Jambudweep - 7599289809
encyclopediaofjainism@gmail.com
About Us
Facebook
YouTube
Encyclopedia of Jainism
  • विशेष आलेख
  • पूजायें
  • जैन तीर्थ
  • अयोध्या

व्यवहार-निश्चय मोक्षमार्ग

June 2, 2022विशेष आलेखShreya Jain

तृतीय अधिकार


व्यवहार-निश्चय मोक्षमार्ग

सम्यग्दर्शन औ ज्ञान चरित, ये मुक्ती के कारण जानो।
व्यवहारनयापेक्षा कहना, तीनों के लक्षण पहचानो।।
इन रत्नत्रयमय निज आत्मा, निश्चयनय से शिव का कारण।
इन उभय नयों के समझे बिन, नहिं होता शिवपथ का साधन।।३९।।

सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये व्यवहारनय से मोक्ष के कारण हैं और निश्चयनय से इन रत्नत्रय से परिणत हुई अपनी आत्मा ही मोक्ष का कारण है, ऐसा तुम जानो।

यहाँ पर व्यवहारनय भेद को विषय करने वाला है न कि अभूतार्थ को, चूँकि यह भेद रत्नत्रय ही अभेद रत्नत्रय का साधन है। वीतराग सर्वज्ञ प्रणीत छह द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व और नव पदार्थ इनका श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है, इनका जानना-समझना सम्यग्ज्ञान है और व्रत आदि को धारण करना सम्यक् चारित्र है, यह व्यवहार मोक्षमार्ग है।

अपने निरंजन शुद्धात्म तत्त्व का श्रद्धान, उसी का ज्ञान, उसी में तन्मयता-एकाग्र परिणति, वही हुआ चारित्र, यह अभेदरत्नत्रय है, यही निश्चयमोक्षमार्ग है अथवा यों समझिये कि स्वर्णपाषाण को शुद्ध करने के लिए जैसे अग्नि साधक है-कारण है, वैसे ही अशुद्ध आत्मा को शुद्ध करने के लिए व्यवहाररत्नत्रय साधन है। सुवर्ण के सदृश निर्विकार स्वात्मा की उपलब्धि को प्राप्त कराने वाला निश्चयरत्नत्रय है। यही मोक्षमार्ग है, यह साध्य है। इस एक गाथा में ही पूर्वार्ध में व्यवहार और उत्तरार्ध में निश्चय मोक्षमार्ग बतला दिया है।

अब आचार्य कहते हैं कि अभेदरूप से अपनी शुद्ध आत्मा ही सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्ररूप है इसलिए निश्चय से आत्मा ही निश्चय मोक्षमार्ग है अथवा पूर्वकथित निश्चयमोक्षमार्ग को अन्य प्रकार से कहते हैं-

आत्मा को छोड़ न रह सकता, यह रत्नत्रय परद्रव्यों में।
अतएव इन्हीं रत्नत्रयमय, आत्मा ही हेतू मुक्ती में।।
निज शुद्ध चिदात्मा की श्रद्धा, सुज्ञान उसी में रत होना।
यह निश्चय रत्नत्रय होता, एकाग्रमयी परिणति होना।।४०।।

आत्मा को छोड़कर रत्नत्रय अन्य द्रव्यों में नहीं रहता है इसलिए उन रत्नत्रयमय आत्मा ही मोक्ष का कारण होता है। इस हेतु से आत्मा ही निश्चय मोक्षमार्ग है।
रागादि विकल्पों की उपाधि से रहित चित्चमत्कार भाव से उत्पन्न मधुर रसास्वाद सुख का अनुभव करने वाला ‘‘मैं’’ हूँ, इस प्रकार निश्चय से दृढ़ श्रद्धानरूप भाव निश्चय सम्यग्दर्शन है, अपने स्वसंवेदनज्ञान के द्वारा समस्त विभावों से पृथक् उसी सुख का अनुभव करना निश्चय का जानना सम्यग्ज्ञान है और देखे, सुने तथा अनुभव में आये हुए जो भोगों की आकांक्षा आदि समस्त अपध्यानरूप मनोरथ, इन मनोरथों से उत्पन्न हुए नाना संकल्प विकल्प समूह, इन सबका त्याग करके उसी स्वात्मसुख में रत हुए-संतुष्ट हुए-तृप्त हुए आत्मा में एकाकारस्वरूप परम समरसी भाव से द्रवीभूत चित्त का पुन:-पुन: स्थिर होना सो निश्चय सम्यक् चारित्र है। इस प्रकार लक्षण वाला जो निश्चय रत्नत्रय है वह शुद्धात्मा को छोड़कर अन्य बाह्य द्रव्यों में नहीं रहता है इसलिए अभेदनय से वह आत्मा ही सम्यग्दर्शन है, वह आत्मा ही सम्यग्ज्ञान है, वह आत्मा ही सम्यक्चारित्र है और वह आत्मा ही स्वात्मतत्त्व है। इस प्रकार उपर्युक्त निश्चय रत्नत्रय लक्षण से युक्त अपनी शुद्ध आत्मा ही मुक्ति का कारण है अर्थात् यह निश्चय रत्नत्रयस्वरूप शुद्धात्मा ही अथवा शुद्धोपयोग ही निश्चय मोक्षमार्ग है, ऐसा समझो।

सम्यक्त्व

अब सम्यक्त्व का लक्षण कहते हैं-

जीवादी तत्त्वों की श्रद्धा, करना सम्यक्त्व कहाता है।
वह आत्मा का ही है स्वरूप, जो निज में निज को पाता है।।
जिसके होने पर निश्चित ही, संशय आदिक से रहित ज्ञान।
सम्यक् हो जाता है उसको, सम्यग्दर्शन समझो महान।।४१।।

  • जिसके होने पर ज्ञान दुरभिप्राय रहित समीचीन हो जाता है, ऐसा जीवादि तत्त्वों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन है जो कि आत्मा का स्वरूप ही है अर्थात् सम्यक्त्व के होने पर ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है, उसके पूर्व नहीं।
  • वीतराग सर्वज्ञदेव के द्वारा कहे हुए शुद्ध जीवादि तत्त्वों का चल, मलिन, अगाढ़ दोष रहित जो श्रद्धान है, रुचि है, निश्चय है वही सम्यग्दर्शन है। वही ‘तत्व यही है, ऐसा ही है’ इस प्रकार की निश्चयबुद्धि रूप होता है। इस सम्यक्त्व के होने पर ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान हो जाता है। वह सम्यग्ज्ञान संशय, विमोह और विभ्रम से रहित होता है। सामने किसी सूखे ठूंठ को देखकर दूर से न पहचान कर ‘यह पुरुष है या ठूंठ’ ऐसे चलायमान ज्ञान को संशय कहते हैं। सीप के टुकड़े में चांदी के ज्ञान की तरह जो विपरीत ज्ञान है, वह विमोह है तथा चलते हुए पैर में तृण का स्पर्श हो जाने पर ‘यह क्या है ?’ जो ऐसा अनिर्णीत ज्ञान है वह विभ्रम या अनध्यवसाय कहलाता है, ज्ञान के ये तीन दोष हैं। इनसे रहित ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान होता है। सम्यग्दर्शन के प्रगट होते ही ये तीनों दोष निकल जाते हैं, इस हेतु से वह पूर्व का ज्ञान ही सम्यग्ज्ञान बन जाता है। इसका

