Jambudweep - 7599289809
encyclopediaofjainism@gmail.com
About Us
Facebook
YouTube
Encyclopedia of Jainism
  • विशेष आलेख
  • पूजायें
  • जैन तीर्थ
  • अयोध्या

मानस्तम्भों के मूलभाग में जिनप्रतिमाएँ

July 13, 2017स्वाध्याय करेंjambudweep

मानस्तम्भों के मूलभाग में जिनप्रतिमाएँ


हिरण्मयीर्जिनेन्द्राच्र्यास्तेषां बुध्नप्रतिष्ठिताः।
देवेन्द्राः पूजयन्ति स्म क्षीरोदाम्भोऽभिषेचनैः१।।९८।।
नित्यातोद्य महावाद्यैर्नित्यसंगीतमङ्गलैः।
नृत्तैर्नित्यप्रवृत्तैश्च मानस्तम्भाः स्म भान्त्यमी।।९९।।
पीठिका जगतीमध्ये तन्मध्ये च त्रिमेखलम् ।
पीठं तन्मूध्र्नि सद्बुध्ना मानस्तम्भाः प्रतिष्ठिताः।।१००।।
हिरण्मयाङ्गाः प्रोत्तुङ्गा मूध्र्निच्छत्रत्रयाज्र्तिाः।
सुरेन्द्रनिर्मितत्वाच्च प्राप्तेन्द्र ध्वजरूढिकाः।।१०१।।
मानस्तम्भान्महामान योगात्त्रैलोक्यमाननात् ।
अन्वर्थसञ्ज्ञया तज्ज्ञैर्मानस्तम्भाः प्रकीर्तिताः।।१०२।।
स्तम्भपर्यन्तभूभागमलंचव्रु सहोत्पलाः।
प्रसन्नसलिला वाप्यो भव्यानामिव शुद्धयः।।१०३।।
वाप्यस्ता रेजिरे पुल्लकमलोत्पलसंपदः।
भक्त्या जैनीं श्रियं द्रष्टुं भुवेवोद्घाटिता दृशः।।१०४।।
निलीनालिकुलै रेजुरुत्पलैस्ता विकस्वरैः।
महोत्पलैश्च संछन्नाः साञ्जनैरिव लोचनैः।।१०५।।
दिशं प्रति चतस्रस्ता स्रस्ताः काञ्चीरिवाकुलाः।
दधति स्म शकुन्तानां सन्ततीः स्वतटाश्रिताः।।१०६।।

मानस्तम्भों के मूलभाग में जिनप्रतिमाएँ

समवसरण में उन मानस्तम्भों के मूल भाग में जिनेन्द्र भगवान् की सुवर्णमय प्रतिमाएँ विराजमान थीं जिनकी इन्द्र लोग क्षीरसागर के जल से अभिषेक करते हुए पूजा करते थे।।९८।। वे मानस्तम्भ निरन्तर बजते हुए बड़े-बड़े बाजों से निरन्तर होने वाले मङ्गलमय गानों और निरन्तर प्रवृत्त होने वाले नृत्यों से सदा सुशोभित रहते थे।।९९।। ऊपर जगती के बीच में जिस पीठिका का वर्णन किया जा चुका है उसके मध्य भाग में तीन कटनीदार एक पीठ था। उस पीठ के अग्रभाग पर ही वे मानस्तम्भ प्रतिष्ठित थे, उनका मूल भाग बहुत ही सुन्दर था, वे सुवर्ण के बने हुए थे, बहुत ऊँचे थे, उनके मस्तक पर तीन छत्र फिर रहे थे, इन्द्र के द्वारा बनाए जाने के कारण उनका दूसरा नाम इन्द्रध्वज भी रूढ़ हो गया था। उनके देखने से मिथ्यादृष्टि जीवों का सब मान नष्ट हो जाता था, उनका परिमाण बहुत ऊँचा था और तीन लोक के जीव उनका सम्मान करते थे इसलिए विद्वान् लोग उन्हें सार्थक नाम से मानस्तम्भ कहते थे।।१००-१०२।। जो अनेक प्रकार के कमलों से सहित थीं, जिनमें स्वच्छ जल भरा हुआ था और जो भव्य जीवों की विशुद्धता के समान जान पड़ती थीं ऐसी बावड़ियाँ उन मानस्तम्भों के समीपवर्ती भूभाग को अलंकृत कर रही थीं।।१०३।। जो फूले हुए सपेद और नीले कमलरूपी सम्पदा से सहित थीं ऐसी वे बावड़ियाँ इस प्रकार सुशोभित हो रही थीं मानो भक्तिपूर्वक जिनेन्द्रदेव की लक्ष्मी को देखने के लिए पृथ्वी ने अपने नेत्र ही उघाड़े हों।।१०४।। जिन पर भ्रमरों का समूह बैठा हुआ है ऐसे फूले हुए नीले और कमलों से ढँकी हुई वे बावड़ियाँ ऐसी सुशोभित हो रही थीं मानो अंजन सहित काले और नेत्रों से ही ढँक रही हों।।१०५।। वे बावड़ियाँ एक-एक दिशा में चार-चार थीं और उनके किनारे पर पक्षियों की शब्द करती हुई पंक्तियाँ बैठी हुई थीं जिनसे वे ऐसी जान पड़ती थीं मानो उन्होंने शब्द करती हुई ढीली करधनी ही धारण की हो।।१०६।।
 
Tags: jinmandir muurti parampara
Previous post महापुराण प्रवचन-४ Next post गौरवता का गौरव-गोपाचल!

Related Articles

जिनमंदिर मूर्ति निर्माण परम्परा

January 14, 2018jambudweep
Privacy Policy