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मानव जीवन रक्षक अष्टमूल गुण

July 20, 2017रत्नकरण्ड श्रावकाचारHarsh Jain

मानव जीवन रक्षक अष्टमूल गुण


मूलगुणों के विषय में आचार्यों ने भिन्न—भिन्न रूप से वर्णन किया है। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार—
मद्यमांसमधुत्यागै: सहाणुव्रत पञ्चकम् ।
अष्टौ मूलगुणानाहुर्गृहिणां श्रमणोत्तभा:।।
रत्नकरण्ड श्रावकाचार—६६
मद्य , मांस और मधु का त्याग और पाँच अणुव्रत पालन करने को श्रमणोत्तमों ने गृहस्थों के आठ मूलगुण कहा है। आचार्य सोमदेव ने कहा है—
मद्य, मांस, मधु त्यागै: सहोदुम्बर पञ्चकै:।
अष्टौ एते गृहस्थानामुक्ता मूलगुणा: श्रुते।।
उपासकाध्ययन—२५५
पाँच उदुम्बर फल के साथ मद्य , मांस , मधु का त्याग करना गृहस्थों के अष्ट मूलगुण कहे गये हैं। आचार्य जिनसेन के अनुसार—
हिंसासत्यस्तेसाद्ब्रह्मपरिग्रहाच्च बादरभेदात् ।
द्यूतान्मांसान्मद्या द्विरतिर्गृहिणोऽष्ट सन्त्यमी मूलगुणा:।।
हिंसा, असत्य, स्तेय, अब्रह्म और परिग्रह का स्थूल रूप से त्याग तथा जुआ खेलना , मांस खाना और मद्यपान करने से विरति , ये गृहस्थ के आठ मूलगुण हैं। पण्डितप्रवर आशाधर जी ने सागार धर्मामृत में उपर्युक्त सभी का समाहार किया है, इसके साथ ही मूलगुणों का एक अन्य प्रकार से उल्लेख किया है—
मद्यपलमधुनिशासनपंचफलीविरतिपञ्चकाप्तनुती।
जीवदयाजलगालनमिति च क्वचिदष्टमूलगुणा:।।२।१८ (सा.ध.)
मद्य , मांस, मधु का त्याग, रात्रि भोजन का त्याग , पंचोदुम्बर फलों का त्याग, आप्त की वन्दना, जीवदया और जल छानकर पीना; ये कहीं कहीं आठ मूलगुण कहे हैं।

