जन्म भूमि | राजगृही (जिला नालंदा) बिहार |
पिता | महाराजा सुमित्र |
माता | महारानी सोमा |
वर्ण | क्षत्रिय |
वंश | हरिवंश |
चिन्ह | कछुआ आगे पढ़ें………. |
इसी भरतक्षेत्र के अंग देश के चम्पापुर नगर में हरिवर्मा नाम के राजा थे। किसी एक दिन वहाँ के उद्यान में ‘अनन्तवीर्य’ नाम के निग्र्रन्थ मुनिराज पधारे। उनकी वन्दना करके राजा ने धर्मोपदेश श्रवण किया और तत्क्षण विरक्त होकर अपने बड़े पुत्र को राज्य देकर अनेक राजाओं के साथ संयम धारण कर लिया।
उन्होंने गुरू के समागम से ग्यारह अंगों का अध्ययन किया और दर्शनविशुद्धि आदि सोलहकारण भावनाओं का चिन्तवन कर तीर्थंकर गोत्र का बंध किया। चिरकाल तक तपश्चरण करते हुए अन्त में समाधिपूर्वक मरण करके प्राणत स्वर्ग में इन्द्र हो गये। वहाँ बीस सागर की आयु थी और उनका साढ़े तीन हाथ का ऊँचा शरीर था।
इसी भरतक्षेत्र के मगध देश में राजगृह नाम का नगर है। उसमें हरिवंश- शिरोमणि, काश्यपगोत्रीय, सुमित्र महाराज राज्य करते थे। उनकी रानी का नाम सोमा था। श्रावण कृष्णा द्वितीया के दिन श्रवण नक्षत्र में रानी ने उन प्राणत इन्द्र को गर्भ में धारण किया, अनुक्रम से नव मास के बाद रानी ने पुत्ररत्न को जन्म दिया।
देवों ने भगवान का जन्मोत्सव मनाकर ‘मुनिसुव्रत’ नाम प्रकट किया। मल्लिनाथ के बाद चौवन लाख वर्षों के बीत जाने पर इनका जन्म हुआ। इनकी आयु तीस हजार वर्ष एवं ऊँचाई बीस धनुष की थी।
कुमार काल के सात हजार पाँच सौ वर्ष बीत जाने पर भगवान का राज्याभिषेक हुआ। राज्य अवस्था में प्रभु के पन्द्रह हजार वर्ष बीत जाने पर किसी दिन गर्जती हुई घन-घटा के समय उनके यागहस्ती ने वन का स्मरण कर खाना-पीना बन्द कर दिया। उस समय महाराज मुनिसुव्रतनाथ अपने अवधिज्ञान से उस हाथी के मन की सारी बातें जान गये।
वे कुतूहल से भरे मनुष्यों के सामने हाथी का पूर्वभव कहने लगे कि यह हाथी पूर्वभव में तालपुर नगर का नरपति राजा था। अपने उच्चकुल के अभिमान सहित इसने अशुभलेश्याओं से सहित, मिथ्याज्ञानी, पात्र-अपात्र की परीक्षा से रहित किमिच्छिक दान दिया था, उसके फलस्वरूप यह हाथी हुआ है।
इस समय भी यह अपने अज्ञान आदि का स्मरण न करता हुआ वन का स्मरण कर रहा है। इतना सुनते ही उस हाथी को अपने पूर्वभव का स्मरण हो गया और उसने प्रभु से संयमासंयम ग्रहण कर लिया। इसी निमित्त से प्रभु को वैराग्य हो गया और लौकांतिक देवों द्वारा पूजा को प्राप्त भगवान अपराजित नामक पालकी पर बैठकर नीलवन में पहुँचे।
वहाँ बेला के उपवास का नियम लेकर वैशाख कृष्ण दशमी के दिन श्रवण नक्षत्र में सायंकाल के समय एक हजार राजाओं के साथ दीक्षित हो गये। उनकी प्रथम पारणा का लाभ राजगृह नगर के राजा वृषभसेन को प्राप्त हुआ था।
प्रभु के छद्मस्थ अवस्था के ग्यारह मास व्यतीत हो गये, तब वे उसी नीलवन में पहुँचे और बेला के नियम से सहित ध्यानारूढ़ हो गये। वैशाख शुक्ला दशमी के दिन श्रवण नक्षत्र में शाम के समय प्रभु को केवलज्ञान प्रकट हो गया।
भगवान के समवसरण में मल्लि को आदि लेकर अठारह गणधर थे, तीस हजार मुनिराज, पुष्पदन्ता को आदि लेकर पचास हजार आर्यिकाएँ, एक लाख श्रावक और तीन लाख श्राविकाएँ थीं।
भगवान एक मास की आयु अवशेष रहने पर विहार बन्द करके सम्मेदशिखर पर जा पहुँचे तथा एक हजार मुनियों के साथ प्रतिमायोग में लीन हो गये। फाल्गुन कृष्णा द्वादशी के दिन रात्रि के पिछले भाग में शरीर से रहित अशरीरी सिद्ध हो गये। इन मुनिसुव्रत भगवान को मेरा नमस्कार होवे।