उदाहरण प्रसिद्ध है-

  • गौतम, अग्निभूति और वायुभूति नाम के तीन ब्राह्मण थे। ये पाँच-पाँच सौ ब्राह्मण शिष्यों के उपाध्याय थे। चार वेद, ज्योतिष्क, व्याकरण आदि छह अंग, मनुस्मृति आदि अठारह स्मृतिशास्त्र, भारत आदि अठारह पुराण और मीमांसा, न्याय आदि इन सभी लौकिक शास्त्रों को यद्यपि जानते थे फिर भी उनका ज्ञान सम्यक्त्व के बिना मिथ्याज्ञान ही था। ये तीनों ही जब वर्धमान स्वामी तीर्थंकरदेव के समवसरण में पहुँचे, वहाँ मानस्तंभ के दर्शन से ही मान के गलित हो जाने पर आगमभाषा में दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय के उपशम, क्षय हो जाने से और अध्यात्म भाषा में अपनी शुद्ध आत्मा के अभिमुख परिणाम से कालादि लब्धि के मिल जाने पर मिथ्यात्व नष्ट हो गया, उसी समय उनका मिथ्याज्ञान सम्यग्ज्ञान हो गया।
  • इसके बाद ‘जयति भगवान्’ इत्यादि चैत्यभक्ति पढ़कर नमस्कार करके उसी क्षण जैनेश्वरी दीक्षा लेकर केशलोंच के अनंतर ही मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय इन चार ज्ञान और सात ऋद्धियों से सम्पन्न होकर ये तीनों ही भगवान के गणधर हो गये। इनमें से श्री गौतमस्वामी प्रथम गणधर थे, इन्होंने भव्य जीवों के उपकार हेतु द्वादशांग श्रुत की रचना की है। अनंतर ये तीनों ही निश्चयरत्नत्रय की भावना से मोक्ष को प्राप्त कर चुके हैं। इनके पन्द्रह सौ ब्राह्मण शिष्य भी जैनेश्वरी दीक्षा लेकर यथासंभव स्वर्ग-मोक्ष को प्राप्त कर चुके हैं किन्तु अभव्यसेन मुनि ग्यारह अंग का पाठी होते हुए भी सम्यक्त्व के बिना मिथ्याज्ञानी हो रहा है। इसी प्रकार सम्यक्त्व के माहात्म्य से ज्ञान, तपश्चरण, व्रत, उपशम और ध्यान आदि मिथ्यारूप भी समीचीन हो जाते हैं और सम्यक्त्व के अभाव में विषमिश्रित दूध के समान सभी ज्ञान, चारित्र आदि मिथ्या ही रहते हैं।
  • वह सम्यग्दर्शन पच्चीस मल दोष रहित होना चाहिए। देवमूढ़ता, लोकमूढ़ता और समयमूढ़ता ये तीन मूढ़ता हैं। ज्ञान, पूजा, कुल, जाति, बल, ऋद्धि, तप और रूप इन आठों का आश्रय लेकर घमण्ड करना मद है। इन आठ के भेद से मद के भी आठ भेद हो जाते हैं। मिथ्यादेव, मिथ्यातप, मिथ्याशास्त्र तथा इनके तीनों के आराधक ये छह अनायतन कहलाते हैं। शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, मूढ़दृष्टि, अनुपगूहन, अस्थितीकरण, अवात्सल्य और अप्रभावना ये आठ शंकादि दोष हैं। इस प्रकार ३ मूढ़ता, ८ मद, ६ अनायतन और ८ शंकादि दोष ये पच्चीस मल दोष हैं, ये सम्यक्त्व को मलिन करने वाले हैं, सरागसम्यग्दृष्टि के लिए ये छोड़ने योग्य हैं, यही सराग सम्यक्त्व ही व्यवहार सम्यक्त्व कहलाता है।
  • इस सराग सम्यक्त्व के द्वारा ही वीतराग नाम का निश्चय सम्यक्त्व साध्य है। वह शुद्धोपयोग नामक वीतराग चारित्र के साथ ही होता है। व्यवहार सम्यग्दर्शन से ही निश्चय सम्यग्दर्शन प्राप्त किया जाता है। इन दोनों में साध्य-साधन भाव है।
  • सम्यग्दर्शन से पूर्व यदि आयु बंध नहीं हुआ है तो उस सम्यग्दृष्टि के भले ही व्रत, चारित्र नहीं हैं तो भी वह मरकर नरक, तिर्यंचगति में जन्म नहीं लेता है, स्त्रीवेद और नपुंसकवेदी नहीं होता है, नीच कुल में जन्म नहीं लेता है, विकृत अंग वाला नहीं होता है, अल्पायु और दरिद्री भी नहीं होता है तथा भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी देवों में भी जन्म नहीं लेता है। स्वर्गों में भी प्रकीर्णक, आभियोग्य-वाहनदेव और किल्विषक देवों में भी जन्म नहीं लेता है और यदि पहले से नरक, तिर्यंच या मनुष्य की आयु बांध ली है बाद में सम्यक्त्व-क्षायिक सम्यक्त्व प्राप्त किया है तो वह नरकों में से पहले नरक में ही जाता है। तिर्यंचों में भोगभूमि का तिर्यंच होता है और मनुष्यों में भी भोगभूमि का मनुष्य ही होता है इसलिए सम्यग्दृष्टि मनुष्य मरकर विदेहक्षेत्र में कर्मभूमि का मनुष्य नहीं हो सकता है यह नियम है।
  • इस प्रकार यहाँ सम्यक्त्व का संक्षिप्त वर्णन किया गया है।