मद्यत्याग

मदिरापान करने वाले के हित —अहित का कुछ विचार नहीं रहता , क्या कहना चाहिए, क्या नहीं? आदि किसी प्रकार का विवेक नहीं रहता है। मद्यसेवी मनुष्य की स्मरण शक्ति नष्ट हो जाती है, और जिसकी स्मरण शक्ति नष्ट हो जाती है, वह कौन सा पापकार्य नहीं करता ? कौन से दुर्वचन नहीं बोलता और किस कुमार्ग पर नहीं जाता है ? कहने का तात्पर्य यह है कि वह सभी दोषों का स्थान बन जाता है। इसका एक कथानक इस प्रकार है— कोई गुणी ब्राह्मण गंगास्नान के लिए जा रहा था। किसी अटवी प्रदेश में मदिरा के मद से उन्मत्त, किसी हँसी मजाक करने वाले स्त्रीसहित भील ने उसे रोककर कहा कि मांसभक्षण, मद्यपान और भीलनी के साथ संसर्ग इन तीनों में से कोई एक कार्य आप अंगीकार करें, अन्यथा मैं आपको मार डालूँगा। ऐसा कहने पर वह ब्राह्मण किंकत्र्तव्यविमूढ़ हो गया और विचारने लगा कि प्राणी का अंग होने से मांस भक्षण करने पर तो पाप लगेगा, भीलनी के साथ संसर्ग करने पर मेरी जाति का नाश हो जाएगा। अतएव अन्न की पीठी, जल, गुड़, घातकी के फूल आदि से उत्पन्न हुआ यह मद्य निर्दोष है, अत: इस मद्य को मैं पी लेता हूँ। इस प्रकार विचार कर उसने मद्य पीना स्वीकार किया और पी करके स्मरण शक्तिनष्ट हो जाने से उसने अगभ्यागमन भी किया अर्थात् भीलनी के साथ संसर्ग भी किया और मांसभक्षण भी किया। और भी देखो—मद्य पीने वाले यादवों के अपराध से द्वीपायन मुनि के कोप द्वारा द्वारिका के भस्म होने पर सब यादव भी नष्ट हो गए। मद्य से उत्पन्न पुरुष सब जीवों को मारता है, असत्य प्रलाप करता है और विवेकशून्य हो जाने से अपनी माता के साथ भी कामसेवन करना चाहता है। अतएव मद्य सेवन सर्व पापकार्यों से भरा हुआ है चारित्रसार, पृ.२५४—२५५ (श्रावकाचार संग्रह भाग—१)। मद्यपान के अन्तर्गत सभी प्रकार के मादक पदार्थों का सेवन आता है। मादक पदार्थ न केवल शरीर और स्वास्थ्य के लिए घातक हैं, बल्कि इनके प्रयोग से मानव मस्तिष्क में भी विकृति आ जाती है, इससे व्यक्ति की जिन्दगी बरबाद हो जाती हैं। नशीली दवायें इस्तेमाल करने वाला व्यक्ति कभी भी नैतिक नहीं रहता है, वह अनैतिकता का शिकार हो जाता है; क्योंकि जरा सी नशीली वस्तु या दवा दोनों के लिए वह कोई भी अपराध सहज कर गुजरता है। एक अनुमान के अनुसार दुनिया में अरबों लोग इन नशीली दवाओं का प्रयोग करते हैं। इन नशीले पदार्थों में मुख्य हैं— हेरोइन या अफीम से बने अन्य कई पदार्थ या औषधियाँ। कोकीन, हशीश और मारिजुआना आदि अफीम के ही परिष्कृत रूप हैं। कुछ अरब लोग एल.एस.डी. इस्तेमाल करते हैं। सम्प्रति अमेरिका में सर्वाधिक नशीली दवाओं के लती लोग हैं। अमेरिका के प्रति बीस में से एक व्यक्ति इन बुरे व्यसनों का शिकार है और इनमें से प्रतिवर्ष १ हजार लती मौत का शिकार होते हैं क्योंकि नशीली दवाओं के सहारे जीने वाले व्यक्ति का जीवन बहुत ही कम हो जाता है। हेरोइन मुख्यतया पश्चिम यूरोप में लोकप्रिय है। ‘‘कमीशन ऑफ यूरोपियन कम्युनिटीज’’ के विशेषज्ञों के अनुमान के अनुसार पश्चिम यूरोप के मुख्य बाजारों में कम से कम दो लाख लोग तो सिर्फ हेरोइन आदि नशीले पदार्थों की खरीद फरोख्त करते हैं। नशीली दवाओं का शिकार होकर पूर्वी जर्मनी में प्रतिवर्ष चार सौ, इटली में तीन सौ, स्वीडन में २५० और प्रस , डेनमार्क तथा स्वीजरलैंड प्रत्येक में सौ लोग अकाल मौत मर जाते हैं। अनुमान के बतौर विशेषकर युवकों में नशीली दवाओं की लत ज्यादा है क्योंकि मृतकों में अधिकांश युवक ही होते हैं। निराशा, कुंठा, अभावों और विफलताओं से तंग आकर युवक इन बुराईयों की ओर आकर्षित हो जाते हैं। अधिकतर देखा गया है कि बेरोजगारी के शिकार युवक बार—बार के प्रयासों में विफलता से हताश