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व्यंतर देवों के चैत्यवृक्ष

April 16, 2017स्वाध्याय करेंjambudweep

व्यंतर देवों के चैत्यवृक्ष


किंणरकिंपुरुसादियवेंतरदेवाण अट्ठभेयाणं।
तिवियप्पणिलयपुरदो चेत्तदुमा होंति एक्केक्का।।२७।।

कमसो असोयचंपयणागडुमतुंबुरू य णग्गोहे।
कंटयरुक्खो तुलसी कदंब विदओ त्ति ते अट्ठं।।२८।।

ते सव्वे चेत्ततरू भावणसुरचेतरुक्खसारिच्छा।
जीउप्पत्तिलयाणं हेऊ पुढवीसरूवा य।।२९।।

मूलम्मि चउदिसासुं चेत्ततरूणं जिणिंदपडिमाओ।
चत्तारो चत्तारो चउतोरणसोहमाणाओ।।३०।।

पल्लंकआसणाओ सपाडिहेराओ रयणमइयाओ।
दंसणमेत्तणिवारिददुरिताओ देंतु वो मोक्खं।।३१।।

संखेज्जजोयणाणिं संखेज्जाऊ य एसमयेणं।
जादि असंखेज्जाणिं ताणि असंखेज्जआऊ य।।९७।।

अट्ठाण वि पत्तेक्कं किंणरपहुदीण वेंतरसुराणं।
उच्छेहो णादव्वो दसकोदंडप्पमाणेणं।।९८।।

चउलक्खाधियतेवीसकोडिअंगुलयसूइवग्गेहिं।
भजिदाए सेढीए वग्गे भोमाण परिमाणं।।९९।।

संखातीदविभत्ते विंतरवासम्मि लद्धपरिमाणा।
उप्पज्जंता देवा मरमाणा होंति तम्मत्ता।।१००।।

व्यंतर देवों के चैत्यवृक्ष

 

किन्नर-किम्पुरुषादिक आठ प्रकार के व्यन्तर देवों संबंधी तीनों प्रकार के (भवन, भवनपुर, आवास) भवनों के सामने एक-एक चैत्यवृक्ष है।।२७।।

अशोक, चम्पक, नागद्रुम, तुम्बरु, न्यग्रोध (वट), कण्टकवृक्ष, तुलसी और कदम्ब वृक्ष, इस प्रकार क्रम से वे चैत्यवृक्ष आठ प्रकार के हैं।।२८।।

ये सब चैत्यवृक्ष भवनवासी देवों के चैत्यवृक्षों के सदृश जीवों की उत्पत्ति व विनाश के कारण और पृथिवीस्वरूप हैं।।२९।।

चैत्यवृक्षों के मूल में चारों ओर चार तोरणों से शोभायमान चार-चार जिनेन्द्रप्रतिमायें विराजमान हैं।।३०।।

पल्यंक आसन से स्थित, प्रातिहार्यों से सहित और दर्शनमात्र से ही पाप को दूर करने वाली वे रत्नमयी जिनेन्द्रप्रतिमायें आप लोगों को मोक्ष प्रदान करें।।३१।।

संख्यात वर्ष प्रमाण आयु से युक्त व्यंतर देव एक समय में संख्यात योजन और असंख्यात वर्ष प्रमाण आयु से युक्त वह असंख्यात योजन जाता है।।९७।।

किन्नर प्रभृति आठों व्यंतर देवों में से प्रत्येक की ऊंचाई दश धनुषप्रमाण जानना चाहिये ।।९८।।

तेईस करोड़ चार लाख सूच्यंगुलों के वर्ग का (अर्थात् तीन सौ योजन वर्ग का ) जगश्रेणी के वर्ग में भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना व्यन्तर देवों का प्रमाण है असंख्यातों हैं ।।९९।।

व्यन्तरों के असंख्यात का भाग देने पर जो लब्ध आवे उतने देव उत्पन्न होते हैं और उतने ही मरते हैं ।।१००।।

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