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रात्रि भोजन : एक वैज्ञानिक दृष्टि

July 16, 2017जनरल नॉलेजjambudweep

रात्रि भोजन : एक वैज्ञानिक दृष्टि


रात्रि भोजन का शरीर पर प्रभाव

रात्रि भोजन न करने से शारीरिक कार्य प्रणाली सक्रिय एवं सुचारू रहती है। रात्रि भोजन त्याग अथवा उपवास से एन्जाइम प्रणाली सक्रिय रहती है। भूख से शरीर कमजोर नहीं पड़ता बल्कि तरोताजा और भीतरी शुद्धि होती है। पेट खाली रखने से आँतों को विश्राम मिलता और पूर्णत: सफाई होती है।’वर्तमान युग वैज्ञानिक युग के नाम से जाना जाता है। इस युग में लोग किसी भी प्रकार के परिवर्तनों, शारीरिक क्रिया कलापों और मानसिक विचारों को विज्ञान की कसौटी पर कसकर खरा उतरने पर ही स्वीकार करते हैं। आधुनिक विज्ञान की तरह वीतराग विज्ञान भी अपनी सम्यक् ज्ञान और अनुभूतियों की कसौटी पर पहले कसकर देखता है, बाद में स्वीकार करता है। रात्रि भोजन त्याग से संबंधित धर्म की बात को आधुनिक विज्ञान ने अपनी कसौटी पर कस कर देखा और पाया कि वीतराग विज्ञान की बात सत्य है। जैसे कि हैदराबाद में स्थित कौशिकीय एवं आणविक जीव विज्ञान केन्द्र के भारतीय वैज्ञानिकों ने अप्रैल—मई सन् १९९५ में अध्ययन करके बताया कि रात्रि भोजन त्याग कर कुछ समय भूखा रहने से अथवा उपवास करने से शरीर कमजोर नहीं पड़ता बल्कि स्वस्थ, तरोताजा और हष्ट—पुष्ट बनता है क्योंकि रात—दिन भोजन करते रहने से शरीर में ग्लाईकोजन जमा होता रहता है यह विशेष तौर पर लिवर और पेशियों में जमा होती है। जो संकट (भूख) के समय काम आता है। यही ग्लाईकोजन शरीर में स्थित कुछ एंजाईमों की मदद से ग्लूकोज में विघटित होकर आवश्यक ऊर्जा देती रहती है और एन्जाइम (ओइम) प्रणाली सक्रिय बनी रहती है। जो रात्रि भोजन का त्याग ना कर के, रात्रि में आमाशय खाली नहीं रखते और समय—समय पर उपवास न करके भूख सहन नहीं करते उनकी ओइम (एवजाइम) प्रणाली लकिय नहीं रह सकती। तथ्य यह है कि भूखा रहने पर सबसे पहले लिवर, पेशी एवं अन्य कोशिकाओं में संचित ग्लाइकोजन टूटकर ग्लूकोज बनता है इस क्रिया को ग्लाइको जीनोलाइसिस कहते हैं। इसके पश्चात् संचित वसा टूटकर ग्लूकोज बनता है तथा अंत में प्रोटीन टूटता है इन प्रक्रियाओं को ग्लेकोनिओजिनेसिस कहते हैं। अत: स्वस्थ रहने के लिये भारतीय धर्मशास्त्रों में रात्रि भोजन त्याग, व्रत, उपवास, फलाहार आदि का प्रावधान रखा गया है। यदि ऐसा नहीं करते तो शरीर के आंगोपांग, त्वचा, हड्डी, हृदय, स्नायु पेनक्रियाज, किडनी, खून, पेâफड़े, मस्तिष्क और ग्रंथियों पर घातक प्रभाव पड़ता है। ‘

