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भाषा और लिपि: एक समीक्षात्मक अध्ययन!

July 17, 2017स्वाध्याय करेंjambudweep

भाषा और लिपि: एक समीक्षात्मक अध्ययन



डॉ. उत्तम सिंह
प्राचीनकाल से मानव स्वकीय संस्कृति एवं इतिहास का निर्माण करता हुआ निरन्तर आगे बढ रहा है। इसके प्रमाण पुरातन गुहा—चित्रों, भवनों के खण्डहरों, समाधियों, मंदिरों तथा अन्य वस्तुएँ जैसे—मृद्भाण्ड, मुद्राएँ, मृण्मूर्तियाँ, र्इंटें, अम्ल—शास्त्र आदि उपलब्ध प्राचीन सामग्री से मिल जाते हैं। इनके अलावा शिलालेख, चट्टानलेख, ताम्रलेख, भित्तिचित्र, ताडपत्र, भोजपत्र, कागज, कपड़ा एवं मुद्रालेख आदि भी उनकी अनवरत प्रगति के सूचक हैं। ये ही वे अवशेष हैं जिनके माध्यम से मनुष्य अपने इतिहास का ताना—बाना बुनते हुए नई खोज के साथ एक विकसित और सभ्य समाज का निर्माण करता हुआ प्रगतिपथ पर आगे बढने का प्रयास कर रहा है। उदाहरणार्थ प्राचीन गुफाओं में मिलनेवाले वे चित्र जिन्हें तत्कालीन मानव ने उकेरा था उन्हें उसके तत्कालीन जीवन का साक्षात् इतिहास कहा जा सकता है। धीरे—धीरे इतिहास और संस्कृति के विकासक्रम में मानव एक ऐसे बिन्दु पर पहुँचता है जहाँ एक ओर वह चित्रों से लिपि की और बढ़ता है तो दूसरी ओर अपनी भाषा का विकास करता है। इस प्रकार लिपि और भाषा के सहारे आदिकाल से अद्यपर्यन्त तक मनुष्य अपने को प्रतिबिम्बित करता आ रहा है। सभ्यता और संस्कृति के विकास के साथ—साथ भाषा एवं लेखनकला का विकास भी होता रहा। प्रारंभ में लिखने के साधन गुफाओं की दीवारें, र्इंट, पत्थर, मृद्पात्र एवं शिलापट्ट आदि थे। देश—काल—परिस्थिति अनुसार ये साधन बदलते गये और लिपि एवं भाषा परिस्कृत होती गयी। 

भाषा एवं लिपि का संबन्ध/ उद्भव और विकास:

