जैन मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक और क्षुल्लिका आदि चतुर्विध संघ वर्षा ऋतु में एक जगह रहने का नियम कर लेते हैं, अन्यत्र विहार नहीं करते हैं इसलिए इसे वर्षायोग कहा है तथा सामान्यतया श्रावण, भाद्रपद, आश्विन और कार्तिक इन चार महीनेपर्यंत एक जगह रहना होता है अत: इसे चातुर्मास भी कहते हैं। इस वर्षायोग को ग्रहण करने की तथा इसे समाप्त करने की तिथियाँ कौन सी हैं?
आषाढ़ सुदी चतुर्दशी की पूर्वरात्रि में सिद्धभक्ति आदि विधिपूर्वक इस वर्षायोग को साधुजन ग्रहण करें और कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की पिछली रात्रि में विधिपूर्वक उस वर्षायोग को समाप्त कर देवें।” आगे इसी शास्त्र में और भी विशेष बताते हैं कि- मासं वासोन्यदैकत्र योगक्षेत्रं शुचौ व्रजेत्। मार्गेऽतीते त्यजेच्चार्थवशादपि न लंघयेत्।।६८।।
नभश्चतुर्थी तद्याने कृष्णां शुक्लोर्जपंचमीम्।
यावन्न गच्छेत्तच्छेदे कथंचिच्छेदमाचरेत्।।६९।।
‘‘श्रमण संघ हेमंत आदि ऋतुओं में अर्थात् मगसिर, पौष आदि महीनों में किसी गाँव, नगर आदि एक स्थान पर एक-एक महीने तक रह सकता है पुन: वह आषाढ़ मास में वर्षायोग करने के स्थान पर पहुँच जावे और मगसिर मास पूर्ण हो जाने पर वहाँ नहीं ठहरे अर्थात् मगसिर के बाद अन्यत्र विहार कर जावे तथा प्रयोजनवश भी श्रावण कृष्णा चतुर्थी का उल्लंघन न करे अर्थात् किसी विशेष कारणवश यदि साधु संघ आषाढ़ सुदी चतुर्दशी को वर्षायोग स्थान पर नहीं पहुँच सके तो श्रावणवदी चतुर्थी तक भी वहाँ पहुँचकर वर्षायोग स्थापना करे, ऐसा विधान है किन्तु इस चतुर्थी का उल्लंघन करना उचित नहीं है। आगे कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की पिछली रात्रि में वर्षायोग निष्ठापन-समाप्त कर देने पर भी कार्तिक शुक्ला पंचमी के पहले विहार न करें। यदि कदाचित् दुर्निवार उपसर्ग आदि के निमित्त से इस उपर्युक्त योग का उल्लंघन हो जावे अर्थात् यदि विहार करना ही पड़ जावे तो साधु शास्त्रविहित प्रायश्चित्त ग्रहण करें, ऐसा विधान है।” अभिप्राय यह हुआ कि साधु और साध्वीगण चातुर्मास के सिवाय अन्य दिनों में एक-एक महीने तक किसी भी गाँव, नगर या शहर में रह सकते हैं अनंतर चातुर्मास काल में आषाढ़ सुदी चतुर्दशी की पूर्व रात्रि में चातुर्मास स्थापना कर लेते हैं पुन: कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की पिछली रात्रि में चातुर्मास समाप्त करके वीर निर्वाण संबंधी क्रिया आदि करते हैं पुन: पंचमी के बाद विहार कर सकते हैं, ऐसी आगम की आज्ञा है। चातुर्मास के लिए कम से कम १०० दिन या अधिक से अधिक १६५ दिनों की आगम व्यवस्था- आचार्य के छत्तीस गुणों के अंतर्गत दस स्थितिकल्प गुण माने हैं। उनके नाम क्रमश:- आचेलक्य, औद्देशिकपिंडत्याग, शय्याधर पिंडत्याग, राजकीय पिंडत्याग, कृतिकर्म, व्रतारोपण योग्यता, ज्येष्ठता, प्रतिक्रमण, मासैकवासिता और योग हैं।उनमें से मासैकवासिता नाम के नवमें स्थितिकल्प का लक्षण निम्नलिखित है- , मासैकवासिता त्रिंशदहोरात्रमेकत्र ग्रामादौ वसति तद्व्रत: तद्भाव:।”‘‘तीस अहोरात्र-एक महीने तक किसी एक ग्राम आदि में निवास करना ऐसा जो व्रत है, वह मासैकवासिता है।” मूलाराधना ग्रंथ में इसी का अर्थ ऐसा किया है कि‘‘टिप्पनके तु योगग्रहणादौ योगावसाने च तस्मिन् स्थाने मासमात्रं तिष्ठति इति मासं नाम नवम: कल्प:। ‘‘वर्षायोग के पहले और वर्षायोग के अनंतर उस स्थान में एक महीना तक रहना।” मूलाचार में इन्हीं दस स्थितिकल्पों का नाम श्रमणकल्प है। वहाँ पर भी इस नवमें ‘मास’ नामक श्रमणकल्प का ऐसा ही अर्थ है। यथा- मासौ: योगहणात्प्राङ्मासमात्रमवस्थार्नं कृत्वा वर्षाकाले योगो ग्राह्यस्तथा योगं समाप्य मासमात्रमवस्थानं कर्तव्यं। लोकस्थितजिज्ञापनार्थ-महिंसादिव्रतपरिपालनार्थ च योगात् प्राङ्गमासमात्रमवस्थानस्य (म्) पश्चाच्च मासमात्रावस्थानं श्रावकलोकादि संक्लेश परिहरणाय।”
‘‘वर्षायोग ग्रहण करने के पहले एक महीने तक वहाँ पर रहकर वर्षाकाल में योग ग्रहण करना चाहिए तथा योग को समाप्त करके एक महीने तक वहाँ रहना चाहिए। ऐसा क्यों? तो लोकस्थिति को समझने के लिए और अहिंसा आदि व्रतों के परिपालन हेतु पहले एक मास तक रहने का विधान है तथा श्रावकजनों के संक्लेश आदि को दूर करने के लिए वर्षायोग समाप्ति के अनंतर भी एक महीने तक वहाँ रहने का विधान है।” अभिप्राय यह निकला कि साधुगण वर्षायोग के स्थान में एक महीने पहले इसलिए रहें कि वहाँ के वातावरण का निरीक्षण हो जावे कि यह स्थान चातुर्मास के लिए उपयुक्त है या नहीं? हमारे संयम में किसी प्रकार से बाधा तो नहीं आएगी तथा कभी-कभी वर्षा भी पहले से ही शुरू हो जाती है अत: वहाँ के धार्मिक अनुकूल वातावरण को समझने के लिए और अहिंसा महाव्रत आदि के पालन हेतु वे एक महीने पहले से वहाँ स्थान पर रह सकते हैं तथा चातुर्मास समाप्ति के अनंतर भी यदि श्रावकों की विशेष भक्ति अथवा धर्म प्रभावना आदि निमित्त है तो वहाँ पुनरपि एक महीने तक रह सकते हैं अन्यथा श्रावकों के आग्रह करने पर भी यदि साधु विहार कर जाते हैं तो उन्हें संक्लेश हो जाता है इत्यादि कारणों से वे वहाँ रह सकते हैंं। मूलाराधना ग्रंथ में इन दश स्थितिकल्प को श्रमणकल्प नाम दिया है तथा नवमें ‘मास’ श्रमणकल्प का ऐसा अर्थ किया है कि-
छहों ऋतुओं में से एक-एक ऋतु में एक-एक मासपर्यंत एक जगह रहना और अन्यथा एक-एक मास विहार करना यह नवमां स्थितिकल्प है” तथा दशवें ‘पर्या’ नामक श्रमणकल्प का लक्षण इस प्रकार किया है कि- ‘‘दशवां पर्या नाम का श्रमणकल्प है। वर्षाकाल में चार महीने एक जगह रहना, भ्रमण का त्याग करना, यह इसका अर्थ है। चूंकि वर्षाकाल में यह पृथ्वी स्थावर और त्रस जीवों से सहित हो जाती है, ऐसे समय में यदि मुनि विहार करेंगे तो महान असंयम होगा अथवा जलवर्षा और शीत हवा के निमित्त से उनकी आत्मा का विघात होगा अर्थात् रोग आदि हो जाने से अपघात आदि हो सकता है। इस मौसम में पृथ्वी पर जल की बहुलता होने से कहीं पर यदि जल के गड्ढे आदि ढके हुये हैं-ऊपर से नहीं दिख रहे हैं, उन पर घास या रेत आदि पड़ गयी है, उन गड्ढों पर पैर पड़ जाने से उनमें गिरने आदि की संभावना हो सकती है अथवा पैर आदि फिसल जाने से कहींं भी बावड़ी- गड्ढे आदि में पड़ सकते हैं अथवा ठूंठ, काँटे आदि से या जलवृष्टि से भी बाधा हो सकती है इत्यादि दोषों से बचने के लिए एक सौ बीस दिन तक एक स्थान पर रहना, यह उत्सर्ग नियम है। कारणवश इससे कम या अधिक दिवस भी निवास किया जाता है। संयतजन आषाढ़ सुदी दशमी से लेकर कार्तिक सुदी पूर्णिमा के अनन्तर भी और एक मास तक अर्थात् मगसिर सुदी पूर्णिमा तक भी वहाँ पर रह सकते हैं। वृष्टि की बहुलता, श्रुत का अध्ययन, शक्ति का अभाव, अन्य साधुओं की वैयावृत्ति आदि प्रयोजनों के निमित्त से अधिक दिन भी रहा जा सकता है। मारी रोग के हो जाने पर, दुर्भिक्ष के आ जाने पर, ग्राम के अथवा देश के लोगों का अपना स्थान छोड़कर अन्यत्र जाने का प्रसंग आ जाने पर, संघ के विनाश होने के निमित्तों के उपस्थित हो जाने पर इत्यादि कारणों से मुनि वर्षायोग में भी अन्यत्र जा सकते हैं। यदि वे वहीं पर रहते हैं तो रत्नत्रय की विराधना हो जाएगी इसलिए आषाढ़ सुदी पूर्णिमा के व्यतीत हो जाने पर भी प्रतिपदा आदि तिथि में वे अन्यत्र चले जाते हैं अर्थात् ‘‘प्रतिपदा’’ से चतुर्थी तक चार दिन में कहीं अन्यत्र योग्य स्थान में पहुँच सकते हैं इसलिए एक सौ बीस दिनों में बीस दिन कम किए जाते हैं। इस तरह काल की हीनता का विधान है।” यह सब दशवें स्थितिकल्प का वर्णन है। अभिप्राय यह हुआ कि श्रमण संघ आषाढ़ सुदी चतुर्दशी से लेकर कार्तिक सुदी पूर्णिमा तक चार महीने के एक सौ बीस दिन तक एकत्र निवास करता है यह उत्सर्ग अर्थात् राजमार्ग है और इसी कारण से इसे चातुर्मास भी कहते हैं किन्तु कारणवश अधिक दिन अर्थात् आषाढ़ सुदी दशमी से लेकर मगसिर सुदी पूर्णिमा तक भी एक जगह रहते हैं। अथवा वर्षायोग ग्रहण के एक मास पहले और एक मास अनन्तर भी रहने का विधान होने से आषाढ़ वदी एकम् से मगसिर वदी अमावस्या तक ऐसे साढ़े पाँच महीने अर्थात् एक सौ पंैसठ दिन भी रहते हैं जैसा कि पहले मूलाचार में कथित नवम स्थितिकल्प के लक्षण से स्पष्ट है अर्थात् वर्षायोग की समापन विधि कार्तिक वदी चतुर्दशी को हो जाती है, इस हिसाब से साढ़े पाँच महीने लिया है। अथवा चातुर्मास के सामान्यतया चार महीने लेने से तथा उसके आदि और अंत के एक-एक महीने को ले लेने से छ: महीने भी एकत्र रह सकते हैं, ऐसा परंपरागत अर्थ लिया जाता है इसी प्रकार से चातुर्मास में कदाचित् अधिक मास के आ जाने से भी एक मास और अधिक हो जाता है। यह सब अधिक दिनों की गणना में सम्मिलित है। कम दिनों के वर्णन में एक सौ बीस दिन में बीस दिन घटाने से सौ दिन का भी वर्षायोग होता है। श्रावण कृष्णा चतुर्थी से कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी तक सौ दिन ही होते हैं। यथा श्रावण कृष्णा पंचमी से पूर्णिमा तक २५, भाद्रपद और आश्विन के ३०-३० तथा कार्तिक वदी एकम् से अमावस्या तक १५ ऐसे २५+३०+३०+१५=१०० दिनोें का भी वर्षायोग आगम से मान्य है। इस तरह से चातुर्मास का हेतु और उसमें अधिक से अधिक तथा कम से कम दिनों का वर्णन किया गया है। चातुर्मास के दिनों में विशेष कारणवश साधुओं को विहार करने की आगम आज्ञा- चातुर्मास में साधु विशेष धर्मकार्य या सल्लेखना आदि निमित्त से अड़तालीस कोश तक विहार कर सकते हैं। स्पष्टीकरण- १वर्षा ऋ+तु में देव और आर्ष संघसंंबंधी कोई बड़ा कार्य आ जाने पर यदि साधु बारह योजन तक चला जाए, तो कोई दोष नहीं है।” अर्थात् चातुर्मास में यदि कहीं अन्यत्र किसी साधु ने सल्लेखना ग्रहण कर ली है अथवा और कोई विशेष ही कार्य है तो साधु बारह योजन अर्थात् एक योजन में चार कोश होने से १२²४·४८ कोश तक विहार करके जा सकता है। इस प्रकार से वर्षायोग की स्थापना करने वाले मुनिगण या आर्यिकाएँ आदि सल्लेखना आदि विशेष प्रसंगों में छ्यानवे मील तक विहार कर सकते हैं पुन: वे वापस वहीं आ जाते हैं। वर्षायोग स्थापना में मंगलकलश स्थापना कब से शुरू हुई?