होकर अपने जीवन को ही बेकार मान बैठते हैं और तब नशीली दवाओं में उन्हें जीवन का कपटपूर्ण आनन्द महसूस होने लगता है। नशीली दवाओं का आदि व्यक्ति भी प्रकृति का हो जाता है और तमाम जिम्मेदारियों से भी कतराने की कोशिश करने लगता है। कुल मिलाकर नशीली दवाओं का शिकार व्यक्ति सामाजिक क्षेत्र में न्याय के लिए संघर्ष की प्रवृत्ति शक्ति को खो बैठता है। पश्चिमी देशों में नशीली दवाओं और अन्य मादक पदार्थों की बिक्री और उपयोग प्रतिबंधित हैं, लेकिन इसे औपचारिकता मात्र ही कहा जाना चाहिए; क्योंकि कोई भी पश्चिमी क्षेत्र ऐसा नहीं है जहाँ हेरोइन, कोकीन, मारिजुआना, हशीश और अफीम से बने अन्यान्य नशीले पदार्थ और औषधियों की भरमार नहीं है। पुलिस और अन्य व्याधियों से बचने के लिए मादक पदार्थ बेचने वाले छोटे बच्चों और किशोरों से मदद लेते हैं। नशीली चीजों के वितरण के लिए ये बच्चे विव्रेता और व्रेता के बीच सम्पर्क सूत्र बन जाते हैं। नियमित ग्राहकों के पास हेरोइन पाउडर आदि ये बच्चे ही ले जाते हैं, लेकिन मालिकों की ओर से इन्हें सख्त निर्देश होता है कि राह में यदि कहीं पुलिस रोके तो पास के पाउडर को निगल जॉय मद्यनिषेध (मासिक), पृ. १,२,३ वर्ष ८ मार्च १९८६। मद्यपान के दोषों के विषयों में आचार्य अमितगति का कहना है कि मद्य पीने वाले की बुद्धि इस प्रकार भाग जाती है, जैसे कि अभागी स्त्री उसे दूर से छोड़कर भाग जाती है। उसकी निन्दा उत्तरोत्तर बढ़ती है, जैसे कि गुरु के वचन न मानने वाले के क्लेश वृद्धि को प्राप्त होता है। मद्यपान के विह्वल चित्त हुआ पुरूष अपनी स्त्री के साथ माता के समान आचरण करता है और माता के साथ स्त्री के समान आचरण करता है। इसी प्रकार राजा के साथ किंकर के समान आचरण करता है और किंकर के साथ राजा के समान आचरण करता है। मद्यपायी पुरूष की सभी मनुष्य सब ओर से हँसी करते हैं, चोर उसके वस्त्र चुरा लेते हैं और कुत्ते छेद समझकर भूमि पर पड़े हुए उसके मुख में मूत देते है। मदिरापान करने वाला पुरूष शीघ्र ही मूच्र्छित हो जाता है, डरता है, काँपता है, चिल्लाता है, रोता है, वमन करता है, खेदखिन्न होता है, गिरता है, सर्व दिशाओं में देखता है, पुन: रोने लगता है, सोता है, अकड़ जाता है और अन्य लोगों से ईष्र्या करता है। इस निन्द्य मद्य के पीने से उस मदिरा में जो नाना प्रकार के सूक्ष्म शरीर वाले असंख्य रसांगी जीव उत्पन्न हैं, वे सब शीघ्र ही मरण को प्राप्त हो जाते हैं। मदिरा में आसक्तचित्त वाले पुरूष की कान्ति, बुद्धि, कीर्ति और सम्पत्ति आदि सभी विशेषतायें उसको छोड़कर वेग से इस प्रकार दूर चली जाती हैं, जिस प्रकार से कि अन्य स्त्री में आसक्त अपने पति को देखकर उसकी विवाहिता स्त्री उसे छोड़कर चली जाती है। मद्यपान से मोहित बुद्धि वाला शराबी कभी गाता है, कभी मूच्र्छित हो भ्रमयुक्त होता है, कभी गद्गद वचन बोलता है, कभी रोता है, कभी इधर—उधर दौड़ता है, कभी किसी को मारता है, कभी हर्षित होता है और कभी विषाद को प्राप्त होता है, किन्तु अपने हित को नहीं जानता है। सुरापान में रत पुरूष कभी प्राणियों को सताता है, कभी निन्दित वचन बोलता है, कभी पराए धन को चुराता है और कभी वह नष्ट बुद्धि परायी स्त्री को भोगने लगता है। मदिरा से मोहित हुआ मनुष्य कभी नाना प्रकार की चेष्टायें करता हुआ नाचता है, कभी प्रत्येक मनुष्य को नमस्कार करने लगता है, कभी गर्दभ के समान भूमि पर लोटने लगता है और उसी के समान रेंकने लगता है। मदिरापान की लालसायुक्त बुद्धि से जो मनुष्य धर्म और संयम पालन का विचार करते हैं, वे मनुष्य मेरु पर्वत के मस्तक पर बैठकर अपने चरणों से भूतल का मानो स्पर्श करना चाहते हैं।अमितगति श्रावकाचार ५।२—११