सम्यग्ज्ञान

संशय विपरीत तथा विभ्रम, इन दोषों से वर्जित होकर।

अपने स्वरूप औ परस्वरूप को, ग्रहण करे निश्चित होकर।।

सविकल्परूप बहुभेद सहित, वह सम्यग्ज्ञान कहाता है।

जो स्वपर प्रकाशी ज्ञान सदा, निज पर का भान कराता है।।४२।।

  • आत्मा के स्वरूप का और पर के स्वरूप का संशय, विपरीत और अनध्यवसाय रहित ग्रहण करना-जैसे को तैसा जानना सो सम्यग्ज्ञान है, जो कि साकार-सविकल्प और अनेक भेद सहित है।
  • शुद्ध आत्मतत्त्व आदि के प्रतिपादन करने वाले शास्त्र ‘ज्ञान’ कहलाते हैं। यहाँ पर कारण में कार्य का उपचार करके शास्त्रों को ही ज्ञान कह दिया है। वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहे गये पदार्थ सत्य हैं या अन्यमतियों द्वारा कहे गये पदार्थ सत्य हैं ? इस प्रकार का विचार संशय है। परस्पर सापेक्ष द्रव्यार्थिक, पर्यायार्थिक नयों के अनुसार द्रव्य, गुण और पर्यायों को नहीं जानना विमोह है, इसी का नाम अनध्यवसाय है। जैसे रास्ते में चलते हुए तृण आदि का स्पर्श हो जाने पर ‘कुछ लगा’ परन्तु क्या लगा यह स्पष्ट नहीं हुआ है। अनेकांतात्मक वस्तु को ‘यह नित्य ही है यह अनित्य ही है’ ऐसा एकांतरूप निर्णय कर लेना विभ्रम है, इसे ही विपरीत कहते हैं, जैसे सीप को चाँदी समझ लेना।
    इन तीन दोष रहित अपने और पर के स्वरूप का जानना सम्यग्ज्ञान है। सहज, शुद्ध केवलज्ञान दर्शन स्वभाव यह आत्मा का स्वरूप है, संसारी जीव संबंधी द्रव्यकर्म, भावकर्म और नोकर्म ये सब औपाधिक भाव हैं। पुद्गल आदि पाँच द्रव्य अचेतन हैं, इत्यादि परद्रव्यों का स्वरूप आत्मा से भिन्न है, यह सब जानना सम्यग्ज्ञान है। यह ज्ञान साकार अर्थात् निश्चयरूप है और अनेक भेद-प्रभेद वाला है।
  • सम्यग्ज्ञान के भेद-मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल ये ज्ञान के पाँच भेद हैं अथवा श्रुतज्ञान की अपेक्षा अंग और अंगबाह्य ऐसे दो भेद हैं।
    इनमें भी अंग के बारह भेद हैं-आचारांग, सूत्रकृतांग, स्थानांग, समवायांग, व्याख्याप्रज्ञप्ति अंग, ज्ञातृकथांग, उपासकाध्ययनांग, अंतकृद्दशांग, अनुत्तरोपपादिकदशांग, प्रश्नव्याकरणांग, विपाकसूत्रांग और दृष्टिवादांग ये द्वादश अंगों के नाम हैं। इनमें से अंतिम दृष्टिवाद अंग के परिकर्म, सूत्र, प्रथमानुयोग, पूर्वगत और चूलिका ये पाँच भेद हैं। परिकर्म भी चन्द्रप्रज्ञप्ति, सूर्यप्रज्ञप्ति, जंबूद्वीपप्रज्ञप्ति, द्वीपसागरप्रज्ञप्ति और व्याख्याप्रज्ञप्ति के भेद से पाँच प्रकार का है। सूत्र और प्रथमानुयोग में भेद नहीं हैं। पूर्वगत के १४ भेद हैं-उत्पादपूर्व, अग्रायणीय, वीर्यानुप्रवाद, अस्तिनास्तिप्रवाद, ज्ञानप्रवाद, सत्यप्रवाद, आत्मप्रवाद, कर्मप्रवाद, प्रत्याख्यान, विद्यानुवाद, कल्याणवाद, प्राणानुवाद, क्रियाविशाल और लोकसार ये १४ पूर्वों के नाम हैं। चूलिका के भी जलगता, स्थलगता, आकाशगता, मायागता और रूपगता ये पाँच प्रकार हैं। ये सब भेद बारहवें अंग के अन्तर्गत हैं।
  • अंगबाह्य के १४ भेद हैं-सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्प, महाकल्प, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और अशीतिक, इन्हें चौदह प्रकीर्णक भी कहते हैं। ये अंग और अंगबाह्य की अपेक्षा श्रुतज्ञान के भेद हैं अथवा प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग के भेद से चार अनुयोग या चार वेदरूप श्रुतज्ञान है। जिसमें तीर्थंकर आदि महापुरुषों का चरित कहा जाता है वह प्रथमानुयोग है। जिसमें लोक का कथन है वह करणानुयोग है। जिसमें मुनि और श्रावकों के धर्म का कथन है वह चरणानुयोग है और जिसमें द्रव्यों का कथन किया जाता है वह द्रव्यानुयोग है।
    अथवा निश्चयज्ञान और व्यवहारज्ञान की अपेक्षा ज्ञान के दो भेद हैं। उनमें से व्यवहार ज्ञान हेय और उपादेय रूप दो प्रकार का है। छ: द्रव्य, पाँच अस्तिकाय, सात तत्त्व और नवपदार्थ इनमें निश्चयनय से अपना शुद्ध आत्मद्रव्य, शुद्ध जीवास्तिकाय, शुद्ध जीवतत्त्व और निज शुद्ध आत्मपदार्थ ही उपादेय है। इनके सिवाय शुद्ध-अशुद्ध, अन्य जीव, अजीव आदि सभी हेय हैं, इत्यादि प्रकार से तत्त्व हेय और उपादेय रूप से जानने योग्य है।
  • माया, मिथ्या और निदान शल्यरूप विभाव परिणाम आदि समस्त शुभ-अशुभ संकल्प-विकल्प से रहित, परम निज स्वभाव के अनुभव से उत्पन्न, परमानन्द सुखामृत से तृप्त अपनी आत्मा के द्वारा जो निज स्वरूप का संवेदन-अनुभव है, वही निर्विकल्प स्वसंवेदनज्ञान निश्चयज्ञान है।
    यह निश्चयज्ञान व्यवहारज्ञान के द्वारा ही साध्य है अत: व्यवहारज्ञान साधन है, यहाँ ऐसा समझना चाहिए।
  • इस प्रकार सम्यग्ज्ञान के भेदों का संक्षेप से नाममात्र कथन किया है। विस्तार से सम्पूर्ण वाङ्मय सम्यग्ज्ञान ही है, उसे श्रुतकेवली ही जानते हैं। अब दर्शन का लक्षण कहते हैं-
  • जो भावों का आकार नहीं, करके सामान्य ग्रहण होता।
    अर्थों में नहीं विशेष करे, वह दर्शन नाम कहा जाता।।
    जिनशासन में इस विध से यह, दर्शन उपयोग कहा जाता।
    भावों की सत्ता का ग्राहक, यह निराकार समझा जाता।।४३।।
  • पदार्थों में विशेषता-भेद नहीं करके और उनके आकार को ग्रहण नहीं करके जो पदार्थ का सामान्य सत्तामात्र ग्रहण करना है, वह जैन आगम में ‘दर्शन’ इस नाम से कहा जाता है।
  • ‘यह सपेâद है, यह काला है, यह छोटा है, यह बड़ा है’ इत्यादि विकल्प न करके जो पदार्थों की सत्ता का प्रतिभास होता है, वह दर्शन है यह निराकार-निर्विकल्प होता है। यह तत्त्वार्थ श्रद्धानरूप सम्यग्दर्शन नहीं है चूँकि यह सभी जीवों में पाया जाता है। इसके चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन ये चार भेद हैं। यह दर्शन कब किनको होता है ?
  • दर्शनपूर्वक ही ज्ञान सदा, छद्मस्थजनों को होता है।
    इसलिए नहीं युगपत् दोनों, उपयोग उन्हों के होता है।।
    पर केवलियों भगवन्तों के, युगपत दोनों उपयोग रहें।
    वे लोकालोक प्रकाशी जिन, बस एक समय में सर्व गहें।।४४।।
  • छद्मस्थ-अल्पज्ञानियों के पहले क्षण में दर्शन पुन: ज्ञान इस प्रकार दर्शनपूर्वक ज्ञान होता है क्योंकि उनके दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते हैं किन्तु केवली भगवान के दोनों उपयोग एक साथ होते हैं।
  • चक्षुदर्शन या अचक्षुदर्शनपूर्वक मतिज्ञान होता है और मतिज्ञानपूर्वक श्रुतज्ञान होता है। अवधिदर्शनपूर्वक अवधिज्ञान होता है तथा केवलदर्शन और केवलज्ञान एक साथ प्रगट होते हैं।
  • श्रुतज्ञान दो तरह का है-लिंगत्र और शब्दज। एक पदार्थ को जानकर उसके द्वारा जो दूसरे पदार्थ का जानना है वह लिंगज श्रुतज्ञान है और शब्दों के सुनने से जो ज्ञान होता है वह शब्दज श्रुतज्ञान है। यहाँ श्रुतज्ञान को उत्पन्न करने वाला अवग्रह मतिज्ञान है और मन:पर्यय ज्ञान को उत्पन्न करने वाला ईहा मतिज्ञान है। यह अवग्रह, ईहा मतिज्ञान भी दर्शनपूर्वक ही होता है अत: वह मतिज्ञान भी उपचार से दर्शन कहलाता है। इस कारण श्रुतज्ञान और मन:पर्ययज्ञान को भी दर्शनपूर्वक ही जानना चाहिए।
    छद्मस्थ जीव ज्ञानावरण आदि के आवरण से सहित अल्पज्ञानी हैं। इस कारण उनको पहले दर्शन होता है पुन: अवग्रह, ईहा, अवाय और धारणा आदि रूप ज्ञान होता है। केवली भगवान का ज्ञान क्षायिक है, जैसे-मेघपटल के हट जाने पर सूर्य के प्रगट होते ही आतप और प्रकाश एक साथ होते हैं वैसे ही ज्ञानावरण और दर्शनावरण के नष्ट होते ही उनके केवलज्ञान और केवलदर्शन एक साथ प्रगट हो जाते हैं, ऐसा समझना, क्योंकि केवली भगवान एक समय में एक साथ सम्पूर्ण लोक-अलोक और चराचर पदार्थों को देख भी लेते हैं और जान भी लेते हैं। यह केवली भगवान का ही माहात्म्य है।
  • इस प्रकार सामान्य ज्ञान अथवा मिथ्याज्ञान ही सम्यक्त्व के प्रगट होने पर सम्यग्ज्ञान हो जाता है वही मति, श्रुतरूप समीचीन ज्ञान चारित्र के बल से अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान हो जाता है पुन: वही ज्ञान चारित्र के विशेष भेद शुक्लध्यान को प्राप्त कर केवलज्ञान बन जाता है। ज्ञान स्वयं में पंगु के समान है, जब सम्यक्त्व का अवलंबन मिलता है तब वह सम्यग्ज्ञान कहलाता है और जब चारित्र का आश्रय मिलता है तब वह केवलज्ञान रूप महान पूर्ण ज्ञान बन जाता है।