- मैंने बीसवीं सदी के प्रथमाचार्य चारित्रचक्रवर्ती श्री शांतिसागर जी महाराज, उनके प्रथम शिष्य एवं प्रथम पट्टाचार्य गुरुवर्य श्री वीरसागर जी महाराज, आचार्यश्री शिवसागर जी महाराज एवं आचार्य श्री धर्मसागर जी महाराज के संघ सानिध्य में वर्षायोग-चातुर्मास स्थापना देखी है एवं उनके साथ स्थापना की है। इनमें से किन्हीं भी आचार्यों ने एवं आचार्य देशभूषण जी आदि आचार्यों ने चातुर्मास स्थापना के समय मंगलकलश स्थापित नहीं कराया था। मुझे आश्चर्य होता है कि कोई साधु एक मंगल कलश स्थापना करते हैं तो कोई-कोई तीन, सात, नौ, इक्कीस तथा कोई साधु एक सौ आठ मंगल कलश स्थापित करने लगे हैं। उनकी ऊँची-ऊँची बोलियों से ही साधुओं की महानता को आंका जाने लगा है। सबसे अधिक आश्चर्य तो तब हुआ, जब मैंने स्वयं देखा-एक ग्राम के मंदिर में एक काँचकेस में मंगल कलश रखा था। चातुर्मास के बाद साधु वहाँ से विहार कर चुके थे, फिर भी प्रतिदिन लोग भगवान के दर्शन के बाद उस कलश के आगे चावल चढ़ाकर घुटने टेककर पंचांग नमस्कार कर रहे थे। मैंने पूछा-ऐसा क्यों? तब भक्तों ने कहा-मुझे गुरुदेव की आज्ञा है आदि……। पोस्टर एवं कुंकुम पत्रिका में भी ‘‘चातुर्मास स्थापना समारोह’’ या ‘‘वर्षायोग स्थापना समारोह’’ न छपाकर ‘‘मंगल कलश स्थापना समारोह’’ छपने लगा है। यह ‘‘मंगल कलश स्थापना’’ न तो कहीं आचारसार, मूलाचार, भगवती आराधना आदि मुनियों के आचार ग्रंथों में है और न कहीं उमास्वामी श्रावकाचार, रत्नकरण्ड श्रावकाचार, वसुनंदिश्रावकाचार, सागारधर्मामृत आदि श्रावकाचार ग्रंथों में ही है। अतः मुझे ‘‘वर्षायोग स्थापना’’ के दिन यह मंगल कलश स्थापना करना इष्ट नहीं है। यह परम्परा कब, वैâसे एवं किसके द्वारा प्रारंभ की गई तथा अनेक साधुसंघ उसका अनुसरण क्यों करने लग गये ? यह समझ में नहीं आता है।
ऊपर जो नन्दीश्वर जिनचैत्यवन्दना की क्रिया बताई गई है वही क्रिया जिन भगवान के अभिषेक के समय करनी चाहिए। अन्तर इतना है कि यहाँ पर नन्दीश्वर भक्ति न करके चैत्यभक्ति ही की जाती है। इसी प्रकार वर्षायोग के ग्रहण करने पर और उसके समापन पर यह अभिषेक वंदना की विधि ही मंगलगोचरमध्यान्हवन्दना कही जाती है। अर्थात् सिद्धभक्ति, चैत्यभक्ति, पंचगुरुभक्ति और शांतिभक्ति के द्वारा अभिषेकवंदना की जाती है और इन्हीं के द्वारा मंगलगोचर मध्यान्हवन्दना भी हुआ करती है। मंगलगोचर बृहत्प्रत्याख्यान की विधि बताते हैं- मंगलगोचर क्रिया करने में आचार्य आदि को बृहत् सिद्धभक्ति और बृहत् योगिभक्ति करके भक्त प्रत्याख्यान को ग्रहण कर बृहत् आचार्यभक्ति और बृहत् शांतिभक्ति करनी चाहिए। यहाँ पर ‘‘प्रयुञ्जताम्’’ यह बहुवचन क्रिया का जो निर्देश किया है, उससे इस बात का बोध कराया है कि यह क्रिया आचार्य आदि सब संघ को मिलकर करनी चाहिए। प्रकरण के अनुसार दो श्लोकों में वर्षायोग के ग्रहण और त्याग करने की विधि का उपदेश करते हैं- ऊपर भक्त प्रत्याख्यान को ग्रहण करने की जो विधि बताई है तदनुसार उसके ग्रहण करने के अनंतर आचार्य- प्रभृति साधुओं को वर्षायोग का प्रतिष्ठापन करना चाहिए और चातुर्मास के अंत में उसका निष्ठापन करना चाहिए। इस प्रतिष्ठापन और निष्ठापन की विधि इस प्रकार है- चार लघु चैत्यभक्तियों को बोलते हुए और पूर्वादिक चारों ही दिशाओं की प्रदक्षिणा देते हुए आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी की रात्रि को पहले ही प्रहर में सिद्धभक्ति और योगिभक्ति का भी अच्छी तरह पाठ करते हुए और पंचगुरुभक्ति तथा शांतिभक्ति को भी बोलकर आचार्य और इतर सम्पूर्ण साधुओं को वर्षायोग का प्रतिष्ठापन करना चाहिए।
भावार्थ- पूर्व दिशा की तरफ मुख करके वर्षायोग का प्रतिष्ठापन करने के लिए ‘‘यावन्ति जिनचैत्यानि’’ इत्यादि श्लोक का पाठ करना चाहिए पुन: आदिनाथ भगवान और दूसरे अजितनाथ भगवान इन दोनों का ही स्वयंभू स्तोत्र बोलकर अंचलिका सहित चैत्यभक्ति करनी चाहिए। यह पूर्व दिशा की तरफ की चैत्य-चैत्यालय की वंदना है। इसी प्रकार दक्षिण, पश्चिम और उत्तर की तरफ की वंदना भी क्रम से करनी चाहिए। अंतर इतना है कि जिस प्रकार पूर्व दिशा की वंदना में प्रथम, द्वितीय तीर्थंकर का स्वयंभूस्तोत्र बोला जाता है, उसी प्रकार दक्षिण दिशा की तरफ तीसरे, चौथे संभवनाथ और अभिनंदननाथ का पश्चिम की तरफ की वंदना करते समय पाँचवें, छठे सुमतिनाथ और पद्मप्रभु भगवान का और उत्तर दिशा की वंदना करते समय सातवें, आठवें सुपाश्र्वनाथ और चन्द्रप्रभु का स्वयंभूस्तोत्र बोलना चाहिए और बाकी क्रिया पूर्व दिशा के समान ही समझनी चाहिए। यहाँ पर चारों दिशाओं की प्रदक्षिणा करने के लिए जो लिखा है, उस विषय में वृद्धसम्प्रदाय ऐसा है कि पूर्वदिशा की तरफ मुख करके और उधर की वंदना करके वहीं बैठे-बैठे केवल भावरूप से ही प्रदक्षिणा करनी चाहिए। यह वर्षायोग के प्रतिष्ठापन की विधि है, यही विधि निष्ठापन में भी करनी चाहिए अर्थात् कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की रात्रि को अंतिम प्रहर में पूर्वोक्त विधान के अनुसार ही आचार्य और साधुओं को वर्षायोग का निष्ठापन कर देना चाहिए। वर्षायोग के सिवाय दूसरे समय-हेमन्त आदि ऋतु में भी आचार्य आदि श्रमण संघ को किसी भी एक स्थान या नगर आदि में एक महीने तक के लिए निवास करना चाहिए तथा आषाढ़ में मुनिसंघ को वर्षायोगस्थापन के लिए जाना चाहिए अर्थात् जहाँ चातुर्मास करना है वहाँ आषाढ़ में पहुँच जाना चाहिए और मगसिर महीना पूर्ण होने पर उस क्षेत्र को छोड़ देना चाहिए परन्तु इतना और भी विशेष है कि उस योगस्थान पर जाने के लिए श्रावण कृष्णा चतुर्थी का अतिक्रमण कभी नहीं करना चाहिए।
भावार्थ- यदि कोई धर्मकार्य ऐसा विशेष प्रसंग उपस्थित हो जाए कि जिसमें रुक जाने से योगक्षेत्र में आषाढ़ के भीतर पहुँचना न बन सके, तो श्रावण कृष्णा चतुर्थी तक पहुँच जाना चाहिए परन्तु इस तिथि का उल्लंघन किसी प्रयोजन के वशीभूत होकर भी करना उचित नहीं है। इसी प्रकार साधुओं को कार्तिक शुक्ला पंचमी तक योगक्षेत्र के सिवाय अन्यत्र प्रयोजन रहते हुए भी विहार न करना चाहिए अर्थात् यद्यपि वर्षायोग का निष्ठापन कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी को हो जाता है फिर भी साधुओं को कार्तिक शुक्ला पंचमी तक उसी स्थान पर रहना चाहिए। यदि कोई कार्य विशेष हो, तो भी तब तक उस स्थान से नहीं जाना चाहिए। आषाढ़ शुक्ला त्रयोदशी के दिन करने की क्रियाएँ (वर्षायोग समापन हेतु कार्तिक कृ. १३ को भी यही क्रियाएँ करना है) मंगलगोचर क्रिया कब और कैसे करें?‘‘मंगलगोचरमध्याह्नवंदना योगयोजनोज्झनयोः।’’अनगार धर्मामृत वर्षायोग ग्रहण और समापन के पूर्व दिन मंगलगोचरी-आहार के पहले यह ‘मंगलगोचर मध्यान्ह वंदना’ की जाती है अर्थात् आषाढ़ शुक्ला त्रयोदशी के मध्यान्ह में मंगलगोचर मध्यान्ह देववंदना करके साधुगण आहार के लिए जाते हैं पुनः आहार से आकर ‘मंगलगोचर वृहत्प्रत्याख्यान’ नाम से गुरु के पास उपवासरूप प्रत्याख्यान ग्रहण करते हैं, अनंतर चौदश का उपवास करके रात्रि में वर्षायोग क्रिया करके वर्षायोग ग्रहण कर लेते हैं। ऐसे ही कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी के दिन आहार से पूर्व मंगलगोचर मध्यान्ह देववंदना करके आहार के बाद वृहत्प्रत्याख्यान ग्रहण करके चतुर्दशी का उपवास करके चतुर्दशी की पिछली रात्रि में वर्षायोग की निष्ठापना कर देते हैं। इस मंगलगोचर मध्यान्ह वंदना में सिद्ध, चैत्य, पंचगुरु और शांति ये चार भक्तियाँ पढ़ी जाती हैं। मध्यान्ह की देववंदना में चैत्य एवं पंचगुरु ये दो भक्तियाँ की जाती हैं किन्तु उपर्युक्त इन दोनों त्रयोदशी में इसी देववंदना में आदि-अन्त में दो भक्तियाँ बढ़ जाती हैं। यद्यपि शास्त्रों में मध्यान्ह सामायिक के बाद आहार का कथन है फिर भी आजकल आहार के बाद मध्यान्ह की सामायिक-देववंदना की जाती है। जो भी हो, इस मंगलगोचर मध्यान्ह देववंदना को आहार के पहले कर लेने में कोई बाधा नहीं है। इसकी विधि निम्न प्रकार है-
वन्दना योग्य मुद्रा
मुद्रा के चार भेद हैं-जिनमुद्रा, योगमुद्रा, वन्दनामुद्रा, मुक्ताशुक्तिमुद्रा। इन चारों मुद्राओं का लक्षण क्रम से कहते हैं। जिनमुद्रा -दोनों पैरों में चार अंगुल प्रमाण अन्तर रखकर और दोनों भुजाओं को नीचे लटकाकर कायोत्सर्गरूप से खड़े होना सो जिनमुद्रा है। योगमुद्रा-पद्मासन, पर्यंकासन और वीरासन इन तीनों आसनों की गोद में नाभि के समीप दोनों हाथों की हथेलियों को चित रखने को जिनेन्द्रदेव योगमुद्रा कहते हैं। वन्दना मुद्रा-दोनों हाथों को मुकुलितकर और कुहनियों को उदर पर रखकर खड़े हुए पुरुष के या बैठे हुए के वन्दना मुद्रा होती है। मुक्ताशुक्तिमुद्रा-दोनों हाथों की अंगुलियों को मिलाकर और दोनों कुहनियों को उदर पर रखकर खड़े हुए या बैठे हुए को आचार्य मुक्ताशुक्तिमुद्रा कहते हैं।
(मुकुलित हाथ जोड़कर तीन आवर्त कर एक शिरोनति करके खड़े-खड़े जिनमुद्रा से या बैठकर योगमुद्रा से सत्ताईस उच्छ्वास में नव बार णमोकार मंत्र का जाप करें। पुनः पंचांग नमस्कार करके खड़े होकर मुक्ताशुक्ति मुद्रा से हाथ जोड़कर ‘‘थोस्सामिस्तव’’ पढ़ें।)
(पुनः खड़े होकर मुक्ताशुक्तिमुद्रा से हाथ जोड़कर तीन आवर्त एक शिरोनति कर पूर्वोक्त सामायिक दंडक पढ़ें। अनन्तर तीन आवर्त और एक शिरोनति कर सत्ताईस उच्छ्वास प्रमाण कायोत्सर्ग करें। कायोत्सर्ग पूर्ण होने पर पुनः पंचांग नमस्कार कर खड़े होकर तीन आवर्त और एक शिरोनति करें। पश्चात् थोस्सामि इत्यादि चतुर्विंशति स्तव पढ़कर अन्त में तीन आवर्त और एक शिरोनति करें। अनन्तर भगवान के सन्मुख पूर्वोक्त रीति से खड़े-खड़े ही वंदनामुद्रा से नीचे लिखी पंच महागुरुभक्ति पढ़ें।)