मांस त्याग :

मांस भक्षण में आसक्तचित्त वाला जो अधम मनुष्य करूणा को करना चाहता है, वह निश्चित से वङ्कााग्नि से सन्तप्त भूतल पर लता को विस्तारना चाहता है। अत: जगत्त्रय में प्राणिघात के बिना मांस उत्पन्न नहीं होता है, अत: मांस के खाने वाले पुरूष के द्वारा काटे गए धर्मरूप वृक्ष की मूलभूत दया ही शीघ्र खोद डाली गई समझना चाहिए। शुद्ध दया के बिना जीव के पुण्य का संचय निश्चय से कभी नहीं हो सकता है। जगत् में मैने हरी—भरी लता के बिना पुष्पों का संचय कहीं नहीं देखा है। जो दुष्ट चित्त पुरूष अपने शरीर के बल को पुष्ट करने की इच्छा से मांस को खाते हैं, वे नियम से अन्य प्राणियों का घात करते हैं ; क्योंकि खाने वाले के बिना घातक कसायी जीवघात नहीं करता अर्थात् कसाई मांस भक्षकों के लिए ही जीवघात करता है। जो जीवघात करता है, मांस खाता है, उसे बेचता है, उसके खाने की अनुमोदना करता है, खाने का उपदेश देता है और मांस पकाता है, ये छहों ही पापी निश्चय से दुर्गति को जाते हैं; क्योंकि पापियों की परलोक में अन्यत्र स्थिति हो नहीं सकती है। जो मनुष्य कृमि कुल से व्याप्त और पीब, रक्त, चर्बी आदि से मिश्रित मांस को खाता है, शुद्ध बुद्धि वाले पुरूष उसमें और कुत्ते में कुछ भी अन्तर नहीं देखते हैं। मांस खाने में तत्पर पुरूष के कारण सर्वथा ही नहीं होती है और करूणा के बिना वह पाप का ही उपार्जन करता है, जिसके फल से वह भवसागर में ही परिभ्रमण करता रहता है। जो इन्द्रियों के वशीभूत हुए मनुष्य यह कहते हैं कि मांस खाने में कोई दोष नहीं है, उन निकृष्ट चित्त पुरूषों ने व्याघ्र, भील और धीवरों को अपना गुरू बना लिया है। यदि मांस भक्षण में आसक्तचित्त पुरूष उत्तम और पूज्य माने जावें तो विष्टा समूह से देह के पुष्ट करने वाले सूकर कैसे अति पूज्य न माने जावें ? जो बुद्धिरहित पुरूष सप्तधातुमय देह से उत्पन्न होने वाले मांस को खाते हैं, और फिर भी अपने आपको पवित्र कहते हैं, उससे अधिक और क्या विडम्बना हो सकती है ? जो पाप पुञ्ज का संचय करने वाले मांस को खाते हैं, वे अतिप्रचण्ड सांसारिक दु:खों को प्राप्त होते हैं। जो अति दुर्जय विष को पीते हैं , वे यदि मरण को प्राप्त होते हैं तो इसमें क्या आश्चर्य है ? जो लोग नाना प्रकार के दु:ख को देने वाले मांस को और अनेक प्रकार के सुख देने वाले अन्नाहार को समान कहते हैं वे मृत्यु देने वाले विष को और जीवन बढ़ाने वाले अमृत को समान कहते हैं। देहधारियों के मांस का भक्षण दोनों लोकों में दु:खों का देने वाला है और दूषण रहित अन्न के आहार का भक्षण दोनों लोकों में सुख देने वाला है। इस प्रकार से अतिदोषयुक्त मांस को जान करके अपने हित के अन्वेषक जन मन, वचन, काय से उसका त्याग करते हैं ; क्योंकि जानकार लोग तीव्रदृष्टि विषधारी सर्पों से व्याप्त मकान में निवास नहीं करते हैं।अमितगति श्रावकाचार ५।१३— २६ यदि स्वास्थ्य की दृष्टि से देखा जाय तो आज विश्व के हर कोने से वैज्ञानिक व डाक्टर यह चेतावनी दे रहे हैं कि मांसाहार कैंसर आदि असाध्य रोगों को निमन्त्रण देकर आयु क्षीण करता है और शाकाहार अधिक पौष्टिकता व रोगों से लड़ने की क्षमता प्रदान करता है। वैसे भी पशुओं को मारने से पूर्व उनके शरीर में पल रहे रोगों की उचित जाँच नहीं की जाती और उनके शरीर में पल रहे रोग मांस खाने वाले शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। जिस त्रास और यंत्रणा पूर्ण वातावरण में इनकी हत्या की जाती है, उस वातावरण में उत्पन्न हुआ तनाव, भय, छटपटाहट, क्रोध आदि पशुओं के मांस को जहरीला बना देता है। वह जहरीला रोगग्रस्त मांस मांसाहारी के उदर में जाकर उसे असाध्य रोगों का शिकार बनता है और मानों दम तोड़ते हुए पशु का यह प्रण पूरा करता है कि जैसे तुम मुझे खाओगे, मैं तुम्हें खाउँगा। माँसाहार से अनेक असाध्य बीमारियों का जन्म होता है। जैसे— १. रक्तवाहिनियों की भीतरी दीवारों पर कोलस्टेरोल की तहों के जमने से हृदय रोग व उच्च रक्तचाप जैसी गम्भीर बीमारियों का जन्म होता है। २. इन्फैक्टेड मांस व बगैर धुली सब्जियाँ खाने से एपीलेटसी अर्थात् मिर्गी होती है। ३. अण्डा, मांस आदि खाने से पेचिस , मन्दाग्नि आदि बीमारियों घर कर जाती है, आमाश्य कमजोर हो जाता है, व आंते नष्ट होती है और शरीर साधारण सी बीमारी का मुकाबला नहीं कर पाता, बुद्धि व स्मरण शक्ति कमजोर पड़ती है, विकास मन्द हो जाता है। कुछ अमेरिकी व इँग्लैंड के डाक्टरों ने तो अण्डे को मनुष्य के लिए जहर कहा है। ४. मनुष्य आवश्कता से अधिक प्रोटीन नहीं खा पाता, जबकि मांसाहार से आवश्यकता से अधिक प्रोटीन खाया जाता है, जिससे गुर्दे खराब हो जाते है। अपैण्डिसाइटिस , आँतों और मलद्वार का कैंसर , त्वचा के रोग, संधिवात रोग, गठिया और अन्य वायु रोग तथा कैंसर जैसे जानलेवा रोग आदि शाकाहारियों की अपेक्षा मांसाहारियों में अधिक पाए जाते हैं। मांसाहार से मस्तिष्क की सहनशीलता व शिथिलता का ह्रास होता है, वासना व उत्तेजना बढ़ाने वाली प्रवृत्ति पनपती है, व्रूरता व निर्दयता बढ़ती है। जब किसी बालक को शुरू से ही मांसाहार कराया जाता है तो वह अपने स्वार्थ के लिए दूसरे जीवों का मांस खाना, उन्हें पीड़ा देना, मारना आदि कार्यों को इतने सहज भाव से ग्रहण कर लेता है कि उसे किसी की हत्या करने, व्रूरता व हिंसक कार्य करने में कुछ गलत महसूस ही नहीं होता। अहिंसा , दया, परोपकार आदि की भावना तो उसमें पनप ही नहीं पाती। उसमें केवल स्वार्थ लाभ की भावना पनपती है। मांसाहार द्बारा कोमल सद्भावनाओं का नष्ट होना व स्वार्थ , विर्दयता आदि भावनाओं का पनपना ही विश्व में बढ़ती हुई हिंसा , घृणा और दुष्कर्मों का मुख्य कारण है शाकाहार या मांसाहार ? फैसला आप स्वयं करें (श्रीमती रचना जैन का लेख)।

मधुत्याग

इस लोक में मधु का कण भी प्राय: मधुमक्खियों की हिंसा रूप ही होता है, अत: जो मूढ़ बुद्धि पुरूष मधु को खाता है, वह अत्यन्त हिंसक है। जो पुरूष मधु के छत्ते से स्वयमेव गिरी हुई मधु को ग्रहण करता है अथवा धुआँ आदि करके उन मधु—मक्खियों को उड़ाकर छल से मधु को निकालता है, उसमें भी मधु—छत्ते के भीतर रहने वाले छोटे—छोटे जीवों के घात से हिंसा होती ही है रत्नकरण्ड श्रावकाचार— ५।६९—७०।अत: मधु भी भक्षण करने योग्य नहीं है।

पञ्च अणुव्रत

स्थूल प्राणघात से, स्थूल असत्य भाषण से, स्थूल चोरी से, स्थूल कामसेवन से और स्थूल ममता—भाव रूप मूच्र्छा से विरक्त होना अर्थात् स्थूल पापों का त्याग करना अणुव्रत कहलाता है रत्नकरण्ड श्रावकाचार— ५२।

