Jambudweep - 7599289809
encyclopediaofjainism@gmail.com
About Us
Facebook
YouTube
Encyclopedia of Jainism
  • विशेष आलेख
  • पूजायें
  • जैन तीर्थ
  • अयोध्या

मुनिमुद्रा सदा पूज्य है

December 22, 2022जैनधर्मHarsh

मुनिमुद्रा सदा पूज्य है



भव्यात्माओं! जो मुनि दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तपोविनय में सदा लीन रहते हैं वे ही वंदनीय हैं। दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप के भेद से आराधना के चार भेद होते हैं। जो मुनि इन चारों प्रकार की आराधनाओं में निरंतर लगे रहते हैं और अन्य गुणी मनुष्यों के प्रति किसी प्रकार का मात्सर्यभाव न रखते हुये उनके गुणों का वर्णन करते हैं वे मुनि नमस्कार के योग्य हैं।

ऐसे दिगम्बर मुनियों के स्वाभाविक नग्न रूप को देखकर जो मनुष्य उन्हें नहीं मानते हैं उल्टा उनके प्रति द्वेष भाव रखते हैं वे संयम को प्राप्त होकर भी मिथ्यादृष्टि हैं। वास्तव में नग्न दिगम्बर मुद्रा सहजोत्पन्न स्वाभाविक मुद्रा है। उसे देखकर जो पुरूष उसका आदर नहीं करता है, प्रत्युत् नग्नमुद्रा में अरूचि करता हुआ यह कहता है कि नग्नत्व में क्या रखा है, क्या पशु नग्न नहीं होते ? साथ ही दूसरे के शुभ कर्म में द्वेष रखता है वह दीक्षा को प्राप्त होने पर भी मिथ्यादृष्टि है। श्री कुन्दकुन्ददेव का स्पष्टतया यही कहना है कि मुनि का वेष सहजोत्पन्न दिगम्बर मुद्रा ही है। जिन्होंने हिंसा आदि पांच पापों का सर्वथा त्याग कर दिया है वे म्लेच्छ आदि दुष्ट पुरुषों के उपसर्ग से भयभीत होकर किसी प्रकार के आवरण को स्वीकार नहीं करते हैं क्योंकि उपसर्ग के आने पर उसे सहन करना ही मुनि का कर्तव्य है।

इसी प्रकार जो शीत आदि परीषह सहन नहीं कर सकते हैं तथाा जिनके विकार वासनाओं का शमन नहीं हुआ है वे जैनेश्वरी दीक्षा के पात्र नहीं हैं। उन्हें उत्कृष्ट श्रावक-ऐलक, क्षुल्लक के पद में रह कर संयम को पालन करना चाहिये, ऐसा आचार्यों का उपदेश है। इसलिये मुनिपद को ग्रहण कर उसी के अनुरूप चर्या करना उचित है।

जो देवों से वंदित तथा शील से सहित तीर्थंकर परमदेव के रूप को धारण करने वाले ऐसे नग्न दिगम्बर मुनियों को देखकर स्वयं गर्विष्ट होते हुए उन्हें नमस्कार नहीं करते हैं वे सम्यक्त्व से रहित मिथ्यादृष्टि हैं। तीर्थंकर भगवान भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के द्वारा वंदनीय हैं तथा शील और व्रतों से विभूषित हैं। इनके नग्नरूप को देखकर अथवा तीर्थंकर देव की नग्नमुद्रा के धारी मुनियों को देखकर जो जैनाभास अथवा अन्यधर्मी लोग गर्व करते हैं उनकी उपासना नहीं करते हैं, वे सम्यक्त्वरूपीरत्न को गंवा देते हैं, पुनः दीर्घकाल तक संसार रूपी समुद्र में उन्मन्जन निमज्जन किया करते हैं।