अंचलिका-इच्छामि भंते! समाहिभत्तिकाउस्सग्गो कओ तस्सालोचेउं, रयणत्तयसरूवपरमप्पज्झाणलक्खणसमाहिभत्तीए, णिच्चकालं अंचेमि पूजेमि वंदामि णमंसामि दुक्खक्खओ कम्मक्खओ बोहिलाहो सुगइगमणं समाहिमरणं जिणगुणसंपत्ति होउ मज्झं। मंगलगोचर भक्त प्रत्याख्यान क्रिया कब और कैसे करें? इस क्रिया के बाद साधुगण आहार करके आकर सामूहिकरूप से आचार्यश्री के समक्ष बैठकर प्रत्याख्यान ग्रहण करें। उसकी विधि निम्न प्रकार है- मंगलगोचर भक्त प्रत्याख्यान क्रिया नमोऽस्तु मंगलगोचरभक्तप्रत्याख्यानप्रतिष्ठा-पनक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं।
(पूर्ववत् दण्डक, जाप्य, थोस्सामि करके सिद्धभक्ति पढ़ें।)
प्राकृत सिद्धभक्ति का पद्यानुवाद
(अथवा प्राकृत या संस्कृत की सिद्धभक्ति भी पढ़ सकते हैं)
श्री सिद्धचक्र सब आठ कर्म, विरहित औ आठ गुणों युत हैं।
अनुपम हैं सब कार्य पूर्ण कर, अष्टम पृथ्वी पर स्थित हैं।।
ऐसे कृतकृत्य सिद्धगण का, हम नितप्रति वंदन करते हैं।
मन वचन काय की शुद्धी से, शिरसा अभिनन्दन करते हैं।।१।।
तीर्थंकर होकर सिद्ध हुए, बिन तीर्थंकर जो सिद्ध हुए।
जल से थल से जो सिद्ध हुए, जो भी आकाश से सिद्ध हुए।।
जो हुए अंतकृत केवलि या, बिन हुए सिद्धि को प्राप्त हुए।
उत्तम जघन्य मध्यम तनु की, अवगाहन धर जो सिद्ध हुए।।२।।
जो ऊर्ध्वलोक औ अधोलोक, औ तिर्यक् लोक से सिद्ध हुए।
उत्सर्पिणी अवसर्पिणी के भी, छह कालों से जो सिद्ध हुए।।
उपसर्ग सहन कर सिद्ध हुए, उपसर्ग बिना भी सिद्ध हुए।
उन सबको वंदूँ ढाई द्वीप, दो समुद्र से जो सिद्ध हुए।।३।।
मति-श्रुत से केवलज्ञान प्राप्त, या तीन ज्ञान या चार सहित।
केवलज्ञानी हो सिद्ध हुए, पाँचों संयम या चार सहित।।
संयम समकित औ ज्ञान आदि से, च्युत हो पुनि ग्रह सिद्ध हुए।
जो संयम समकित ज्ञान आदि से, बिना पतित हो सिद्ध हुए।।४।।
जो साधु संहरण सिद्ध बिना, संहरण प्राप्त हो सिद्ध हुए।
जो समुद्घात कर सिद्ध हुए, बिन समुद्घात भी सिद्ध हुए।।
खड्गासन और पर्यंकासन से, कर्म नाश कर सिद्ध हुए।
उन परम ज्ञानयुत सिद्धों को, मैं वंदूँ त्रिकरण शुद्धि किए।।५।।
जो भाव पुरुषवेदी मुनिवर, वर क्षपक श्रेणि चढ़ सिद्ध हुए।
जो भाव नपुंसक वेदी भी, थे पुरुष ध्यान धर सिद्ध हुए।।
जो भाववेद स्त्री होकर भी, द्रव्य पुरुष अतएव उन्हें।
हो शुक्लध्यान सिद्धि जिससे, सब कर्म नाश कर सिद्ध बने।।६।।
प्रत्येकबुद्ध और स्वयंबुद्ध, औ बोधित बुद्ध सुसिद्ध बनें।
उन सबको पृथक्-पृथक् प्रणमूँ, औ एक साथ भी नमूँ उन्हें।।७।।
पण नव दो अट्ठाईस चार, तेरानवे दो औ पाँच प्रकृति।
इक सौ अड़तालिस प्रकृति नाश, सब सिद्ध हुए प्रणमूँ नित प्रति।।८।।
जो अतिशय अव्याबाध सौख्य, औ अनंत अनुपम परम कहा।
इंद्रिय विषयों से रहित पूर्व, अप्राप्त-ध्रौव्य को प्राप्त किया।।९।।
लोकाग्रशिखर पर स्थित वे, अंतिम तनु से किंचित् कम हैं।
गल गया मोम सांचे अंदर, आकार सदृश आकृति धर हैं।।१०।।
वे जन्म-मरण औ जरा रहित, सब सिद्ध भक्ति से नुति उनको।
बुधजन प्रार्थित औ परम शुद्ध, वर ज्ञानलाभ देवो मुझको।।११।।
बत्तिस दोषों से रहित शुद्ध, जो कायोत्सर्ग विधी करके ।
अतिभक्तीयुत वंदन करते, वे तुरतहिं परम सौख्य लभते।।१२।।
अंचलिका (चौबोल छंद)
हे भगवन् ! श्री सिद्धभक्ति का, कायोत्सर्ग किया उसका।
आलोचन करना चाहूँ, जो सम्यग्रत्नत्रय युक्ता।।
अठविध कर्मरहित प्रभु ऊध्र्व-लोक मस्तक पर संस्थित जो।
तप से सिद्ध नयों से सिद्ध, सुसंयम सिद्ध चरितसिध जो।।
भूत भविष्यत् वर्तमान, कालत्रय सिद्ध सभी सिद्धा।
नित्यकाल मैं अर्चूूं पूजूँ, वंदूँ नमूँ भक्ति युक्ता।।
दुःखों का क्षय, कर्मों का क्षय, हो मम बोधि लाभ होवे।
(पूर्ववत् पृ. १२ से सामायिक दंडक, ९ जाप्य, पृ. १२ से थोस्सामि पढ़कर संस्कृत या हिन्दी की योगभक्ति पढ़ें।)
योगिभक्ति
(संस्कृत का पद्यानुवाद)
(अथवा संस्कृत की योगिभक्ति पृ. ३४ से पढ़ें)
जन्म-जरा बहु मरण रोग अरु, शोक सहस्रों से तापित।
दुःसह नरक पतन से डरते, सम्यग्बोध हुआ जाग्रत।।
जलबुदबुदवत् जीवन चंचल, विद्युतवत् वैभव सारे।
ऐसा समझ प्रशमहेतू मुनि-जन वन का आश्रय धारें।।१।।
पंच महाव्रत पंच समिति, त्रय गुप्ति सहित हैं मोह रहित।
शम सुख को मन में धारण कर, चर्या करते शास्त्र विहित।।
ध्यान और अध्ययनशील नित, इन दोनों के वश रहते।
कर्म विशुद्धी करने हेतू, घोर तपश्चर्या करते।।२।।
ग्रीष्म ऋतू में सूर्य किरण से, तपी शिलाओं पर बैठें।
मल से लिप्त देहयुत निस्पृह, कर्म बंध को शिथिल करें।।
काम-दर्प-रति-दोष-कषायों, से मत्सर से रहित मुनीश।
पर्वत के शिखरों पर रवि के, सन्मुख मुख कर खड़े यतीश।।३।।
सम्यग्ज्ञान सुधा को पीते, पाप ताप को शांत करें।
क्षमा नीर से पुण्यकाय का, वे मुनि सिंचन नित्य करें।।
धरें सदा संतोष छत्र को, तीव्र ताप संताप सहें।
ऐसे मुनिवर ग्रीष्म काल में, कर्मेन्धन को शीघ्र दहें।।४।।
वर्षाऋतु में मोरकण्ठ सम, काले इन्द्रधनुष वाले।
खूब गरजते शीतल वर्षा, वङ्कापात बिजली वाले।।
ऐसे मेघों को लखकर वे, मुुनिगण सहसा रात्रि में।
पुनरपि वृक्षतलों में बैठें, निर्भय ध्यान धरें वन में।।५।।
मूसल जलधारा बाणों से, ताड़ित होते मुनिपुंगव।
फिर भी चारित से नहिं डिगते, सदा अटल नरसिंह सदृश।।
भव दुःख से भयभीत परीषह, शत्रू का संहार करें।
शूरों में भी शूर महामुनि, वीरों में भी वीर बनें।।६।।
शीत में बरफ कणों से पीड़ित, महाधैर्य कंबल ओढ़ें।
चतुष्पथों में खड़े शीत की, रात बितावें ध्यान धरें।।७।।
आतापन तरुमूल चतुष्पथ, इस विध तीन योगधारी।
सकल तपश्चर्याशाली नित, पुण्य योग वृद्धिंकारी।।
परमानन्द सुखामृत इच्छुक, वे भगवान महामुनिगण।
हमको श्रेष्ठ समाधि शुक्ल, शुचि ध्यान प्रदान करें उत्तम।।८।।
ग्रीष्म ऋतू में गिरि शिखरों पर, वर्षा रात्रि में तरु तल।
शीतकाल में बाहर सोते, उन मुनि को वंदूँ प्रतिपल।।९।।
पर्वत कंदर दुर्गों में जो, नग्न दिगम्बर हैं रहते।
पाणिपात्रपुट से आहारी, वे मुनि परमगती लभते।।१०।।
-अंचलिका-
हे भगवन्! इस योगभक्ति का, कायोत्सर्ग किया रुचि से।
उसकी आलोचन करने की, इच्छा करता हूँ मुद से।।
ढाई द्वीप अरु दो समुद्र की, पन्द्रह कर्मभूमियों में।
आतापन तरुमूल योग, अभ्रावकाश से ध्यान धरें।।१।।
मौन करें वीरासन कुक्कुट, आसन एकपाश्र्व सोते।
बेला तेला पक्ष मास, उपवास आदि बहु तप तपते।।
ऐसे सर्व साधुगण की मैं, सदा काल अर्चना करूँ।
पूजूँ वंदूँ नमस्कार भी, करूँ सतत वंदना करूँ।।२।।
दुःखों का क्षय कर्मों का क्षय, हो मम बोधि लाभ होवे।
सुगतिगमन हो समाधिमरणं, मम जिनगुणसंपद् होवे।।३।।
पुनः सभी शिष्य-मुनि, आर्यिकायें आदि आचार्यश्री से उपवास मांगें या अस्वस्थ आदि हों, उपवास नहीं कर सकते हों तो गुरु की आज्ञा से अगले दिन आहार लेने तक प्रत्याख्यान मांंगें। तब आचार्यदेव स्वयं उपवास आदि ग्रहण कर सबको उपवास आदि प्रदान करें। अनंतर सभी शिष्यवर्ग मिलकर आचार्य वंदना करें-
ऊर्जकृष्णचतुर्दश्यां पश्चाद्रात्रौ च मुच्यताम्।।६७।।
ततः अर्थात् मंगलगोचर प्रत्याख्यान ग्रहण करने के बाद ‘‘आषाढ़ शुक्ला चतुर्दश्या रात्रेः प्रथमप्रहरोद्देशे’’आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी के दिन पूर्वरात्रि में साधुवर्ग वर्षायोग ग्रहण करें-वर्षायोग ग्रहण की भक्तियाँ पढ़कर वर्षायोग-चातुर्मास की स्थापना कर लेवें। इसमें पहले सिद्धभक्ति और योगिभक्ति करें पुनः प्रदक्षिणारूप से चारों दिशाओं में अंचलिका सहित चैत्यभक्ति पढ़ें। इस भक्ति में ‘‘यावंति जिनचैत्यानि’’ इत्यादि श्लोक बोलकर ‘‘स्वयंभुवा भूतहितेन’’ इत्यादि स्वयंभूस्तोत्र की दो स्तुतियाँ पढ़कर चैत्यभक्ति पढ़कर पूर्वदिशा के चैत्यालयों की वंदना करें। ऐसे ही स्वयंभू स्तोत्र की आगे-आगे की दो-दो स्तुतियाँ पढ़कर चैत्यभक्ति पढ़ते हुए दक्षिण, पश्चिम और उत्तर दिशा के चैत्यालयों की भावों से ही वंदना करें। इस चतुर्दिक् वंदना में वहाँ पर स्थित जनों को ‘‘योगतंदुल’’-पीले चावल का प्रक्षेपण करना चाहिए, ऐसा वृद्धव्यवहार-पुरानी परंपरा है। इसके बाद पंचमहागुरुभक्ति और शांतिभक्ति करके वर्षायोग ग्रहण की क्रिया पूर्ण करें।
विशेष-कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की पिछली रात्रि में यही विधि करके वर्षायोग समापन किया जाता है। मुक्ताशुक्ति मुद्रा से तीन आवर्त एक शिरोनति करके पृ. १२ से सामायिक दंडक पढ़ें। पुनः९ जाप्य करके पृ. १२ से थोस्सामिस्तव पढ़कर ‘‘सिद्धानुद्धूत’’ इत्यादि सिद्धभक्ति पढ़ें।
(पृ. १२ से सामायिक दंडक, ९ जाप्य, पृ. १२ से थोस्सामि पढ़कर समाधिभक्ति पढ़ें।)
समाधिभक्ति
स्वात्मरूप के अभिमुख, संवेदन को श्रुतदृग् से लखकर।
भगवन् ! तुमको केवलज्ञान, चक्षु से देखूँ झट मनहर।।१।।
शास्त्रों का अभ्यास जिनेश्वर, नमन सदा सज्जन संगति।
सच्चरित्रजन के गुण गाऊँ, दोष कथन में मौन सतत।।
सबसे प्रिय हित वचन कहूँ, निज आत्म तत्त्व को नित भाऊँ।
यावत् मुक्ति मिले तावत्, भव-भव में इन सबको पाऊँ।।२।।
जैनमार्ग में रुचि हो अन्य, मार्ग निर्वेग हों भव-भव में।
निष्कलंक शुचि विमल भाव हों, मति हो जिनगुण स्तुति में।।३।।
गुरुपदमूल में यतिगण हों, अरु चैत्यनिकट आगम उद्घोष।
होवे जन्म-जन्म में मम, संन्यासमरण यह भाव जिनेश।।४।।
जन्म-जन्म कृत पाप महत अरु, जन्म करोड़ों में अर्जित।
जन्म-जरा-मृत्यू के जड़ वे, जिन वंदन से होते नष्ट।।५।।
बचपन से अब तक जिनदेवदेव! तव पाद कमल युग की।
सेवा कल्पलता सम मैंने, की है भक्तिभाव धर ही।।
अब उसका फल माँगूँ भगवन् ! प्राण प्रयाण समय मेरे।
तव शुभ नाम मंत्र पढ़ने में, कंठ अकुंठित बना रहे।।६।।
तव चरणाम्बुज मुझ मन में, मुझ मन तव लीन चरणयुग में।
तावत् रहे जिनेश्वर! यावत्, मोक्षप्राप्ति नहिं हो जग में।।७।।
जिनभक्ती ही एक अकेली, दुर्गति वारण में समरथ।
जन का पुण्य पूर्णकर मुक्ति-श्री को देने में समरथ।।८।।
पंच अरिंजय नाम पंच-मतिसागर जिन को वंदूँ मैं।
पंच यशोधर नमूँ पंच-सीमंधर जिन को वंदूँ मैं।।९।।
रत्नत्रय को वंदूँ नित, चउवीस जिनवर को वंदूूँ मैं।
पंचपरमगुरु को वंदूँ, नित चारण चरण को वंदूँ मैं।।१०।।
‘‘अर्हं’’ यह अक्षर है ब्रह्मरूप, पंचपरमेष्ठी का वाचक।
