Jambudweep - 7599289809
encyclopediaofjainism@gmail.com
About Us
Facebook
YouTube
Encyclopedia of Jainism
  • विशेष आलेख
  • पूजायें
  • जैन तीर्थ
  • अयोध्या

व्रतों की स्थिरता के लिए भावनायें

December 18, 2022जैनधर्मHarsh Jain

व्रतों की स्थिरता के लिए भावनायें 



अहिंसा आदि पाँच व्रतों को स्थिर करने के लिये पाँच-पाँच भावनायें होती हैं अर्थात् ‘मैं हिंसा नहीं करूँगा, असत्य नहीं बोलूँगा’ इत्यादि रूप से जिसने पाँच पापों का त्याग कर दिया है, उसको नित्य ही इन व्रतों की दृढ़ता के लिए भावनाओं को भाते रहना चाहिए। जिनका बार-बार अनुशीलन किया जाता है वे भावनायें कहलाती हैं।

‘वे भावनायें कितनी हैं ?’

‘पच्चीस हैं। देखिये-

१. वचन गुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदाननिक्षेपणसमिति और आलोकितपानभोजन ये अहिंसाव्रत की पाँच भावनायें हैं।

‘आलोकितपानभोजन’ नाम की भावना में रात्रिभोजनत्याग व्रत को अंतर्भूत कर लेने से उनका यहाँ पृथव्â निर्देश नहीं किया गया है।

प्रश्न-आलोकित पान भोजन का अर्थ है-प्रकाश में देख शोधकर भोजन करना, सो यह तो प्रदीप और चंद्र आदि के प्रकाश में रात्रिभोजन करने पर भी सम्भव है पुन: इससे रात्रि भोजन का निषेध वैâसे हो सकता है ?

उत्तर-ऐसा नहीं है, दीपक के जलने में और अग्नि आदि आरंभ के करने-कराने में अनेक दोष आते हैं। दूसरे के द्वारा जलाये हुये दीपक के प्रकाश में स्वयं का आरंभ न भी हो तो भी गमन आदि नहीं कर सकते।

ज्ञान और सूर्र्य के प्रकाश में इंद्रियों के द्वारा अच्छी तरह चार हाथ आगे जमीन को देखकर यति को योग्य देश काल में शुद्ध आहार ग्रहण करना चाहिये ‘यह आचार शास्त्र का उपदेश है।’ यह विधि रात्रि में नहीं बन सकती है। दिन में भिक्षा लाकर रात्रि में भोजन कर लेना सो भी उचित नहीं है।’ लाकर भोजन करना ‘यह संयम का साधन भी नहीं है तथा निष्परिग्रही पाणिपुट भोजी मुनि को भिक्षा लाना भी सम्भव नहीं है। यदि ये साधु अपने पास पात्र रखते हैं तो अति दीनवृत्ति दिखती है।

सर्वसावद्य योग त्याग के परिणाम भी नहीं हो सकते हैं क्योंकि पात्र मौजूद है। योनिप्राभृत के जानकार साधु को लाकर भोजन करने में संयोग विभाग आदि दोषों से बचना असंभव है। जैसे भोजन के लाने में दोष है वैसे ही शेष बचे उसके छोड़ने में भी अनेक दोष हैं। जैसे सूर्य के प्रकाश में स्पष्टतया सर्व पदार्थ दिख जाते हैं वैसे चंद्र या दीपक के प्रकाश में नहीं दिख सकते अत: दिन में देख, शोधकर भोजन पान करना ही ‘आलोकितपानभोजन’ नाम की भावना होती है।

२. क्रोध, लोभ, भय और हास्य इन चारों का त्याग करना तथा अनुवीचि भाषण अर्थात् आगम के अनुकूल वचन बोलना ये पाँच सत्यव्रत की भावनायें हैं।

