Jambudweep - 7599289809
encyclopediaofjainism@gmail.com
About Us
Facebook
YouTube
Encyclopedia of Jainism
  • विशेष आलेख
  • पूजायें
  • जैन तीर्थ
  • अयोध्या

‘‘वैशाली स्मारिका-२००२’’ दिगम्बर है या श्वेताम्बर?

June 14, 2014विशेष आलेखjambudweep

वैशाली स्मारिका-२००२ दिगम्बर है या श्वेताम्बर?


(जुलाई २००२ में प्रस्तुत)

-प्रज्ञाश्रमणी आर्यिका चंदनामती माताजी
पिछले लगभग २५ वर्षों से जैन समाज जहाँ साहित्य प्रकाशन एवं धर्मप्रभावना के क्षेत्र में काफी बढ़-चढ़कर आगे आया है, वहीं तेजी से दिगम्बर जैन साहित्य में विकार भी आया है। आधुनिक लेखक और साहित्यकार अपने शोधपरक अध्ययन वाले लेखन में यह भी भूल जाते हैं कि अपने पूर्वज प्राचीन दिगम्बर जैनाचार्यों की परमविशुद्ध वाणीरूपी अमृत में बिना भेदभाव के हम अन्य परम्परा के साहित्य का भी मिश्रण कैसे कर रहे हैं। ध्यान रखें! दूसरों की बातों को जानना एवं उसे अपने लेखन में प्रयुक्त करना बुरा नहीं है, किन्तु उन ग्रन्थों का हवाला दिए बिना आचार्यों की वाणी के साथ उनका साqम्मश्रण करना अत्यन्त घातक तब सिद्ध होता है, जब जैनत्व से अपरिचित लोग उसमें प्रयुक्त आगमविरूद्ध पांqक्तयों को भी दिगम्बर जैन ग्रन्थ की ही समझ लेते हैं और तदनुसार ही पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगता है। ऐसा ही एक उदाहरण देखने में आया है वैशाली स्मारिका का, जो कि भगवान महावीर स्मारक समिति, पटना से २५ अप्रैल २००२ को प्रकाशित हुई है। प्रकाशन समिति के पदाधिकारी एवं सम्पादकों से मैं पूछना चाहती हूँ कि यह स्मारिका दिगम्बर जैन है या श्वेताम्बर अथवा बौद्ध? अथवा सबका मिला-जुला रूप प्रस्तुत करके इसे खिचड़ी बना दिया गया है? स्मारिका के सम्पादकीय से लेकर आन्तम (६१वें) पृष्ठ तक जिस कदर इसमें दिगम्बर पक्ष की अवहेलना की गई है उसे पढ़कर हृदय व्यथित हो गया और मैं सोचने लगी कि शायद अब डॉक्टर, प्रोपेसर, इतिहासज्ञ, भूगोल शास्त्री और पुरातत्ववेत्ता ही हमारे जैनशासन के प्राचीन मनीषी आचार्यों को चुनौती देकर नये-नये मत स्थापित करेंगे, फिर तो हमें अपने षट्खण्डागम्, तिलोयपण्णत्ति, उत्तरपुराण आदि ग्रन्थों को अलमारी में बन्द करके इन्हीं आधुनिक ज्ञानियों की बातों पर श्रद्धान करके अपने सम्यग्दर्शन को दृढ़ करना पड़ेगा। उदाहरण के तौर पर उस वैशाली स्मारिका के कतिपय विचारणीय बिन्दु प्रस्तुत किए जा रहे हैं, जिनके उत्तरों की (दिगम्बर जैन आगम के परिप्रेक्ष्य में) प्रकाशन समिति एवं सम्पादकों से अपेक्षा है-

१.