सिद्धचक्र का सही बीज है, उसको नमन करूँ मैं नित।।११।।
अष्टकर्म से रहित मोक्ष-लक्ष्मी के मंदिर सिद्ध समूह।
सम्यक्त्वादि गुणों से युत, श्रीसिद्धचक्र को सदा नमूँ।।१२।।
सुरसंपति आकर्षण करता, मुक्तिश्री को वशीकरण।
चतुर्गति विपदा उच्चाटन, आत्म-पाप में द्वेष करण।।
दुर्गति जाने वाले का, स्तंभन मोह का सम्मोहन।
पंचनमस्कृति अक्षरमय, आराधन देव! करो रक्षण।।१३।।
अहो अनंतानंत भवों की, संतति का छेदन कारण।
श्री जिनराज पदाम्बुज है, स्मरण करूँ मम वही शरण।।१४।।
अन्य प्रकार शरण नहिं जग में, तुम ही एक शरण मेरे।
अतः जिनेश्वर करुणा करके, रक्ष मेरी रक्षा करिये।।१५।।
त्रिभुवन में नहिं त्राता कोई, नहिं त्राता है नहिं त्राता।
वीतराग प्रभु छोड़ न कोई, हुआ न होता नहिं होगा।।१६।।
जिन में भक्ती सदा रहे, दिन-दिन जिनभक्ती सदा रहे।
जिन में भक्ती सदा रहे, मम भव-भव में भी सदा रहे।।१७।।
तव चरणाम्बुज की भक्ती को, जिन! मैं याचूँ मैं याचूँ।
पुनः पुनः उस ही भक्ति की, हे प्रभु! याचन करता हूँ।।१८।।
विघ्नसमूह प्रलय हो जाते, शाकिनि भूत पिशाच सभी।
श्री जिनस्तव करने से ही, विष निर्विष होता झट ही।।१९।।
-दोहा-
भगवन् ! समाधिभक्ति अरु, कायोत्सर्ग कर लेत।
चाहूँ आलोचन करन, दोष विशोधन हेत।।१।।
रत्नत्रय स्वरूप परमात्मा, उसका ध्यान समाधि है।
नितप्रति उस समाधि को अर्चूं, पूजूँ वंदूँ नमूँ उसे।।
वार्षिक प्रतिक्रमण
अष्टम अध्यायअनगार धर्मामृत में कहा है-एतेन वृहत्प्रतिक्रमणा: सप्त भवन्तीत्युत्तं भवति। ताश्च यथा-व्रतारोपणी, पाक्षिकी कार्तिकान्तचातुर्मासी फाल्गुनान्तचातुर्मासी, आषाढान्त- सांवत्सरी सार्वातिचारी उत्तमार्थी चेति। अर्थात् आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी या पूर्णिमा को साधु वार्षिक प्रतिक्रमण करते हैं तथा प्रत्येक पक्ष में चतुर्दशी, अमावस्या या पूर्णिमा को पाक्षिक प्रतिक्रमण करते हैं। कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी या अमावस्या को भी पाक्षिक प्रतिक्रमण होता है पुन: कार्तिक शुक्ला चतुर्दशी या पूर्णिमा को चातुर्मासिक प्रतिक्रमण होता है। ऐसे ही फाल्गुन के अंत में चतुर्दशी या पूर्णिमा को चातुर्मासिक प्रतिक्रमण किया जाता है। अर्थात् पन्द्रह दिन के दोषों के शोधन हेतु पाक्षिक, चार महीने के दोष विशोधन हेतु चातुर्मासिक और वर्ष भर के दोषों की शुद्धि हेतु वार्षिक प्रतिक्रमण किये जाते हैं। वर्षायोग निष्ठापना कब और कैसे करें? ‘‘ऊर्जकृष्णचतुर्दश्यां पश्चाद् रात्रौ च मुच्यताम्।।’’ ‘‘कार्तिकस्य कृष्ण चतुर्दशीतिथौ’’ अर्थात् कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की पिछली रात्रि में वर्षायोग को निष्ठापित कर देवें।
वर्षायोग निष्ठापन क्रिया
वर्षायोग प्रतिष्ठापना में जो-जो भक्तियाँ पढ़ी जाती हैं वे ही सारी भक्तियाँ यहाँ भी पढ़ी जाती हैं अन्तर इतना ही है कि ‘प्रतिष्ठापन’ के स्थान पर ‘निष्ठापन’ बोलें। यथा- नमोऽस्तु वर्षायोगनिष्ठापनक्रियायां पूर्वाचार्यानुक्रमेण सकलकर्मक्षयार्थं भावपूजावंदनास्तवसमेतं सिद्धभक्तिकायोत्सर्गं करोम्यहं। ऐसे ही वर्षायोगप्रतिष्ठापन की पूरी क्रिया करनी चाहिए।
वर्षायोग कितने दिनों का है?
आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी के दिन वर्षायोग प्रतिष्ठापना करके यद्यपि कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की पिछली रात्रि में समापन कर देते हैं फिर भी साधुओं को ‘‘शुक्लोर्जपंचमीं यावत्’’ कार्तिक शुक्ला पंचमी के पहले विहार नहीं करना चाहिए। यदि कदाचित् किसी विशेष कारणवश-दुर्निवार उपसर्गादि के निमित्त से वर्षायोग-चातुर्मास के मध्य उस गाँव से विहार करना पड़ जावे तो गुरु से प्रायश्वित लेना चाहिए। ऐसे ही आषाढ़ शुक्ला चतुर्दशी की पूर्वरात्रि में कदाचित् वर्षायोग स्थापना न कर सवेंâ तो ‘‘नभश्चतुर्थीं न लंघयेत् ’’ श्रावण कृष्णा चतुर्थी को भी कर सकते हैं इसके बाद नहीं। अथवा चतुर्थी के स्थान पर पहुँचकर पंचमी को भी वर्षायोग स्थापना कर सकते हैं। चातुर्मास के पहले और अनन्तर भी एक-एक माह अधिक उस चातुर्मास स्थान पर रह सकते हैं, ऐसा कथन है।
आचार्य श्री पुष्पदंत और भूतबली महामुनि ने श्रावण कृष्णा पंचमी को वर्षायोग स्थापना क्यों की थी ?
सौराष्ट्र देश में गिरिनगरपुर के निकट ऊर्जयंतगिरि प्रसिद्ध है जो कि भगवान नेमिनाथ की निर्वाणभूमि है। उस पर्वत की चंद्रगुफा में निवास करने वाले महातपस्वी परममुनियों में श्रेष्ठ धरसेनाचार्य हुए हैं। वे अग्रायणीय नामक दूसरे पूर्व की पंचम वस्तु के महाकर्म प्रकृति प्राभृत नामक चतुर्थ अधिकार के ज्ञाता थे। उन्होंने अपनी आयु को अल्प जानकर मन में विचार किया कि मैंने जितने भी श्रुत का अध्ययन किया है मेरे अनंतर इसका व्युच्छेद न हो जाए, ऐसा कुछ उपाय करना चाहिए। देशेन्द्र नामक देश में एक वेणाकतटीपुर है। उस समय वहाँ महामहिमा महान् महोत्सव के प्रसंग में मुनियों का संघ एकत्रित हुआ था। आचार्यवर्य श्री धरसेन ने एक ब्रह्मचारी के द्वारा उन मुनियों के पास एक पत्र भेजा। उन मुनियों ने ब्रह्मचारी द्वारा प्रदत्त पत्र को पढ़ा। उसमें लिखा था कि ‘‘स्वस्तिश्रीमान् ऊर्जयंत तट निकट चंद्र गुफावास से धरसेनगणी वेणाकतट में आए हुए यतियों की अभिवंदना करके यह कार्य सूचित करते हैं कि मेरी आयुु अब कुछ दिनों की अवशिष्ट है इसलिए मेरे द्वारा गृहीत शास्त्र ज्ञान का विच्छेद न हो जाए इसलिए आप मेरे श्रुत को ग्रहण और धारण करने में समर्थ तीक्ष्ण बुद्धि वाले दो मुनीश्वरों को हमारे पास भेज दो।” इस लेख के अर्थ को अच्छी तरह समझकर इस संघ के आचार्य ने भी सुयोग्य दो मुनियों को उनके पास जाने की आज्ञा दे दी। वहाँ से दो मुनिराज विहार करते हुए आ रहे हैं। इधर रात्रि के पिछले प्रहर में श्री धरसेनाचार्य ने स्वप्न देखा कि श्वेतवर्ण वाले सुन्दर सुडौल दो बैल मेरे चरणों में नमस्कार कर रहे हैं और उसी दिन ही ये दो शिष्य गुरू के चरणकमल के निकट पहुँचकर यथोचित वंदना विधि करते हैंं। शास्त्रोक्त विधि से तीन दिन विश्राम करके ये गुरू से अपने आने का हेतु निवेदित करते हैं। गुरुदेव ने यद्यपि इन्हें योग्य समझ लिया था फिर भी उनकी बुद्धि की परीक्षा हेतु दोनों को एक-एक विद्या देकर कहा कि नेमीश्वर जिनराज की सिद्धशिला पर जाकर विधिवत् इस विद्या को सिद्ध करके लाओ। गुरू की आज्ञा से उन दोनों मुनियों ने वैसा ही किया। विद्या सिद्ध होते ही एक मुनि के सामने कानी देवी आकर खड़ी हो गयी और दूसरे मुनि के सामने बड़े दांतों वाली देवी आ गई, ऐसा देखकर उन मुनियों ने सोचा कि देवियों का यह स्वरूप नहीं है अत: मंत्र में कुछ अशुद्धि अवश्य है पुन: उन्होंने विद्या और मंत्रशास्त्र के व्याकरण के अनुसार मंत्र को शुद्ध किया जिनके सामने कानी देवी आई थी उनके मंत्र में एक अक्षर कम था और दूसरे मुनि के मंत्र में एक अक्षर अधिक था। दोनों ने अपने-अपने मंत्रों को शुद्ध करके पुन: विद्या सिद्ध की, तब देवियाँ सुन्दर रूप में प्रकट होकर बोलीं-भगवन्! हमें क्या आज्ञा है? मुनियों ने कहा-हमने केवल गुरू की आज्ञा से विद्या सिद्ध की है अत: हमेें कुछ कार्य आपसे नहीं है। वे देवियाँ नमस्कार करके अपने-अपने स्थान चली गयीं। दोनों मुनियों ने आकर गुरुदेव से सारी बातें बता दीं। गुरू ने उन्हें अतियोग्य समझकर सुप्रशस्त मुहूर्त में उन्हें श्रुत का अध्ययन कराना शुरू कर दिया। उन मुनियों ने भी निष्प्रमादी होकर ज्ञानविनय और गुरूविनय को करते हुए थोड़े ही दिनों में गुरू के श्रुत को पढ़ लिया, वह दिन आषाढ़ सुदी एकादशी का था। उसी दिन देवों ने आकर इन दोनों मुनियों की पूजा की और एक मुनि की दांतों की विषम पंक्तियों को ठीक करके कुंदपुष्प के समान कर दिया और उनका ‘पुष्पदंत’ ऐसा नाम रख दिया तथा दूसरे मुनि की भूतजाति के देवों ने गंध, माला, धूप आदि से और वाद्य विशेषों से पूजा करके उनका ‘भूतबलि’ यह नाम प्रसिद्ध कर दिया। श्रीधरसेनाचार्य ने अपनी मृत्यु निकट जानकर और इन्हें संक्लेश न हो, इस हेतु से प्रियहित वचनों से उन्हें शिक्षा देकर दूसरे ही दिन अर्थात् आषाढ़ सुदी द्वादशी को वहाँ से कुरीश्वर देश की तरफ विहार करा दिया। उन मुनिराज ने नव दिन में वहाँ पत्तन में आकर के आषाढ़ कृष्णादक्षिण देश में प्रत्येक मास का शुक्ल पक्ष पहले होता है फिर कृष्ण पक्ष होता है। जैसे कि यहां पर आषाढ़ सुदी के बाद आषाढ़ वदी ली गयी हैं। किन्तु उत्तर में कृष्ण पक्ष के अनंतर शुक्ल पक्ष आता है अत: आषाढ़ सुदी के पहले पक्ष को ही आषाढ़ वदी कहते हैं। यह सौरमास और चांद्रमास की व्यवस्था है। पंचमी के (श्रावण कृष्णा पंचमी) वर्षायोग ग्रहण कर लिया। वर्षाकाल बिताकर वे दोनों दक्षिण की तरफ विहार कर गये। स्वासन्न मृतिं ज्ञात्वा…. तौ अपि नवमिर्दिवसैर्गत्वां तत्पत्तनमवाप्य। योगं प्रगृह्य तत्राषाढ़े ?मास्यसितिपक्षपंचम्यां। वर्षाकालं कृत्वा विहरंतोै दक्षणाभिमुखम्।।१३१।पुष्पदंत मुनिराज ने करहाटक देश में ‘जिनपालित’ नामक अपने भानजे को घर से निकालकर दीक्षा देकर उन्हें साथ ले लिया। भूतबलि मुनिराज तो मथुरा में रहे और पुष्पदंत मुनिराज ने भी छह खंडों मेें कर्म प्रकृति प्राभृत गं्रथ को बनाने की इच्छा रखते हुए जिनपालित नामक मुनि को पढ़ाना प्रारम्भ कर दिया। बीस प्ररूपणा सूत्र ग्रन्थ को बनाते हुए उन्होंने सबसे प्रथम सत्प्ररूपणा से युक्त ‘जीवस्थान’ नामक अधिकार को बनाया। उन संबंधी सौ सूत्रों का अध्ययन कराकर जिनपालित मुनि को भूतबलि गुरू के पास उनके अभिप्राय को समझने हेतु भेज दिया। भूतबलि महामुनि ने भी जिनपालित द्वारा पठित सत्प्ररूपणा को सुनकर अतीव हर्ष व्यक्त किया और साथ ही साथ पुष्पदंत मुनिराज का षट्खंडागम ग्रन्थ रचना का अभिप्राय भी समझ लिया तथा पुष्पदंत मुनिराज की भी अल्प आयु जानकर और आगे के मनुष्यों को अल्प बुद्धि वाले समझकर उन्होंने पूर्वसूत्रों सहित द्रव्य प्ररूपणा आदि अधिकारों को पाँच खंडों में एवं महाबंध नामक अधिकार को छठे खंड में रचकर तैयार किया। इस प्रकार भूतबलि आचार्य ने षट्खंंडागम की रचना करके और उसे लिपिबद्ध करके ज्येष्ठ सुदी पंचमी के दिन चतुर्विध संघ सहित उस ग्रंथराज की महापूजा विधि की। उसी समय से आज तक यह तिथि श्रुतपंचमी के नाम से प्रख्यात हो गई। आज भी जैन लोग श्रुतपंचमी के दिन षट्खंडागम ग्रंथराज की और समस्त उपलब्ध श्रुत की पूजा करके अपने जीवन को कृतार्थ कर लेते हैं। तात्पर्य यह है कि इन पुष्पदंत और भूतबलि नामक महामुनियों ने गुरू श्रीधरसेनाचार्य की आज्ञानुसार श्रावण कृष्णा पंचमी को चातुर्मास स्थापित किया था।
