अस्ति जंबूद्वीपे भरतक्षेत्रे आर्यखण्डस्य मगधदेशे वर्धमाननाम नगरम्। तत्र यज्ञकुशलेषु ब्राह्मणेषु कश्चित् आर्यावसु: नाम ब्राह्मणोऽस्ति। तस्य साध्वी भार्या सोमशर्मा पतिधर्मपरायणासीत् तयोर्भावदेव-भवदेव नामानौ द्वौ पुत्रौ स्त:। तौ विद्याभ्यासात् वेदशास्त्रव्याकरणतर्ववैद्यक-छंदोनिमित्तसंगीतकाव्यालंकारेषु विषयेषु प्रावीण्यं अगच्छताम्, वादविवादेषु कुशलौ उभौ वयस्कौ जातौ।
पूर्वोपार्जितपापकर्मोदयेन अनयो: पिता आर्यावसुब्राह्मणो महकुष्टरोगेण पीडितो जात:, असौ गलितकुष्टवेदनां सोढुमक्षम: सततं मरणमिच्छति स्म, पत्युर्मरणानन्तरं तस्य भार्यापि शोकेन संतप्ता सती तस्यैव चितायां दग्ध्वा मृत्युमगच्छत्। पित्रो: वियोगेन भावदेव-भवदेवौ अत्यंतं दु:खं अनुभवन्तौ विलापं चक्रतु:। बांधवै: संबोध्य कथमपि शांतिमानीतौ, तदानीं शोवंâ त्यक्त्वा मातृपित्रोर्मरणक्रियां अकुरुतां।
तदनंतरं तस्मिन्नेव नगरे श्री सौधर्मनामाचार्या: समायाता:, ते सर्वपरिग्रहविमुक्ता जातजाता दिगंबरा गुप्तिसमितिधर्मैयुक्ता: शास्त्रज्ञा: परमदयालवो अष्टाभिर्मुनिभि: राजंते स्म। गुरूणां दर्शनं कृत्वा भावदेवोऽपि उपदेशं आकण्र्य भवभ्रमणात् भीत: सन् निर्विण्णहृदय: सौधर्माचार्यमप्रार्थयत् हे स्वामिन्! संसारसमुद्रे निमज्जंतं मां पाहि, पुनीहि कृपया मह्यं जैनीश्वरीं दीक्षां प्रदत्स्व। भावदेवस्य वचनं श्रुत्वा विरक्तोऽयमिति ज्ञात्वा च गुरुदेवा: सद्धर्मामृतै: संतप्र्य तष्मै दीक्षां ददति स्म। असौ सर्वसावद्ययोगविरत: सन् स्वसंयमं पालयन् गुरुभि: सह विहरति स्म, तपस्वी, विनयी, तत्त्वाभ्यासी, स्वाध्यायप्रिय: स्वशुद्धात्मानं ध्यायति, कदाचित् धन्योऽस्मि, कृतार्थोऽस्मि, पुण्योऽस्मि अनादितो लब्धं उत्तमं जिनधर्मं लब्ध्वा संसारसागरं तरिष्यामि त्वरमिति परमं संतोषं अगच्छत्।
जम्बूद्वीप में भरतक्षेत्र के आर्यखंड में मगधदेश में वर्धमान नाम का नगर है। वहाँ पर यज्ञ क्रियाओं में कुशल अनेकों ब्राह्मण रहते थे, उनमें आर्यावसु नाम का एक ब्राह्मण रहता था, उसकी सोमशर्मा नाम की भार्या थी जो कि साध्वी और पतिव्रता धर्म परायणा थी। इन दोनों के भावदेव और भवदेव नाम के दो पुत्र थे। ये दोनों विद्या अभ्यास करके वेदशास्त्र, व्याकरण, तर्क, वैद्यक, छंद, निमित्त, संगीत, काव्य और अलंकार आदिविषयों में प्रवीणता को प्राप्त हो चुके थे और वादविवादों में भी कुशल, यौवन अवस्था को प्राप्त हो चुके थे।
पूर्वोपार्जित पापकर्म के उदय से इनके पिता आर्यावसु ब्राह्मण महाकुष्ट रोग से पीड़ित हो गये, वे गलित कुष्ट की वेदना को सहन करने में असमर्थ होते हुए हमेशा मरण चाहने लगे। पति मृत्यु के बाद उनकी भार्या भी शोक से संतप्त होती हुई पति की चिता में ही जलकर मर गई। माता-पिता के वियोग से भावदेव-भवदेव दोनों ही भाई अत्यन्त दु:ख का अनुभव करते हुए विलाप करने लगे। बंधु-बांधवों ने इनको समझा-बुझाकर जैसे-तैसे शांति प्राप्ति कराई, तब इन दोनों ने शोक को छोड़कर माता-पिता की मरण क्रिया को पूर्ण किया।
अनंतर उसी नगर में श्री सौधर्म नाम के आचार्य पधारे, वे संपूर्ण परिग्रह से रहित, जात-रूपधारी-दिगम्बर, गुप्ति, समिति और दस धर्मों से युक्त शास्त्रपारंगत परमदयालु अपने आठ मुनियों के संघ सहित वहाँ ठहर गये। भावदेव ब्राह्मण भी उन गुरुओं के दर्शन को करके और उनके उपदेश को सुनकर भवभ्रमण से भयभीत होता हुआ विरक्तमना होकर श्री सौधर्म आचार्य से प्रार्थना करने लगा कि हे स्वामिन्! संसार समुद्र में डूबते हुए मेरी रक्षा करो मुझे पवित्र करो और कृपा करके मुझे जैनेश्वरी दीक्षा प्रदान करो। भावदेव के वचन को सुनकर और ‘यह विरक्त हो चुका है’ ऐसा समझकर सद्धर्मरूपी अमृत से उसे संतर्पित करके दीक्षा दे दी। ये भावदेव भी सर्वसावद्ययोग-पापयोग से विरत होते हुए और अपने संयम का पालन करते हुए गुरुदेव के साथ विहार करने लगे, ये साधु तपस्वी, विनयी, तत्त्वों का अभ्यास करने वाले, स्वाध्याय के प्रेमी, अपनी शुद्धात्मा का ध्यान करते थे। वे कदाचित् यह सोचते थे कि ‘‘मैं धन्य हो गया हूँ, कृतकृत्य हो गया हूँ, पुण्यशाली हो गया हूँ जिससे मैं अनादि काल से नहीं प्राप्त हुए उत्तम जिनधर्म को प्राप्त करके संसार समुद्र को शीघ्र ही पार करूँगा।’ इस प्रकार से वे साधु परम संतोष को प्राप्त हो गये थे।