अहिंसाणुव्रत का स्वरूप

मन, वचन, काय इन तीनों योगों के संकल्प से, कृत, कारित और अनुमोदना से जो त्रस जीवों को नहीं मारता है, उसे धर्म में निपुण ज्ञानियों ने स्थूल हिंसा से विरमण रूप अहिंसाणुव्रत कहा है। इस अहिंसाणुव्रत के पाँच अतीचार हैं— पशु—पक्षी आदि जीवों के अंगों का छेद करना, रस्सी आदि से बाँधना, दण्ड आदि से पीड़ा देना, शक्ति से अधिक भार लादना और उनके आहार (खान—पान) का रोक देना ऐसे कार्य करने से अहिंसाणुव्रत में दोष लगता है वही, ५३—५४।

सत्याणुव्रत का स्वरूप

जो लोक विरूद्ध, राज्य विरूद्ध एवं धर्मघातक ऐसी स्थूल झूठ न तो स्वयं बोलता है और न दूसरों से बुलवाता है तथा दूसरे की विपत्ति के लिए कारणभूत सत्य को न स्वयं कहता है और न दूसरों से कहलवाता है, उसे सन्तजन स्थूल मृषावाद विरमण अर्थात् सत्याणुव्रत कहते हैं। इस सत्याणुव्रत के पाँच अतीचार हैं— दूसरे की निन्दा करना, दूसरे की एकान्त या गुप्ता बात को प्रकट करना, चुगली करना, नकली दस्तावेज आदि लिखना और दूसरे की धरोहर अपहरण करने वाले वचन बोलना रत्नकरण्ड श्रावकाचार— ५७—५८।

अचौर्याणुव्रत का स्वरूप

दूसरे की रखी हुई , गिरी हुई , भूली हुई वस्तु को और बिना दिए धन को जो न तो स्वयं लेता है और न उठाकर दूसरे को देता है, उसे स्थूल चोरी से विरक्त होने रूप अचौर्याणुव्रत कहते हैं। इस अणुव्रत के भी पाँच अतीचार हैं— किसी को चोरी के लिए भेजना, चोरी की वस्तु को लेना, राज्य नियमों का उल्लंघन करना, बहुमूल्य वस्तु में समान रूप वाली अल्प मूल्य की वस्तु मिलाकर बेचना और देने के लिए कम और लेने के लिए अधिक नाम—तौल करना वही, ५९—६०।

ब्रह्मचर्याणुव्रत का स्वरूप

जो पाप के भय से पराई स्त्रियों के पास न तो स्वयं जाता है और न दूसरों को भेजता है, वह परदारनिवृत्ति अथवा स्वदार सन्तोष नाम का ब्रह्मचर्याणुव्रत है। इस ब्रह्मचर्याणुव्रत के पाँच अतीचार हैं— दूसरों का विवाह कराना, कामसेवन के अंगों के सिवाय अन्य अङ्गों से कामसेवन करना, अश्लील वचन या कामोत्तेजक वचन कहना, कामसेवन की अधिक तृष्णा रखना और व्यभिचारिणी स्त्रियों के यहाँ गमन करना।

परिग्रह परिमाणाणुव्रत का स्वरूप

धन, धान्य आदि परिग्रह का परिमाण करके अधिक में नि:स्पृह रहना परिमित परिग्रहव्रत है, इसी का दूसरा नाम इच्छा परिमाणव्रत भी है। इस व्रत के भी पाँच अतिचार है— आवश्यकता से अधिक वाहनो को रखना, अधिक वस्तुओं का संग्रह करना, दूसरों के लाभादिक को देखकर आश्चर्य करना, अधिक लोभ करना और घोड़े आदि को उनकी शक्ति से अधिक जोतना, लादना, उन पर अधिक बोझ ढोना ११।

अणुव्रतों का माहात्म्य

उपर्युक्त अतीचारों से रहित होकर धारण की गई पाँच अणुव्रत रूप निधियाँ देवलोक को फलती हैं, जहाँ पर कि अवधिज्ञान, अणिमादि आठ ऋद्धियाँ और दिव्य शरीर प्राप्त होता है। अणुव्रत के धारण करने वालों में अहिंसाणुव्रत में मातंग चाण्डाल, सत्याणुव्रत में धनदेव सेठ, अचौर्याणुव्रत में वारिषेण राजकुमार, ब्रह्मचर्याणुव्रत में नीलीबाई और परिग्रह परिमाणाणुव्रत में जयकुमार उत्तम पूजा के अतिशय को प्राप्त हुए हैवही, ६१—६२।

पञ्च उदुम्बर फलों का त्याग

विवेकी पुरूषों को उदुम्बर फलों का त्याग भी कर देना चाहिए, क्योंकि ये भी अनेक सूक्ष्म जन्तुओं से भरे रहते हैं, इसलिए इनके सेवन से नरकादिक के अनेक दु:ख प्राप्त होते हैं। जो मुर्ख दुर्भिक्ष आदि पड़ने पर भी अनेक कीड़ों से भरे हुए इन फलों को खाता है, वह अनेक जीव राशि का नाश कर देने के कारण नरक व तिर्यञ्चगति में ही जन्म लेता है। इसलिए प्राणों का त्याग कर देना अच्छा परन्तु भारी से भारी दरिद्रता पड़ने पर भी असंख्यात जीवों से भरे हुए पाँचों उदुम्बरों का सेवन करना अच्छा नहीं। तू धर्म की प्राप्ति के लिए इन बड़, पीपल,पाकर ऊभर (गुलर), कठूमर (अंजीर), पाँच उदुम्बर फलों का त्याग कर, क्योंकि मांस के समान इन्हें भील आदि कुजन ही सेवन करते हैं। पाँच उदुम्बरों का सेवन करना नरक में ले जाने का कारण है, दु:ख और दरिद्रता को उत्पन्न करने वाला है और सर्वोत्तम मोक्ष सुख का शत्रु है। ये पाँचों फल अनेक सूक्ष्म जीवों से भरे रहते हैं और नीच लोगों के द्वारा ही सेवन किए जाते हैं। इसके सिवाय ये पाप की जड़ हैं। धर्म की प्राप्ति के लिए तू इनका भी त्याग कर भट्टारक सकलकीर्ति : प्रश्नोत्तर श्रावकाचार— १२।२३—२७।

