हर धर्म, सम्प्रदाय, जाति और वर्ग विशेष में प्राचीनकाल से अपने अस्तित्व को बनाए रखने के लिए कतिपय पहचान चिन्ह / चिन्हों का उपयोग किया जाता रहा है। आज प्रत्येक देश अपने पृथक् अस्तित्व को लेकर प्रतीक चिन्ह के रूप में अलग-अलग झण्डों का उपयोग करता है, संस्थाएँ विभिन्न प्रकार के मोनोग्राम का उपयोग करती हैं, यहाँ तक कि प्रत्येक व्यक्ति भीड़ में अपने अस्तित्व को पृथक् बनाये रखने का प्रयास करता है। ऐसे ही दृष्टिकोण और चिंतन से यदि हम अपने धर्म, संस्कृति और गुरुओं के अस्तित्व पर विचार करें, तो जहाँ जैनधर्म अनादिनिधन हैं, वहीं उसकी अनादिनिधन परम्पराएँ भी आज इस धरती पर सतत अपने अस्तित्व के साथ विद्यमान हैं। इस युग के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव ने इस काल में जैनधर्म का प्रवर्तन किया। जैनधर्म के अिंहसामयी सिद्धान्तों के साथ जहाँ सर्वप्रथम उन्होंने प्रजा पर न्याय नीति के साथ शासन किया, वहीं समस्त राजपाट का त्याग करने के उपरांत उन्होंने जैनेश्वरी दीक्षा लेकर इस धरा पर मुनियों द्वारा आहार ग्रहण करने की चर्या और श्रावकों द्वारा आहारदान की परम्परा का प्रादुर्भाव किया। बात परम्पराओं के अस्तित्व की है। शायद यही कारण रहा होगा कि जब अतुल्य बल के धारी भगवान ऋषभदेव ने ६ महीने तक लगातार उपवास करते हुए तपस्या की पुन: मुनियों की शुद्ध आहार परम्परा और पड़गाहन विधि के संरक्षण हेतु उन्होंने स्वयं आहारचर्या के लिए ६ महीने तक भ्रमण किया। अंततोगत्वा हस्तिनापुर की धरा पर राजा श्रेयांस द्वारा जातिस्मरण होने से उन्हें इक्षुरस का आहार प्राप्त हुआ। भगवान ऋषभदेव ने मुनि अवस्था में यह प्रयास परम्पराओं को जीवंत रखने के लिए किया। तभी से युग बीत गये, चौबीस तीर्थंकरों ने इस धरती पर अवतार लिया, लगातार भगवान महावीर पर्यंत जैनेश्वरी दीक्षा, मुनियों की आहार चर्या आदि परम्पराएँ जीवित रहीं और भगवान महावीर के उपरांत आज तक लगभग २६०० वर्षों के काल में वे समस्त परम्पराएँ विद्यमान हैं। वर्तमान में दिगम्बर जैन मुनियो द्वारा मयूर पंख की पिच्छिका और कमण्डलु को ग्रहण किया जाना वह अनादि परम्परा है, जिससे दिगम्बर जैन मुनियों की सदैव पहचान रही है। ये दोनों ही उपकरण ऐसे हैं, जिनसे दिगम्बर जैन मुनियों की पहचान होती है तथा वे मुनिगण अपनी चर्या में इन दोनों ही उपकरणों का उपयोग करके अपनी साधना को प्रखर करते हैं। यूँ तो मुनियों के २८ मूलगुण शास्त्रों में कहे गये हैं, लेकिन प्राचीन शास्त्रों के अनुसार दिगम्बर जैन मुनियों के बाह्य चिन्हों में आचेलक्य, लोंच, शरीर संस्कारहीनता और मयूर पिच्छिका ये चार माने गये हैं१। आइये मयूर पिच्छिका आदि साधुओं के इन चार महत्वपूर्ण बाह्य चिन्हों पर आगमोक्त कथनों के आधार पर एक दृष्टिपात करते हैं- 