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रावण का रूप है मान!

July 7, 2017स्वाध्याय करेंjambudweep

रावण का रूप है मान


(कृतिकार— आचार्य विशुद्ध सागर जी महाराज)

बा.ब्र. विशल्य भारती
हे मनीषी आत्मन् ! मानव का मन मान का एक बहुत बड़ा वृक्ष है। जिसकी शाखाएँ अतिविषाक्त हैं। उनसे मदरूपी वायु प्रवाहित होती है। उस वायु के प्रभाव से आत्मा का तीव्र शोषण हो रहा है। मान मानव को दानव बना देता है जिसके कारण मानव के अन्दर से मानवता मर जाती है, वह है— मान!मान के पीछे मानव मानवता खो देता है। मान यानी अहंकार। मान में व्यक्ति अपने से पूज्यों का बहुमान खो बैठता है। अहंकारी व्यक्ति पूज्यों का भी अनादर करने लगता है। अहंकार व्यक्ति को कठोर बनाता है। ध्यान रखना! अहंकार उसी व्यक्ति को आता है जिसका कि विनाश निकट होता है क्योंकि अहंकार पतनकारी है। दीपक जब बुझने लगता है तब उसकी ज्योति भी बड़ी हो जाती है इसी प्रकार अहंकारी की दशा होती है। जैसे कि ज्योति बुझ जाती है, वैसे ही अहं की ज्योति जीवन ज्योति के साथ चली जाती है। अहंकार अधोगामी है अर्थात् अधोलोक यात्रा की सूचना देने वाला है।अहंकारी मरना पसंद करता है किन्तु झुकना नहीं। अहंकारी सिर कटा सकता है परन्तु सिर झुका नहीं सकता। वह तो सूखे बांस की तरह होता है, जो टूटना/उखाड़ना पसंद कर लेता है पर झुकना नहीं। घास झुकती है, इसलिए वह अपने अस्तित्व को कायम रखती है। उत्तम मार्दव का अर्थ यही है, कि जीवन में नम्रता का होना यानी अहंकार भाव न होना। मार्दव—धर्म यही शिक्षा देता है कि , हे मानव! तुझे यदि अपना वास्तविक सम्मान चाहिए, तो दूसरों का भी सम्मान करना सीख। मार्दव—धर्म विनयी बनने की ओर इंगित करता है क्योंकि पूज्य महापुरूषों की विनय ही मोक्ष का द्वार है । किन्तु ध्यान रखना, दिगम्बरचार्यों ने मात्र झुकने को ही विनय नहीं कहा। विनय का तात्पर्य —मृदोर्भाव अर्थात् जीवन में मृदुता का आगमन ।मृदुता का अर्थ—विनम्रता शिष्टाचार मात्र नहीं, यह अपूर्ण समझ है।‘मृदोर्भावो मार्दवम्’’ अर्थात् कठोरता का पूर्णत: विरेचन और क्रूूरता का पूर्ण विराम। जिसका हृदय मृदु नहीं यदि उसका सिर भी झुकता है तो स्वार्थ के पीछे, शिष्टाचार के नाते। कभी—कभी विनय में भी मान छुपा रहता है। मृदुता अंदर का गुण है। अंतरंग की झलक बाहर भी दिखती है,किंतु जो बाहर दिख रहा है वह मृदु परिणाम ही है, ऐसा नियत नहीं है। लोग अच्छा कहें, इस उद्देश्य को लेकर भी विनय झलक सकती है। अंदर से अकड़पन रहे और बाहर से विनय दृष्टिगोचर हो यह मृदुता नहीं। अंदर के साथ बाह्य में नम्रवृत्ति होना ही मृदुता है, अंतरंग की कठोरता नहीं। क्योंकि कहा भी है—
नमन् — नमन में फैर है, अधिक नमे नादान। दगाबाज दूना नमे, चीता चोर कमान।।
अर्थात् नम्रता होने और दिखाने में बड़ा अंतर है। यह अपने स्वभाव पर निर्भर करता है। जैसे—चीता झुककर ही आगे छलांग लगाता है। चोर झुककर ही छोटी सी खिड़की से अंदर प्रवेश पाता है। कमान के झुकने पर ही तीर छोड़ा जाता है। इसी प्रकार कपटी होता है। वह आवश्यकता से ज्यादा झुककर अदब करता है। ऐसी मृदुता, विनम्रता मार्दवधर्म नहीं है। इसीलिए आचार्यों ने मार्दव (मृदुता) के आगे अलग विशेषण लगाया है, वह है उत्तम। विनय वह मंत्र है, जिसके माध्यम से हम आत्मविद्या सीख सकते हैं। विद्यायें तो मिल ही जाती हैं परंतु विनय के बिना सारी विद्यायें निष्फल हैं। अत: हे ज्ञानी! मन—वचन—काय तीनों में विनय की आवश्यकता है। मात्र वचन एवं शरीर की विनय, विनय नहीं होती है, अर्थात् त्रियोग—विनय ही सच्ची विनय है। त्रियोग से मद का अभाव ही वास्तविक विनय है। आचार्य भगवंतो ने मद के आठ भेद कहे हैं, जो कि संसार—भ्रमण के अष्ट द्वार—तुल्य हैं। ज्ञान,पूजा, कुल, जाति, बल,ऋद्धि , तप, रूप और शरीर का मद— ये आठ मद मानव के लिए पतन के स्रोत हैं। जिन्हें आत्मा को परमात्मा बनाने की आकाँक्षा है, उन्हें विनयपान करना आवश्यक है। जो मानव विनयशील होता है।एवं सभी जीवों की रक्षा करता है, वह संपूर्ण लोक में प्रिय होता है, कभी अपमान का पात्र नहीं बनता। यदि राम बनना है तो विनयी बनो नहीं तो रावण जैसा जीवन होगा राम का सभी जाप करते हैं रावण का कोई नहीं। और तो क्या रावण का तो कोई नाम भी नहीं लेना चाहता। विनय राम है, मान है रावण का रूप। जो मानी है, वह रावण का वशंज है। अत: विनयी बनकर श्रेयस —सुख को प्राप्त करो, यही मानवता का सार है।
मासिक पत्रिका—विराग वाणी — आषाढ़—श्रावण, जुलाई, २०११
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