सम्यक्चारित्र

जो अशुभ क्रियाओं से विरती, औ शुभ में सदा प्रवृत्ती है।
उसको ही तुम चारित जानो, वह व्रत समिती औ गुप्ती है।।
इन रूप चरित्र कहा जिनने, व्यवहारनयापेक्षा समझो।
इन बिन निश्चय चारित्र न हो, इसलिए इन्हें साधन समझो।।४५।।१

  • अशुभ क्रियाओं से विरक्त होना और शुभ क्रियाओं में प्रवृत्ति करना चारित्र है जो कि व्रत, समिति और गुप्ति रूप है, ऐसा तुम जानो। यह चारित्र व्यवहारनय की अपेक्षा से जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित है।
  • मोक्षमार्ग रत्नत्रयात्मक है। उसमें चारित्र तीसरा अवयव है जो कि सम्यग्दर्शन, ज्ञानपूर्वक होता है। उस चारित्र के भी वीतराग चारित्र और सराग चारित्र ऐसे दो भेद हैं। अपनी शुद्ध आत्मा की अनुभूतिरूप शुद्धोपयोग लक्षण वीतराग चारित्र है। उसका परम्परा से साधक सराग चारित्र है, जो व्रत, समिति और गुप्ति से तेरह प्रकार का है।
    इसी सरागचारित्र का एकदेश अवयवभूत देशचारित्र होता है। सम्यग्दृष्टि अव्रती जब देशव्रतों को ग्रहण कर लेता है तभी वह पंचम गुणस्थानवर्ती श्रावक कहलाता है। इस देशचारित्र के ग्यारह भेद माने हैं। इन्हें ही ग्यारह प्रतिमा कहते हैं-दर्शन प्रतिमा, व्रत प्रतिमा, सामायिक प्रतिमा, प्रोषधोपवास प्रतिमा, सचित्तत्याग प्रतिमा, रात्रिभोजनत्याग प्रतिमा अथवा दिवामैथुनत्याग प्रतिमा, ब्रह्मचर्य प्रतिमा, आरंभ त्याग प्रतिमा, परिग्रहत्याग प्रतिमा, अनुमतित्याग प्रतिमा और उद्दिष्टत्याग प्रतिमा। इन ग्यारह प्रतिमाओं में रहने वाले श्रावकों में से छह प्रतिमा तक व्रतों के पालने वाले श्रावक तरतमता से जघन्य श्रावक कहलाते हैं। सातवीं, आठवीं और नवमीं प्रतिमा के धारी श्रावक तरतमता से मध्यम हैं और दशवीं तथा ग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावक उत्तम हैं। अंतिम ग्यारहवें स्थान के श्रावक पिच्छी-कमण्डलुधारी क्षुल्लक-ऐलक होते हैं, छठी प्रतिमाधारी तक गृहस्थाश्रम में रहते हैं। सप्तम प्रतिमाधारी ब्रह्मचारी कोई घर में भी रहते हैं, कोई मुनि संघों में रहते हैं तथा कोई घर का त्याग भी कर देते हैं।
  • इस एकदेश चारित्र के अनंतर सकलचारित्र को कहा है-
  • वह सकल चारित्र अशुभ से हटकर शुभ में प्रवृत्ति करने रूप होता है। अशुभ क्या है ?
    जिसका उपयोग विषयों और कषायों में गाढ़ लगा हुआ है, जो खोटे शास्त्र सुनने में दुष्टचित्त-दुष्ट अभिप्राय में और दुष्ट गोष्ठी-संगति में तत्पर हैं, उग्र तथा उन्मार्ग-बुरे
  • मार्ग में लगे हुए हैं उनकी जो प्रवृत्तियाँ हैं, वे सब अशुभ हैं।

शुभ क्या है ?