जिनकल्पी मुनि का चातुर्मास
आगम में मुनि के सामान्यतया दो भेद किए हैं-जिनकल्पी और स्थविरकल्पी। उसमें से पहले आप जिनकल्पी मुनि की चर्या देखिए- ‘‘ये जिनकल्पी मुनि उत्तम संहननधारी होते हैं, यदि जिनकल्पी मुनियों के पैर में कांटा लग जाए अथवा नेत्रों में धूलि पड़ जावे तो वे महामुनि अपने हाथ से न तो कांटा निकालते हैं और न धूलि ही निकालते हैं। यदि अन्य कोई दूसरा मनुष्य उस कांटे या धूलि को निकालता है तो वे मौन रहते हैं। जब वर्षाऋतु आ जाती है और मुनियों का गमन करना बंद हो जाता है उस समय वे जिनकल्पी महामुनि छह महीने तक निराहार रहते हैं और छह महीने तक कायोत्सर्ग धारण कर किसी एक ही स्थान पर खड़े रहते हैं अर्थात् उनका उत्तम संहनन होता है। अस्थि आदि सब वङ्कामय होती हैं इसीलिए उनमें इतनी शक्ति होती है। वे महामुनि ग्यारह अंग के पाठी होते हैं, धर्मध्यान व शुक्लध्यान में लीन रहते हैं, समस्त कषायों के त्यागी होते हैं, मौनव्रत को धारण करने वाले होते हैं और पर्वतों की गुफा-कंदराओं में रहते हैं, बाह्य-अभ्यंतर समस्त परिग्रहों के त्यागी होते हैं, स्नेह रहित परम वीतराग होते हैं और समस्त इच्छाओं से सर्वथा रहित होते हैं, ऐसे ये यतीश्वर महामुनि भगवान् जिनेंद्र के समान सदाकाल विहार करते रहते हैं, इसलिए ये जिनकल्पी मुनि कहलाते हैं१। इन जिनकल्पी महामुनियों के कतिपय उदाहरण देखिए- ‘‘जंबूद्वीप के पूर्वविदेह में रत्नसंचय नगर में वङ्काायुध नाम के चक्रवर्ती हुए हैं। उन्होंने क्षेमंकर तीर्थंकर के पास दीक्षा लेकर सिद्धिगिरि नामक पर्वत पर जाकर एक वर्ष के लिए प्रतिमायोग धारण कर लिया। उनके चरणों का आश्रय पाकर बहुत सी सर्पों की वामियाँ तैयार हो गर्इं और उनके शरीर को चारों तरफ से लताओं ने वेष्ठित कर लिया था। एक वर्ष का योग समाप्त होने के बाद ये मुनिराज अन्यत्र चिरकाल तक विहार करते हुये घोराघोर तपश्चरण करते रहे। अंत में समाधिपूर्वक मरण करके ऊध्र्व ग्रैवेयक में अहमिंद्र हो गये। ये ही महापुरूष इस वङ्काायुध चक्रवर्ती के भव से पाँचवें भव में भगवान शांतिनाथ तीर्थंकर हुए हैं, जोकि पुनरपि यहाँ भरतक्षेत्र के पाँचवें चक्रवर्ती हुए हैं।”
भगवान बाहुबली स्वामी
‘‘इस भरतक्षेत्र में भगवान ऋषभदेव के द्वितीय पुत्र भगवान बाहुबली ने भी एक वर्ष का योग धारण किया था।’ वे भावलिंगी मुनि थे। उन्हें अनेक ऋद्धियाँ प्रगट हो गयी थीं और मन:पर्ययज्ञान भी प्रकट हो गया था। यह मन:पर्ययज्ञान द्रव्यलिंगी मुनि के असंभव है। उनके मन में मिथ्याशल्य न होकर यह विकल्प अवश्य हो जाया करता था कि ‘भरत चक्रवर्ती को मुझसे क्लेश हो गया है।’ यही कारण था कि भरत सम्राट् के द्वारा पूजा होते ही उनका विकल्प दूर हो गया और वे क्षपकश्रेणी पर आरोहण करके केवली हो गये। भगवज्जिनसेनाचार्य ने इस बात को आदिपुराण में स्पष्टरूप से कहा है। यथा- ‘मतिज्ञान की प्रकर्षता से उन्हें बुद्धि आदि ऋद्धियाँ प्रकट हो गयी थीं, श्रुतज्ञान की प्रकर्षता से समस्त अंगों और पूर्वों के जानने आदि की शक्ति का विस्तार हो गया था, अवधिज्ञान में वे परमावधि को उल्लंघन कर सर्वावधि को प्राप्त हुए थे और मन: पर्ययज्ञान में विपुलमति मन:पर्यय के स्वामी हो गये थे। वह भरतेश्वर मुझसे संक्लेश को प्राप्त हो गया है’ यह विचार बाहुबली के हृदय में विद्यमान रहता था, इसलिए केवलज्ञान ने भरत द्वारा पूजा की अपेक्षा की थी अर्थात् भरत के द्वारा पूजा होते ही उनका उपर्युक्त विकल्प दूर हो गया और उन्हें केवलज्ञान प्रगट हो गया था।”
ये बाहुबली भगवान भी जिनकल्पी सदृश ध्यान में तत्पर रहे थे।
सो जिणकप्पो उत्तो उत्तमसंहणणधारिस्स।।११९।।
जल वरिसणवायाई गमणे भग्गे य जम्म छम्मासं।
अच्छंति णिराहारा काओसग्र्गेण छम्मासं।।१२१।।
जिण इव विहरंति सदा ते जिणकप्पे ठिया सवणा।।१२३।।
(भावसंग्रह पृ. ९३)
दधाना सततं मौनं आद्यसंहननाश्रिता:।
कंदर्या कानने शैले बसंति तटनीतटे।।१०७।।
षण्णसमवतिष्ठंते प्रवृट्कालेगिसंकुले।
जाते मार्गे निराहारा: कायोत्सर्गं समाश्रिता:।।१०८।।
महामुनि सिद्धार्थ और सुकौशल
अयोध्या नगरी के प्रसिद्ध सेठ सिद्धार्थ अपनी बत्तीस स्त्रियों में से सेठानी जयावती पर अधिक प्रेम करते थे किन्तु इन स्त्रियों में से किसी के संतान नहीं थी। जयावती संतान के लिए हमेशा कुदेवों की उपासना किया करती थी। एक दिन कुदेवों की पूजा करते हुये दिगम्बर मुनिराज ने उसे देखा और सम्यक्त्व का उपदेश दिया। मुनिराज कहने लगे-हे भद्रे! धन, पुत्र आदि लौकिक सुख भी धर्म के प्रसाद से ही मिलते हैं अत: तू जिनधर्म पर विश्वास करते हुए सदैव पुण्य का अर्जन कर, तेरी इच्छा अवश्य पूरी होगी तथा अंत में चलते समय मुनिराज ने कहा कि तुझे सात के भीतर ही पुत्ररत्न की प्राप्ति होगी। मुनिराज के सदुपदेशमयी अमृत को पीकर सेठानी ने अतीव आनंद का अनुभव किया। कालांतर में उसने पुत्ररत्न को जन्म दिया किंतु सेठ सिद्धार्थ पुत्र के मुख का अवलोकन कर उसे तत्क्षण ही अपने पद पर स्थापित करके आप विरक्त हो नयंधर मुनिराज से दीक्षा लेकर तपश्चरण करने लगे। जयावती को पति के वियोग का असह्य दु:ख हुआ इससे वह आर्तध्यान से पीड़ित रहने लगी। उसे मुनिराज सिद्धार्थ पर ही नहीं किन्तु सभी मुनियों पर कषाय हो गयी। उसने अपने घर में मुनियों का आना-जाना बंद कर दिया। वयप्राप्त होने पर सुकौशल की भी बत्तीस कन्याओं से शादी हो गयी। सुकौशल भी महान् पुण्य से प्राप्त असीम सम्पत्ति और सुख का भोग करते हुए समय व्यतीत कर रहे थे। किसी समय सुकौशल, माता जयावती, अपनी स्त्री और धाय के साथ महल की छत पर बैठे हुए अयोध्या की शोभा देख रहे थे। उन्होंने सामने से आते हुए एक मुनिराज को देखा। ये मुनि इनके पिता सिद्धार्थ ही थे। अकस्मात् जीवन में पहली बार दिगम्बर मुनि को देखकर सुकौशल आश्चर्यचकित होकर माँ से पूछते हैं कि मात:! ये कौन हैं? सिद्धार्थ को देखते ही जयावती के क्रोध भड़क उठा अत: उसने उपेक्षा और ग्लानि से कहा कि होगा कोई भिखारी, तुझे इससे क्या मतलब? अपनी माँ के इस उत्तर से सुकौशल को संतोष नहीं हुआ। पुन: प्रश्न किया-मात:! ये तो कोई महापुरूष अतितेजस्वी मालूम पड़ रहे हैं तुम इन्हें भिखारी कैसे कह रही हो? उस समय जयावती के दुर्भाव को देखकर सुनंदा धाय से न रहा गया, उसने वास्तविक परिचय देना चाहा किन्तु जयावती के संकेत से वह पूरा नहीं बोल सकी। तब सुकौशल ने भोजन के समय भोजन न करने का हठ धर लिया और वास्तविक परिचय जानना चाहा अनंतर सुनंदा धाय ने सारी बातें बता दीं। सुकौशल उसी समय विरक्त होकर अपनी सुभद्रा पत्नी के गर्भस्थ बालक को ही अपना श्रेष्ठीपद संभलाकर पिता के पास पहुँचे और उनसे जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। अपने प्रियपुत्र के भी दीक्षित हो जाने से जयावती अतीव दु:ख से पागल जैसी हो गयी। इस चिंता और आर्तध्यान से मरण कर वह व्याघ्री हो गई। ‘‘एक समय सिद्धार्थ और सुकौशल मुनिराज (पिता और पुत्र) मौद्गिल पर्वत पर वर्षायोग ग्रहण करके स्थित हो गये। अनंतर योग पूर्ण करके चार मास उपवास के बाद वे दोनों महामुनि आहार के लिए पर्वत से नीचे उतरे। उस समय व्याघ्री ने (जयावती के जीव ने) पूर्व जन्म के क्रोध के संस्कारवश उन्हें शत्रु समझकर उनका भक्षण करना शुरू कर दिया। वे दोनों मुनि समाधिमरण से शरीर छोड़कर सर्वार्थसिद्धि में अहमिंद्र हो गये। आगे मनुष्यलोक मेंं आकर उसी भव से निर्वाण को प्राप्त करेंगे
इस प्रकार जिनकल्पी मुनियों के चातुर्मास आदि के अनेक उदाहरण आगम में भरे हुए हैं।
स्थविरकल्पी मुनि के चातुर्मास
जिनेंद्रदेव ने स्थविरकल्पी का स्वरूप इस प्रकार बताया है कि जो मुनि पाँचों प्रकार के वस्त्रों का अर्थात् सूत, रेशम, ऊन, चर्म और वृक्ष की छाल से बने वस्त्रों का सर्वथा त्याग कर देते हैं, अकिंचन व्रत धारण करते हैं और मयूर पंख की पिच्छिकारूप प्रतिलेखन ग्रहण करते हैं, पाँच महाव्रतों को धारण करते हैं, बिना याचना किये, श्रावक द्वारा भक्तिभाव से दिये गये आहार को खड़े होकर करपात्र में ग्रहण करते हैं, बाह्य और अभ्यंतर तप को करने में उद्यमी रहते हैं, हमेशा छह आवश्यक क्रियाओं में तत्पर रहते हैं, क्षितिशयन और केशलोंच मूलगुणोें का पालन करते हुए जिनेंन्द्र देव के समान ही माने जाते हैं, वे स्थविरकल्पी कहलाते हैं।
दु:षमकाल में शरीर के संहनन उत्तम-बलवान नहीं होते हैं इसलिए वे मुनि किसी नगर, गाँव या किसी पुर में रहते हैं और अपने तपश्चरण आदि के प्रभाव से स्थविरकल्प में स्थित होने से स्थविरकल्पी कहलाते हैं” वे मुनि अपने उपकरण ऐसे रखते हैं कि जिससे उनके चारित्र का किसी प्रकार से भंग न हो। वे अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार किसी के द्वारा दिए गए शास्त्र को ग्रहण करते हैं। इस पंचमकाल में ये मुनि संघ में रहकर समुदायरूप से विहार करते हैं, अपनी शक्ति के अनुसार धर्म प्रभावना करते हुये भव्यजीवों को धर्म का उपदेश देते हैं तथा शिष्यों का संग्रह करते हैं और उनका पालन करते हैं। यह काल दु:षम है, इस काल में शरीर के संहनन अत्यन्त हीन होते हैं, मन अत्यन्त चंचल रहता है, तथापि धीर-वीर पुरुष महाव्रतों का भार धारण करने में अत्यन्त उत्साहित रहते हैं यह भी एक आश्चर्य की बात है। पहले समय में जितने कर्मों को मुनि लोग अपने शरीर से हजार वर्ष में नष्ट करते थे, उतने ही कर्मों को आजकल स्थविरकल्पी मुनि अपने हीन संहनन वाले शरीर से एक वर्ष में ही क्षय कर डालते हैं।” इसी प्रकार से अन्यत्र भी स्थविरकल्पी मुनि के विषय में कहा गया है कि ये मुनि स्थविर-वृद्ध साधुओं के रक्षण तथा पोषण में सावधान रहते हैं, इसीलिए महर्षि लोग इन्हें स्थविरकल्पी कहते हैं। इस भीषण दु:षमकाल में हीन संहनन के होने से ये मुनि स्थानीय नगर, ग्राम आदि के जिनालय में रहते हैं। यद्यपि यह काल दु:सह है, शरीर का संहनन हीन है, मन अत्यन्त चंचल है और मिथ्यामत सारे संसार में व्याप्त हो रहा है, तो भी ऐसे समय में भी ये मुनि संयम के पालन करने में तत्पर रहते हैं, यही एक विशेषता है।”