सर्वप्रथम आदरणीय डॉ० श्रीरंजनसूरिदेव द्वारा लिखित सम्पादकीय में वैशाली को वज्जिगण संघ की राजधानी के रूप में लोकविश्रुत बताया गया है और इस गणसंघ में लिच्छवि, ज्ञातृक, मल्लि, विदेह, आदि अनेक स्वाधीनताप्रेमी गण को साqम्मलित माना है पुनः इसी सम्पादकीय में दो स्थानों पर (द्वितीय और चतुर्थ पैराग्राफ में) महावीर की माता त्रिशला को लिच्छविराज चेटक की बहन लिखा है। उपर्युक्त कथन पूर्णरूप से श्वेताम्बर शास्त्रानुसार है, किसी भी दिगम्बर जैन ग्रन्थ (प्राचीन आचार्यप्रणीत) में न तो त्रिशला को चेटक की बहन माना है और न उनके लिच्छवि वंश का उल्लेख है, बाqल्क महान आर्षग्रन्थ उत्तरपुराण (९वीं शती में आचार्य श्री गुणभद्र द्वारा रचित) में वर्णन आया है-‘‘सुरलोकादभूः सोमवंशे त्वं चेटको नृपः।’’ अर्थात् वैशाली के राजा चेटक ‘‘सोमवंश’’ में उत्पन्न हुए थे। इसी प्रकार सम्पादक महोदय ने श्वेताम्बर ग्रन्थ भगवतीसूत्र, कल्पसूत्र आदि के अनुसार रानी त्रिशला को ‘‘विदेहदत्ता’’ कहा है जबकि दिगम्बर जैन ग्रन्थों में इस शब्द का भी कहीं उल्लेख नहीं है, त्रिशला का एक नाम ‘‘प्रियकारिणी’’ अवश्य स्वीकार किया गया है। इसके अन्दर दिगम्बर जैनग्रन्थ हरिवंशपुराण के अनुसार महावीर की जन्मस्थली ‘‘कुण्डपुर’’ लिखा गया है, वह परमसत्य है किन्तु उसका मतलब वैशाली के अन्दर सन् १९५६ में बसाए गए कुण्डग्राम, वासोकुण्ड या कुण्डपुर से कदापि नहीं है। मेरी श्रीरंजन सूरिदेव को यह प्रेरणा है कि आप कृपया इस विषय मेें निष्पक्ष और श्रद्धापरक दृष्टि से प्राचीन दिगम्बर जैन आगमग्रन्थों का स्वाध्याय अवश्य करें, उसके पश्चात् ही दिगम्बर जैनसमाज द्वारा प्रकाशित होने वाले साहित्य के लिए आलेख लिखें और अपनी लेखनी में यथास्थान दिगम्बर, श्वेताम्बर एवं बौद्ध आदि ग्रन्थों के नामोल्लेख अवश्य करें ताकि विभिन्न मान्यताओं का स्पष्टीकरण हो और दिग्भ्रान्त जनता सत्यासत्य पक्ष को समझ सके।

२.

कैलाशचन्द्र जैन (मानद्मंत्री) भगवान महावीर स्मारक समिति, पटना द्वारा लिखित ‘‘अपनी बात’’ नामक आलेख में भी श्वेताम्बर मान्यतानुसार लिच्छविवंश का ही उल्लेख है। इसमें सरकारी, राजकीय और शोधपरक मान्यताओं के आधार पर वैशाली के वासोकुण्ड को महावीर का जन्मस्थान बताया है, जबकि दिगम्बर जैनागम कभी भी इसका समर्थन नहीं करते हैं। बिना परिश्रम और स्वाध्याय का अभाव ही ऐसी दूसरों से उधार ली हुई वस्तु को स्वीकारने जैसी प्रक्रिया है।

३.

आगे आलेखों की श्रृंखला में सर्वप्रथम ‘‘वैशाली’’ पुस्तक से साभार उद्धृत किया गया श्वेताम्बर आचार्य श्री विजयेन्द्र सूरि का वैशाली समर्थक लेख है। इसकी विडम्बना तो आप बनारस से प्रकाशित होने वाली ‘‘श्रमण पत्रिका’’ (अप्रैल-सितम्बर २००१) में देख ही चुके हैं कि स्वयं श्वेताम्बर मतानुयायी उनकी बात काटकर लछुवाड़ के क्षत्रिय कुण्डग्राम को महावीर जन्मभूमि मान रहे हैं, किन्तु अपने समर्थन का पक्ष संग्रह करने में बेचारी दिगम्बर जैन समाज को उनके लेख की वैशाखियों का सहारा भी लेने में कोई संकोच नहीं है। लेकिन इस विषय में ध्यान रखना है कि यदि विजयेन्द्रसूरि आपके लिए वैशाली समर्थन हेतु प्रामाणिक हैं तो उनके अनुसार माता त्रिशला को राजा चेटक की बहन ही मानिए और महावीर के पिता सिद्धार्थ को वैशाली के कोल्लाग नाम के मोहल्ले में बसने वाली नाय जाति के क्षत्रियों का सरदार भी मानना पड़ेगा। फिर तो इन लेखकों को दिगम्बर जैनागमों को तिलांजलि देकर इन्हीं लोगों के समान महावीर के विकृत स्वरूप को स्वीकारने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए। 

४.