३. शून्यागार-पर्वत की गुफा, वृक्ष की खोह आदि में निवास करना, पर के द्वारा छोड़े गये या छुड़ाये गये मकान आदि में रहना, दूसरे को उसमें आने से नहीं रोकना, शास्त्र के अनुकूल निर्दोष आहार ग्रहण करना और ‘यह मेरा है, यह तेरा है इत्यादि रूप से सहधर्मियों के साथ विसंवाद नहीं करना ये पाँच अचौर्यव्रत की भावनायें हैं।

४. स्त्री में रागोत्पादक कथाओं के सुनने का त्याग करना, उनके मनोहर अंगों के देखने का त्याग करना पूर्व में भोगे हुये विषयों के स्मरण का त्याग करना, कामोद्दीपक भोजनादि का त्याग करना और शरीर के संस्कार का त्याग करना ये पाँच ब्रह्मचर्यव्रत की भावनायें हैं।

५. स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन पाँचों इंद्रियों के इष्ट विषयों में राग और अनिष्ट विषयों में द्वेष का त्याग करना ये पाँच अपरिग्रह व्रत की भावनायें हैं।

ये पच्चीस भावनायें पाँचों पापों को पूर्णतया त्याग करने वाले ऐसे महाव्रती मुनियों के व्रतों को दृढ़ करने के लिए ही मुख्यरूप से कही गई हैं।
हिंसादि पापों के विषय में और भी विचारणीय बातें हैं-

ये हिंसा असत्य आदि पाप इस लोक और परलोक के अपाय और अवद्य को करने वाले हैं।

अभ्युदय अर्थात् नाना प्रकार के सांसारिक सुख तथा नि:श्रेयस अर्थात् मोक्ष सुख, इन दोनों प्रकार के सुखों के साधनों के नाशक अनर्थ को अपाय कहते हैं अथवा इहलोक भय आदि सात प्रकार के भयों का नाम उपाय है। गर्ह्य अर्थात् निंद्य को अवद्य कहते हैं। ये पाँचों ही पाप सतत ही जीव के अपाय को और अवद्य को करने वाले हैं।

हिंसा करने वाले को हिंसक कहते हैं वह नित्य ही उद्विग्न रहता है, हमेशा उसके वैरी बने रहते हैं, इसी भव में वह बंध और क्लेश को प्राप्त होता है तथा मरकर अशुभगति में चला जाता है। लोक में निंदा का भाजन भी होता है अत: हिंसा से विरक्त होना ही कल्याणकारी है। ऐसे ही मिथ्याभाषी का कोई विश्वास नहीं करता है वह यहीं जिह्वाच्छेद आदि दंड भुगतता है।

जिसके संबंध में झूठ बोलता है वे उसके बैरी हो जाते हैं अत: उनके द्वारा भी अनेक आपत्तियाँ आ जाती हैं अनंतर वह मरकर अशुभ गति में चला जाता है और लोक में निंदनीय भी होता है अत: असत्य बोलने से विरत होना ही श्रेयस्कर है। इसी प्रकार से चोर का सब तिरस्कार करते हैं, वह यहीं पर मार-पीट, बध-बंधन, हाथ-पैर, कान-नाक आदि का छेदन और सर्वस्वहरण आदि दंडों को प्राप्त होता है तथा मरकर अशुभगति में चला जाता है और निंदित भी होता है अत: चोरी का त्याग करना ही श्रेयस्कर है।

इसी तरह कुशीलसेवी मदोन्मत्त हाथी की तरह काम से विवश होता हुआ बध-बंधन, क्लेश आदि का अनुभव करता है। मोहाभिभूत होने से कार्य-अकार्य के विवेक से वंचित होकर किसी भी शुभ कर्म को करने के लायक नहीं रहता है। परस्त्रीगामी यहीं पर लिंगच्छेद आिद दंड भोगते हैं और मरकर दुर्गति में चले जाते हैं तथा लोक में अत्यर्थ निंदा को प्राप्त होते हैं अत: कुशील का त्याग करना ही कल्याणप्रद है।