मूलगुण नाम का कारण

भट्टारक सकलकीर्ति ने मद्य , मांस, मधु का त्याग और पाँच उदुम्बर फलों का त्याग; इन्हें आठ १३ मूलगुण मानते हुए कहा है कि ये आठों मूलगुण बारह व्रतों के मूल कारण हैं और बारह व्रतों के पहले धारण किए जाते हैं तथा स्वर्गादिक सुख के देने वाले हैं, इसलिए जिनेन्द्र भगवान् इनको मूलगुण कहते हैं वही, १२ । ७।

द्यूत क्रीड़ा का त्याग

जुआ खेलना, मांस खाना, मद्यपान करना, वेश्यासेवन करना, शिकार खेलना, चोरी करना और परस्त्री सेवन करना, ये सात व्यसन कहलाते हैं। ये सातों व्यसन पाप की जड़ हैं। जो दुष्ट मनुष्य इस संसार में जुआ खेलते हैं, वे संसार में अपनी अपकीर्ति फैलाते हैं, उनके द्रव्य का नाश होता है और अन्त में नरक में पड़ते हैं। सातों व्यसन इस जुआ खेलने से ही उत्पन्न होते हैं, इसलिए जो जुआ खेलता है, उसे समस्त व्यसनों के सेवन का फल प्राप्त होता है। जिस जुआ के खेलने से राजा युधिष्ठिर जैसे नष्ट हो गए, फिर भला जुआ खेलने वाले अन्य साधारण लोग किस प्रकार दु:खी नहीं हो सकते ? अर्थात् अवश्य होते हैं। जुआ खेलने वाले को जो पाप लगता है तथा भव—भव में जो वध, बंधन आदि के दु:ख भोगने पड़ते हैं, उन्हें कौन कह सकता है ? अर्थात् वे पाप और दु:ख किसी से कहे भी नहीं जा सकते । यह जुआ खेलना पापों के वन को बढ़ाने लिए मेघ की धारा के समान है दु:ख और दरिद्रता का मुख्य कारण है, नरक रूपी घर में ले जाने वाला है, मोक्षमहल के लिए किवाड़ जुड़ा देने वाला है, समस्त व्यसनों का मूल कारण है और सदाकाल अपकीर्ति का कारण है। अत: धर्म प्राप्त करने के लिए कुगति में डालने वाले इस जुआ का त्याग करो प्रश्नोत्तर श्रावकाचार, १२ । ३३—३८।

रात्रिभोजन त्याग

जिस रात्रि में अन्धकार के पूरे प्रसार होने पर अन्न में प्रचुरता से गिरते हुए प्राणी नहीं दिखाई देते हैं , इसलिए रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिए । रात्रि में अन्धकार के कारण नहीं दिखने से यदि मक्खी खाने में आ जाय तो वह तत्काल वमन कराती है, विसम्भरी कसारी खाने में आ जाय तो वह कोढ़ जैसी व्याधि को करती है, चींटी यदि खाने में आ जाय तो बुद्धि को भ्रष्ट कर देती है। भोजन में दाँत का टुकड़ा, पाषाणखण्ड और गोबर आ जाय तो घृणा उत्पन्न होती है तथा भोज्य वस्तु में गिरी हुई यूका (जूँ) यदि खाने में आ जाय तो जलोदर रोग को उत्पन्न करती हैं। भोजन में खाया गया केश स्वर भंग को, काँटा कण्ठ पीड़ा को और बिच्छू तालु—भंग को करता है। इनके अतिरिक्त रात्रि में भोजन करने से और भी अनेक वचन के अगोचर दोष उत्पन्न होते हैं, अतएव सज्जनों को ऐसे पापकारक रात्रि भोजन का त्याग करना चाहिए। जो बुद्धिमान लोग रात्रि में सदा ही सर्वप्रकार के आहार का त्याग करते हैं, उन्हें एक मास में एक पक्ष (१५ दिन) के उपवास का फल प्राप्त होता है। जो बुद्धि—विचार हीन लोग इस संसार में रात दिन खाते रहते हैं, वे सींग और पूँछ से रहित पशु कैसे न माने जाँय अर्थात् उन्हें पशु ही समझना चाहिए। जो गृहस्थ दिन के प्रारम्भ और अन्त में दो घड़ी समय छोडकर आहार करते हैं, वे ही अनस्तभित (रात्रिभोजन त्याग) व्रत का भली भाँति पालन करते हैं उमास्वामि श्रावकाचार, ३२०—३२६।