अगले आलेख में महापाqण्डत राहुलसांकृत्यायन ने लेख के मध्य अपने बौद्ध धर्मसमर्थन का परिचय स्वयं दे दिया है और इन्होनें महावीर की निर्वाणस्थली पावापुरी न मानकर मल्लों की पावा (पडरौना के पास किसी ‘‘पपौर’’) ग्राम को माना है अर्थात् बौद्धपरम्परा का यह लेख किसी दिगम्बर जैन आगमग्रन्थ से मेल नहीं खाता, किन्तु वैशाली के समर्थकों को अपने पक्ष में समर्थन जुटाने के लिए ऐसे आधुनिक शोध-खोज के लेख लेने पड़ते हैं। कितने आश्चर्य की बात है कि हमारे दिगम्बर जैन ग्रन्थों के मर्म तक इन अजैन विद्वानों को पहुँचाने की तो रंचमात्र कोशिश नहीं की गई, बाqल्क उनके ग्रन्थ और तर्वâ अपनी जैन समाज के गले उतारने का यह दुष्प्र्रयास स्मारिका प्रकाशकों के लिए अपने पैरों पर स्वयं कुल्हाड़ी मारने से अधिक क्या कहा जाए? 

५.

तृतीय आलेख बहुर्चिचत विद्वान डॉ० योगेन्द्र मिश्र का है, जिन्होनें हर्मन जैकोबी, हार्नले और विसेंटाqस्मथ आदि विदशीr विद्वानों के मत को पुष्ट करने में सन् १९६२ में अपने द्वारा लिखित ‘‘ऐन अर्ली हिस्ट्री ऑफ वैशाली’’ को ही आधार बनाया है और कुछ दिगम्बर जैनग्रंथों के अनुसार कुण्डपुर या कुण्डलपुर नाम को तोड़-मरोड़कर वैशाली के कुण्डग्राम को ही सिद्ध करते हुए गंगानदी से उसका सम्बन्ध जोड़ा है जबकि वैशाली का गंगानदी से दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध ही नहीं है क्योंकि वह तो जैनागमों में सिन्धुदेश के अन्दर मानी गई है जो बिहार प्रदेश में सम्भव नहीं है। इन्होनें आगे तो पूर्णरूप से श्वेताम्बर एवं बौद्धग्रन्थों का सहारा लेकर महावीर के पिता सिद्धार्थ को राजा चेटक के बहनोई माना है तथा कल्पसूत्र, आचारांगसूत्र, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, कामसूत्र, विविधतीर्थकल्प, मनुस्मृति आदि ग्रन्थों के अनुसार महावीर का विदेह, विदेहदत्त, विदेहजात्य और विदेहसुकुमार नामों से परिचित कराया है। इनमें से कोई भी ग्रन्थ दिगम्बर जैन नहीं है, यही कारण है कि लेखक महावीर के इसी परिचय से सन्तुष्ट हो गए। यदि वे सूक्ष्मता से प्राचीन आचार्यों की वाणी को श्रद्धा और आस्था के आलोक में देखते तो महावीर के वर्षावास (चातुर्मास) होने का समर्थन कतई न करते और निष्पक्ष़रूप से यही कहते कि वैशाली एवं कुण्डलपुर अलग-अलग राजधानियाँ थीं। कुण्डपुर को वैशाली की एक कॉलोनी के रूप में स्वीकारने का इन विद्वानों का अभिमत महावीर के राजघराने की आqस्मता पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा करता है, परन्तु हम इन शोधकर्ता विद्वान का कोई दोष नहीं समझते, क्योंकि यदि हमारे अपने दिगम्बर जैन सदियों से चले आ रहे जन्मतीर्थ कुण्डलपुर के प्रति किसी को बोलने का अवसर न देते, तो भला किसी की अनर्गल लेखनी कैसे चल सकती थी? अतः अपनी गलती तो खुद को ही सुधारने का प्रयास कर दिगम्बर जैन शास्त्री परिषद के आगमनिष्ठ विद्वानों एवं आगम के ज्ञाता श्रद्धेय गुरूओं से इसका मार्गदर्शन लेना चाहिए। 

६.