इसी प्रकार से परिग्रह का अति संचय भी पाप है, परिग्रही पुरुष मांस खंड को मुंह में दबाये हुये पक्षी की तरह अन्य के द्वारा झपटा जाता है, चोरों के द्वारा तिरस्कृत होता है, परिग्रह के अर्जन, रक्षण और विनाश में अनेक संक्लेशों को पाता है। जैसे ईंधन से अग्नि की तृप्ति असंभव है वैसे ही परिग्रह से कभी किसी की तृप्ति नहीं हो सकती है। परिग्रही लोभाभिभूत होने से विवेकशून्य हो जाता है और उस पाप से मरकर अशुभगति में चला जाता है। यह बड़ा लोभी है इत्यादि रूप से निंदनीय होता है अत: परिग्रह से विरक्त होना ही श्रेयस्कर है।

इसी तरह से ये पाँचों पाप स्वयं दु:खरूप ही हैं क्योंकि जैसे प्राण के लिए कारण होने से अन्न को प्राण कह देते हैं वैसे ही दु:ख के कारण हिंसादि को भी दु:ख रूप ही कह दिया है। जैसे मुझे बध, बंधन पीड़ा असह्य है, मिथ्या बात या मर्मच्छेदी वचन असह्य हैं, मेरी चीज चोरी जाने पर या मेरी बहन, पत्नी, पुत्री के प्रति किसी के गलत भाव होने पर मुझे संताप होता है या मेरे परिग्रह आदि के संरक्षण के न होने पर क्लेश होता है, ऐसे ही अन्य प्राणियों को भी होता है। ऐसा सोचकर इन पापों से विरक्त होना चाहिए।

तात्पर्य यह है कि ऊपर की पच्चीस भावनायें तो महाव्रती मुनियों के लिए ही पूर्णतया घटित होती हैं। श्रावक तो इनकी भावना मात्र ही कर सकते हैं किन्तु आगे की भावनाएं तो श्रावकों के लिये भी सर्वथा: उपयोगी हैं। ये पाँच पाप सदा ही इस जीव की हानि करने वाले हैं और दुर्गति में ले जाकर नाना कष्ट देने वाले हैं, साथ ही दु:ख का कारण ही होने से सर्वथा दु:ख रूप भी हैं।

‘मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि च सत्त्वगुणाधिक क्लिश्यमानाविनयेषु।।११।।

प्राणिमात्र में मैत्री, गुणीजनों में प्रमोद, दुखीजनों में करुणा तथा विरुद्ध वृत्ति वालों में माध्यस्थ्य भाव रखना चाहिए।

मैत्री-मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से अन्य जीवोें को दु:ख न होने देने की अभिलाषा को मैत्री कहते हैं।

प्रमोद-मुख की प्रसन्नता, नेत्र का आल्हाद, रोमांच, स्तुति, सद्गुणकीर्तन आदि के द्वारा प्रकट होने वाली अंतरंग की भक्ति और राग का नाम प्रमोद है।

कारुण्य-शारीरिक और मानसिक दु:खों से पीड़ित दीन प्राणियों के ऊपर अनुग्रहरूप भाव होना कारुण्य है।

माध्यस्थ-रागद्वेषपूर्वक किसी एक पक्ष में न पड़ने के भाव को माध्यस्थ्य भाव कहते हैं।

‘‘कौन सी भावना किसके प्रति करना ?’’

सत्त्व-अनादिकालीन अष्टविध कर्म बंधन से तीव्र दु:खों के लिये कारणभूत चारों गतियों में जो दु:ख उठाते हैं वे सत्त्व कहलाते हैं अर्थात् सभी संसारी प्राणी सत्त्व हैं।

गुणाधिक-सम्यग्दर्शन, ज्ञान आदि गुणों से विशिष्ट पुरुष गुणाधिक हैं।

क्लिश्यमान-असातावेदनीय के उदय से जो शरीर या मानस दु:खों से संतप्त हो रहे हैं वे क्लिश्यमान कहलाते हैं।