भाषा और लिपि का परस्पर अविनाभाव संबन्ध है। इनके उद्भव और विकास का इतिहास आज भी गवेषकों के लिए शोध का विषय बना हुआ है। मानव जब जंगलों एवं गुफाओं मेंं रहता था तब वह अपनी गुफा में जादू—टोने के लिए विविध प्रकार की रेखाओं के माध्यम से कुछ आकृतियाँ बनाया करता था। अपने घोडों तथा अन्य पालतु जानवरों की पहचान के लिए उनके शरीर पर विविध कोटि के चिह्न बनाया करता था। किसी बात को स्मरण रखने के लिए बेलों तथा रस्सियों में गाँठ बांधकर रखता था।इस प्रकार प्राचीनकालीन मानव विविध साधनों के माध्यम से दीर्घकाल पर्यन्त अपने भावों को प्रकट करता रहा। इन्हीं साक्ष्यों के आधार पर समयानुसार विविध लिपियों का विकास होता चला गया। लिपि—विज्ञानियों ने चित्रों एवं लकीरों कसे विकसित कर वर्णाकार प्रदान किया और आकृतियों को लिपि नाम दिया गया। धीरे—धीरे विविध भाषाओं की अपनी —अपनी लिपियाँ बनने लगी। कुछ भाषाओं के उच्चारण — वैविध्य के कारण उनकी अपनी लिपियाँ विकसित हुई। जैसे गुजराती, बंगला, मैथिल, उडिया, तामिल, तेलगु, मलयालम आदि। ये लपियाँ भी हैं और भाषा भी हैं। जैसा कि हम ऊपर उल्लेख कर चुके हैं कि संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, हिंदी, मराठी आदि सिर्फ भाषा हैं , लिपि नहीं। अक्सर हम देखते हैं कि आज भी कई लोग हिंदी या संस्कृत—प्राकृत आदि भाषाबद्ध ग्रंथ जो नागरी लिपि में लिखे हुए होते हैं, को भी हिंदी लिपि में लिखा हुआ कहते हैं; जबकि हिंदी नाम की कोई लिपि नहीं है। सही में वह लिपि तो देवनागरी अथवा नागरी लिपि है। मनुष्य के विचारों को व्यक्त करने का माध्यम वाणी है। यह वाणी विभिन्न भाषाओं के माध्यम से संसार में प्रकट होती है। इन भाषाओं को लंबे समय तक स्थाई रूप से सुरक्षित रखने व एक स्थान तक ले जाने का काम लिपि करती है। अत: भाषा के दो प्रमुख आधार माने गये हैं— (१) ध्वनि या नाद और (२) दृश्य। किसी भाषा का पहले ध्वनि रूप प्रकट होता है। बाद में वह दृश्य स्वरूप के रूप में अपने विकास का मार्ग प्रशस्त कर लेती है। अत: हम कह सकते हैं कि भाव तथा विचारों के प्रकाशन का ध्वनि—स्वरूप भाषा है और उसका दृश्य—स्वरूप लिपि।अर्थात् भाषा को दृष्टिगोचर करने के लिए जिन प्रतीक—चिन्हों का प्रयोग किया जाता है। , उन्हें लिपि कहते हैं। भाषा और लिपि का संबन्ध सिक्के के दो पहलुओं के समान है। भाषा के बिना किसी लिपि की संभावना हो ही नहीं सकती। हाँ बिना लिपि के भाषा संभव है। अनेक बोलियाँ और उपभाषाएँ ऐसी हैं जो भावों और विचारों को व्यक्त करने का कार्य करती हैं, किन्तु लिपि के अभाव में उनका विशेष महत्व या प्रचार—प्रसार नहीं हो पाता। भाषा या बोली का ध्वनि स्वरूप स्थान—काल की सीमा में रहकर ही प्रकट किया जाता है, जबकि