महानुभावों! आज मैं आपको समवसरण के बारे में बताऊँगी। भगवान की दिव्यसभा का नाम है ‘समवसरण’, इस समवसरण की ‘‘दिव्य भूमि’’ स्वाभाविक भूमि से एक हाथ ऊँची रहती है और उससे एक हाथ ऊँची ‘‘कल्पभूमि’’ होती है। भगवान ऋषभदेव के समवसरण भूमि का विस्तार १२ योजन-४८ कोश प्रमाण है। यह भूमि कमल के आकार की होती है।
इसमें गंधकुटी तो कर्णिका के समान ऊपर ऊँची उठी होती है और बाह्य भाग कमल दल के समान विस्तृत होता है। यह नीलमणि से निर्मित रहती है। इसमें चारों दिशाओं में मानस्तंभ होते हैं जो कि दो-दो हजार पहलू के होते हैं। ये बारह योजन की दूरी से दिखाई देते हैं। जिनका मन अहंकार से सहित है ऐसे देवों और मनुष्यों को ये वहीं रोक देने वाले हैं।
‘‘चार कोट, पाँच वेदियाँ इनके बीच में भूमियाँ और सर्वत्र प्रत्येक अंतर भाग में तीन पीठ होते हैं।’’
मानस्तंभ के चारों दिशाओं में चार-सरोवर हैं। इसके आगे एक वङ्कामयकोट है। इस कोट को चारों ओर से घेरकर एक परिखा है। उसमें घुटनों तक जल भरा हुआ है। उसके चारों ओर लताओं का उपवन है। उसको घेरकर सुवर्ण का परकोटा है। उसमें चार गोपुर द्वार हैं उन द्वारों पर व्यंतर जाति के देव द्वारपाल हैं जो अपने प्रभाव से हाथ में मुद्गर लिए हुए अयोग्य व्यक्तियों को दूर हटाते हैं। इन गोपुरों में मणिमय तोरणों के दोनों ओर छत्र, चमर आदि आठ मंगल द्रव्य एक सौ आठ, एक सौ आठ संख्या में सुशोभित हैं। उन गोपुर के आगे वीथियों के दोनों ओर तीन-तीन खण्ड की दो-दो नाट्यशालाएं हैं।
जिनमें बत्तीस-बत्तीस देव कन्याएं नृत्य करती हैं। अनन्तर पूर्व दिशा में अशोक वन, दक्षिण में सप्तवर्ण, पश्चिम में चंपक और उत्तर में आम्र वन हैं। इन वनों में एक-एक मुख्य वृक्ष सिद्ध प्रतिमाओें से सहित है। इन वनों में क्रम से छह-छह वापिकायें हैं। ये क्रम से उदय, विजय, प्रीति और ख्याति नामक फलों को देती हैं। आगे पुन: बत्तीस नाट्यशालाएं हैं। उन पर ज्योतिषी देवांगनाएं नृत्य करती हैं, आगे चारों ओर से घेरे हुए वङ्कामय वेदिका है।
चारों गोपुरों के आगे चार वीथियाँ हैंं। उनके दोनों पखवाड़े में ध्वजाएं फहराती हैं। इन ध्वजाओं में मयूर, हंस, माला आदि दश प्रकार के चिन्ह क्रमश: होते हैं। इनमें छोटी-छोटी घंटिकाएं लगी हुई हैं। विशेष रीति से एक दिशा में एक करोड़ सोलह लाख चौंसठ हजार हैं और चारों दिशा संबंधी ध्वजाएं चार करोड़ अड़सठ लाख छत्तीस हजार से अधिक हैं। आगे की नाट्यशालाओं में व्यंतर देवियाँ नृत्य करती हैं। उसके आगे स्वर्ण निर्मित दूसरा परकोटा है। इस कोट के द्वारों पर भवनवासी इन्द्र द्वारपाल हैं। ये बेंत की छड़ी धारण किए हुए पहरा देते हैं।
उसके आगे नाट्यशालाएं, धूपघट और कल्पवृक्ष वन हैं। आगे नौ-नौ स्तूप हैं। ये स्तूप पद्मराग मणियों से निर्मित हैं उनके समीप स्वर्ण रत्नों से निर्मित मुनियों के और देवों के योग्य सभागृह हैं। सभागृहों के आगे स्फटिक मणि से निर्मित तीसरा परकोटा है। इस परकोटे के चारों गोपुरों के दोनों बाजू में उत्तम रत्नमय आसनों के मध्य मंगलरूप दर्पण हैं जो देखने वालों के पूर्व भव दिखलाते हैंं। इन गोपुर द्वारों पर कल्पवासी देव द्वारपाल हैं। आगे अन्तर्वन, नाट्यशालाएं, सिद्धार्थ वृक्ष आदि हैं।
आगे एक मंदिर है उसमें बारह स्तूप हैं। इनके आगे नंदा, भद्रा, जया और पूर्णा बावड़ियाँ हैं। जिनमें स्नान करके जीव अपना पूर्वभव जान लेते हैं। इनमें देखने वाले जीवों को अपने आगे-पीछे के सात भव दिखने लगते हैं। वापियों के आगे एक जयांगण है जो तीन लोक की विजय का आधार है। उसके मध्य में एक इन्द्रध्वज सुशोभित होता है।