आप्त की वन्दना

जो सर्वज्ञ है, समस्त लोक का स्वामी है, सब दोषों से रहित है और सब जीवों का हितैषी है, उसे आप्त कहते हैं। चूंकि यदि अज्ञ मनुष्य उपदेश दे तो उससे ठगाए जाने की शंका रहती है, इसलिए मनुष्य उपदेश के लिए ज्ञानी पुरुष की ही खोज करते हैं, क्योंकि उसके द्वारा कही गई बातों पर विश्वास करने के लिए किसी ज्ञानी को ही खोजा जाता है। जो तत्वों का उपदेश देकर दु:खों के समुद्र से जगत् का उद्धार करता है, अतएव कृतज्ञतावश तीनों लोक जिसके चरणों में नत हो जाते हैं, वह सर्वलोक का स्वामी क्यों नहीं है ? भूख,प्यास, भय, द्वेष, चिन्ता, मोह, राग, बुढ़ापा, रोग, मृत्यु, क्रोध, खेद, मद, रति, आश्चर्य, जन्म, निद्रा और विषाद; ये अट्ठारह दोष संसार के सभी प्राणियों में पाए जाते हैं। जो इन दोषों से रहित है, वही आप्त है। उसकी आँखें केवल ज्ञान हैं, उसी के द्वारा वह चराचर विश्व को जानता है तथा वही सदुपदेश का दाता है । वह जो कुछ कहता है; क्योंकि राग से, द्वेष से या मोह से झूठ बोला जाता है, किन्तु जिसमें ये तीनों दोष नहीं हैं, उसके झूठ बोलने का कोई कारण नहीं है। विविध प्रकार के प्राणियों की आकृति समान होती हैं, किन्तु उनमें से जिसका आत्मा दर्पण के समान स्वच्छ हो, वही जगत् का स्वामी है। जिसकी आत्मा में , श्रुति में, तत्व में और मुक्ति के कारणभूत चारित्र में एक वाक्यता पायी जाती है अर्थात् जो जैसा कहता है, वैसा ही स्वयं आचरण करता है और वैसी ही तत्व व्यवस्था उपलब्ध होती है, उसे सत् पुरूष आप्त मानते हैं। परोक्ष भी पुरूष की विशिष्टता उसके द्वारा उपदिष्ट आगम से जानी जाती हैं, जैसे बगीचे में रहने वाले पक्षियों की आवाज से उनकी विश्ष्टिता का भान होता है, वैसे ही आप्त पुरूषों को बिना देखे भी उनके शास्त्रों से उनकी आप्तता का पता चल जाता है।
सुवर्ण और लोह की तरह मनुष्य अपने ही गुणों से प्रशंसा पाता है और अपने ही दोषों से बदनामी उठाता है। इसमें रोष और तोष करना अर्थात् अपने आप्त की प्रशंसा सुनकर हर्षित होना और निन्दा सुनकर व्रुद्ध होना व्यर्थ है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश, बुद्ध और सूर्यादि देव यदि रागादि दोषों से युक्त हैं तो वे आज कैसे हो सकते हैं ? वे रागादि दोषों से युक्त हैं, यह बात उनके शास्त्रों से ही जाननी चाहिए; क्योंकि जिसमें जो दोष नहीं है, उसमें उस दोष को मानने में बड़ा पाप है। ब्रह्मा तिलोत्तमा में आसक्त है, विष्णु लक्ष्मी में लीन है और महेश तो अद्र्धनारीश्वर प्रसिद्ध ही है। आश्चर्य है, फिर भी इन्हें आप्त माना जाता है। विष्णु के पिता वसुदेव थे, माता देवकी भी और वे स्वयं राजधर्म का पालन करते थे। आश्चर्य है, फिर भी वे देव माने जाते हैं। सोचने की बात है कि जिस विष्णु के उदर में तीनों लोक बसते हैं और जो सर्वव्यापी है, उसके जन्म और मृत्यु कैसे हो सकते हैं ? महेश को अशरीरी और सदाशिव मानते हैं और वह दोषों से युक्त भी हैं। ऐसी अवस्था में न तो वह प्रमाण माना जा सकता है और न वह उपदेश ही दे सकता है : क्योंकि वह दोषयुक्त है और शरीररहित है। तब उससे आगम की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? जब शिव पाँच मुखों से परस्पर में विरूद्ध शास्त्रों का उपदेश देता है तो उनमें से किसी एक अर्थ का निश्चय करना कैसे सम्भव हैसोमदेव : उपासकाध्ययन— ६।४९।—६६।नाम — स्थापना, द्रव्य और भाव; इन चार प्रकार की विधियों से उत्तम भावपूर्वक जिनेन्द्र देव का न्यास करके शुद्ध सम्यक्तवी श्रावकों को अपनी शक्ति के अनुसार जिनदेव की पूजा करना चाहिएउमास्वामि श्रावकाचार, १७। जो मनुष्य सामथ्र्य होने पर भी जिन भगवान् के न तो नित्य दर्शन ही करते हैं और न मुनिजनों को भक्ति से दान ही देते हैं, उन मनुष्यों का गृहस्थाश्रम पाषाण की नाव समान है। ऐसे गृहस्थाश्रम रूप पाषाण की नाव में बैठे हुए मनुष्य इस अतिविषम भवसागर में नियम से डूबते हैं और विनाश को प्राप्त होते हैं पद्मनन्दि पञ्चविंशतिका— देशव्रतोद्योतन— १८।