लिपि भाषा को स्थान और काल के बंधन से मुक्त कर देती है। इसका तात्पर्य यह है कि बोली गई भाषा किसी स्थान विशेष में उपस्थित व्यक्तियों तक ही सीमित रहती है, किन्तु लिखी गई भाषा दीर्घकाल पर्यन्त विस्तृत असीम भूमि पर कहीं भी उन विचारों और भावों को पहुँचा सकती है। इस लिए लिपि को भाषा का एक अनिवार्य एवं अत्युत्तम अंग माना गया है। भाषा को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने तथा दीर्घकाल पर्यन्त जीवित रखने का काम लिपि ही करती है। लिपि के अभाव में अनेक भाषाएँ उत्पन्न होकर नष्ट हो गई । आज उनका नामों—निशान तक नहीं रहा। लिपि भी इसके अछूती नहीं रही। ललितविस्तर आदि प्राचीन ग्रंथों में तत्कालीन प्रचलित लगभग चौंसठ लिपियों का नामोल्लेख मिलता है, लेकिन आज उसमें में अधिकांश लिपियाँ अथवा उनमें लिखित साहित्य उपलब्ध नहीं है। कुछ प्राचीन लिपियाँ आज भी एक अनसुलझी पहेली बनी हुई हैं। उनमें लिखित अभिलेख आज—तक नहीं पढ़े जा सके हैं। मध्यप्रदेश के जबलपुर शहर के आस—पास विस्तृत पर्वतों एवं गुफाओं में टंकित ‘शंख लिपि’ के सुन्दर अभिलेखों को भी आज—तक नहीं पढ़ा जा सका है। इस लिपि के अक्षरों की आकृति शंख के आकार की है। प्रत्येक अक्षर इस प्रकार लिखा गया है कि उससे शंखवाद आकृति उभरकर सामने दिखाई पड़ती है। अत: अनुमान लगाया जा रहा है कि शायद यही शंख लिपि है। विद्वान गवेषक इन लेखों को पढने का प्रयास कर रहे हैं लेकिन अभी तक योग्य सफलता नहीं मिल सकी है। खरोष्ठी लिपि को भी पूर्णत: नहीं पढ़ा जा सका है। आज भी विविध सिक्कों, मृद्पात्रों एवं मुहरों पर लिखित ऐसी कई लिपियाँ और भाषाएँ हमारे संग्रहालयों में विद्यमान हैं जो एक अनसुलझी पहेली बनी हुई है और हमारे भाण्डागारों की शोभा बढ़ रही हैं। अत: इतना तो निश्चित कहा जा सकता है कि भाषा और लिपि दोनों ही एक—दूसरे के विकास में गाड़ी के दो पहियों की तरह अहम भूमिका अदा करती हैं। लिपि के अभाव में कोई भी भाषा अपनी लिपि है वे आज खूब फल—फूल रहीं हैं। कुछ भाषाएँ ऐसी भी हैं जिनकी अपनी लिपि तो नहीं है लेकिन दूसरी लिपियों में आसानी से लिखी—पढ़ी जा सकती हैं। ये भाषाएँ इतनी शुद्ध, स्पष्ट और व्याकरणसम्मत हैं कि किसी भी लिपि में हूब—हू लिखी —पढ़ी जा सकती हैं। जैसे संस्कृत,प्राकृत, अपभ्रंश, हिंदी, मराठी आदि भाषाओं की अपनी कोई लिपि नहीं है, लेकिन इन्हें किसी भी लिपि लिखा—पढ़ा जा सकता है। एक प्रकार से देखें तो भाषाएँ देवनागरी लिपि पर आधारित हैं। इन्होंंने देवनागरी लिपि को विशेषरूप से अपनाया है, लेकिन अन्य लिपियों में भी इन भाषाओं का साहित्य प्राचीनकाल से लिखा जाता रहा है जो हमें विविध ग्रन्थकारों में पाण्डुलिपियों एवं अभिलेखों के रूप में प्राप्त होता है। 

