करना नहीं रहा कुछ भी कृतकृत्य प्रभो! भुजलंबित हैं।
नहीं भ्रमण करना जग में अतएव-चरण युग अचलित हैं।।
देख चुके सब जग की लीला अंतरंग अब देख रहे।
सुन-सुन करके शांति न पाई अत: विजन१ में खड़े हुए।।
सन्त: सर्वसुरा सुरेन्द्रमहितं मुत्तेâ: परं कारणम्,
रत्नानां दधति त्रयं त्रिभुवनप्रद्योति कायेसति।
वृत्तिस्तस्य यदन्नत: परमया भक्त्यार्पिताज्जायते,
तेषां सद्गृहमेधिनां गुणवतां धर्मो न कस्य प्रिय:।।
अर्थ-जो रत्नत्रय समस्त देवेन्द्रों एवं असुरेन्द्रों से पूजित है, मुक्ति का अद्वितीय कारण है तथा तीनों लोकों को प्रकाशित करने वाला है, उसे साधुजन शरीर के स्थिर रहने पर ही धारण करते हैं। उस शरीर की स्थिति उत्कृष्ट भक्ति से दिये गये जिन सद्गृहस्थों के अन्न से रहती है उन गुणवान सद्गृहस्थों का धर्म भला किसे न प्रिय होगा? अर्थात् सभी को प्रिय होगा।
-आचार्य पद्मनन्दिदेव