हृदय और परिसंचरण तंत्र पर प्रभाव

आयुर्वेद में हृदय को कमल और नाभि अर्थात् पेट को कमल कोश की संज्ञा दी गई है। कमल से तुलना करने का अर्थ जैसे दिन के सूर्य प्रकाश में कमल खिलता है और रात में बंद हो जाता है वैसे ही रात के समय हृदय और नाभिकमल अपने आप संकुचित हो जाता है और नींद लेते समय संकुचन चरम सीमा पर होता है। इसी कारण रात्रि में पाचन का कार्य ठीक ढंग से नहीं होता है, खी डकारें आती हैं, पेट कड़ा हो जाता है, वायु का प्रकोप बढ़ जाता है सिर दर्द, पैर दर्द और शरीर में थकावट महसूस होने लगती है। यही बीमारी के प्रारंभिक लक्षण हैं। कहा भी है—
पेट नरम, पैर गरम, सिर को ठंडा। वैद्य आये घर में तो लगाओ दो डंडा।।
अर्थात् पेट नरम हो, पैर गरम हो और सिर ठंडा हो तो कभी बीमार नहीं पड़ सकते हैं। ऐसी स्थिति में दिन में भोजन करने पर बनती है, रात्रि भोजन करने से विपरीत स्थिति र्नििमत होती है और व्यक्ति बीमार पड़ता है, रात्रि भोजन के कारण २० वीं सदी से रोगियों की संख्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, आयु बल और प्रीति आदि घटती जा रही है इसीलिए समस्त धर्माचार्यों ने रात्रि भोजन को पुण्य, आयु, बल, बुद्धि और प्रीति का विनाशक कहा है। आयुर्वेदाचार्य रात्रि भोजन के संबंध में कहते हैं कि सूर्यास्त होते ही हृदय कमल और नाभि कमल बंद हो जाता है। हृदय कमल बंद होने का अर्थ है हृदय का संकोच विस्तार (फूलना और संकुचन) मंद पड़ जाना जिससे फैफड़े पर्याप्त मात्रा में आक्सीजन ग्रहण नहीं कर पाते हैं और पाचन तंत्र अस्त व्यस्त हो जाता है। आधुनिक डॉक्टर इस कमल को हृदय में थाइमस ग्रंथि का रूप कहते हैं। यह ग्रंथि अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसे वैज्ञानिक बच्चों की दाई माँ की उपमा देते हैं क्योंकि यह समस्त रोगों से रक्षा करती है और बालकों के शारीरिक मानसिक और बौद्धिक विकास में सहायक है, यह विशेष प्रकार की ऐन्टीबॉडीज बनाकर बालक के शरीर में इम्यून सिस्टम की स्थापना करते हैं और यदि यह ग्रंथि ठीक ढंग से कार्य नहीं करे तो बालक बीमार पड़ जाता है।
रात्रि भोजन आँतों द्वारा भोजन हृदय की ओर रक्त को आगे बढ़ाने की क्षमता में कमी प्रवाह में कमी
भोजन का ऊध्र्वगमन वातावरण में ऑक्सीजन की कमी अम्ल में वृद्धि रक्त प्रवाह में और अधिक कमी अम्ल में वृद्धि हृदय रोग की संभावना आमाशय में जलन (एसीडिटी) अल्सर जब शरीर का पूर्ण विकास हो जाता है तब यह ग्रंथि सिकुड़ जाती है और अपना कार्य करना बंद कर देती है परन्तु जब हमारा खान पान असंतुलित, प्रदूषित, बार—बार, मात्रा से अधिक और असमय में होता है तब पाचन तंत्र खराब हो जाता है, अनेक प्रकार की शारीरिक और मानसिक विकृतियाँ आ जाती हैं। यहाँ तक कि हमारे खान—पान के विकृत हो जाने से एवं समय और मात्रा आदि का ध्यान न रखने से एसीडिटी, अल्सर, कैंसर जैसे अनेक रोग पैदा हो जाते हैं। दिन में दो बार शुद्ध शाकाहारी सात्विक पेट भर ३००० कैलोरी भोजन और तीन चार लीटर जल मानव का संतुलित आहार है, जबकि रात्रि भोजन, तामसिक, मात्रा में अधिक और बार—बार भोजन असंतुलित आहार है। जो शरीर में विषैले पदार्थों का निर्माण करता है। ये विषैले पदार्थ कोशिकाओं में पाये जाने वाले ऑकोजीन को उत्तेजित करते हैं। जिससे अनावश्यक रूप से अधिक कोशिकाओं का निर्माण होता है ओर लम्बे समय तक विषैलापन बना रहता है जो श्लेष्म झिल्ली पर दुष्प्रभाव डालता है और शारीरिक क्रिया धर्म के विरुद्ध आनुवांशिक पदार्थों में परिवर्तन लाता है यही बाद में नियोप्लाज्म की उत्पत्ति करता है, इसे ही साधारण भाषा में कैंसर कहते हैं। ध्यान रहे कैंसर ऐ ऐसा यमदूत है कि जिसका नाम सुनते ही दिल की धड़कन बढ़ जाती है और मौत सामने नाचने लगती है। इस यमदूत से बचने का उपाय है व्यसन, असंतुलित, तामसिक, अशुद्ध और रात्रि भोजन का त्याग कर संतुलित शाकाहारी शुद्ध भोजन करना। कैंसर जैसे भयानक रोग पैदा हो जाने से यह ग्रंथि पुन: क्रियाशील हो जाती है। थाइमस ग्रंथि के पुन: कार्यरत हो जाने से शरीर में सुस्ती, मस्तिष्क में जड़ता और विवेक हीनता आदि पैदा होती है। अत: सिद्ध है कि परोक्ष रूप से हमारा अनियंत्रित, प्रदूषित और रात्रि भोजन थाइमस ग्रंथि के पुन: कार्यरत होने में और बीमारी को जन्म देने में कारण है।

