
मांस भक्षण में आसक्तचित्त वाला जो अधम मनुष्य करूणा को करना चाहता है, वह निश्चित से वङ्कााग्नि से सन्तप्त भूतल पर लता को विस्तारना चाहता है। अत: जगत्त्रय में प्राणिघात के बिना मांस उत्पन्न नहीं होता है, अत: मांस के खाने वाले पुरूष के द्वारा काटे गए धर्मरूप वृक्ष की मूलभूत दया ही शीघ्र खोद डाली गई समझना चाहिए। शुद्ध दया के बिना जीव के पुण्य का संचय निश्चय से कभी नहीं हो सकता है। जगत् में मैने हरी—भरी लता के बिना पुष्पों का संचय कहीं नहीं देखा है। जो दुष्ट चित्त पुरूष अपने शरीर के बल को पुष्ट करने की इच्छा से मांस को खाते हैं, वे नियम से अन्य प्राणियों का घात करते हैं ; क्योंकि खाने वाले के बिना घातक कसायी जीवघात नहीं करता अर्थात् कसाई मांस भक्षकों के लिए ही जीवघात करता है। जो जीवघात करता है, मांस खाता है, उसे बेचता है, उसके खाने की अनुमोदना करता है, खाने का उपदेश देता है और मांस पकाता है, ये छहों ही पापी निश्चय से दुर्गति को जाते हैं; क्योंकि पापियों की परलोक में अन्यत्र स्थिति हो नहीं सकती है। जो मनुष्य कृमि कुल से व्याप्त और पीब, रक्त, चर्बी आदि से मिश्रित मांस को खाता है, शुद्ध बुद्धि वाले पुरूष उसमें और कुत्ते में कुछ भी अन्तर नहीं देखते हैं। मांस खाने में तत्पर पुरूष के कारण सर्वथा ही नहीं होती है और करूणा के बिना वह पाप का ही उपार्जन करता है, जिसके फल से वह भवसागर में ही परिभ्रमण करता रहता है। जो इन्द्रियों के वशीभूत हुए मनुष्य यह कहते हैं कि मांस खाने में कोई दोष नहीं है, उन निकृष्ट चित्त पुरूषों ने व्याघ्र, भील और धीवरों को अपना गुरू बना लिया है। यदि मांस भक्षण में आसक्तचित्त पुरूष उत्तम और पूज्य माने जावें तो विष्टा समूह से देह के पुष्ट करने वाले सूकर कैसे अति पूज्य न माने जावें ? जो बुद्धिरहित पुरूष सप्तधातुमय देह से उत्पन्न होने वाले मांस को खाते हैं, और फिर भी अपने आपको पवित्र कहते हैं, उससे अधिक और क्या विडम्बना हो सकती है ? जो पाप पुञ्ज का संचय करने वाले मांस को खाते हैं, वे अतिप्रचण्ड सांसारिक दु:खों को प्राप्त होते हैं। जो अति दुर्जय विष को पीते हैं , वे यदि मरण को प्राप्त होते हैं तो इसमें क्या आश्चर्य है ? जो लोग नाना प्रकार के दु:ख को देने वाले मांस को और अनेक प्रकार के सुख देने वाले अन्नाहार को समान कहते हैं वे मृत्यु देने वाले विष को और जीवन बढ़ाने वाले अमृत को समान कहते हैं। देहधारियों के मांस का भक्षण दोनों लोकों में दु:खों का देने वाला है और दूषण रहित अन्न के आहार का भक्षण दोनों लोकों में सुख देने वाला है। इस प्रकार से अतिदोषयुक्त मांस को जान करके अपने हित के अन्वेषक जन मन, वचन, काय से उसका त्याग करते हैं ; क्योंकि जानकार लोग तीव्रदृष्टि विषधारी सर्पों से व्याप्त मकान में निवास नहीं करते हैं।अमितगति श्रावकाचार ५।१३— २६ यदि स्वास्थ्य की दृष्टि से देखा जाय तो आज विश्व के हर कोने से वैज्ञानिक व डाक्टर यह चेतावनी दे रहे हैं कि मांसाहार कैंसर आदि असाध्य रोगों को निमन्त्रण देकर आयु क्षीण करता है और शाकाहार अधिक पौष्टिकता व रोगों से लड़ने की क्षमता प्रदान करता है। वैसे भी पशुओं को मारने से पूर्व उनके शरीर में पल रहे रोगों की उचित जाँच नहीं की जाती और उनके शरीर में पल रहे रोग मांस खाने वाले शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। जिस त्रास और यंत्रणा पूर्ण वातावरण में इनकी हत्या की जाती है, उस वातावरण में उत्पन्न हुआ तनाव, भय, छटपटाहट, क्रोध आदि पशुओं के मांस को जहरीला बना देता है। वह जहरीला रोगग्रस्त मांस मांसाहारी के उदर में जाकर उसे असाध्य रोगों का शिकार बनता है और मानों दम तोड़ते हुए पशु का यह प्रण पूरा करता है कि जैसे तुम मुझे खाओगे, मैं तुम्हें खाउँगा। माँसाहार से अनेक असाध्य बीमारियों का जन्म होता है। जैसे— १. रक्तवाहिनियों की भीतरी दीवारों पर कोलस्टेरोल की तहों के जमने से