वर्तमान काल के मुनि
उपर्युक्त स्थविरकल्पी के लक्षण के अनुसार आजकल के मुनि हीन संहनन वाले होने से स्थविरकल्पी ही होते हैं, अत: जिनागम की आज्ञा के अनुसार ये ग्राम, नगर आदि के मंदिरों में या वसतिकाओं में वर्षायोग की स्थापना करते हैं और रहते हैं। कोई-कोई मुनि अपने को जिनकल्पी समझकर संघ में रहने वाले साधुओं की या संघ की व्यवस्था संभालने वाले आचार्य की अवहेलना और निंदा भी करते हैं तथा कोई-कोई श्रावक भी संघ के आचार्य की निंदा किया करते हैं जो कि आगम की ही अवहेलना करते हैं, ऐसा स्पष्ट हो जाता है।
तीर्थंकर भगवान वर्षायोग नहीं करते हैं
तीर्थंकर भगवान साक्षात् जिन कहलाते हैं जिनके बारे में कहा है कि YeeJemeb«en he=. 93’’ जिण इव विहरंति सदा ते जिणकप्पे ठिया सवणा।” अर्थात् जो जिन के समान सदा विहार करते हैं वे जिनकल्प में स्थित श्रमण जिनकल्पी हैं। इस कथन के अनुसार ये तीर्थंकर भगवान ही जिन’’ कहलाते हेैं। उनके समान सदा विहार करने वाले मुनि जिनकल्पी कहलाते हैं। इस कथन से यह स्पष्ट है कि तीर्थंकर महामुनि की चर्या जिनकल्पी मुनियों के लिए उदाहरणस्वरूप है अत: पर्वतों की कंदरा, गुफा, श्मशान आदि में निवास करने वाले तीर्र्थंकर भगवान किसी शहर, ग्राम, मंदिर या वसतिका आदि में वर्षायोग स्थापित करते हैं यह बात असंभव है। दिगम्बर संप्रदाय के प्रथमानुयोग ग्रंथों में भी तीर्थंकरों के वर्षायोग अर्थात् चातुर्मास करने का विधान, प्रमाण या उदाहरण उपलब्ध नहीं होता है। वास्तव में तीर्थंकर भगवान को दीक्षा लेते ही अंतर्मुहूर्त में मन:पर्ययज्ञान प्रकट हो जाता है तथा वे छद्मस्थ अवस्था में केवलज्ञान होने तक मौन ही रहते हैं और अकेले ही विचरण करते हैं, न उनके पास शिष्यपरिकर रहता है, न संघव्यवस्था रहती है वे निद्र्वंद्व रहते हुये विचरण करते हैं और निर्जन स्थान आदि में ध्यान करते हैंं। जिनकल्पी मुनियों में जिन शब्द में कल्प प्रत्यय हुआ है वह उनके किंचित् न्यून अर्थ को सूचित करता है। तथा-
ईषत्-किंचित् अपरिसमाप्ति के अर्थ में कल्प, देश्य और देशीय प्रत्यय होते हैं जैसे ईषत् अपरिसमाप्त: पटु:-पटुकल्प:। अर्थात् किंचित परिपूर्णता में किंचित कमी रहते हुए के अर्थ में कल्प प्रत्यय होता है अत: जो जिनकल्पी की चर्या कही गई, उनके लिए उदाहरणस्वरूप और उनकी अपेक्षा भी जो विशेष हैं, परिपूर्ण हैं वे ही ‘जिन’ होते हैं, वे ही तीर्थंकर हैं अत: इनके वर्षायोग का कोई कारण प्रतीत नहीं होता है, न ही आगम में प्रमाण ही मिलता है। श्वेताम्बर ग्रंथों में भगवान महावीर के ४२ चतुर्मास माने हैं। १२ मुनि अवस्था में एवं ३० केवली भगवान की अवस्था में। ये दिगम्बर जैन ग्रंथों से संभव नहीं है।
महल के उद्यान में मुनि का चातुर्मास
प्रश्न-क्या चतुर्थकाल में मुनि ग्राम, उद्यान, मंदिर या वसतिकाओं में रहते थे?
उत्तर-हाँ! ग्राम, उद्यान आदि में रहते भी थे, वर्षायोग भी करते थे और वे साधारण मुनि न होकर महामुनि थे। आगम के उदाहरण देखिए।
‘‘अथैकदा जगत्पूज्य: सुकुमालस्य मातुल:।
नाम्ना गणधराचार्यो जैनतत्वविदांवर:।।१२४।।
ज्ञात्वा श्री सुकुमालस्य स्वल्पायुर्मुनिसत्तम:।
तदीयोद्यानमागत्य सुधीर्योेगं गृहीतवान्।।१२५।।
एक समय गुणधराचार्य (जो कि सुकुमाल के मामा थे) सुकुमाल की आयु थोड़ी समझकर उज्जयिनी नगरी में आकर सुकुमाल कुमार के महल के निकट उन्हीं के उद्यान में ठहर गये और वहीं वर्षायोग स्थापन कर लिया। यह जानकर सुकुमाल की माता यशोभद्रा ने आकर मुनिराज से प्रार्थना की कि हे मुनिवर! आप चातुर्मास में उच्च स्वर से स्वाध्याय आदि का पाठ नहीं करें। तदनुसार मुनिराज ने वैसा ही किया। अनंतर वर्षायोग की समाप्ति पर मुनिराज ने रात्रि में वर्षायोग निष्ठापन क्रिया करके उच्च स्वर से ऊध्र्वलोक प्रज्ञप्ति का पाठ करना शुरू कर दिया जिसको सुनकर सुकुमाल को जातिस्मरण हो गया और उन्होंने वहाँ आकर गुरू को नमस्कार करके उपदेश श्रवण कर तथा अपनी आयु तीन दिन की जानकर जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण कर ली।”पद्मपुराण पर्व ९२, पु. १८१। इस प्रकार से महामुनि गुणधर आचार्य ने महल के उद्यान में वर्षायोग व्यतीत किया था और वे अपने भानजे सुकुमाल के आत्महित में निमित्त बने थे। जब तक मुनियों की सराग चर्या रहती है, आहार-विहार आदि प्रवृत्ति करते हैं तब तक परोपकर को भी अपना मुख्य कर्तव्य समझते हैं।
शहर के निकट और मंदिर में मुनि का वर्षायोग
किसी समय सुरमन्यु, श्रीमन्यु, श्रीनिचय, सर्वसुन्दर, जयवान, विनयलालस, और जयमित्र नाम के सप्त ऋषि महामुनि अयोध्या नगरी में विधिपूर्वक भ्रमण करते हुये अर्हदत्त सेठ के घर पहुँचे। उन मुनियों को देखकर सेठ ने मन में सोचा कि इन मुनियों ने इस अयोध्या नगरी में वर्षायोग स्थापना नहीं की है पुन: ये मुनि वर्षा ऋतु में यहाँ वैâसे आ गये? ये अनर्गल प्रवृत्ति करने वाले दिखते हैं। इस नगरी के आसपास पर्वत की कन्दराओं में, नदी के तट पर, वृक्ष के मूल में, सूने घर मेंं, जिनालय में तथा अन्य स्थानों पर जो भी मुनिराज स्थित हैं वे वर्षायोग पूरा किये बिना इधर-उधर भ्रमण नहीं करते हैंं इत्यादि रूप से विचार करके सेठ ने उन्हें आहार नहीं दिया किन्तु उनकी पुत्रवधू ने उन मुनियों को आहारदान देकर अक्षय पुण्य संपादन कर लिया। आहार के बाद वे निर्दोष प्रवृत्ति वाले मुनि अनेक मुनियों से व्याप्त श्री मुनिसुव्रत भगवान के मंदिर मेंं दर्शनार्थ पहुँचे। ये पृथिवी से चार अंगुल ऊपर चल रहे थे। ऐसे इन ऋद्धिधारी मुनियों को मंदिर में विद्यमान द्युति भट्टारक अर्थात् द्युति नामक आचार्य ने देखा और खड़े होकर इनकी वंदना करके रत्नत्रय कुशल आदि पूछकर विनय भक्ति की। द्युति आचार्य के शिष्यों ने उन सप्तऋषियों की निंदा करते हुये मन में विचार किया कि अहो! ये हमारे आचार्य चाहे किसी की वंदना करने लग जाते हैं। पुन: वे सातों ऋषि जिनेंद्रदेव की स्तुति करके आकाशमार्ग से अपने स्थान को विहार कर गये। उन्हें आकाशमार्ग से जाता देख अन्य मुनियों ने उन्हें चारण ऋद्धिधारी समझकर उनके प्रति किये गये दुर्भावों की निंदा करते हुये अपने अपराध की शुद्धि की। इसी बीच मंदिर में अर्हदत्त सेठ आ गये। द्युति भट्टारक ने उनसे पूछा कि आज आपने उत्तम महामुनि के दर्शन किये होंगे? वे मथुरा के निवासी, आकाश ऋद्धिधारी महातपस्वी थे। आचार्य के मुख से उन मुनियों की महिमा को सुनकर सेठ का हृदय पश्चात्ताप से संतप्त हो गया। वह विचार करने लगा कि यथार्थ को नहीं समझने वाले मुझ मिथ्यादृष्टी को धिक्कार हो। मेरे समान अनिष्ट, अनुचित आचरण युक्त अधार्मिक कौन होगा? मुझ से बढ़कर अन्य मिथ्यादृष्टी और कौन होगा? हाय! मंैने उठकर उन मुनियों की पूजा नहीं की तथा नमस्कार कर उन्हें आहार से संतुष्ट नहीं किया। जो मुनि को देखकर आसन नहींं छोड़ता है वरन् देखकर उनका अपमान करता है वह मिथ्यादृष्टी कहलाता है। इत्यादि रूप से अपनी निन्दा करते हुए वह सोचता है कि जब तक मैं हाथ जोड़कर उन मुनियों की वंदना नहीं कर लेता तब तक मेरे मन की दाह शांत नहीं होगी। अहंकार से उत्पन्न हुये इस पाप का प्रायश्चित्त उन मुनियों की वंदना के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता। अनंतर कार्तिक सुदी पूर्णिमा को निकट जानकर उस महासम्यग्दृष्टी, वैभवशाली सेठ ने सप्तर्षियों की पूजा के लिए अपने बंधुओं के साथ मथुरा नगरी की ओर प्रस्थान कर दिया। कार्तिक शुक्ला सप्तमी के दिन वहाँ पहुँचकर मुनियों की वंदना करके पूजन हेतु महान उत्सव किया। इन सप्तर्षि मुनियों ने मथुरा नगरी के समीप वटवृक्ष के नीचे वर्षायोग धारण किया था। फिर भी ये ऋद्धि के प्रभाव से आकाशमार्ग से बहुत दूर पोदनपुर, विजयपुर, अयोध्या आदि स्थानों मेें जाकर पाणिपात्र में शुद्ध भिक्षा ग्रहण किया करते थे। इनके प्रभाव से मथुरा नगरी की महामारी शांत हो गई थी। उस समय वहाँ का राजा शत्रुघ्न था जो कि रामचन्द्र जी का लघु भ्राता था। आगे इन्हीं ‘‘सप्तर्षियों ने राजा शत्रुघ्न को जिन मंदिर बनवाने का एवं स्थल-स्थल पर सप्तर्षि प्रतिमा बनवाकर विराजमान करने का उपदेश दिया है तथा घर-घर में चैत्यालय बनवाने का भी उपदेश दिया है।”
(१) इस कथानक से हमें यह देखना है कि ऋद्धिधारी महामुनियों ने नगरी के समीप उद्यान में वर्षायोग किया था तथा श्रावकों को मूर्ति, मंदिर, मुनि प्रतिमा, घर में चैत्यालय आदि बनवाने का उपदेश दिया था।
(२) दूसरी बात यह देखनी है कि महान आचार्य द्युतिगुरूदेव अपने संघ सहित अयोध्या में मुनिसुव्रत भगवान के मंदिर में वर्षायोग धारण कर चातुर्मास कर रहे थे।
(३)तीसरी बात यह है कि चारण ऋद्धिधारी मुनि वर्षाकाल में भी आहार आदि निमित्त अन्यत्र विहार कर सकते हैं। कारण यही है कि उनके द्वारा आकाशमार्ग से गमन करने में पृथ्वीतल के जीवों को बाधा नहीं पहुँचती है। अभिप्राय यह है कि जब ऐसे ऋद्धिधारी सप्तर्षि, जिनके प्रभाव से महामारी रोग समाप्त हो गया है, उन्होंने भी जब मथुरा नगरी के निकट उद्यान में चातुर्मास किया था, और द्युति आचार्य ससंघ अयोध्या के जिनमंदिर में चातुर्मास कर रहे थे, जबकि श्रीमुनिसुव्रत तीर्थंकर का तीर्थकाल था और मर्यादा पुरुषोत्तम रामचन्द्र इस पृथ्वी का पालन कर रहे थे, पुन: यदि आज के हीनसंहनन वाले मुनि ग्राम के मंदिर आदि में चातुर्मास करते हैं तो क्या बाधा है?