अगले चतुर्थ लेख में डॉ० ऋषभचन्द्र जैन, फौजदार वैशाली वालों ने वैशाली में कार्यरत होने के नाते पूरे कर्तव्य का निर्वाह करते हुए मेरे पूर्वलिखित आगमसम्मत लेखों पर टिप्पणी की है। इसमें उन्होनें दिगम्बर जैन ग्रन्थों के वही श्लोक उल्लिखित किए हैं जिनसे मात्र कुण्डलपुर प्राचीन तीर्थ की पुाqष्ट होती है किन्तु उसी को विदेह और मगध जनपद कहकर वैशाली का कुण्डग्राम सिद्ध करना चाहते हैं। उन्हें कम से कम इतना तो सोचना ही चाहिए था कि सिन्धुदेश के वैशाली नगर में विदेहदेश का कुण्डलपुर नगर कैसे शोभास्पद हो सकता है? आगम के अनुसार भगवन्तों की जन्मनगरियाँ ९६ मील विस्तृत होती थीं, तो फिर वैशाली से कुण्डलपुर का भला क्या सम्बन्ध रह जाता है? उन्हें इस सम्बन्ध में पाqण्डतप्रवर श्री सुमेरचन्द्र जैन दिवाकर -सिवनी (म० प्र०) द्वारा लिखित ‘‘महाश्रमण महावीर’’ पुस्तक का सूक्ष्मता से अवलोकन करना चाहिए, उसमें उन्होेनें प्राचीन दिगम्बर जैन ग्रन्थों के साथ-साथ भौगोलिक स्थति एवं वैशाली की सरकारी मान्यता का वर्णन करते हुए परम्परागत चले आए कुण्डलपुर नगर को ही मानने की प्रेरणा श्रद्धालुओं के लिए दी है। डॉ० ऋषभचन्दजी से अभी ५-६ माह पूर्व दिल्ली में हुई वार्ता के अनुसार मेरी उन्हें एक वात्सल्यमयी प्रेरणा है कि आप जितनी शाqक्त बसाढ़ ग्राम में बसाई गई वैशाली के अन्दर कुण्डग्राम को महावीर जन्मभूमि के रूप में स्थापित करने में लगा रहे है, उतनी शाqक्त यदि पूर्वाचार्यों की वाणी के अनुसार सदियों से चले आ रहे परम्परागत कुण्डलपुर तीर्थ के संवर्धन में लगा दें तो प्राचीन विद्वानों के समान आपके आलेखों के प्रति भी हम सभी साधु समाज की श्रद्धा जाग्रत हो सकती है। आपके द्वारा लिखे आलेख के अन्त में घोषित किया गया है कि कुण्डलपुर (नालन्दा) भगवान महावीर का जन्मस्थान नहीं है। मैं आपसे पूछती हूँ कि आपको यह आगमविरूद्ध घोषणा करने का अधिकार किसने दिया? एक संस्था के प्राध्यापक पद पर बोलते हुए आपका कर्तव्य यह कदापि नहीं है कि आप भगवन्तों की जन्मभूमि जैसे महान तीर्थ के प्रति अवर्णवादजनक शब्दों का प्रयोग करें। इससे अच्छा तो यही होगा कि आप अपनी वैशाली को लेकर बैठे रहें और समस्त श्रद्धालु जनता को कुण्डलपुर की भाqक्त में लीन रहने दें। हम लोग आपके समान व्युत्पन्नमति शोधकर्ता तो हैं नहीं, न भविष्य में ऐसी शोध करने की इच्छा है जिससे अपनी जिनवाणी पर ही प्रश्नचिन्ह लग जावे, इसलिए हमारे लिए तो श्रद्धापूर्वक आगमवचन ही प्रमाण हैं। 

७.

इसके आगे डॉ० अरविन्द महाजन, पटना ने तो अपने लेख में स्पष्ट लिख दिया है कि ‘‘दिगम्बर सम्प्रदाय से अभिप्रेरित विद्वान, नालन्दा के समीप स्थत कुण्डलपुर को भगवान महावीर के जन्मस्थान होने के पक्ष में तर्क देते हैं।’’ हमें अपने सम्प्रदाय और आगम पर गर्व है इसलिए लेखक द्वारा लिखी गई आगे श्वेताम्बर और बौद्धपरम्परापोषक वैशाली समर्थक पांqक्तयों से हमें क्या लेना-देना। इन्होनें त्रिशला को राजा चेटक की बहन एवं वैशाली के निकट कोल्लाग सान्नवेश में महावीर के प्रथम आहार और उनके वर्षायोग आदि की पुाqष्ट की है जिसका दिगम्बर जैनागम से पूर्ण विरोध है। इसके अतिरिक्त डॉ० महाजन ने इस आलेख में (पृष्ठ ३२ पर अंतिम पैराग्राफ में) स्वयं कहा है कि बौद्धों के कोटिग्राम का जैनों के कुण्डग्राम होने की पूरी सम्भावना है।’’ यह वाक्य भी दिगंबर जैन आगम ग्रंथों का अवलोकन करने की प्रेरणा देता है कि हमें बौद्धधर्मानुसार नहीं, प्रत्युत् अपने शास्त्रों के अनुसार श्रद्धाभाव से प्राचीन वुंâडलपुर को ही महावीर की जन्मभूमि मानना है। 

८.