अविनेय-तत्त्वोपदेश श्रवण और ग्रहण के जो पात्र होते हैं उन्हें विनेय कहते हैं। जो विनेय से विपरीत प्रवृत्ति वाले हैं वे अविनेय कहलाते हैं।
इन जीवों के प्रति क्रम से उपर्युक्त भावनायें रखनी चाहिए।

जैसे-‘मैं सब जीवों के प्रति क्षमाभाव रखता हूँ, सब जीव मुझे क्षमा करें, मेरी सब जीवों से प्रीति है किसी से साथ भी मेरा वैर नहीं है।’ इत्यादि प्रकार से मैत्री भावना सब जीवों के साथ रखनी चाहिए।

सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र में अधिक ऐसे गुणीजनों की वंदना, स्तुति, सेवा आदि करके प्रमोद भावना भानी चाहिए।

मोह से अभिभूत, कुमति, कुश्रुत आदि कुज्ञान से युक्त, विषयों की तृष्णा में जलने वाले और हित से हटकर अहित में प्रवृत्ति करने वाले, विविध दु:खों से पीड़ित, दीन, अनाथ, कृपण, बाल या वृद्ध आदि क्लिश्यमान जीवों में करुणाभाव रखना चाहिए।

तत्त्वों के ग्रहण, धारण, विज्ञान और ऊहापोह से रहित महामोह से अभिभूत, विपरीत दृष्टि और विरुद्ध प्रवृत्ति वाले प्राणियों में माध्यस्थ भाव रखना चाहिए। यह समझ लेना चाहिए कि ऐसे विपरीत जीवों में वक्ता का हितोपदेश सफल नहीं हो सकता है। इस तरह इन भावनाओं के द्वारा अहिंसादि व्रत परिपूर्ण होते हैं।

‘क्या इतनी ही भावनायें धारण करने योग्य हैं अथवा और भी कुछ हैं ?’’ ‘‘हाँ और भी हैं।’’

जगत्कायस्वभावौ वा संवेगवैराग्यार्थम्।।१२।।

संवेग और वैराग्य होने के लिये संसार और शरीर के स्वभाव का विचार करते रहना चाहिए।

विविध वेदना के आकर ऐसे संसारभीरुता का होना संवेग है। चारित्रमोह के उदय के अभाव में उसके क्षय, क्षयोपशम या उपशम से होने वाला, विषयों से विरक्तरूप जो परिणाम है यह वैराग्य कहलाता है।

जिसमें संसरण किया जाय वह संसार है। इसकी रचना अनादिनिधन है। इसमें जीव नाना गतियों में अनेक प्रकार के दु:खों को भोगते हुए परिभ्रमण करते हैं। इस संसार में कुछ भी नियत नहीं है, जीवन जलबुद्बुद् के समान चंचल है, बिजली और मेघ के समान भोग-संपत्तियां क्षणभंगुर हैं, इत्यादि प्रकार के जगत के स्वभाव का विचार करना चाहिए।

शरीर अनित्य है, दु:ख का हेतु है, अशुचि है, नि:सार है, रोगों का घर है, इसके पोषण से पाप का ही संचय होता है और तपश्चरण के द्वारा इसका शोषण करने से यह भविष्य के लिये सुखदायी हो जाता है, इत्यादि भावनाओं के भाते रहने से संवेग प्रकट होता है।

इसी तरह असि, मषि आदि आरंभ और धन, धान्य आदि परिग्रह के दोषों का चिंतवन करते रहने से धर्म में, धार्मिकों में, धर्मश्रवण में और धार्मिकों के दर्शन में आदरभाव प्रकट होता है तथा मन में संतोष उत्पन्न होता है। आगे-आगे गुणों की प्राप्ति में श्रद्धा होती है और शरीर, भोगोपभोग सामग्री तथा संसार से वैराग्य उत्पन्न होता है। इस तरह इन भावनाओं से जो अपने चित्त को भावित करते रहते हैं वे व्रतों के पालन में अतिशय दृढ़ हो जाते हैं।

