Jambudweep - 7599289809
encyclopediaofjainism@gmail.com
About Us
Facebook
YouTube
Encyclopedia of Jainism
  • विशेष आलेख
  • पूजायें
  • जैन तीर्थ
  • अयोध्या

भगवान ऋषभदेव

December 24, 2022जैनधर्मSurbhi Jain

भारतीय संस्कृति के आद्य प्रणेता- भगवान ऋषभदेव

भगवान ऋषभदेव

-गणिनी आर्यिका ज्ञानमती

नमः श्री पुरुदेवाय, धर्मतीर्थप्रवर्तिने ।
सर्वाविद्या-कला, यस्मा – दाविर्भूता महीतले ।।१।।

इस वर्तमान अवसर्पिणी काल में यहाँ भरत क्षेत्र के आर्यखण्ड में तृतीयकाल में जब पल्य का आठवाँ भाग शेष रह गया तब कुलकरों की उत्पत्ति प्रारंभ हो गयी । इनके नाम – प्रतिश्रुति, सन्मति, क्षेमंकर, क्षेमंधर, सीमंकर, सीमंधर, विमलवाहन, चक्षुष्मान, यशस्वी, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित् और नाभिराज थे ।

हरिवंश पुराण में लिखा है कि – बारहवें मरुदेव कुलकर ने अकेले पुत्र ‘प्रसेनजित’ को जन्म दिया, अतः यहाँ से युगलिया परम्परा समाप्त हो गई । इनका विवाह किसी प्रधान कुल की कन्या के साथ सम्पन्न हुआ है । यथा—

प्रसेनजितमायोज्य प्रस्वेदलवभूषितम् ।

विवाहविधिना वीरः प्रधानकुलकन्यया ।।

भोगभूमिज मनुष्यों के शरीर में पसीना नहीं आता था । परन्तु प्रसेनजित् का शरीर कभी-कभी पसीने के कणों से सुशोभित हो उठता था । वीर मरुदेव ने अपने पुत्र प्रसेनजित् को विवाह विधि के द्वारा किसी प्रधान कुल की कन्या के साथ मिलाया था । इन प्रसेनजित् से नाभिराज भी अकेले जन्में । इन्द्र ने इनका विवाह कु. मरुदेवी के साथ सम्पन्न किया । कहा भी है —

तस्यासीन्मरुदेवीति, देवीदेवीवसाशची ।
रूपलावण्यकांतिश्रीमतिद्युतिविभूतिभि:।।२।।
तस्याः किल समुदवाहे, सुरराजेनोदिता ।
सुरोत्तमाः महाभूत्या, चक्रु: कल्याणकौतुकम् ।।३।।

हरिवंशपुराण में भी कहा है—

अथनाभेरभूद्देवी मरुदेवीतिवल्लभा ।
 देवी शचीव शक्रस्य शुद्धसंतानसंभवा ।।६।।

शुद्ध कुल में उत्पन्न हुई मरुदेवी राजा नाभिराज की वल्लभा (पटरानी) हुई । जिस प्रकार इन्द्र को इन्द्राणी प्रिय होती है उसी प्रकार वह राजा नाभिराज को प्रिय थी ।

अयोध्या नगरी की रचना—

मरुदेवी और नाभिराज से अलंकृत पवित्र स्थान में जब कल्पवृक्षों का अभाव हो गया तब उनके पुण्य विशेष से इन्द्र ने एक नगरी की रचना करके उसका नाम ‘अयोध्या’ रखा ।

‘छठे काल के अंत में जब प्रलयकाल आता है तब उस प्रलय में यहाँ आर्यखण्ड में एक योजन नीचे तक भी भूमि नष्ट हो जाती है । उस काल में अयोध्या नगरी स्थान के सूचक नीचे चौबीस कमल देवों द्वारा उत्पन्न किये जाते हैं ।’

इन्हीं चिन्हों के आधार से देवगण पुनः उसी स्थान पर अयोध्या की रचना कर देते हैं ।

इसीलिए ‘अयोध्या’ नगरी शाश्वत मानी गई है ।

वैदिक ग्रन्थों में भी अयोध्या को बहुत ही महत्व दिया है । यथा—

‘अष्टचक्रानवद्वारादेवानां पूरयोध्या ।

यह देवों की नगरी अयोध्या आठ चक्र और नव द्वारों से शोभित है । रूद्रयाचल ग्रन्थ में तो अयोध्यापुरी को विष्णु भगवान का मस्तक कहा है । यथा—

एतद ब्रह्माविदो वदन्ति मुनयोऽयोध्यापुरी – मस्तकम् ।

वाल्मीकि रामायण में इसे मनु द्वारा निर्मित बारह योजन लम्बी माना है ।

हरिवंशपुराण में राजा नाभिराज के महल को ८१ खण्ड ऊँचा, रत्ननिर्मित ‘सर्वतोभद्र’ नाम से कहा है।

श्री ऋषभदेव का स्वर्गावतरण-

छह माह बाद भगवान ऋषभदेव ‘सर्वार्थसिद्धि’ विमान से च्युत होकर यहाँ माता मरुदेवी के गर्भ में आने वाले हैं ऐसा जानकर सौधर्म इन्द्र ने कुबेर को आज्ञा दी- ‘हे धनपते ! तुम अयोध्या में माता मरुदेवी के आंगन में रत्नों की वर्षा प्रारंभ कर दो ।’ उसी दिन से कुबेर ने प्रतिदिन साढ़े तीन करोड़ प्रमाण उत्तम-उत्तम पंचवर्णी रत्न बरसाना शुरु कर दिया ।

एक दिन मरुदेवी महारानी ने पिछली रात्रि में ऐरावत हाथी आदि उत्तम-उत्तम सोलह स्वप्न देखे । प्रातः पतिदेव के मुख से ‘तुम्हारे गर्भ’ में तीर्थंकर पुत्र अवतरित होंगे, ऐसा सुनकर महान् हर्ष को प्राप्त हुई ।’

जब इस अवसर्पिणी के तृतीय काल में चौरासी लाख पूर्व, तीन वर्ष और साढ़े आठ माह शेष रह गये थे तब आषाढ़ कृष्णा द्वितीया के दिन भगवान का गर्भागम हुआ । उसी दिन अपने दिव्य ज्ञान से जानकर इन्द्र ने असंख्य देवों के साथ आकर महाराजा नाभिराज और महारानी मरुदेवी का अभिषेक करके वस्त्राभरण आदि से उनका सम्मान कर गर्भकल्याणक महोत्सव मनाया । इन्द्र की आज्ञा से श्री, ह्रीं आदि देवियाँ माता की सेवा करने लगी ।

क्या भगवान् पुनः अवतार लेते हैं ?

जैन धर्म के अनुसार कोई भी भगवान् पुनः पुनः अवतार नहीं लेते हैं प्रत्युत हम और आप जैसे कोई भी संसारी प्राणी क्रम-क्रम से उत्थान करते हुए तीर्थंकर प्रकृति का बंध कर पाँच कल्याणकों को प्राप्त करके मोक्ष को प्राप्त कर लेते हैं । वे पुनः इस संसार में कभी भी अवतार नहीं लेते हैं । जैसा कि भगवान ऋषभदेव के ‘दशावतार’ अर्थात् दशभवों का वर्णन पढ़ने से भगवान का गर्भावतार प्रकरण स्पष्ट हो जाता हैं ।

Previous post निमित्त-उपादान
Privacy Policy