डॉ० जयदेव मिश्र-पटना, डा० श्रीरंजनसूरिदेव-पटना, डा० राजेन्द्रराम-पटना ने भी अपने-अपने आलेखों में पूरी तरह से आधुनिक शोध-खोज के अनुसार ही श्वेताम्बर एवं बौद्धपरम्परापोषक प्रमाणों से वैशाली को महावीर जन्मभूमि और त्रिशला को चेटक की बहन कहने में ही गौरव का अनुभव किया है। यह उनकी भूल नहीं, बाqल्क वैशाली के समर्थन में उनकी भावनाओं को उत्पे्ररित करने वालों का प्रयास ही जान पड़ता है क्योंकि इतनी सब झाँकी जमाए बिना जैन समाज को वैशाली से परिचित कराना भी असम्भव था। डा० श्री रंजनसूरिदेव ने तो अपने लेख में पृष्ठ ४३ पर लिखा है -‘‘महावीर स्वामी जब वाणिज्यग्राम के अन्तर्भाग में पहुँचे, तब वहाँ आनंद नाम के तपोनिरत श्रावक ने उनके दर्शन से केवलज्ञान प्राप्त किया था।’’ इतना ही नहीं, पृष्ठ ४४ पर लिखा है कि ‘‘निर्ग्रंथ महावीर स्वामी भी जब नाव से पार उतरे थे, तब नाविकों ने खेवा के लिए उन्हें रोक लिया था, फलतः महावीर स्वामी को कड़ी धूप में गरम बालू पर बहुत देर तक खड़ा रहना पड़ा था। बाद में शंख राजा का भगिना ‘‘चित्त’’ ने उन्हें नाविकों से मुक्त किया था। यह कैसी विडम्बना है कि वैशाली को जन्मभूमि मानने की आड़ में कैसे-कैसे आगम विरूद्ध तथ्य दिगम्बर जैन समाज के गले उतारे जा रहे ंहैं एवं महावीर को अत्यंत साधारण व्याqक्तत्व के रूप में प्रस्तुत करते हुए उनकी अवमानना के पाप का भय भी मन से निकल गया है। मैं इन विद्वानों के लिए इतना अवश्य कह सकती हूँ कि यदि ये सभी प्राचीन आचार्यों की वाणी श्रद्धापूर्वक पढ़ते तो प्राचीनकाल से चली आ रही भााqक्तकों की श्रद्धा की कभी अवहेलना नहीं कर पाते। इस विषय पर जरा चिन्तन कीजिए कि जिस अयोध्या में मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान राम ने जन्म लिया था उसे आधुनिक शोधकर्ता-डा० जिनेश्वरदास जैन ‘थाईलैंड‘ में कह रहे हैं तो क्या यह आपको अथवा भारत के ८५ करोड हिन्दुओं को मान्य है? यदि हाँ, तो अब राममाqन्दर थाइलैंड में बनाने की प्रेरणा रामभक्तों को दीजिए और यदि नहीं मान्य है तो जैनसमाज की प्राचीन श्रद्धा के साथ छेड़छाड़ करने में सहयोग देना बन्द कर दीजिए क्योंकि हम लोग शत-प्रतिशत दिगम्बर जैन धर्मानुयायी भक्तगण सदियों से नालन्दा के निकट कुण्डलपुर को ही महावीर की जन्मभूमि मानते आए हैं, उसी को मानेंगे, इसमें कोई सन्देह नहीं है। इस मान्यतानुसार वैशाली महावीर की ननिहाल है, जन्मभूमि नहीं। इस स्मारिका में पृ. ४६ पर लिखा है-‘‘ऐतिहासिक स्रोत से यह सूचना मिलती है कि महावीर युग की वैशाली के लिच्छवि उत्तर-पूर्व भारत के महाबलशाली, सुशिक्षित और कलाप्रेमी क्षत्रिय थे। तभी तो डा. श्रीरंजनसूरिदेव ने तो अम्बपाली नामक एक वेश्या के लिए यहाँ तक लिख दिया है कि ‘‘महावीर ने विदेहक्षेत्र की ग्राम सुन्दरियों की कला प्रतियोगिता के माध्यम से अम्बपाली को निर्वाचित कर उसे वैशाली की नगरवधू या राजनर्तकी के पद पर प्रतिष्ठित किया था और जब मगध की सेना वैशाली पर चढ़ आई थी, तब युद्धोन्माद में आकर रणभूमि में िंसहनाद करने वाले सैनिकों में अम्बपाली ने ही सबसे आगे बढ़कर वज्जियों को शत्रु संहार के लिए