जीवदया

कषाय के उदय से जो कहीं पर भी प्राणियों के प्राणों का घात नहीं करना, यह विश्व का हितकारी अहिंसा नाम का व्रत है। संसार में अनेक अनिष्ट रोगों से ग्रस्त कोढी, पंगु आदि के फल को देखकर बुद्धिमान पुरूष को त्रस जीवों की हिंसा का भाव मन से भी कभी नहीं करना चाहिए। स्थायी मोक्षसुख की आकांक्षा करने वाले पुरूष को स्थावर जीवों की निरर्थक हिंसा नहीं करना चाहिए और हिंसा से पराड़् मुख रहना चाहिए। आरम्भ आदि कार्यों के वश होकर पाँच प्रकार के स्थावर जीवों का घात करता हुआ भी जो पुरूष द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय असंज्ञी पञ्चेन्द्रिय और संज्ञी पञ्चेन्द्रिय के पर्याप्त—अपर्याप्त रूप अथवा सूक्ष्म—स्थावर रूप दश प्रकार के त्रस जीवों की रक्षा करता है, वह बुद्धिमान विरताविरत (देशसंयम) का धारक होता है। तुम मर जाओ; ऐसा कहा गया भी प्राणी जब दु:खी होता है, तब दारूण शास्त्रों से मारा जाता हुआ वह कैसे अत्यन्त दु:खी नहीं होगा ? आवश्यक ही होगा। इस भूतल पर सुखी अथवा दु:खी सभी प्राणी जीना चाहते हैं, तब प्राणियों को जीवनदान करने वाले दाता ने क्या नहीं दिया ? अर्थात् जीवों को सभी सुख दिया। संसार में जितने भी देवी, देवता हैं, उन सब में दयादेवी ही सबसे श्रेष्ठ है, जो कि समस्त जीवों के लिए अभयदान की दक्षिणा देती है। तीक्ष्ण धार वाली तलवार को मारने के लिए उठी हुई देखकर प्राणी भयभीत नेत्र होकर काँपने लगते हैं। अत: संसार में मृत्यु के समान और कोई बड़ा भय नहीं है। देवता और पितरों के लिए भी किया गया प्राणिघात कभी भी सुख शान्ति के लिए नहीं होता है। क्या गुड़ से मिश्रित विष प्राणघातक नहीं होता है। विघ्नों की शान्ति के लिए की गई भी हिंसा विघ्न के लिए ही होती है। कुलाचार की बुद्धि से की गई हिंसा कुल का विनाश करने वाली होती है। शांति के लिए भी घोर प्राणिघात कभी भी कहीं पर नहीं करना चाहिए। राजा यधोधर ऐसी हिंसा करके क्या दुर्गति को नहीं प्राप्त हुआ ? दयावान् लूला, लँगडा भी मनुष्य श्रेष्ठ है, किन्तु हिंसा परायण पुरूष सर्वाङ्ग से सम्पूर्ण होने पर भी श्रेष्ठ नहीं है। एक मच्छ की रक्षा करने से पाँच बार आपत्तियों से बचकर धनकीर्ति धीवर मनोवांछित सम्पदा को प्राप्त हुआ। अत: ज्ञानियों को हिंसा से बचना चाहिए उमास्वामि श्रावकाचार— ३३३—३४५।

जलगालन

सर्वप्रकार से जीवदया की सिद्धि के लिए गाढ़े वस्त्र से सदा जल के गालने को जिनेश्वरदेव ने सज्जनों को पुण्य का कारण कहा है। जैसा कि कहा है—छत्तीस अंगुल प्रमाण लम्बे और चौबीस अंगुल चौड़े वस्त्र को दुगना करके उससे जल को छानना चाहिए । श्रीमज्जैन मत में दक्ष, जीवदया में तत्पर ज्ञानियों को जल के गालने में कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए। जो पुरुष यहाँ वस्त्र गालित जल को पीते हैं, वे ज्ञानी भव्य हैं। अन्यथा प्रवृत्ति करने वाले पशुओं के समान हैं और पाप का उपार्जन करने से हीन हृदय वाले हैं। अच्छे प्रकार से गला गया जल भी एक मुहुर्त के पश्चात् सम्मूच्र्छन जीवों को उत्पन्न करता है; प्रासुक किया हुआ जल दो प्रहरों के पश्चात् और खूब उष्ण किया हुआ जल आठ सुगन्धित सार वाली वस्तुओं से तथा कषायले हरड़, आँवला आदि द्रव्यों से जल प्रासुक किया जाता है। मनुस्मृति में कहा है— दृष्टि से पवित्र होकर कदम रखे, वस्त्र से पवित्र (छाना हुआ) जल पिए, सत्य से पवित्र वचन बोले और मन से पवित्र आचरण करे। जिस जलाशय से जल लाया गया है, उसे सुप्रयत्न से गालकर उस जीव संयुक्त जल को ज्ञानीजन सावधानी के साथ वहीं पर छोड़ते हैं

ब्रह्मनेमिदत्त: धर्मोपदेशपीयूषवर्षश्रावकाचार— ४। ८७—९३।

आचार्य शिवकोटि ने आचार्य समन्तभद्र प्रतिपादित आठ मूलगुणों का उल्लेख कर कहा है कि पञ्च उदुम्बरों के साथ तीन मकार का त्याग तो बालकों और मूर्खों में देखा जाता है। इसका अभिप्राय है कि यथार्थ मूलगुण तो पंच अणुव्रतों के साथ मद्य, मांस और मधु के त्याग रूप ही है श्रावकाचार संग्रह, भाग ४, प्रस्तावना पृ.१९। 

पार्श्व ज्योति
हिन्दी मासिक पत्रिका मई २०१३

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