(ये मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावनायें प्रत्येक मनुष्य के दैनिक जीवन में सुख, शांति और आनंद का संचार करती हैं। इनके बिना मनुष्य का जीवन सारशून्य, अशांतिपूर्ण और क्लेश का स्थान बन जाता है।)

शंका-यदि गुणाधिक पुरुषों में माध्यस्थभाव और विपरीत प्रवृत्ति वालों में प्रमोदभाव धारण किया जाय तो और भी अच्छा है क्योंकि आजकल अधर्मी और पापी लोगों से प्रेम करते रहने से वे ऊपर को उठते हैं, उन्नति का मार्ग पकड़ते हैं। दूसरी बात यह भी है कि पाप से घृणा करनी चाहिए पापी से नहीं तथा जो गुणों में अधिक हैं उनके राग-द्वेष होना ही चाहिए अत: उनके माध्यस्थ भाव होने से अच्छा ही है।

समाधान-विपरीत बुद्धि वाले लोग माध्यस्थता के ही पात्र हैं। उनसे प्रमोद करने से, उनके संसर्ग से बिना मालूम भी उनके दोष अपने में आ जाते हैं तथा धीरे-धीरे अपने मन में भी पाप में प्रवृत्ति होने लगती है, भय निकल जाता है तथा इन्हें धर्म के उपदेश से सुधारा भी नहीं जा सकता है। ये धर्म से प्राय: द्वेष भाव ही रखते हैं। जिस तरह पाप प्रवृत्तियों से दूर रहना चाहिए उसी तरह पापीजनों की संगति से, उनके प्रति प्रेमपूर्ण सौहार्द व्यवहार से भी दूर रहना चाहिए। ऐसा महान सूत्रकार श्री उमास्वामी आचार्य का आदेश है न कि हमारा। जो उपदेश सुनकर उन्नति के मार्ग में लग सकते हैं वे ‘अविनय’ की कोटि में नहीं जाते हैं प्रत्युत क्लिश्यमान की कोटि में रहते हुये आपकी करुणा के पात्र होते हैं तथा गुणाधिकों में प्रमोद भावना से अपने में गुणों का संचार होता है, महान पुण्यबंध होता है। अन्यत्र भी आचार्यों ने कहा है-

‘गुणेषु पक्षपातो य: स प्रमोद: प्रकीर्त्यते।

गुणों में जो पक्षपात होता है उसी का नाम प्रमोद है।

धवला में भी कहा है कि-‘न पक्षपातो दोषात शुभपक्षवृत्ते श्रेयोहेतुत्वात्।’ यह पक्षपात दोषोत्पादक नहीं है क्योंकि यह शुभपक्ष में रहने से कल्याण का ही हेतु है। यह प्रकरण वहाँ का है कि जहाँ पर महामंत्र में प्रारंभ में सिद्धों को नमस्कार न करके अरिहंतों को क्यों किया ? ऐसा प्रश्न होने पर वे हित के उपदेष्टा हैं अत: पहले अरहंतों को नमस्कार किया गया है इत्यादि उत्तर दिया गया है।

अत: आचार्यों की आज्ञा के अनुकूल ही प्रवृत्ति इहलोक और परलोक में सुखावह होती है ऐसा निश्चय करके मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और माध्यस्थ भावनाओं के साथ-साथ संसार और शरीर के स्वभाव का विचार करते हुये अपनी आत्मा के प्रति व सच्चे धर्म के प्रति असीम प्रेम रखते हुये उभयलोक को सुखी बनाना चाहिये।

Tags: gyanamrat part-5
Previous post क्या पुण्यास्रव मोक्ष का कारण है? Next post अहिंसा व्रत

Related Articles

जैनधर्म का कर्म सिद्धान्त

December 22, 2022Harsh Jain

भगवान ऋषभदेव

December 18, 2022Harsh Jain

चौबीस तीर्थंकर परिचय

December 21, 2022Harsh Jain
Privacy Policy