भाषा और लिपि साम्य—वैषम्य :

भाषा के विकास में लिपि का अत्यधिक महत्व है। लिपि के अभाव में भाषा अपनी सीमा और परिधि से बाहर नहीं जा पाती, किन्तु लिपि का आधार मिलते ही भाषा का विकास एवं विस्तार प्रारंभ हो जाता है। लिपि के द्वारा ही भाषा में अधिक सूक्ष्मता और निश्चितता आती है। विदित् हो कि प्राचीनकाल में धर्म, साहित्य तथा इतिहास का लिपि से उतना घनिष्ट संबंध नहीं था जितना आज है। आज लिपि के अभाव में साहित्य, इतिहास आदि का होना असंभव—सा प्रतीत होता है, परन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। लिपि के अभाव में भी साहित्य, इतिहास आदि हो सकते हैं और थे भी। अन्तर सिर्फ इतना हो जाता है कि लिपि के अभाव में वे अनिश्चित से रहते हैं; धर्म मंत्र—तंत्र का, साहित्य कविता का और इतिहास लोक—कथाओं का रूप ग्रहण कर लेता है। प्राचीन ग्रंथों में वर्णित कहानियाँ तथा विभिन्न देशों की परंपरागत लोक—कथाएँ इसके उदाहरण हैं। जिस प्रकार लेखनकला के अभाव में साहित्य का होना संभव है, उसी प्रकार वर्णमाला के अभाव में लिपि का होना भी संभव है। वर्णमाला के अभाव में मनुष्य रज्जु, रेखा—चित्र, लीपने, माढने आदि द्वारा अपने भावों तथा विचारों को लिपिबद्ध करता था। अत: लिपि के अन्तर्गत वर्ण—लिपि के अतिरिक्त रज्जु—लिपि, रेखा—लिपि, चित्र—लिपि आदि को भी शामिल किया जा सकता है। भाषा ध्वन्यात्मक होती है जबकि लिपि चिह्नात्मक अथवा अक्षरात्मक होती है। भाषा बाली जाती है जबकि लिपि लिखी जाती है। अर्थात् भाषा का उद्गम स्थान मुख है जबकि लिपि हाथ द्वारा लिखी जाती है। भाषा को दीर्घकाल पर्यन्त जीवित रखने का काम लिपि करती है। अर्थात् लिपि भाषा को स्थायित्व प्रदान करती है। भाषा को एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाने का काम भी लिपि ही करती है। प्राचीनकाल में यह कार्य पत्र द्वारा संदेश भेजने के रूप में किया जाता था, जिसमें काफी समय लगता था।लेकिन आज वैज्ञानिक साधनों के विकास के साथ यह कार्य ईमेल, एस.एम.एस, फैक्स अथवा वॉट्स्अप द्वारा तुरन्त हो जाता है। मुख से बोला गया शब्द शीघ्र ही बदला जा सकता है, परन्तु लिखी गई बात को बदलना सरल नहीं होता है। बोली हुई वाणी तुरन्त ही वायु में विलीन होकर नष्ट हो जाती है, लेकिन लिखित बातें हजारों वर्षों तक स्थिर रहती हैं। लगभग दो हजार वर्ष से भी अधिक प्राचीन सम्राट अशोक के शिलालेख तत्कालीन ब्रह्मी लिपि के कारण आज भी हमारी मूल्यवान निधि के रूप में सुरक्षित हैं। अत: यह निश्चितरूप से कहा जा सकता है कि हमारे सामने आज जितना भी पुरातन साहित्य विद्यमान है, वह लिपि के स्थायित्व का ही परिणाम है। भाषा और साहित्य की सुरक्षा के लिए भी लिपि ही एकमात्र साधन है। इस प्रकार मानवजाति के विकास में भाषा और साहित्य का जो महत्व है, लिपि का भी उससे कम नहीं माना जा सकता है। वर्तमान में कई लिपियाँ एवं भाषाएँ आधुनिक विज्ञान, सम्यता—संस्कृति एवं राष्ट्र के आर्थिक विकास में महत्वपूर्ण योगदान दे रही हैं। 

यहाँ कुछ प्रमुख भारतीय भाषाओं एवं लिपियों को निमनोक्त सूचि द्वारा प्रदर्शित किया जा रहा है—

भाषा लिपि संस्कृत, प्राकृत, पालि ब्राह्मी, खरोष्ठी अपभ्रंश, मागधी, । हिंदी , मराठी शरदा, ग्रंथ, प्राचीन नगरी (देवनागरी) नेवारी, नंदी नागरी, पंजाबी टाकरी, डोंगरी गुरुमुखी गुरुमुखी गुजराती गुजराती मैथिल मिथिलाक्षर बंगाली बंगला उडिया उडिया तामिल तामिल तेलुगु तेलुगु मलयालम मलयालम अर्बी, पर्सियन, (फारसी) अर्बी, पार्सियन उर्दू उर्दू उपरोक्त सूचि में गहरे बोल्ड अक्षरों में लिखित नाम भाषा भी हैं और लिपि भी। इसके अतिरिक्त अन्य सभी नाम ऐसे हैं जो या तो केवल भाषा हैं या फिर केवल लिपि। अस्तु इस लेख के माध्यम से हमने यहाँ भाषा एवं लिपि का किंचित परिचय प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, आशा है जिज्ञासु गवेषक लाभान्वित होंगे।
श्रुतसागर,१५ अगस्त, २०१४
Tags: Shodh Aalekh
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