  • पाँच पापों के सर्वथा त्याग रूप पाँच महाव्रत धारण करना, पाँच समिति रूप प्रवृत्ति करना और तीन गुप्ति धारण करना ये अपहृत संयम कहलाता है। इसी को शुभोपयोग लक्षण सरागचारित्र कहते हैं। इस शुभ प्रवृत्ति में बाह्य विषयों में पंचेन्द्रिय के विषयों का परित्याग होता है और अंतरंग में रागादि का परिहार होता है, यह सब सरागचारित्र है जो कि तरतमता से दशवें गुणस्थान तक माना गया है। अध्यात्म ग्रंथ में शुद्धोपयोग सातवें गुणस्थान से ध्यानावस्था से माना गया है। उस अपेक्षा से निर्विकल्प ध्यान में भी वीतराग चारित्र माना गया है किन्तु सिद्धांत की अपेक्षा मोहनीय के अभाव में ग्यारहवें गुणस्थान से ही वीतरागता होती है।
  • यहाँ अभिप्राय यही है कि जो अव्रती हैं यदि वे वीतराग चारित्र की भावना भाते रहें और देशचारित्र भी न ग्रहण करें तब तो वे बेचारे चारित्रमोहनीय कर्म से ही स्वयं ठगे गये हैं और व्रत, प्रतिमा आदि चारित्र की उपेक्षा करके दूसरों को भी उधर से हटाकर मोक्षपथ से वंचित कर रहे हैं क्योंकि जब तक पाँच महाव्रतरूप व्यवहार चारित्र नहीं धारण करेंगे तब तक निश्चय चारित्र की प्राप्ति असंभव ही है, पुन: उसकी चर्या मात्र से क्या लाभ ? अत: क्रम से एकदेश आदि चारित्र धारण करते हुए आगे बढ़ना चाहिए।
    अब जो इसी व्यवहारचारित्र से साध्य है ऐसे निश्चयचारित्र का लक्षण कहते हैं१-

भव कारण के नाशन हेतू, ज्ञानी के बाह्य क्रियाओं का।
औ आभ्यंतरी क्रियाओं का, इन सबका जो रोधन होता।।
वह जिनवर द्वारा कहा गया, निश्चय सम्यक्चारित्र सही।
जो साधू उसको पा लेते, वे पा लेते हैं मोक्ष मही।।४६।।

ज्ञानी जीव के संसार के कारणों का नाश करने के लिए जो बाह्य और अभ्यंतर क्रियाओं का रोकना है वह जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित परम सम्यक्चारित्र है।

परमचारित्र, परमोपेक्षा संयम, वीतराग चारित्र, निश्चय चारित्र, अभेद रत्नत्रय, शुद्धोपयोग अथवा निश्चय रत्नत्रय ये सब पर्यायवाची नाम हैं। निर्विकार स्वसंवेदनरूप शुद्धोपयोग से अविनाभावी वह निश्चयचारित्र है। बाह्य विषयों में शुभ-अशुभ वचन और काय के व्यापार रूप क्रिया बाह्य क्रिया है तथा शुभ-अशुभ मन के विकल्परूप क्रिया अंतरंग क्रिया है। इन बाह्य और अभ्यंतर क्रियाओं के पूर्णरूप से रुक जाने पर जो निर्विकल्प ध्यानावस्था होती है वही निश्चय चारित्र है। यह पाँच प्रकार के संसार का नाश करने वाला है। यह चारित्र निश्चय रत्नत्रय से परिणत अभेदज्ञानी महामुनि के ही होता है। उस अवस्था में ध्यान, ध्याता और ध्येय का विकल्प भी उनको नहीं रहता है।

इस उत्कृष्ट चारित्र को प्राप्त करने के लिए ही महाव्रतरूप सरागचारित्र धारण किया जाता है। जिस प्रकार आम के वृक्ष में ही आम के फल लगते हैं उसी प्रकार से इन नग्न दिगम्बर मुनि के वेष में ही यह चारित्र होता है। आज तक किसी ने भी वस्त्र में रहते हुए इस निश्चय चारित्र को नहीं प्राप्त किया है। चक्रवर्ती भरत ने भी जब दैगम्बरी दीक्षा ली थी तभी उनके यह निर्विकल्प ध्यानरूप निश्चयचारित्र हुआ था अत: महाव्रत को धारण कर देशसंयमी बनना चाहिए, बिना व्रत के जीवन नहीं बिताना चाहिए, चूँकि मनुष्य पर्याय में व्रत और संयम ही सार है।

ध्यान और ध्याता

मुनिवरगण ध्यान लगा करके, इन द्विविध मोक्ष के कारण को।
जो निश्चय औ व्यवहार रूप, निश्चित ही पा लेते उनको।।
अतएव प्रयत्न सभी करके, तुम ध्यानाभ्यास करो नित ही।
सम्यक् विधि पूर्वक बार-बार, अभ्यास सफल होता सच ही।।४७।।

  • मुनिराज निश्चित ही ध्यान के द्वारा व्यवहार और निश्चय इन दोनों प्रकार के मोक्ष के कारण को प्राप्त कर लेते हैं इसलिए तुम प्रयत्नपूर्वक चित्त को एकाग्र करके उस ध्यान का अभ्यास करो।
  • निश्चयरत्नत्रय ही निश्चयमोक्षमार्ग है और व्यवहाररत्नत्रय व्यवहारमोक्षमार्ग है। इनमें निश्चय मोक्षमार्ग साध्य है और व्यवहार मोक्षमार्ग साधन है। साधन से ही साध्य की सिद्धि होती है, इस नियम के अनुसार मुनिराज व्यवहार रत्नत्रय के द्वारा निश्चय रत्नत्रय को प्राप्त करते हैं। इन दोनों प्रकार के मोक्षमार्ग को ध्यान के बल पर ही प्राप्त किया जाता है इसलिए यहाँ ध्यान के लिए प्रेरणा दी है।
  • ध्यान करने वाला ध्याता पुरुष वैâसा होना चाहिए, सो ही बताते हैं-