ललकारा था। इत्यादि कथन दिगम्बर जैनागम से पूर्ण विरूद्ध है, दिगम्बर जैन शास्त्रों में अम्बपाली नगरवधू (वेश्या) का नामोनिशान तक नहीं है। ऐसा लगता है कि महावीर युग के पुरूष और कुलीननारियाँ तो बिल्कुल निाqष्क्रय ही थे, केवल उस समय की वेश्याएँ ही राज्य चलाने में सक्षम थीं और राज्यसभा उन पर ही आधारित थी। अरे, महावीर के भक्तों! महावीर तो इतने महान पुण्यशाली तीर्थंकर भगवान के साक्षात् अवतार थे कि उनके समक्ष साक्षात् सौधर्म इन्द्र भी िंककर बनकर खड़ा रहता था फिर भला महावीर को एक वेश्या का निम्नप्रतिाqष्ठत पद अपने हाथों से क्यों बनाना पड़ता? वैशाली का यह इतिहास महात्माबुद्ध से सम्बाqन्धत तो हो सकता है किन्तु महावीर से उसका सम्बन्ध स्वप्न में भी सोचना उनकी महानता पर प्रश्नचिन्ह लगाना है। इसी लेख में आगे महासती चन्दनबाला के र्आियका संघ के लिए ‘‘भिक्षुणी संघ’’ जैसी संज्ञा का प्रयोग किया है जो पूरी तरह से बौद्धधर्म का प्रचलित शब्द है, कम से कम जिस धर्म के महापुरूष या महासती के बारे में लिखा जाए तो उनके धर्मानुरूप योग्य शब्दों का चयन भी आवश्यक है। जिस गणतन्त्र शासन का शुभारम्भ ये आधुनिक लेखक वैशाली के राजा चेटक से मानते हैं, वह भी दिगम्बर ग्रन्थों के प्रतिकूल है क्योंकि इस विषय में दिगम्बर जैनग्रन्थोें में वर्णन आया है कि वैशाली में राजा ‘केक’ राज्य करते थे, उनके सोमवंश में चेटक का जन्म हुआ जो तीर्थंकर महावीर के नाना होने के कारण प्रसिद्धि को प्राप्त हुए थे। लौकिक इतिहास के अनुसार प्रचारित किया गया वैशाली गणतंत्र हो सकता है कि पश्चात्वर्ती समय में बना हो किन्तु महावीर के काल में वैशाली में न तो गणतंत्र शासन था, न चेटक उसके राष्ट्रपति थे, न ही राजा सिद्धार्थ चेटक के गणतंत्रशासन के एक सदस्य थे और न ही महावीर की पहचान वैशाली के राजकुमार के रूप में थी। उनके बारे में अन्य अनर्गल प्रलाप दिगम्बर जैन परम्परा के विरूद्ध है, अत: ऐसी दन्तकथाएँ तो पढ़-सुनकर भी हास्यास्पद लगती हैं। इन आलेखों में प्रो. राजाराम जैन, निदेशक कुन्दकुन्द भारती – नई दिल्लीr का लेख तो प्रथम पांक्त से ही विरोधाभास उत्पन्न कर रहा है, जिसमें उन्होनें बेधड़क रानी त्रिशला को राजा चेटक की बहन लिखकर वैशाली के उपनगर कुण्डग्राम, वासुकुण्ड, क्षत्रियकुण्ड ग्राम को महावीर की जन्मभूमि माना है। जैनसमाज के प्रबुद्ध पाठकों! अन्य तथाकथित प्रो० विद्वानों के लेख पढ़कर जितना आश्चर्य नहीं हुआ, उससे अधिक आश्चर्य हुआ दिगम्बर जैन माने जाने वाले प्रो० राजाराम जैन का लेख पढ़कर, जिसमें उन्होनें वैशाली के समर्थन में अपनी पूरी शाqक्त का उपयोग करते हुए उनके १२ वर्षावास (चातुर्मास) वैशाली में बताए हैं। क्या प्रोपेâसर साहब दिगम्बर जैन ग्रन्थों के प्रमाणपूर्वक उपर्युक्त दोनों कथन सिद्ध कर सकते हैं? एक दिगम्बर जैन संस्था के निदेशक पद से क्या आगमविरूद्ध कथन उनकी लेखनी से शोभास्पद लगता है? लेख के अन्त में श्री जैन ने जिस सौहार्दभाव का परिचय देते हुए लिखा है कि ‘‘राज्य एवं केन्द्र सरकार ने वैशाली के कुण्डग्राम के विकास के लिए जो भी योजनाएँ तैयार की हैं, उन्हें साकार करने में जैन समाज हर दृष्टि से अपना सार्थक सहयोग देकर महावीर के २६००वें जन्मकल्याणक को सफल बनावें। भूलकर भी ऐसा कार्य न हो जिससे कि समाज में तथा राज्य एवं केन्द्र सरकार में कोई गलत सन्देश जाए और किसी प्रकार के भ्रम उत्पन्न हों।’’ उपर्युक्त कथन तो पूरी तरह से वैशाली समर्थकों पर ही लागू होता है क्योंकि भ्रम की स्थतियाँ तो वहीं से प्रारम्भ हुई हैं। अन्य सभी तो प्राचीन परम्परानुसार असली जन्मभूमि कुण्डलपुर की पूजा-अर्चना करते रहे और कुछ समर्थजनों के द्वारा अघोषित रूप में वैशाली को जन्मभूमि बना दिया गया। सरकार के समक्ष तो कमेटी के लोगों द्वारा यदि कुण्डलपुर की बात कही जाती तो वह उसके विकास की योजनाएँ बनाती किन्तु शायद यह भी ठीक ही हुआ है कि कुण्डलपुर तीर्थ जैसे पवित्र स्थल पर दिगम्बर जैन समाज के परिश्रम का पैसा ही लगे तो उसकी ख्याति और गरिमा में अवश्य चार चाँद लग जाऐंगे। हमारे दिगम्बर जैन समाज ने न तो कभी तीर्थ और मंदिरों के निर्माण हेतु सरकार से र्आिथक अनुदान लिया है और न ही लेना चाहिए किन्तु कलिकाल के अभिशाप ने कार्यकर्ताओं की बुद्धि को दिग्भ्रमित किया जान पड़ता है तो उसका कोई चारा भी नहीं है अर्थात् सरकार के पैसों से कुछ लोग वैशाली को जन्मभूमि बनाएंगे और अपनी श्रद्धा के पुष्पों से पूरा दिगम्बर जैन समाज असली जन्मभूमि कुण्डलपुर को बचाएगा-उसकी रक्षा करेगा। इसी प्रकार स्मारिका में एक लेख डॉ० शाान्त जैन-आरा का है, जिन्होनें वैशाली को महावीर जन्मभूमि सिद्ध करने का भरसक प्रयत्न करते हुए कुछ वक्ताओं के वक्तव्य अंश दिए हैं। मैं इन बहनजी से यह कहना चाहती हूँ कि क्या आप किसी भी दिगम्बर जैन आचार्यप्रणीत ग्रन्थों (धवला, तिलोयपण्णत्ति, उत्तरपुराण आदि) में वैशाली को जन्मभूमि के रूप में दिखा सकती हैं? वर्तमान की खोखली शोधपरक दृाqष्ट से दूर होकर यदि इन आगमग्रन्थों का अध्ययन करें तो कुण्डलपुर और वैशाली दोनों का अलग-अलग आqस्तत्व आपको प्रत्यक्ष नजर आने लगेगा किन्तु बहनजी ने तो लगता है अब महावीर को विकृत करने का ठेका ही ले लिया है, इसीलिए उन्हें नई आरती लिखकर महावीर को “वैशाली ललना’’ लिखना पड़ा। अरे! नारी के कोमल हृदय को इतने पाप का भागी मत बनाओ अन्यथा केवली, श्रुत और धर्म के अवर्णवाद के दोष का फल किसी और को नहीं, स्वयं आपको ही भोगना पड़ेगा। बहनजी! पहले आप तो दिगम्बर, श्वेताम्बर एवं बौद्ध ग्रन्थों का अध्ययन कीजिए पुनः उनके अन्तर को समझकर यथार्थता को ग्रहण कीजिए। कुल मिलाकर यह स्मारिका आमूल-चूल श्वेताम्बर एवं बौद्धधर्म ग्रन्थों के उदाहरणों से भरी हुई मात्र वैशाली को जन्मभूमि सर्मिथत करने के अपने लक्ष्य को झलका रही है इसमें केवल एक जगह महावीर जीवनवृत्त का संक्षिप्त तथ्यपरक प्रस्तुतीकरण के अन्दर त्रिशला को चेटक की पुत्री कहा है, शेष सभी स्थानों पर उन्हें निःसंकोच चेटक की बहन कहकर दिगम्बरत्व के साथ खिलवाड़ किया गया है। इसमें भी जन्मस्थान को वैशाली के क्षत्रियकुण्डग्राम कहकर वास्तविक तथ्य से लोगों को अपरिचित रखा गया है। मत-अभिमतों की श्रृंखला में भी या तो दिगम्बर जैन ग्रन्थों की पांqक्तयों को तोड़-मरोड़ कर कुण्डपुर या कुण्डलपुर को वैशाली में घसीटने का प्रयास है या फिर पाश्चात्य खोजों के अनुसार डायरेक्ट वैशाली को महावीर का जन्मस्थान मानने वाले लोगों के वाक्य खोज-खोजकर छापे गए हैं। इनसे लगता है कि हमारे पूर्वज जैनाचार्य तो भूगोल और शोधपरक विचारों से पूर्ण अनभिज्ञ थे और अब ये नए विचारक ही सम्पूर्ण जैन समाज की नीतियों का निर्धारण करेंगे। समाज के तथाकथित नेताओं को शायद नहीं मालूम है कि उनकी पाश्चात्य विद्वानों की लेखनी से प्रभावित और भावुकता में की गई यह गलती भविष्य में जैन समाज के लिए कितनी घातक सिद्ध होगी? फिर आप लोग भला प्रो० आर. एस. शर्मा, रोमीला थापर आदि इतिहास लेखकों को दोषी कैसे कह पाऐंगे? जिन्होनें महावीर को जैनधर्म के संस्थापक, जैनियों द्वारा तेईस तीर्थंकरों के नाम गढ़ना आदि बातें इतिहास में लिख दी हैं। वे तो बेचारे जैन नहीं है तो कदाचित अज्ञानता के कारण उनकी गलतियाँ क्षम्य हो सकती हैं, किन्तु दिगम्बर जैन कुल में जन्म लेकर दिगम्बर जैन ग्रन्थों की बातें भौगोलिक दलीलें देकर अमान्य करना कदापि क्षम्य नहीं हो सकता। भौगोलिक दलीलों की कसौटी पर भगवन्तों की जन्मभूमियों अथवा किसी भी तीर्थ को परखने से तो वर्तमान में कोई भी तीर्थ खरे नहीं उतरेगें अर्थात् प्रायः सभी तीर्थ प्रश्न के घेरे में आ जाएंगे, अतः जिनेन्द्रवाणी एवं परम्परागत चली आ रही प्राचीन मान्यताओं के आधार पर ही हमें अपनी श्रद्धा को दृढ़ रखते हुए तीर्थों का संरक्षण करना चाहिए। प्रस्तुत आलेख का उपसंहार करते हुए समाज के विज्ञवर्ग से मुझे यही कहना है कि ‘‘भगवान महावीर स्मृति-तीर्थ, जन्मस्थली – वैशाली’’ नामक स्मारिका श्वेताम्बर एवं बौद्धधर्म पोषक प्रमाणों का खजाना है, उससे दिगम्बर मान्यता की पुाqष्ट करना पड़ोसी के द्वारा अपने पिता की पहचान करने के ही समान है, जो अपनी माता के प्रति अविश्वास का परिचायक है। दिगम्बर जैन समाज के श्रद्धालु भक्तो! यह एक अघोषित षड़यंत्र है। जिस प्रकार सरकार द्वारा जैन समाज को अल्पसंख्यक घोषित न होने देने में हमारे जैन समाज के ही कतिपय सत्ताधारी लोग अपनी अहम् भूमिका निभा रहे हैं, उसी प्रकार पूर्वाचार्यों की वाणी के प्रति कतिपय अविश्वासी अज्ञानी लोगों की सूझबूझ ने जैन साहित्य से दूर-दूर तक अनजान कुछ विदेशी विद्वानों की बातों को जिनवाणी मानकर वैशाली को तीर्थंकर महावीर की जन्मभूमि के रूप में सरकारी मान्यता दिलाकर समाज पर थोपना चाहते हैं, किन्तु उनका यह प्रयास आकाशपुष्प के समान पूर्णरूप से असत्य है इसलिए आगमनिष्ठ जैन समाज उसे कभी स्वीकार नहीं कर सकती। लोक में एक कहावत है कि असली माल को असली कहने के लिए िंढढोरा नहीं पीटना पड़ता, प्रत्युत् वह तो अपने गुण-धर्म से ही संसार को असलियत का परिचय दे देता है। इसी प्रकार भगवान महावीर की असली जन्मभूमि कुण्डलपुर (निकट नालन्दा-बिहार) तो उनके जन्म के बाद से सदैव से ही सम्पूर्ण समाज की श्रद्धा का केन्द्र रही है और सदैव श्रद्धा का केन्द्र रहेगी।

 

Previous post कुण्डलपुरी जन्मस्थली परंपरा मान्य है! Next post महावीर की जन्मभूमि कुण्डलपुर थी, है और रहेगी!
Privacy Policy