Jambudweep - 7599289809
encyclopediaofjainism@gmail.com
About Us
Facebook
YouTube
Encyclopedia of Jainism
Search
विशेष आलेख
पूजायें
जैन तीर्थ
अयोध्या
भगवान मुनिसुव्रतनाथ चालीसा!
May 23, 2020
जिनेन्द्र भक्ति
jambudweep
श्री मुनिसुव्रतनाथ चालीसा
दोहा
पंचनमस्कृति मंत्र है, सर्व सुखों की खान।
पंचपदों युत मंत्र को, वंदूँ शीश नवाय।।१।।
पंचपरमगुरु को नमूँ, पंचमगति मिल जाए।
रोग-शोक बाधा टलें, सुख अनन्त मिल जाए।।२।।
श्रीमुनिसुव्रतनाथ का, यह चालीसा पाठ।
पढ़ लेवें जो भव्यजन, शनिग्रह होवें शांत।।३।।
शारद माता तुम मुझे, दे दो आशिर्वाद।
तभी पूर्ण हो पाएगा, यह जिनवर गुणगान।।४।।
चौपाई
मुनिसुव्रत जी सुव्रतदाता, भक्तों को सन्मार्ग प्रदाता।।१।।
नमन करूँ मैं तुमको प्रभु जी, करना सब कार्यों की सिद्धी।।२।।
राजगृही नगरी अति प्यारी, सुखी वहाँ की जनता सारी।।३।।
वहाँ के महाराजा सुमित्र थे, शिरोमणी वे हरीवंश के।।४।।
उनकी महारानी सोमा थी, जीवन अपना धन्य समझतीं।।५।।
श्रावण बदी दूज को माँ ने, सुन्दर सोलह स्वप्न विलो के।६।।
मुनिसुव्रत जी गर्भ में आए, इन्द्र गर्भकल्याण मनाएँ।।७।।
पुन: हुआ जब जन्म प्रभू का, वह दिन भी अतिशय पावन था।।८।।
थी वैशाख वदी बारस तिथि, स्वर्गों से आई सुरपंक्ती।।९।।
नामकरण भी सुरपति करते, पाण्डुशिला पर अभिषव करते।।१०।।
तीस सहस वर्षायु प्रभू की, ऊँचाई थी बीस धनुष की।।११।।
साढ़े सात हजार वर्ष का, बीता जब सुकुमार काल था।।१२।।
तब पितु ने राज्याभिषेक कर, सौंप दिया था राजपाट सब।।१३।।
राज्य अवस्था में प्रभुवर के, बीते पन्द्रह सहस वर्ष जब।।१४।।
इक दिन बादल गरज रहे थे, तब उनके इक मागहस्ति ने।।१५।।
वन का कर स्मरण हृदय में, भोजन-पान न किया तनिक भी।।१६।।
तत्क्षण मुनिसुव्रत जिनवर ने, जान लिया निज अवधिज्ञान से।।१७।।
हाथी के मन की सब बातें, पुन: कहें वे सबके सामने।।१८।।
सुनों! ये हाथी पूरब भव में, नगर तालपुर के अधिपति थे।।१९।।
मिथ्याज्ञान से ये संयुत थे, अशुभ तीन लेश्या थीं इनमें।।२०।।
ऊँचे कुल का मान किया था, पात्र-अपात्र को दान दिया था।।२१।।
इसीलिए वह राजा मरकर, बने यहाँ हाथी इस भव में।।२२।।
अभी भी यह हाथी अपने उस, वन का ही कर रहा स्मरण है।।२३।।
इसे वो कारण याद नहीं है, जिससे गजयोनी पाई है।।२४।।
इतना सुनते ही हाथी को, बातें स्मरण हुई ज्यों की त्यों।।२५।।
उसने प्रभु के पास बैठकर, ग्रहण कर लिया सम्यग्दर्शन।।२६।।
इस घटना के ही निमित्त से, प्रभु जी हुए विरक्त जगत से।।२७।।
लौकान्तिक सुर आए तब ही, नानाविध स्तुति की प्रभु की।।२८।।
सुन्दर नील वर्ण युत प्रभु जी, नील नाम के वन में पहुँचे।।२९।।
वहँ वैशाख बदी दशमी में, प्रभु जी ने जिनदीक्षा ले ली।।३०।।
प्रथम पारणा का शुभ अवसर, प्राप्त किया नृप वृषभसेन ने।।३१।।
दीक्षा के ग्यारह महिने जब, बीते तब केवली बने प्रभु।।३२।।
थी वैशाख बदी नवमी तब, प्रभु की खिरी दिव्यध्वनि थी जब।।३३।।
कई वर्षों तक भव्यजनों को, धर्मपियूष पिलाया प्रभु ने।।३४।।
अन्त समय में देखो! प्रभु जी, पहुँच गए सम्मेदशिखर जी।।३५।।
शाश्वत तीर्थराज से प्रभु को, प्राप्त हो गई शाश्वत पदवी।।३६।।
वह तिथि थी फाल्गुन बदि बारस, आज भी लाडू चढ़ता उस दिन।।३७।।
कछुआ चिन्ह सहित जिनवर जी, शनिग्रह दोष निवारक भी हैं।।३८।।
प्रभु मेरा बस जन्म दोष ही, कर दो नष्ट यही इच्छा है।।३९।।
बनूँ अजन्मा मैं भी इक दिन, यही ‘‘सारिका’’ भाव रात-दिन।।४०।।
शंभु छंद
मुनिसुव्रत प्रभु का चालीसा, जो चालिस दिन तक पढ़ते हैं।
उनके शनि दोष विनश जाते, जो चालिस बार उचरते हैं।।
इस सदी बीसवीं में इक गणिनी ज्ञानमती माताजी हैं।
उनकी शिष्या इक दिव्यज्योति चन्दनामती माताजी हैं।।१।।
उनकी ही मिली प्रेरणा तब ही, लिखा ये चालीसा मैंने।
इसको पढ़कर मुनिसुव्रत प्रभु का, भक्ती से गुणगान करें।।
यदि शनिग्रह का होवे प्रकोप, तो निश्चित ही टल जाएगा।
यह बिल्कुल सच है भव्यात्मन्!, भक्ती से सुख मिल जाएगा।।२।।
Tags:
Chalisa
Previous post
चौबीस तीर्थंकर चालीसा!
Next post
भगवान अरहनाथ चालीसा!
Related Articles
भगवान शीतलनाथ जन्मभूमि भद्दिलपुर तीर्थक्षेत्र चालीसा!
July 2, 2020
jambudweep
भगवान महावीर केवलज्ञान भूमि ज्रम्भिका तीर्थक्षेत्र चालीसा!
June 11, 2020
jambudweep
भगवान संभवनाथ चालीसा!
May 23, 2020
jambudweep