सब इष्ट अनिष्ट पदार्थों में, मत मोह करो मत राग करो।
मत द्वेष करो इन तीनों का, जैसे होवे परिहार करो।।
इस विध के ध्यान सुसाधन के, हेतू यदि तुम अपने मन को।
स्थिर करना चाहो तो तुम, बस सब विभाव से दूर हटो।।४८।।

  • यदि तुम अनेक प्रकार का ध्यान सिद्ध करने के लिए मन को स्थिर करना चाहते हो तो इष्ट और अनिष्ट पदार्थों में मोह मत करो, राग मत करो और द्वेष मत करो।
    माता, स्त्री, पुत्र, मित्र, धन, मकान, चंदन, तांबूल, वस्त्र, आभूषण आदि पाँचों इन्द्रियों के लिए रुचिकर सामग्री इष्ट विषय है। इनसे विपरीत सर्प, विष, कांटा, शत्रु, रोग आदि अप्रिय वस्तुएँ अनिष्ट हैं।
  • मोह, राग और द्वेष इन इष्ट-अनिष्ट विषयों में ही होता है। इनके छोड़े बगैर ध्यान की सिद्धि नहीं हो सकती है क्योंकि ये सब वस्तुएँ और मोहादि आकुलता को उत्पन्न करते रहते हैं। धर्मध्यान और शुक्लध्यान के इच्छुक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह मन की एकाग्रता के लिए इन विषयों का त्याग कर देवे।
  • ध्यान के भेद-प्रभेद-ध्यान के चार भेद हैं-आर्तध्यान, रौद्रध्यान, धर्मध्यान और शुक्लध्यान। इन चारों के भी चार-चार भेद हैं।
  • आर्तध्यान के ४ भेद-इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, वेदना और निदान।
  • अपने इष्ट का वियोग हो जाने पर बार-बार उसके प्राप्त होने की चिंता करना इष्टवियोगज आर्तध्यान है।
  • अनिष्ट का संयोग हो जाने पर, यह मेरे से वैâसे दूर हो ? ऐसा बार-बार सोचते रहना अनिष्टसंयोगज आर्तध्यान है। रोग आदि के हो जाने पर, यह वैâसे मिटे ? ऐसा चिंतन करते रहना वेदनाजन्य आर्तध्यान है। आगामी काल में भोगों की वांछा करना निदान आर्तध्यान है। ये चारों आर्तध्यान तरतमता से पहले मिथ्यात्व गुणस्थान से लेकर छठे गुणस्थानवर्ती मुनियों तक पाए जाते हैं। इनमें निदान आर्तध्यान मुनियों के नहीं होता है। यद्यपि ये दुध्र्यान हैं और मिथ्यादृष्टि आदि जीवों को तिर्यंचगति में ले जाने वाले हैं फिर भी सम्यग्दृष्टि, देशव्रती अथवा महाव्रती मनुष्य अपनी शुद्ध आत्मा को ही उपादेय मानते हैं इसलिए विशेष भावना के बल से उनके परिणामों में तिर्यंचगति के लिए कारण ऐसा संक्लेश नहीं होता है।
  • रौद्रध्यान के ४ भेद-हिंसानन्द, मृषानन्द, चौर्यानन्द और विषयसंरक्षणानन्द।
  • हिंसा करने में आनन्द मानना हिंसानंद है। झूठ बोलने में आनंद मानना मृषानन्द है। चोरी करने में आनंद मानना चौर्यानंद है और पंचेन्द्रियों के विषयों के संरक्षण में आनंद मानना विषयसंरक्षणानंद है। इसे परिग्रहानंद रौद्रध्यान भी कहते हैं।
  • यह तरतमता से पहले गुणस्थान से लेकर पाँचवें गुणस्थान तक जीवों के होता है। यह रौद्रध्यान मिथ्यादृष्टि जीवों के नरकगति का कारण है तो भी जिस सम्यग्दृष्टि ने नरक आयु बांध ली है उसके सिवाय अन्य सम्यग्दृष्टियों के नरकगति का कारण नहीं होता क्योंकि सम्यग्दृष्टि के देवायु के सिवाय अन्य आयु का बंध नहीं होता, यह नियम है और इसका भी कारण यह है कि सम्यग्दृष्टि निज शुद्ध आत्मा को ही उपादेय मानता है अत: उसके नरकगति या तिर्यंचगति के लिए कारणभूत ऐसे तीव्र संक्लेश परिणाम नहीं हो सकते हैं।
  • यह दोनों ध्यान अप्रशस्त कहलाते हैं। इन्हें संसार का हेतु ही कहा है अत: इन दुध्र्यानों से बचने के लिए धर्मध्यान का अवलम्बन लेना चाहिए।
  • धर्मध्यान के ४ भेद-आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय। यह ध्यान तरतमता से असंयतसम्यग्दृष्टि, देशविरत श्रावक, प्रमत्तसंयत मुनि और अप्रमत्तसंयत मुनि तक इन चार गुणस्थानों में होता है। यह मुख्य रूप से पुण्यबंध का कारण होते हुए भी परम्परा से मुक्ति का कारण है।