उपासकाध्ययन में भी कहा है-

ये गुरूं नैव मन्यंते तदुपास्ति न कुर्वते।
अन्धकारो भवेत्तेषामुदितेपि दिवाकरे।।

जो गुरू को नहीं मानते हैं और उनकी उपासना नहीं करते हैं उनके लिए सूर्योदय होने पर भी अंधकार ही बना रहता है।
वास्तव में देखा जाय तो मिथ्यात्व ही घोर अंधकार है और सम्यक्त्व का उदय ही सूर्य का प्रकाश है। जब तक दिगम्बर गुरूओं के प्रति श्रद्धा भक्ति नहीं होती है तब तक मोक्षमार्ग की पहली सीढ़ी जो सम्यग्दर्शन है उसका लाभ भी असंभव ही है। कोई गुरूओं के प्रति द्वेष करता रहे और अपने को सम्यग्दृष्टि कहता रहे यह बात संभव नहीं है। क्योंकि निर्ग्रन्थ दिगम्बर मुद्रा ही मोक्षमार्ग है ऐसा श्री गौतमस्वामी ने स्वयं कहा है-‘‘इमं णिग्गंथ पवयणं -मोक्खमग्गं।’’ यह निर्ग्रन्थ मुद्रा ही प्रवचन है, मोक्ष मार्ग है। इस लिये दिगम्बर मुनि गुरू है, सदा वंदनीय है।

अब जो वंदनीय नहीं है श्री कुन्दकुन्ददेव उनके बारे में कहते हैं-

‘‘असंयमी की वंदना नहीं करनी चाहिए और जो वस्त्ररहित होकर भी असंयमी है वह भी नमस्कार के योग्य नहीं है। ये दोनों ही समान हैं इनमें एक भी संयमी नहीं है।’’

जो संयम को पालन करते हुए भी असंयत हैं अर्थात् वस्त्र धारण किये हुए हैं वे वंदनीय नहीं हैं। ऐसे ही जो वस्त्र रहित होकर भी संयम से रहित हैं-मात्र वेष को धारण करने वाले हैं उसकी चर्या आगम के विरूद्ध है वे भी नमस्कार के योग्य नहीं हैं।

जैनागम में पूज्यता संयम से बतलाई गई है, संयम महाव्रती के ही होता है और महाव्रती निर्ग्रन्थ होने से नग्न ही रहता है वे गृहस्थ के समान ही असंयमी है अतः वे वंदना के योग्य नहीं हैं। इसी प्रकार जो नग्न होकर भी वास्तविक संयम से रहित है आगम की मर्यादा से बाह्य है वह भी असंयमी है अत: नमस्कार के योग्य नहीं है। यद्यपि संयमासंयम के धारक ऐलक, क्षुल्लक और ब्रह्मचारी आदि भी गृहस्थ के द्वारा वंदनीय होते हैं तथापि यहां गुरू का प्रकरण होने से उनकी विवक्षा नहीं की गई है।

यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि पंचमगुणस्थानवर्ती श्रावक अपने पद के अनुसार जो व्रत ग्रहण करते हैं उनका वे ठीक तरह से पालन करते हैं अतः वस्त्र सहित होने पर भी उसे असंयमी नहीं कहा जाता है किंतु संयमासंयमी नहीं कहा जाता है। पर जो पंचमहाव्रत का नियम लेकर भी वस्त्रधारण करते हैं वे अपने गृहीत संयम से च्युत होने के कारण असंयमी कहे जाते हैं। इस गाथा में श्री कुंदकुंद स्वामी ने द्रव्य संयम और भाव संयम दोनों को उपादेय बतलाया है। अपनी मान्यता के अनुसार संयम के धारक होने पर भी जो सवस्त्र हैं उनके द्रव्य संयम भी नहीं है वे अवंदनीय हैं। साथ ही वस्त्र रहित होने से जो द्रव्य संयम के धारक हैं किंतु यदि उनके भाव संयम नहीं है तो वे भी वंदनीय नहीं हैं क्योंकि मोक्ष प्राप्ति के लिये द्रव्य शुद्धि और भावशुद्धि दोनों ही आवश्यक हैं।

