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48. पूर्वाचार्यों की पूर्वाचार्यों के प्रति आस्था और पापभीरुता

December 15, 2022BooksHarsh Jain

पूर्वाचार्यों की पूर्वाचार्यों के प्रति आस्था और पापभीरुता


णिगोद जीवा विसेसाहिया।७५।।

एत्थ चोदगो भणदि-णिप्फलमेदं सुत्तं,

वणप्फदिकाइएहिंतो पुधभूदणिगोदाणमणुवलम्भादो।

सो एवं भणदि जो चोद्दस पुव्वधरो केवलणाणी वा।

ण च वट्टमाणकाले ते अत्थि, ण च तेसिं

पासे सोदूणागदा वि संपहि उवलम्भंति।

तदो थप्पं काऊण वे वि सुत्ताणि सुत्तासयणभीरूहि

आइरिएहि वक्खाणेयव्वाणि त्ति ।

वणप्फदिणामकम्मोदइल्लाणं सव्वेसिं

वणप्फदिसण्णा सुत्ते दिस्सदि।

बादर णिगोद पदिट्ठिदअपदिट्ठिदाणमेत्थ

सुत्ते वणप्फदिसण्णा किण्ण णिद्दिट्ठा ?

गोदमो एत्थ पुच्छेयव्वो।

अम्हेहि गोदमो बादरणिगोदपदिट्ठिदाणं वणप्फदिसण्णं

णेच्छदि त्ति तस्स अहिप्पाओ कहिओ।

‘‘वनस्पतिकायिकों से निगोद जीव विशेष अधिक हैं ।।७५।।

शंका-यहाँ शंकाकार कहता है कि यह सूत्र निष्फल है क्योंकि वनस्पतिकायिक जीवों से पृथग्भूत निगोद जीव पाये नहीं जाते तथा ‘वनस्पतिकायिकों के जीवों से पृथग्भूत पृथिवीकायिकादिकों में निगोद जीव हैं’ ऐसा आचार्यों का उपदेश भी नहीं है, जिससे यह वचन सूत्रत्व को प्राप्त हो सके ? अर्थात् यह वचन सूत्र नहीं हो सकता है ?

समाधान-यहाँ उपर्युक्त शंका का परिहार करते हैं-तुम्हारे द्वारा कहे हुए वचन में भले ही सत्यता हो क्योंकि बहुत से सूत्रों में वनस्पतिकायिक जीवों के आगे ‘निगोद’ पद नहीं पाया जाता, निगोद के आगे वनस्पतिकायिकों का पाठ पाया जाता है और ऐसा बहुत से आचार्यों से सम्मत भी है किन्तु यहाँ पर ‘‘यह सूत्र ही नहीं है’’ ऐसा निश्चय करना उचित नहीं है। इस प्रकार तो वही कह सकता है जो कि चौदह पूर्वों का धारी हो अथवा केवलज्ञानी हो परन्तु वर्तमानकाल में न तो वे दोनों हैं और न उनके पास में सुनकर आये हुए अन्य महापुरुष भी उस समय दिखते हैं अतएव सूत्र की आसादना (छेद या तिरस्कार) से भयभीत रहने वाले आचार्यों को स्थाप्य समझकर दोनों ही सूत्रों का व्याख्यान करना चाहिए ।

शंका-वनस्पति नामकर्म के उदय से संयुक्त सब जीवों के ‘वनस्पति’ संज्ञा सूत्र में देखी जाती है। बादर निगोद जीवों से प्रतिष्ठित-अप्रतिष्ठित जीवों के यहाँ सूत्र में वनस्पति संज्ञा क्यों नहीं निर्दिष्ट की ?

समाधान-इस शंका का उत्तर गौतम स्वामी से पूछना चाहिए। हमने तो ‘‘श्री गौतम स्वामी बादर निगोद जीवों से प्रतिष्ठित जीवों के ‘वनस्पति’ संज्ञा स्वीकार नहीं करते’’ इस प्रकार उनका अभिप्राय कहा है।

(धवला पु. ७, पृ. ५३९ से ५४१)

विशेष-षट्खण्डागम सूत्र और कषायप्राभृत ग्रंथ के ऊपर धवला, जयधवला टीका रचने वाले भगवान श्री वीरसेनाचार्य ने जहाँ कहीं भी दो प्रकार के परस्पर विरुद्ध प्रकरण देखे हैं वहाँ पर दोनों कथन को भी ‘सूत्र’ मान कर प्रमाणता दे दी है और प्रश्नकर्ता को कितना सुन्दर उत्तर दिया है कि ‘‘श्री गौतम स्वामी को पूछना चाहिए।’ उनका कहना यही है कि यह कथन सत्य है या यह कथन ? इसका निर्णय श्रुतकेवली या सर्वज्ञकेवली के बिना हम और आप नहीं कर सकते हैं चूँकि दोनों के कथन करने वाले आचार्य पापभीरू थे, हमारे और आपके उपास्य हैं। वे जान-बूझकर असत्य भाषण नहीं कर सकते अत: हमारा और आपका भी कर्त्तव्य है कि आगम की किसी भी बात को असत्य ठहराने का दुस्साहस नहीं करें अन्यथा मिथ्यात्व दोष के भागी हो जावेंगे। 

Tags: Gyanamrat Part-4
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