उसके आगे एक हजार खम्भों पर खड़ा हुआ एक महोदय मंडप है, जिसमें मूर्तिमयी श्रुतदेवता विराजमान रहती हैं। उस श्रुतदेवता को दाहिने भाग में करके अनेक मुनियों से युक्त श्रुतकेवली धर्म का व्याख्यान करते हैं। इन मंडपों के समीप में नाना प्रकार के फुटकर स्थान भी बने हैं। जिनमें बैठकर केवलज्ञान आदि महाऋद्धियों के धारक मुनि इच्छुक जनों की इष्ट वस्तु का निरूपण करते हैं।
आगे विजयांगण के कोनों में चार लोक स्तूप हैं। जिन पर ध्वजाएं फहराती हैं। ये लोक स्तूप तीनलोक के आकार वाले स्वच्छ स्फटिक से निर्मित हैं। इनमें लोक की रचना स्पष्ट दिखाई देती है। इन स्तूपों के आगे मध्यलोक स्तूप हैं जिसके भीतर मध्यलोक की रचना स्पष्ट है। आगे मंदिर स्तूप हैं जो कि सुमेरुपर्वत की रचना स्पष्ट करते हैं। उनके आगे क्रम से कल्पवास स्तूप, ग्रैवेयक स्तूप, अनुदिश नाम के नौ स्तूप और सर्वार्थसिद्धि नामक स्तूप हैं। ये सब अपने नाम के अनुरूप ही रचनाओं को दिखाते हैं। इनके आगे सिद्ध स्तूप है। जिनमें सिद्धों के स्वरूप को प्रगट करने वाली दर्पणों की छाया दिखाई देती है।
उनके आगे भव्यकूट नाम के स्तूप हैं। जिन्हें अभव्य जीव नहीं देख पाते हैं। उनके नेत्र अंधे हो जाते हैं। आगे प्रमोहस्तूप है। पुन: प्रबोध नाम का स्तूप है। आगे अत्यन्त ऊँचे दस स्तूप हैं। इसके आगे पुन: एक कोट है जिसके मंडल की भूमि को बचाकर देव तथा मनुष्य प्रदक्षिणा देते रहते हैं आगे परिधि है। वहाँ गणधर देव की इच्छा करते ही एक पुर बन जाता है। उसके त्रिलोकसार, श्रीकांत आदि अनेकों नाम हैं। भगवान के प्रभाव से वह नगर तीनों लोकों के श्रेष्ठ पदार्थों से युक्त आश्चर्य उत्पन्न करने वाला होता है।
उसके बनाने वाला कुबेर भी यदि एकाग्रचित हो उसके बनाने का पुन: विचार करे तो वह भी नियम से भूल कर जायेगा, फिर अन्य मनुष्य की तो बात ही क्या है। उस नगर का निर्माण यथास्थान छब्बीस प्रकार के सुवर्ण और मणियों से चित्र-विचित्र है। उसके तल भाग में तीन जगती हैं। उनमें द्वारपालों के द्वार पर कुबेर की धनराशि का ढेर है। इस जगती में हजारों कूट और ध्वजाएं हैं।
वहाँ चारों ओर देदीप्यमान पीठ होते हैं। उनमें पहले पीठ पर चार हजार धर्मचक्र सुशोभित हैं। दूसरी पीठ पर चार ध्वजाएं हैं। तीसरी पीठ पर गंधकुटी नाम का प्रासाद है। उस पर भगवान का सिंहासन है। उस कमलासन पर चार अंगुल अधर जिनेन्द्रदेव विराजमान रहते हैं।
पहली पीठ-कटनी के चारों तरफ आकाश स्फटिक की दीवालों वाले बारह विभाग सुशोभित हैं। इन बारह कोठों में क्रम से प्रथम कोठे में गणधर देव और अपने-अपने दीक्षा गुरुओं से अधिष्ठित मुनिगण सुशोभित हो रहे हैं। द्वितीय कोठे में कल्पवासी देवियाँ, तृतीय में आर्यिकाएं और श्राविकाएं, चतुर्थ में ज्योतिषी देवियाँ, पाँचवे में व्यंतर देवियाँ, छठे में भवनवासिनी देवियाँ, सातवें में भवनवासी देव, आठवें में व्यन्तर देव, नवमें में ज्योतिषी देव, दशवें में कल्पवासी देव, ग्यारहवें में मनुष्य, चक्रवर्ती आदि श्रावकगण और बारहवें कोठे में सिंह, हरिण आदि पशुगण बैठे रहते हैं।
इन बारह सभाओं में संख्यातों मनुष्यों, तिर्यंचों से तथा असंख्यातों देव-देवियों से वेष्टित भगवान चौंतीस अतिशय और आठ प्रातिहार्य से विभूषित अनन्त चतुष्टय आदि अनन्त गुणों के स्वामी देवाधिदेव विराजमान रहते हैं।
अब प्रश्न यह उठता है कि जितना वर्णन समवसरण के अंदर की चीजों का मैंने किया है। क्या इतना वैभव समवसरण में आ सकता है?
तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। एक सामान्य अणिमा ऋद्धि धारक देव भी कमल की नाल के तन्तु जैसे बारीक छिद्र में चक्रवर्ती के कटक को स्थापित कर सकता है अथवा अक्षीणमहानस ऋद्धि धारक मुनि जहाँ बैठते हैं उस चार हाथ प्रमाण में भी असंख्यात देवगण, विद्याधर मनुष्य, पशु आदि बैठकर उपदेश सुन सकते हैं। पुन: तीन लोक के नाथ तीर्थंकर भगवान के सानिध्य में इतना चमत्कार हो जावे तो कोई भी आश्चर्य की बात नहीं है।
इस समवसरण में गंधकुटी पर विराजमान भगवान इस पृथ्वी तल से ५००० धनुष ·२०००० हजार ऊँचे जाकर विराजमान हैं। अत: इसमें १-१ हाथ की २०००० (बीस हजार) सीढ़ियाँ हैंं। इस पर अंधे, लंगड़े, बाल, वृद्ध और रोगी आदि सभी अड़तालीस मिनट के भीतर ही भीतर चढ़ जाते हैं। यह भगवान का ही माहात्म्य है। समवसरण में मिथ्यादृष्टि, पाखंडी, शूद्र, क्रूर प्राणी और अभव्यजीव नहीं जा सकते हैं।
ऐसे समवसरण में स्थित भगवान को नमस्कार करने से, समवसरण का ध्यान करने से आज भी महान पुण्य का बंध हो जाता है। ऐसा समवसरण आज विदेहों में सीमंधर आदि तीर्थंकरों का विद्यमान है।
सौधर्म इन्द्र उस समवसरण भूमि को देखकर विस्मय-चकित होते हुए जिनेन्द्र भगवान के दर्शनों की इच्छा से बहुत अधिक विभूति से युक्त होकर असंख्य देवों के साथ भीतर प्रवेश करते हैं। आठ प्रातिहार्य में विभूषित जिनेन्द्रदेव के चरणों में साष्टांग नमस्कार करके श्रद्धायुक्त हो अपने ही हाथों से गंध, पुष्पमाला, धूप, दीप, अक्षत और उत्कृष्ट अमृत के पिंडों द्वारा भगवान के चरण कमलों की पूजा करते हैं।
पुन: अनेक स्तोत्रों द्वारा भगवान के गुणों की स्तुति करते हैं। इस प्रकार मुख्य-मुख्य बत्तीस इन्द्र (भवनवासी के १०, व्यंतरों के ८,ज्योतिषी के २ और कल्पवासी के १२) अनेक सुर, असुर, मनुष्य, नागेन्द्र, यक्ष, गंधर्व और चारण समूह के साथ-साथ जगत् के एकमात्र बंधु ऐसे ऋषभदेव भगवान की स्तुति कर समवसरण भूमि में भगवान की ओर मुख कर उन्हीं के चारों ओर यथायोग्य रूप से अपने-अपने कोठे में बैठकर भगवान की दिव्यध्वनि का पान करते हैं।
ऐसी दिव्यध्वनि का पान करने का, उस समवसरण में विराजमान तीर्थंकर भगवान के दर्शन का सौभाग्य हमें शीघ्र प्राप्त हो यही भावना भाते हुए आप सभी अपने मनुष्य जन्म को सार्थक करें, यही मंगल आशीर्वाद है।