यहां यह बात ध्यान देने योग्य है कि यदि किसी मुनि का द्रव्यसंयम निर्दोष है और भावसंयम नहीं है उसकी परीक्षा हम और आपको कर सकना असंभव है अतः यह विषय अवधिज्ञानी मुनि और केवली भगवान के ही गम्य है। अतः द्रव्यसंयम को देखकर द्रव्य वेषधारी मुनि को नमस्कार करना, उन्हें आहार दान देना श्रावकों का कर्तव्य है। उदाहरण के लिए संघ में रहते हुए पुष्पडाल मुनि द्रव्य संयमी थे, भावसंयमी नहीं थे किंतु श्रावकों द्वारा उन्हें नमस्कार किया जाना, आहार दिया जाना चालू था बल्कि संघस्थ मुनियों में भी वंदना-प्रतिवंदना चालू थी। हां, जैसे अभव्यसेन मुनि की चर्या में सदोषता देखकर क्षुल्लक ने उन्हें नमस्कार नहीं किया। अतः नमस्कार करने, न करने में बाह्य चर्या ही दृष्टव्य है न कि अंतः परिणाम।

आगे श्री कुन्दकुन्ददेव स्वयं कहते हैं-

न शरीर की वंदना की जाती है, न कुल की वंदना की जाती है और न जातियुक्त मनुष्य की वंदना की जाती है। किस गुणहीन की वंदना करूं? क्यों, गुणहीन मनुष्य न मुनि हैं और न श्रावक ही हैं।

वास्तव में न तो किसी शरीर की पूजा होती है, न कुल-पितृपक्ष की पूजा होती है और न जाति-मातृपक्ष ही पूजा की जाती है। जिसमें संयम नहीं है वह सुन्दर, स्वस्थ शरीर, उच्च कुल और उच्च जाति वाला होकर भी अपूजनीय ही रहता है। कुंदकुंद स्वामी कहते हैं कि मैं किसी भी गुणहीन की वंदना नहीं कर सकता हूँ। क्योंकि संयम गुण से भ्रष्ट पुरुष न मुनि ही हैं और न श्रावक ही हैं। तात्पर्य यही है कि गुणवान मुनि ही वंदनीय हैं।

पुनः आचार्य कहते हैं-

मैं उन मुनियों को नमस्कार करता हँॅॅूं जो तप से सहित हैं। साथ ही उनके शील को, गुण को, ब्रह्मचर्य को और मुक्ति प्राप्ति को भी सम्यक्त्व तथा शुद्धभाव से वंदना करता हूँ।हु

अनशन, अवमौदर्य आदि के भेद से तप के बारह भेद हैं। शील के अठारह हजार भेद होते हैं। गुणों के चौरासीलाख भेद हैं और ब्रह्मचर्य नवबाढ़ की अपेक्षा नौ प्रकार का है, जो तप, शील, गुण, और ब्रह्मचर्य से संपन्न हैं, श्री कुंदकुंददेव ने यहाँ पर उन मुनियों को नमस्कार किया है। ऐसे मुनि ही अपनी साधना से कर्म, नोकर्म और भावकर्म से रहित स्वस्वरूप की उपलब्धि रूप सिद्धि को प्राप्त कर लेते हैं। यह स्वस्वरूपोपलब्धि ही जीवन का सर्वोपरि लक्ष्य है। इसी को आचार्य देव ने श्रद्धापूर्वक शुद्ध भाव से नमस्कार किया है।

इन महामुनियों के गुणों का स्मरण करने से, उन्हें नमस्कार करने से वे महान गुण अपनी आत्मा में प्रगट होते हैं। यही कारण है कि आचार्य कुंदकुंदेव भी ऐसे महर्षियों को ‘‘वंदामि’’ आदि शब्दों के द्वारा भावभक्तिपूर्वक नमस्कार करते हैं। आज के इस निकृष्ट काल में भी उनके प्रतीक नग्न दिगम्बर मुनि विचरण कर रहें हैं। ये निर्दोष महाव्रत को पालने वाले महामुनि तीन लोक में वंद्य हैं, मोक्षमार्ग के सच्चे पथिक हैं, प्रत्येक श्रावक को उनकी भक्ति, पूजा, उपासना करनी ही चाहिये। उनकी भक्ति, पूजा आदि करके आप सभी श्रावक अपने मनुष्य जन्म को सफल करें, यही मंगल आशीर्वाद है।

Tags: gyanamrat part-5
Previous post जैनधर्म कर्म सिद्धान्त पर आधारित है Next post स्वरूपाचरण चारित्र

Related Articles

श्रुतपंचमी पर्व

December 23, 2022Harsh

चौबीस तीर्थंकर

December 21, 2022Harsh

अहिंसा व्रत

December 18, 2022Harsh
Privacy Policy