अब क्रम से इन चारों का लक्षण देखिए-

  • स्वयं की बुद्धि मंद है और विशेष उपाध्याय गुरु मिल नहीं रहे हैं, ऐसे समय यदि कदाचित् जीव आदि पदार्थों में या अन्य किसी भी विषय में सूक्ष्मता होने से समझ में नहीं आ रहा है, तब यह सोचना कि ‘जिनेन्द्रदेव द्वारा कहे गये वाक्य-तत्व सूक्ष्म हैं, उनका किसी हेतु आदि के द्वारा खण्डन नहीं हो सकता है, इसलिए उनकी आज्ञा को प्रमाण मानकर इन पर श्रद्धान करना है क्योंकि ‘नान्यथावादिनो जिना:’’ जिनेन्द्र भगवान असत्यवादी नहीं हैं।’ ऐसा चिंतवन करके जिनेन्द्रदेव की आज्ञा को प्रमाण मानकर प्रवृत्ति करना आज्ञाविचय नाम का धर्मध्यान है।
  • भेद-अभेद रत्नत्रय की भावना से हमारे अथवा अन्य जीवों के कर्मों का नाश कब होगा ? ऐसा बार-बार सोचना अपायविचय धर्मध्यान है।
  • यद्यपि शुद्ध निश्चयनय से यह जीव शुभ -अशुभ कर्म के विपाक फल से रहित है फिर भी अनादिकालीन कर्मबंध के निमित्त से पाप के उदय से अनेक दु:खों को भोग रहा है और पुण्य के उदय से देवादि के सुखों का अनुभव करता रहता है। इस प्रकार कर्मों के उदय-फल, बंध, सत्व आदि का बार-बार चिंतवन करना विपाकविचय धर्मध्यान है।
  • लोक के आकार का, उसके ऊध्र्व, मध्य, अधोलोक आदि के विस्तार का, जंबूद्वीप, धातकी खण्ड आदि के स्वरूप का बार-बार चिंतन करना संस्थानविचय धर्मध्यान है।
  • सातवें गुणस्थान में निर्विकल्प ध्यान में भी यह धर्मध्यान ही होता है न कि शुक्लध्यान। इस ध्यान का ही सतत अभ्यास करना चाहिए।
  • शुक्लध्यान के ४ भेद-पृथक्त्ववितर्वâवीचार, एकत्ववितर्वâवीचार, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपाति और व्युपरतक्रियानिवृत्ति।
  • प्रथम शुक्लध्यान उपशम श्रेणी में चढ़ने वाले मुनि के आठवें, नवमें, दशवें और ग्यारहवें गुणस्थान में होता है। क्षपकश्रेणी में आरोहण करने वाले मुनियों के आठवें, नवमें और दशवें गुणस्थान में होता है।
  • दूसरा ध्यान बारहवें गुणस्थान में होता है। इसी से घातिया कर्मों का नाश होकर केवलज्ञान प्रगट हो जाता है।
  • तीसरा शुक्लध्यान तेरहवें गुणस्थान में होता है और चौथा शुक्लध्यान चौदहवें गुणस्थान में माना गया है।
  • यद्यपि केवलियों के भावमन का अभाव होने से ‘एकाग्रचिंतानिरोध’ लक्षण ध्यान नहीं घटता है फिर भी कर्मों का क्षयरूप कार्य ध्यान से माना है अत: उपचार से केवली भगवान के भी ध्यान कहे गये हैं।
  • इन चारों ध्यानों में एक धर्मध्यान ही वर्तमान में हम और आपके लिए उपयोगी है। अध्यात्मभाषा से सहज शुद्ध परम चैतन्यस्वरूप, परिपूर्ण आनंद का धारी भगवान आत्मा ही निज आत्मा है, उपादेय बुद्धि करके ‘अनंतज्ञानोऽहं, अनंतसुखोऽहं’’ मैं अनन्तज्ञान का धारक हूँ, मैं अनंत सुखस्वरूप हूँ इत्यादि रूप जो भावना है सो अंतरंग धर्मध्यान है। पंचपरमेष्ठी की भक्ति, पूजा आदि तथा उनकी आज्ञा के अनुवूâल शुभ अनुष्ठान का करना बहिरंग धर्मध्यान है। उसी प्रकार निज शुद्ध आत्मा में विकल्प रहित ध्यानावस्था शुक्लध्यान है।
  • इन सब ध्यान का स्वामी चेतन आत्मा ही है। गुणस्थान की अपेक्षा से सम्यग्दृष्टि श्रावक और मुनि धर्मध्यान के अधिकारी हैं।

पदस्थ ध्यान

  • धर्मध्यान के अंतर्गत जो चौथा संस्थानविचय भेद है, उसके भी चार भेद माने हैं-पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत।
    संक्षेप में इनका लक्षण यह है कि-

‘‘पदस्थं मंत्रवाक्यस्थं पिण्डस्थं स्वात्मचिंतनम्।
रूपस्थं सर्वचिद्रूपं रूपातीतं निरंजनम्।।’’

  • अनेक मंत्र वाक्यों का ध्यान करना पदस्थ ध्यान है, अपनी आत्मा का चिंतवन करना पिंडस्थ ध्यान है, जिसमें सर्व चिद्रूप का चिंतवन हो अथवा जिसमें अर्हंत भगवान के स्वरूप का चिंतवन हो वह रूपस्थ ध्यान है और निरंजन परमात्मा का अर्थात् सिद्ध परमात्मा का जो ध्यान है, वह रूपातीत ध्यान है।
  • ध्यान के प्रतिबंधक कारण-ध्यान को रोकने वाले बाधक कारण ध्यान के प्रतिबंधक कहलाते हैं, वे मोह, राग और द्वेष इन तीन भागों में विभाजित हैं।
    शुद्ध आत्मा आदि तत्त्वों में विपरीत अभिप्राय को उत्पन्न करने वाला जो मोह है वह दर्शन मोह है जो कि मिथ्यात्व रूप है। इसे ही ‘‘मोह’’ शब्द से जानना चाहिए। यह मोह सतत पर में अपनेपन की बुद्धि को कराने वाला है अत: मूलरूप में यही अनंत संसार का कारण है।
  • निर्विकार निज आत्मानुभव रूप वीतराग चारित्र है, उसको रोकने वाला जो चारित्रमोह है, वह राग और द्वेष इन दो रूप वाला है।
  • यहाँ प्रश्न यह होता है कि चारित्र मोह राग, द्वेष रूप वैâसे है ?
  • उसका उत्तर यह है कि चारित्र मोह की कषायों में क्रोध, मान, माया, लोभ ये चार भेद हैं। उनमें से क्रोध और मान ये दो कषाय द्वेष के अंग हैं और माया तथा लोभ ये दोनों कषाय राग के अंग हैं। नव नोकषायों में स्त्रीवेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद, हास्य और रति ये पाँच कषायें तो रागरूप हैं और अरति, शोक, भय, जुगुप्सा ये चार कषायें द्वेषरूप हैं। इस प्रकार ये पच्चीस कषायें राग और द्वेष इन दो रूप में विभाजित हो जाती हैं।

प्रश्न-रागादि भाव कर्मों से उत्पन्न हुए हैं या जीव से ?

उत्तर-जैसे पुत्र माता और पिता दोनों के संयोग से उत्पन्न होता है अथवा जैसे चूना और हल्दी इन दोनों के मूल से लाल रंग बन जाता है उसी प्रकार जीव और कर्म इन दोनों के संयोग से ही राग-द्वेष आदि भाव उत्पन्न होते हैं। जब नयों की विवक्षा लगाते हैं तब विवक्षित एकदेश शुद्ध निश्चयनय से यह विभाव भाव कर्म से उत्पन्न हुए कहलाते हैं और अशुद्ध निश्चयनय से ये जीव से उत्पन्न हुए कहलाते हैं क्योंकि इनका उपादान कारण जीव ही है। यह अशुद्ध निश्चयनय शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा व्यवहारनय ही है।

प्रश्न-साक्षात् शुद्ध निश्चयनय से ये राग द्वेष किसके हैं ?