हृदय रोग व उच्च रक्तचाप जैसी गम्भीर बीमारियों का जन्म होता है। २. इन्फैक्टेड मांस व बगैर धुली सब्जियाँ खाने से एपीलेटसी अर्थात् मिर्गी होती है। ३. अण्डा, मांस आदि खाने से पेचिस , मन्दाग्नि आदि बीमारियों घर कर जाती है, आमाश्य कमजोर हो जाता है, व आंते नष्ट होती है और शरीर साधारण सी बीमारी का मुकाबला नहीं कर पाता, बुद्धि व स्मरण शक्ति कमजोर पड़ती है, विकास मन्द हो जाता है। कुछ अमेरिकी व इँग्लैंड के डाक्टरों ने तो अण्डे को मनुष्य के लिए जहर कहा है। ४. मनुष्य आवश्कता से अधिक प्रोटीन नहीं खा पाता, जबकि मांसाहार से आवश्यकता से अधिक प्रोटीन खाया जाता है, जिससे गुर्दे खराब हो जाते है। अपैण्डिसाइटिस , आँतों और मलद्वार का कैंसर , त्वचा के रोग, संधिवात रोग, गठिया और अन्य वायु रोग तथा कैंसर जैसे जानलेवा रोग आदि शाकाहारियों की अपेक्षा मांसाहारियों में अधिक पाए जाते हैं। मांसाहार से मस्तिष्क की सहनशीलता व शिथिलता का ह्रास होता है, वासना व उत्तेजना बढ़ाने वाली प्रवृत्ति पनपती है, व्रूरता व निर्दयता बढ़ती है। जब किसी बालक को शुरू से ही मांसाहार कराया जाता है तो वह अपने स्वार्थ के लिए दूसरे जीवों का मांस खाना, उन्हें पीड़ा देना, मारना आदि कार्यों को इतने सहज भाव से ग्रहण कर लेता है कि उसे किसी की हत्या करने, व्रूरता व हिंसक कार्य करने में कुछ गलत महसूस ही नहीं होता। अहिंसा , दया, परोपकार आदि की भावना तो उसमें पनप ही नहीं पाती। उसमें केवल स्वार्थ लाभ की भावना पनपती है। मांसाहार द्बारा कोमल सद्भावनाओं का नष्ट होना व स्वार्थ , विर्दयता आदि भावनाओं का पनपना ही विश्व में बढ़ती हुई हिंसा , घृणा और दुष्कर्मों का मुख्य कारण है शाकाहार या मांसाहार ? फैसला आप स्वयं करें (श्रीमती रचना जैन का लेख)।
इस लोक में मधु का कण भी प्राय: मधुमक्खियों की हिंसा रूप ही होता है, अत: जो मूढ़ बुद्धि पुरूष मधु को खाता है, वह अत्यन्त हिंसक है। जो पुरूष मधु के छत्ते से स्वयमेव गिरी हुई मधु को ग्रहण करता है अथवा धुआँ आदि करके उन मधु—मक्खियों को उड़ाकर छल से मधु को निकालता है, उसमें भी मधु—छत्ते के भीतर रहने वाले छोटे—छोटे जीवों के घात से हिंसा होती ही है रत्नकरण्ड श्रावकाचार— ५।६९—७०।अत: मधु भी भक्षण करने योग्य नहीं है।सर्वप्रकार से जीवदया की सिद्धि के लिए गाढ़े वस्त्र से सदा जल के गालने को जिनेश्वरदेव ने सज्जनों को पुण्य का कारण कहा है। जैसा कि कहा है—छत्तीस अंगुल प्रमाण लम्बे और चौबीस अंगुल चौड़े वस्त्र को दुगना करके उससे जल को छानना चाहिए । श्रीमज्जैन मत में दक्ष, जीवदया में तत्पर ज्ञानियों को जल के गालने में कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए। जो पुरुष यहाँ वस्त्र गालित जल को पीते हैं, वे ज्ञानी भव्य हैं। अन्यथा प्रवृत्ति करने वाले पशुओं के समान हैं और पाप का उपार्जन करने से हीन हृदय वाले हैं। अच्छे प्रकार से गला गया जल भी एक मुहुर्त के पश्चात् सम्मूच्र्छन जीवों को उत्पन्न करता है; प्रासुक किया हुआ जल दो प्रहरों के पश्चात् और खूब उष्ण किया हुआ जल आठ सुगन्धित सार वाली वस्तुओं से तथा कषायले हरड़, आँवला आदि द्रव्यों से जल प्रासुक किया जाता है। मनुस्मृति में कहा है— दृष्टि से पवित्र होकर कदम रखे, वस्त्र से पवित्र (छाना हुआ) जल पिए, सत्य से पवित्र वचन बोले और मन से पवित्र आचरण करे। जिस जलाशय से जल लाया गया है, उसे सुप्रयत्न से गालकर उस जीव संयुक्त जल को ज्ञानीजन सावधानी के साथ वहीं पर छोड़ते हैं
ब्रह्मनेमिदत्त: धर्मोपदेशपीयूषवर्षश्रावकाचार— ४। ८७—९३।
आचार्य शिवकोटि ने आचार्य समन्तभद्र प्रतिपादित आठ मूलगुणों का उल्लेख कर कहा है कि पञ्च उदुम्बरों के साथ तीन मकार का त्याग तो बालकों और मूर्खों में देखा जाता है। इसका अभिप्राय है कि यथार्थ मूलगुण तो पंच अणुव्रतों के साथ मद्य, मांस और मधु के त्याग रूप ही है श्रावकाचार संग्रह, भाग ४, प्रस्तावना पृ.१९।
