहस्पति एक राशि पर जितने दिन रहता है, उतने दिनों का बार्हस्पत्य वर्ष होता है । गणना करने पर प्राय: यह १३ महीनों का आता है । व्यवहार में चान्द्रवर्ष ही ग्रहण किया जाता है ।१ इसका आरम्भ चैत्रशुक्ल प्रतिपदा से होता है । अयन के सम्बन्ध में ज्योतिष शास्त्र में बताया है कि तीन सौर ऋतुओं का एक अयन होता है । सूर्य आकाशमण्डल में जिस पथ से जाते हुए देखा जाता है वही भूकक्ष अथवा अयनमण्डल है । यह चक्राकार है परन्तु बिल्कुल गोल नहीं, कहीं—कहीं कुछ वक्र भी है । इसके उत्तर दक्षिण कुछ दूर तक फैला हुआ एक चक्र है जो राशिचक्र कहलाता है । राशिचक्र और अयनमण्डल दोनों तीन सौ साठ ( ३६० ) अंशों में विभक्त हैं क्योंकि एक वृत्त में चार समकोण होते हैं और प्रत्येक समकोण में ९० अंश माने जाते हैं । इस प्रकार तीन सौ साठ ( ३६० ) अंश को १२ राशियों में विभक्त करने पर प्रत्येक राशि का ३० अंश प्रमाण आता है । इन विभक्त राशियों के नाम ये हैं—मेष, वृष, मिथुन, कर्व, िंसह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु, मकर, कुम्भ और मीन। राशि चक्र का कल्पित निरक्षवृत्त विषुव रेखा कहलाता है । इस रेखा के उत्तर दक्षिण तेईस ( २३ ) अंश अट्ठाईस ( २८ ) कला के अन्तर पर दो बिन्दुओं की कल्पना की जाती है । इनमें एक बिन्दु उत्तरायणान्त—उत्तर जाने की अन्तिम सीमा, और दूसरा िंबदु दक्षिणायनान्त—सूर्य के दक्षिण जाने की अंतिम सीमा है । इन दोनों बिन्दुओं के मध्य जो एक कल्पित रेखा है उसी का नाम अयनान्तवृत्त है । सूर्य जिस पथ से उत्तर की ओर जाता है उसे उत्तरायण और जिस पथ से दक्षिण की ओर जाता है उसे दक्षिणायन कहते हैं । व्यवहार में कर्वâ राशि के सूर्य से लेकर धनुराशि के सूर्य पर्यन्त दक्षिणायन और मकर से लेकर मिथुन पर्यन्त सूर्य का उत्तरायण होता है । कुछ कार्यों में अयनशुद्धि ग्राह्य समझी जाती है । माङ्गलिक कार्य प्राय: उत्तरायण में ही सम्पन्न होते हैं । दो महीने की एक ऋतु होती है । सौर और चान्द्र ये दो ऋतुओं के भेद हैं । चैत्र महीने से आरम्भ की जाने वाली गणना चान्द्र ऋतु गणना होती है अर्थात् चैत्र—बैशाख में बसन्त ऋतु, ज्येष्ठ आषाढ़ में ग्रीष्मऋतु, श्रावण—भाद्रपद में वर्षा़ऋतु, आश्विन—र्काितक में शरद् ऋतु, अगहन—पौष में हेमन्त ऋतु और माघ—फाल्गुन में शिशिरऋतु होती है । सौर ऋतु की गणना मेष राशि के सूर्य से की जाती है अर्थात् मेष—वृष राशि के सूर्य में बसन्तऋतु, मिथुन—कर्वâ राशि के सूर्य में ग्रीष्मऋतु, िंसह—कन्या राशि के सूर्य में वर्षाऋतु, तुला—वृश्चिक राशि के सूर्य में सरद ऋतु, धनु—मकर राशि के सूर्य में हेमन्तऋतु और कुम्भ—मीन राशि के सूर्य में शिशिरऋतु होती है । विवाह, प्रतिष्ठा आदि शुभ कार्य और मास के हिसाब से ही किये जाते हैं ।