क्या परिहारविशुद्धि वाले मुनि वर्षायोग में अन्यत्र गमन करते हैं?
परिहारविशुद्धि संयम धारण करने वाले महामुनि भी तीनों कालों की संध्याओं को छोड़कर दो गव्यूति प्रमाण विहार करते रहते हैं। यथा-‘‘पाँच प्रकार के संयम में से अभेदरूप से अथवा भेदरूप से एक संयम से युक्त सर्वसावद्य का सर्वथा परित्याग करने वाले साधु पाँच समिति और तीन गुप्ति से सहित होते हुये परिहारविशुद्धि संयम को प्राप्त होते हैं। जन्म से लेकर तीस वर्ष तक सदा सुखी रहकर पुन: दीक्षा लेकर श्री तीर्थंकर भगवान के पादमूल में आठ वर्ष तक प्रत्याख्यान नामक नवमें पूर्व का अध्ययन करने वाले के यह संयम होता है। इस परिहारविशुद्धि संयम वाले मुनि तीन संध्याकालों को छोड़कर प्रतिदिन दो कोसपर्यंत गमन करते हैं। रात्रि को गमन नहीं करते हैं। इनके वर्षाकाल में गमन करने या न करने का कोई नियम नहीं है। चूंकि जीव राशि में विहार करते हुये भी इन मुनियों से जीवों को बाधा नहीं होती है, अतएव इन साधुओं के लिए वर्षायोग का कोई नियम नहीं है।
गृहस्थ के घर में मुनि का चातुर्मास
शंका-‘‘क्या मुनि गृहस्थों के घर मेेंं निवास कर सकते हैं?
समाधान-हाँ, कारणवश ऐसे उदाहरण आगम में उपलब्ध हैं।” देखिए- किसी समय १मणिमाली नाम के एक मुनिराज उज्जयिनी नगरी के श्मशान भूमि में मुर्दे के समान आसन लगाकर ध्यान कर रहे थे। रात्रि में एक मंत्रवादी ने आकर उनके शरीर को मृतक समझकर उनके मस्तक पर एक चूल्हा रखकर मृतक के कपाल में दूध और चावल डालकर खीर पकाने लगा। अग्नि की ज्वाला से मुनि के मस्तक और मुख में तीव्र वेदना होने से मुनिराज का मस्तक हिलने लगा, इस निमित्त से वह हांडी अकस्मात् गिर गई। यह देख वह मंत्रवादी डरकर भाग गया। प्रात: जब सेठ जिनदत्त ने यह घटना सुनी, वे तत्क्षण ही वहाँ आकर मुनिराज को अपने स्थान पर ले गये। भक्ति पूर्वक उनका उपचार किया कुछ दिन बाद वे मुनि स्वस्थ हो गये और तभी वर्षाकाल का समय भी आ गया। सेठ जिनदत्त आदि के आग्रह से मुनिराज ने वहीं पर चातुर्मास धारण कर लिया। सेठ का पुत्र दुव्र्यसनी था। एक दिन सेठ जिनदत्त ने पुत्र के भय से अपने धन को एक घड़े में भरकर उस घड़े को लाकर मुनिराज के सिंहासन के नीचे एक गहरा गड्ढा खोदकर उसमें गाड़ दिया, किन्तु उसके पुत्र ने यह सब कार्य छुप कर देख लिया था अत: उसने एक दिन चुपके से वह धन निकाल लिया। चातुर्मास समाप्ति के अनंतर, मुनिराज विहार कर गये। तब सेठ ने अपना धन का घड़ा निकालना चाहा, किन्तु वहाँ न मिलने पर वह मुनिराज पर ही संदेह करने लगा। पुन: मणिमाली मुनिराज के पास जाकर उनसे कहने लगा-भगवन्! आपके विहार करके चले आने से उज्जयिनी की जनता बार-बार आपका स्मरण कर रही है आप कृपा कर एक बार पुन: दर्शन दीजिये। सेठ जी के अतीव आग्रहवश मुनिराज पुन: विहार करके वहीं पर आ गये। अब सेठ ने मुनिराज से कुछ कथा कहने को कहा। मुनिराज ने भी सेठ की चेष्टाओं से उसके मन के संदिग्ध अभिप्राय को जान लिया और तदनुसार कथा के माध्यम से यह स्पष्ट किया कि बिना विचारे लोग सदोष को भी निर्दोष समझ लेते हैं। तब सेठ ने भी कथा सुनाई जिसका आशय यह था कि कुछ लोग उपकारी के उपकार का बदला अपकार से चुकाते हैं। ऐसे ही बहुत समय तक मुनि और सेठ के मध्य कथाओं का तांता चलता रहा तब सेठ के पुत्र ने सारी घटना देखकर धन और जन से अतिशय विरक्त होकर वह धन का घड़ा दोनों के बीच में लाकर रख दिया और बोला कि इस निकृष्ट धन को धिक्कार हो कि जिसके लोभ में मेरे पूज्य पिताजी परम धार्मिक मुनिभक्त होकर भी महामुनि पर ही संदेह कर रहे हैं। हे गुरुदेव! अब मुझे इस धन की आवश्यकता नहीं है, मैं संसार के दु:खों से अतिशय रूप से भयभीत हो चुका हूँ। अब आप मुझे संसार समुद्र से पार करने वाली जैनेश्वरी दीक्षा प्रदान कीजिये। अपने पुत्र का ही अपराध और पुन: ऐसा विरक्त परिणामरूप साहस देखकर सेठ जी एकदम पश्चात्ताप से आहत हो गये। वे अपनी निंदा करने लगे कि हाय! हाय! मैंने यह क्या कर डाला? पुन: उन्होंने भी उस धन को जीर्णतृणवत् छोड़कर उन्हीं गुरुदेव के पादमूल में जैनेश्वरी दीक्षा ले ली अर्थात् वे सेठ जिनदत्त अपने पुत्र के साथ दीक्षित हो गये। कहने का मतलब यही है कि चतुर्थकाल में जब मुनि शिरोमणि दो गुप्तियों से विभूषित परम तपस्वी साधु श्रावकों के घर में चातुर्मास कर लेते थे। यह घटना उस समय की है जबकि राजा श्रेणिक और रानी चेलना में धर्म का संघर्ष चल रहा था और राजा दिगम्बर मुनियोंं की परीक्षा करना चाहता था। पुन: आज कोई मुनि कारणवश श्रावक के स्थानों में ठहर जाते हैं और चातुर्मास भी कर लेते हैं तो क्या दोषास्पद ही है? अर्थात् दोषास्पद नहीं भी है तथा राजमार्ग भी नहीं है। हाँ! उन्हें अपने संयम में बाधा नहीं लाना चाहिए।
धर्मशाला में भी मुनियों के ठहरने का उदाहरण
मालव देश के अंतर्गत एक घटगांव में एक देविल नाम का धनी कुंभकार और एक धर्मिल नाम का नाई रहता था। ये दोनों आपस में परम मित्र थे। एक बार इन दोनों ने मिलकर यात्रियों के ठहरने के लिए एक धर्मशाला बनवाई। एक दिन देविल ने एक मुनि को उस धर्मशाला में ठहरा दिया। धर्मिल को मालूम होते ही उसने आकर मुनि को वहाँ से निकाल दिया और संन्यासी को लाकर वहाँ ठहरा दिया। मुनिराज ने धर्मशाला से निकलकर एक वृक्ष के नीचे ठहर कर रात्रि वहीं व्यतीत की और शांतभाव से डांस-मच्छर वगैरह का परिषह सहन किया। देविल ने प्रात: आकर धर्मशाला में मुनि को न पाकर जब बाहर एक वृक्ष के नीचे देखा तब उसे धर्मिल मित्र पर अत्यंत क्रोध हो आया। यहाँ तक कि दोनों में आपस में खूब घमासान मारा-मारी हो गयी। दोनोें ही मरकर क्रम से सूकर और व्याघ्र हो गये। किसी समय दो मुनिराज वन के मध्य गुफा में विराजे थे। देविल के जीव सूकर ने उनके दर्शन करके जातिस्मरण को प्राप्त होकर मुनिराज के उपदेश को सुना और उनसे कुछ व्रत ग्रहण कर लिया। इधर धर्मिल के जीव व्याघ्र ने भी अकस्मात् वहाँ आकर मुनियों को भक्षण करना चाहा, किन्तु गुफा के द्वार पर ही सूकर ने उसके साथ युद्ध करना शुरू कर दिया। दोनों खून से लथपथ होकर अंत में मर गये। सूकर मुनिरक्षा के अभिप्राय से मरकर देवगति को प्राप्त हो गया और व्याघ्र नरक चला गया। कहने का अभिप्राय इतना ही है कि उस समय मुनियों को धर्मशाला में भी ठहराया जाता था। जैसा कि देविल कुंभार ने ठहराया था। पुन: आज भी मुनियों को धर्मशाला, वसतिका आदि में ठहराया जाता है। मुनियों को वसतिका में ठहरने के लिए विधान तो मूलाचार, मूलाराधना, अनगारधर्मामृत आदि ग्रंथों में स्पष्टतया किये गये है।
चातुर्मास में श्रावकों द्वारा आहारदान
प्रश्न-क्या श्रावक मुनियों के आहारदान हेतु अन्यत्र से आकर चातुर्मास में मुनियों को आहारदान दे सकते हैं?