तंत्रिका एवं पेशीय तंत्र पर प्रभाव 

हमारे शरीर पर सबसे ऊपर त्वचा होती है उसके अंदर स्नायु (माँस पेशियाँ) और हड्डियाँ होती हैं। स्नायु दो प्रकार के होते हैं। एक वे जो हमारी इच्छा के बिना ही हिलते—डुलते रहते हैं जैसे हृदय, श्वसन नलिका, आँख की पुतलियाँ और रुधिर वाहिनियाँ आदि। यदि इनकी स्वाभाविक गति में अंतर आता है तो शरीर उसे सहन नहीं कर पाता है जिसका स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव पड़ता है। दूसरे प्रकार के स्नायु ऐच्छिक हैं—जैसे हाथ, पैर आदि। इन्हें अपनी इच्छा अनुसार गतिशील किया जा सकता है। व्यायाम और खान—पान आदि से विकसित और मजबूत किया जा सकता है परन्तु आवश्यकता से अधिक और प्रकृति के नियम विरुद्ध करते हैं तो वे अपनी स्वाभाविक स्थिति, संतुलन और स्थिरता खो बैठते हैं। इच्छावृत्ति स्नायु का अनिच्छावृत्ति स्नायु पर प्रभाव पड़ता है। जैसे पलकों का सहज झपकना अनिच्छा पूर्वक होता है किन्तु आँख का घूमना इच्छापूर्वक होता है। हम आँखों को अपनी इच्छानुसार किसी एक तरफ टिकाए रखते हैं तो पलकों पर इसका प्रभाव अवश्य पड़ता है फिर सिर दर्द होना, चक्कर आना, बेचैनी होना प्रारंभ हो जाती है। ठीक इसी प्रकार आमाशय और आँतों में आहार का पाचन और अवशोषण सहज अनिच्छा पूर्वक होता है इसके लिए ऑक्सीजन परम आवश्यक है परन्तु रात्रि में भोजन करके सो जाने पर ऑक्सीजन के अवशोषण में कमी हो जाती है अथवा रात दिन भोजन करने से आमाशय और आँतों पर अधिक जोर पड़ता है जिससे उनकी भीतरी परतों पर खिचाव और सूजन आ जाती है। रात्रि के समय सूर्य प्रकाश के अभाव में मस्तिष्क एवं तंत्रिका तंत्र की क्रियात्मकता में कमी होने से पेशीय तंत्र की क्रियात्मकता में भी कमी आती है परिणामस्वरूप भोजन की ऊध्र्व गति होती है और पाचन तंत्र में बहुत समय तक भोजन बना रहता है। जिससे मस्तिष्क पर भी अतिरिक्त भार, मांस, पेशियों में िंखचाव, ऊध्र्व गैस, जी मिचलना, हाथ—पैर में थकान सिर दर्द, स्वप्न दोष आदि अनेक बीतारी हो जाती है। अनैच्छिक ग्रंथि पर प्रभाव पड़ने से भोजन को पचाने वाले पाचक रसों का अनुपात बिगड़ जाता है। भोजन करने के बाद पेट की मांस—पेशियों पर ज्यादा िंखचाव रहता है इसलिए भोजन करने के बाद प्रत्येक योग शास्त्री या वैद्य तीन चार घंटे तक शयन और योगासन करने का निषेध करते हैं इसी कारण रात्रि भोजन त्याग भी अनिवार्य है। सुप्रसिद्ध रंग चिकित्सा वैज्ञानिक मेरी एंडर्सन द्वारा रचित कृति ‘‘कलर हीिंलग’’ में बताया कि लाल रंग अग्नि तत्त्व का द्योतक है इससे तंत्रिका तन्त्र प्रभावित (उत्तेजित) होकर शरीर में एड्रीनेलीन हारमोन्स की मात्रा को बढ़ाता है जो तन्त्रिकाओं और स्नायुओं को क्रियाशील बनाता है। रक्त प्रवाह को तीव्र करता है। सिम्पैथेटिक नर्वस सिस्टम एवं सेरीवो स्पाइनल नर्व सिस्टम को सक्रिय करता है। रात्रि भोजन त्याग अथवा उपवास करने से शारीरिक प्रतिरोधक तंत्र शक्तिशाली होता है, क्योंकि उस तंत्र में कार्य करने वाले रक्त के फेगोसाइटस ओर लिम्फोसाइटस कणों की क्षमता में अद्भुत वृद्धि होती है। लिम्फोसाइटस आगन्तुक विजातीय कीटाणुओं का प्रतिकार करते हैं। जो सदा खाते—पीते रहते हैं उनके विजातीय तत्त्वों व जीवाणुओं का जमाव होने से शारीरिक कोशिकाएँ वृद्ध होती हैं। जो वृद्धावस्था की ओर ले जाती हैं। यह बात डॉ. जॉन कीथ वेडो ने चूहों के तीन प्रकार के दल बनाकर, एक दल को उपवास कराकर, दूसरे दल को सन्तुलित आहार देकर एवं तीसरे दल को अत्यधिक आहार की सुविधा देकर प्रयोगों द्वारा सिद्ध किया है। अत: उपवास अथवा रात्रि कालीन भोजन त्याग कर भूखा रहने से वृद्धावस्था को कम किया जा सकता है।
उपाध्याय निर्भय सागर जी
जैन प्रचारक सितम्बर अक्टूबर नवम्बर २०१४ तक
 
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