मासगणना चार प्रकार की होती है—सावन, सौर, चान्द्र और नाक्षत्र। तीस दिन का सावनमास होता है । सूर्य की एक संक्रान्ति से लेकर अगली संक्रान्तिपर्यन्त सौरमास माना जाता है । कृष्णपक्ष की प्रतिपदा से लेकर र्पूिणमा पर्यन्त चान्द्रमास माना जाता है । अश्विनी नक्षत्र से लेकर रेवती पर्यन्त नाक्षत्रमास माना गया है, यह प्राय: २७—२१/६७ दिन का होता है । व्यवहार में शुभाशुभ के लिए चान्द्र और सौरमास ही ग्रहण किये जाते हैं । कई आचार्यों का मत है कि विवाह और व्रत में सौरमास, शान्ति—पौष्टिक में सावनमास, सांवत्सरिक कार्य में चान्द्रमास ग्राह्य माने गये हैं१। अधिमास और क्षयमास सभी शुभ कार्यों में त्याज्य हैं । हेमाद्रिके मत से कोई भी शुभकार्य इन दोनों मासों में नहीं करना चाहिए; किन्तु कुलाद्रिमत में अधिकमास और क्षयमास की अन्तिम तिथियाँ त्याज्य हैं । मध्यभाग इन दोनों महीनों का ग्राह्य बताया गया है ।

विवाहव्रतयज्ञेषु सौरं मानं प्रशस्यते ।
पार्वणे त्वष्टकाश्राद्धे चान्द्रमिष्टं तथाद्विके ।।
आयुर्दायविभागश्च प्रायश्चित्तक्रिया तथा ।
सावनेनैव कत्र्तव्या शत्रूणां चाप्युपासना ।।

निर्णयिंस. पृ. ६ पक्ष के दो भेद हैं—शुक्लपक्ष और कृष्णपक्ष। प्राय: सभी मांगलिक कार्यों में शुक्लपक्ष ही ग्रहण किया जाता है । कृष्णपक्ष में पञ्चमी तिथि के पश्चात् पञ्चकल्याणकप्रतिष्ठा, वेदी प्रतिष्ठा जैसे शुभ कृत्य नहीं होते हैं । प्रतिपदादि तिथियों के नाम प्रसिद्ध हैं । अमावस्या तिथि के आठ प्रहरों में से पहले प्रहर का नाम सिनी सिनिवाली, मध्य के पाँच प्रहरों का नाम दर्श और सातवें तथा आठवें प्रहर का नाम कुहू है । किन्हीं—किन्हीं आचार्यों का मत है कि तीन घटी रात्रि शेष रहने के समय से रात्रि के समाप्ति तक सिनीवाली, प्रतिपदा से विद्ध अमावास्या का नाम कुहू, चतुर्दशो से विद्ध अमावस्या दर्श कहलाती है । सूर्यमण्डल समसूत्र से अपनी कक्षा के समीप में स्थित परन्तु शरवश से पृथक््â स्थित चन्द्रमण्डल जब हो तो सिनीवाली, सूर्यमण्डल में आधे चन्द्रमा का प्रवेश हो तो दर्श और जब सूर्यमण्डल तथा चन्द्रमण्डल समसूत्रों में हों तो कुहू होती है । प्रतिपदासंयुक्त अमावस्या भी कुहू मानी जाती है । दिनक्षय या दिनवृद्धि होने पर समस्त अमावास्या दर्श संज्ञक मानी जाती है । प्रतिपदा सिद्धि देनेवाली, द्वितीया कार्य साधन करने वाली, तृतीया आरोग्य देने वाली, चतुर्थी हानिकारक, पंचमी शुभप्रद, षष्टी अशुभ, सप्तमी शुभ, अष्टमी व्याधि नाशक, नवमी मृत्युदायक, दशमी द्रव्यप्रद, एकादशी शुभ, द्वादशी और त्रयोदशी कल्याणप्रद, चतुर्दशी उग्र, र्पूिणमा पुष्टिप्रद एवं अमावास्या अशुभ है । व्यवहार के लिए द्वितीया, तृतीया, पञ्चमी, सप्तमी, अष्टमी, दशमी, एकादशी और त्रयोदशी तिथियाँ सभी कार्यों में प्रशस्त बतायी गयी हैं । व्रतों के लिए भिन्न—भिन्न आचार्यों ने तिथियों का भिन्न—भिन्न प्रमाण बताया है ।
Tags: Vrata
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