उत्तर-अवश्य दे सकते हैं। यदि श्रावक आहारदान में भक्ति रखते हैं और उनके गाँव में उस समय मुुनि आदि नहीं हैं अथवा किन्हीं संघ या आचार्य आदि के प्रति उन्हें विशेष अनुराग है, तो उनके निकट जाकर भी आहारदान देते हैं अथवा कदाचिद् किन्हीं मुनियों की आहारादि व्यवस्था के अभाव में भी उनके पास जाकर आहार-दान देकर पुण्य लाभ लेते हैं। पद्मपुराण में एक उदाहरण बहुत ही सुन्दर मिलता है। यथा- ‘‘अयोध्या नगरी में राजा के समान वैभव को धारण करने वाला अनेक करोड़ सम्पत्ति का धनी वङ्काांक नाम का एक सेठ रहता था। सीता के निर्वासन समाचार को सुनकर वह इस प्रकार चिंता को प्राप्त हुआ कि ‘अत्यंत सुकुमारांगी तथा दिव्य गुणों से अलंकृत सीता वन में किस अवस्था को प्राप्त हुई होगी? इस चिंता से वह अत्यंत दुखी हुआ और परम वैराग्य को प्राप्त होकर अयोध्या में ही विराजमान द्युति नामक आचार्य के पास दैगंबरी दीक्षा ग्रहण कर ली। इसकी दीक्षा का हाल घर के लोगों को विदित नहीं हुआ था। सेठ वङ्काांक के अशोक और तिलक नाम के दो विनयवान पुत्र थे सो वे किसी समय निमित्तज्ञानी द्युति मुनिराज के पास अपने पिता का हाल पूछने के लिए आये। वहीं पिता को देखकर स्नेह अथवा वैराग्य के कारण अशोक और तिलक ने भी उन्हीं द्युति आचार्य के पादमूल में जैनेश्वरी दीक्षा ले ली। द्युति मुनिराज परम तपश्चरण कर तथा आयु के अंत में शिष्यजनों को उत्वंâठा प्रदान करते हुये ऊध्र्व ग्रैवेयक में अहमिंद्र हो गये। अनंतर पिता और दोनों पुत्र ये तीनों ही मुनि मिलकर गुरू के कहे अनुसार प्रवृत्ति करते हुये जिनेंद्र भगवान की वंदना के लिए ताम्रचूड़पुर की ओर चले। बीच में पचास योजन प्रमाण बालू का समुद्र (रेगिस्तान) मिलता था सो वे इच्छित स्थान तक नहीं पहुँच पाए। बीच में वर्षाकाल आ गया। उस रेगिस्तान में जिसका मिलना अत्यंत कठिन था तथा जो अनेक शाखाओं उपशाखाओं से युक्त था ऐसे एक वृक्ष को पाकर उसके आश्रययुक्त तीनों मुनिराज ठहर गये। जहाँ पर आहार का कोई ठिकाना नहीं था। उसी काल में अयोध्यापुरी को जाते समय जनक के पुत्र भामंडल ने उन तीनों मुुनिराजों को वहाँ रेगिस्तान में देखा। तत्क्षण ही उस पुण्यात्मा के मन में विचार आया कि ये मुनि आचार की रक्षा के निमित्त इस निर्जन वन में ठहर गये हैं परन्तु प्राणधारण के लिए ये आहार कहाँ ग्रहण करेंगे? ऐसा विचार कर सद्विद्या की उत्तम शक्ति से युक्त भामंडल ने बिल्कुल पास में एक सुन्दर नगर बसाया अर्थात् विद्या के प्रभाव से एक सुन्दर नगर की रचना कर ली। जो सब प्रकार की सामग्री से सहित था, उसमें स्थान-स्थान पर अहीर आदि के रहने के ठिकाने दिखलाये। तदनंतर अपने स्वाभाविक रूप में स्थित होकर उसने विनयपूर्वक मुनियों को नमस्कार किया। वह अपने परिजनों के साथ वहीं रहने लगा तथा योग्य देश-काल में दृष्टिगोचर हुए सत्पुरुषों को भावपूर्वक न्याय के साथ हर्षसहित आहार कराने लगा। इस निर्जन वन में जो मुनिराज थे उन्हें तथा पृथ्वी पर उत्कृष्ट संयम को धारण करने वाले जो अन्य विपत्ति से ग्रसित साधु थे, उन सबको वह आहार आदि देकर संतुष्ट करने लगा। मुनिजन तो पुण्यरूपी सागर में व्यापार करने वाले हैं और भामंडल उनके सेवक के समान हैं। कतिपय दिनों के अनंतर किसी समय भामंडल उद्यान में अपनी मालिनी नामक भार्या के साथ शय्या पर शयन कर रहे थे कि अकस्मात् वङ्कापात से उनकी मृत्यु हो गई। वे भामंडल मुनिदान के माहात्म्य से मेरू पर्वत के दक्षिण में विद्यमान देवकुरू नामक उत्तम भोगभूमि में अपनी पत्नी के साथ युगलिया हो गये। उनकी आयु तीन पल्य की थी और उनका शरीर दिव्य लक्षणों से युक्त था। जो मनुष्य उत्तम पात्रोेंं को आहार आदि दान देते हैं वे उत्तम भोगभूमि के सुखों का अनुभव कर नियम से देव पर्याय को प्राप्त होते हैं। पश्चात् क्रम से मोक्ष सुख को भी प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार से भाक्तिक श्रावकगण कहीं भी जाकर मुनियों को आहारदान देकर अपने संसार की स्थिति को कम करते हुए परम्परा से निर्वाण लाभ करते ही हैं।
वर्षायोग निष्ठापना विधि
वर्षायोग समाप्ति के प्रारंभ में कार्तिक कृष्णा त्रयोदशी के दिन मध्यान्ह में मंगलगोचर मध्यान्ह देववंदना करके, आहार करके आकर सभी साधु मंगलगोचर वृहत्प्रत्याख्यानविधि से बड़ी सिद्धभक्ति, योगभक्ति द्वारा वर्षायोगनिष्ठापन हेतु चतुर्दशी का उपवास ग्रहण करते हैं पुन: आचार्यभक्ति पढ़कर आचार्यवंदना करके शांतिभक्ति का पाठ करते हैं। अनंतर कार्तिक कृष्णा चतुर्दशी की पिछली रात्रि में पूर्वोक्त विधि से भक्तियों का पाठ करते हुये वर्षायोग समापन कर देते हैं। उसमें अन्तर केवल इतना ही रहता है कि….‘‘वर्षायोग प्रतिष्ठापनक्रियायां” पाठ के स्थान पर ‘‘वर्षायोग निष्ठापनक्रियायां” पाठ बोलते हैं। वर्षायोग निष्ठापना के बाद सभी साधु मिलकर ही वीर निर्वाण क्रिया करते हैं, उसमें सिद्धभक्ति, निर्वाणभक्ति, पंचगुरूभक्ति और शांतिभक्ति का पाठ पढ़ते हैं अनंतर नित्य देववंदना अर्थात् सामायिक करते हैं।
नूतन पिच्छिका ग्रहण
वर्षायोग समाप्ति के अनंतर वर्तमान साधुओं को नूतन पिच्छिका ग्रहण करने की परम्परा है अर्थात् श्रावक अथवा साधु-साध्वियाँ कार्तिक मास में स्वयं पतित ऐसे मयूर पंखों की पिच्छिका का निर्माण करते हैं और उन्हें लाकर आचार्यश्री के सामने रख देते हैंं। संघस्थ प्रमुख साधु अर्थात् आचार्य के प्रमुख शिष्य या अन्य कोई प्रमुख श्रावक सबसे पहले आचार्यश्री को पिच्छिका प्रदान करते हैं तब आचार्यदेव नूतन पिच्छिका ग्रहण कर पुरानी पिच्छिका का त्याग कर देते हैंं। अनंतर आचार्य महाराज क्रमश: अपने शिष्यों को-मुनियों को, आर्यिकाओं को और क्षुल्लक, क्षुल्लिकाओं को नूतन पिच्छिका देते हैं। सभी साधु नूतन पिच्छिका ग्रहण कर पुरानी पिच्छिका को छोड़ देते हैं। श्रावकगण आवश्यकतानुसार साधुओं को कमंंडलु, शास्त्र आदि भी प्रदान करते हैं। आर्यिकाओं, क्षुल्लक, क्षुल्लिकाओं को वस्त्र भी देते हैंं। वर्षायोग के प्रारंभ और अंत में श्रावकगण चतुर्विध संघ की भक्तिपूर्वक पूजा करते हैं।
चातुर्मास में विविध पर्व
वर्षाकाल में पंचकल्याणक प्रतिष्ठाएँ तथा विवाह आदि कार्य नहीं होते हैं तथा वृष्टि की बहुलता से श्रावकों के व्यापार भी मंद गति से चलते हैं। यही कारण है कि श्रावकजन भी साधुओं के चातुर्मास से अत्यधिक लाभ ले लिया करते हैंं। इन चार महीनों के अंतर्गत अनेक धार्मिक पर्व आ जाते हैं जिनके निमित्त से विशेष धार्मिक आयोजन, विधि विधान, उत्सव तथा धर्मोपदेश का लाभ मिलता है। वर्षायोग प्रारम्भ होते ही सर्वप्रथम श्रावण बदी एकम को वीर शासन जयंती दिवस आ जाता है। छ्यासठ दिन बाद विपुलाचल पर्वत पर गौतम स्वामी के आते ही भगवान् महावीर स्वामी की दिव्यध्वनि इसी दिन प्रगट हुई थी। वीर प्रभु का धर्मशासन इसी दिन से चला है इसलिए इस पर्व को मनाते हैं। पुन: श्रावण सुदी एकम से सप्तमी तक सात दिन सप्तपरमपद की प्राप्ति हेतु सप्तपरमस्थानव्रत किया जाता है। सज्जाति, सद्गार्हस्थ्य, पारिव्राज्य, सुरेंद्रता, साम्राज्य, आर्हन्त्य और परिनिर्वाण ये सात पद परमस्थान के नाम से कहे गये है। अनंतर श्रावण शुक्ला सप्तमी को ही इसी दिन बहुत सी महिलाएँ और कन्याएँ मुकुट सप्तमी व्रत करती है पुन: श्रावण शुक्ल पूर्णिमा को अकंपनाचार्य आदि सात सौ मुनियों की रक्षा की खुशी में रक्षाबंधन पर्व मनाया जाता है। इसी दिन श्री विष्णु कुमार मुनि और अकंपनाचार्यादि मुनियों की पूजा करके उनकी कथा सुनाई जाती है। भाद्रपद तो व्रतों का भंडार ही है। भाद्रपद कृष्णा प्रतिपदा से ही तीर्थंकर प्रकृति बंध के लिए कारणस्वरूप ऐसी षोडशकारण भावनाओं की उपासना एक मास तक चलती है। बहुत से श्रावक, श्राविकागण सोलहकारण व्रत करते हैंं। भाद्रपद शुक्ला प्रतिपदा, दूज और तीज इन तीन दिन लब्धि विधान व्रत किया जाता है। तीन महिलाओं ने इस व्रत को करके कालांतर में इन्द्रभूति, वायुभूति और अग्निभूति होकर भगवान महावीर के गणधर के पद को प्राप्त किया हैै। भाद्रपद शुक्ला पंचमी के दिन आकाशपंचमी व्रत होता है। इसी दिन से उत्तम क्षमा आदि धर्मों की उपासना हेतु दश दिन दशलक्षण पर्व मनाया जाता है। इसी पंचमी से नवमी तक पाँच दिन पँचमेरू के चैत्यालयों की उपासना के हेतु पुष्पांजलि व्रत होता है। पुन: दशमी को सुगंध दशमी व्रत होता है। तेरस, चौदह और पूर्णिमा को रत्नत्रय व्रत किया जाता है। अनंतचतुर्दशी व्रत को तो प्राय: किसी न किसी रूप से सभी समाज मनाती हैं। अनंतर सोलहकारण व्रत के अंतिम दिन आसोज वदी प्रतिपदा को सर्वत्र मंदिरों में पूर्णाभिषेक होता है और इस दिन क्षमावणी पर्व बड़े पवित्र भावों से मनाया जाता है। इस भाद्रपद में और भी अनेक व्रत होते हैंं जो कि व्रत विधान की पुस्तकों से जाने जाते हैं। आश्विन सुदी पूर्णिमा के दिन भी धार्मिक कार्यक्रम होते हैंं पुन: कार्तिक कृष्णा अमावस्या के प्रभात में वीर प्रभु का निर्वाण दिवस बहुत ही उल्लासपूर्ण वातावरण में सम्पन्न होता है उसी दिन शाम को गौतम गणधर को केवलज्ञान प्राप्त हुआ था, इसी की स्मृति में उसी दिन शाम को गौतम गणधर के केवलज्ञान लक्ष्मी की पूजा करके गणधर देव की पूजा करते हैं तथा इस पूजा को नूतन वर्ष के प्रारंभ में मंगलकारी मानकर पूजा करके नवीन बही आदि में स्वस्तिक बनाते हैंं। इस बात को न समझ कर कुछ अज्ञानी लोग बही की पूजा हेतु गणेश और लक्ष्मी की पूजा करने लगे हैं वास्तव में गौतम गणधर ही गणों के ईश होने से गणेश हंै और केवलज्ञान लक्ष्मी ही महालक्ष्मी है। इनकी पूजा ही संपूर्ण मंगल की देने वाली है। धन-धान्य-समृद्धि को करते हुए परम्परा से केवलज्ञान लक्ष्मी और मुक्ति लक्ष्मी को भी प्राप्त कराने वाली है। कार्तिक शुक्ला अष्टमी से पूर्णिमापर्यंत आठ दिन महानंदीश्वर पर्व मनाया जाता है। इस पर्व में श्रावक प्राय: सिद्धचक्र विधान आदि प्रारंभ कर देते है अत: साधु संघ को भी आग्रहपूर्वक रोक लेते हैं और रथयात्रा आदि उत्सवपूर्वक चातुर्मास सम्पन्न करते हैं। इन चार महीनों में वर्तमान आचार्य परम्परा के मूलस्रोत चारित्र चक्रवर्ती आचार्य श्री शांतिसागर महाराज का आषाढ़ वदी छठ का जन्म दिवस और भाद्रपद शुक्ला द्वितीया का सल्लेखना दिवस आ जाता है। आचार्य श्री वीरसागर महाराज का आषाढ़ सुदी पूर्णिमा को जन्म दिवस और आश्विन वदी अमावस को सल्लेखना दिवस मनाया जाता है। इसी आश्विन की अमावस के दिन ही आचार्य पायसागर जी महाराज का भी सल्लेखना दिवस है। इसी प्रकार से और भी अनेक पर्व और व्रत इन दिनों में आते हैं, जिन्हें श्रावक उत्सव के साथ मनाते हैं।