उत्तर-शुद्ध निश्चयनय से ये रागद्वेष आदि विभाव भाव हैं ही नहीं, क्योंकि इस नय से तो जीव सदा काल शुद्ध ही है। जैसे-स्त्री-पुरुष के संयोग बिना पुत्र की उत्पत्ति नहीं होती है, वैसे ही जीव और कर्म इनके संयोग बिना राग-द्वेष आदि भाव नहीं होते हैं। शुद्ध निश्चयनय संयोगज अवस्था को देखता ही नहीं है इसीलिए ये रागद्वेष न केवल कर्मजनित हैं न जीवजनित प्रत्युत दोनों से उत्पन्न हुए हैं और इनको कहने वाला अशुद्धनय ही है न कि शुद्धनय।

  • इस प्रकार से ध्याता, राग द्वेष आदि से मन को हटाकर धर्मध्यान का अवलंबन लेता है। यहाँ पर ध्यान के अनेक भेद बतलाये हैं, वे सब विचित्र ध्यान हैं।
  • इन पिण्डस्थ आदि ध्यानों में सबसे सरल पदस्थ ध्यान है उसी को यहाँ आचार्यदेव कहते हैं-

परमेष्ठी के वाचक पैंतिस, अक्षरयुत महामंत्र शाश्वत।
सोलह छह पाँच चार दो औ, एकाक्षर ॐ अकारादिक।।
गुरु के उपदेशों से बहुविध, के अन्य मंत्र को भी पाकर।
नित जाप करो तुम ध्यान करो, जैसे हो मन स्थिरता कर।।४९।।

परमेष्ठी के वाचक पैंतीस, सोलह, छह, पाँच, चार, दो और एक अक्षर वाले मंत्रों का तथा गुरु के उपदेश से अन्य भी मंत्रों का तुम जाप करो और ध्यान करो।
यहाँ इन मंत्रों में से कुछ मंत्र दिये जाते हैं। वैसे तो इस णमोकार मंत्र से ८४ लाख मंत्र निकलते हैं अथवा सम्पूर्ण द्वादशांग इस मंत्र में भरा हुआ है।

३५ अक्षरी मंत्र-

णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं।
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्वसाहूणं।।

  • इस महामंत्र में ३५ अक्षर हैं। इसकी एक जाप्य करने से एक उपवास का फल कहा है फिर जो इसका ध्यान करते हैं वे महाफल प्राप्त कर लेते हैं।
  • १६ अक्षरी मंत्र-अरिहंत सिद्ध आइरिय उवज्झाय साहू।
  • ६ अक्षरी मंत्र-अरिहंत सिद्ध। ॐ नम: सिद्धेभ्य:।
  • ५ अक्षरी मंत्र-अ सि आ उ सा।
  • २ अक्षरी मंत्र-सिद्ध, अर्हं।
  • १ अक्षरी मंत्र-‘अ’ अथवा ॐ।
  • यह ‘ओम्’ शब्द पंचपरमेष्ठी का वाचक है। अरिहंत का ‘अ’, सिद्ध अशरीरी होते हैं अत: अशरीरी का ‘अ’ इस प्रकार अ±अ ‘समान: सवर्णे दीर्घी भवति परश्च लोपम्’ सूत्र के अनुसार अ±अ·आ बन गया। पुन: आचार्य का ‘आ’, आ ±आ इसी सूत्र से ‘आ’ हो गया। उपाध्याय का उ, आ ± उ मिलकर ‘उवर्णे ओ’ सूत्र से संधि होकर ‘ओ’ हो गया। पुन: साधु से मुनि लेने पर उसका आदि अक्षर म् लेने से ‘ओम्’ बन गया है।
  • इन मंत्र पदों का जाप भी करना चाहिए और ध्यान भी करना चाहिए। ये मंत्रपद मंत्रशास्त्र के सभी पदों में सारभूत हैं। इस लोक तथा परलोक में इष्टफल को देने वाले हैं। इन पदों का अर्थ भी गुरुमुख से समझना चाहिए और उस अर्थ का स्मरण करते हुए इन पदों का जाप्य करना चाहिए। यदि स्थिरता रख सवेंâ तो ध्यान में इन मंत्रों का ध्यान करते हुए ध्यानाभ्यास करना चािहए। ललाट में, हृदय में, नाभि में अथवा अन्य किन्हीं भी उत्तम स्थानों में इन ‘णमो अरिहंताणं’ आदि पदों को स्थापित कर बुद्धि से उन्हें देखने का प्रयत्न करना चाहिए।
  • शुभोपयोग में जो मन-वचन-काय की अशुभ प्रवृत्ति रुक जाती है उस समय धर्मध्यान होता है अथवा तीन गुप्ति से सहित निर्विकल्प ध्यान में शुद्धोपयोग अवस्था में भी इन पाँचों परमेष्ठी का ध्यान होता है।
  • इन मंत्रों के सिवाय अन्य मंत्र भी गुरु के उपदेश से समझकर जपने चाहिए।
  • बारह हजार श्लोक प्रमाण ‘पंच नमस्कार माहात्म्य’ नाम का कोई ग्रंथ है। आज यह ग्रंथ उपलब्ध नहीं है फिर भी ‘णमोकार मंत्रकल्प’ आदि ग्रंथों के आधार से मंत्रों को देखना चाहिए। यद्यपि कई एक मंत्रशास्त्र प्रकाशित हो चुके हैं फिर भी गुरु से ही मंत्र लेकर जाप्य करना उचित है यही शास्त्र की आज्ञा है अन्यथा लाभ के बजाय हानि की संभावना रहती है। इसी प्रकार से लघुसिद्धक, वृहत् सिद्धचक्र इत्यादि पूजन के विधान को दिगम्बर गुरुओं से समझकर उनका भी ध्यान करना चाहिए। यह सब पदस्थ ध्यान का संक्षिप्त स्वरूप कहा है।
  • इस तरह पाँचों इन्द्रिय और मन को वश में करने वाले मुनिगण या श्रावक ध्याता-ध्यान करने वाले हैं। यथावस्थित पदार्थ ध्येय-ध्यान के विषय हैं। एकाग्र होकर जो विचार करना है वह ध्यान है और कर्मों के संवर तथा निर्जरा का होना यह ध्यान का फल है।
  • पंचपरमेष्ठी ध्यान के विषय हैं

अर्हंत परमेष्ठी-

जिन घाति चतुष्टय कर्म हरा, दर्शन सुख ज्ञान वीर्यमय हैं।
सु अनंतचतुष्टयरूप परम, औदारिक तनु में स्थित हैं।।
अष्टादश दोष रहित आत्मा, वे ही अरिहंत परमगुरु हैं।
वे ध्यान योग्य हैं नित उनको, तुम ध्यावो वे त्रिभुवनगुरु हैं।।५०।।

  • जिन्होंने चार घातिया कर्मों का नाश कर दिया है, जो अनंत चतुष्टयमय हैं, जो शुभ-परमौदारिक शरीर में विराजमान हैं, जो शुद्ध-दोष रहित हैं ऐसे आत्मा अरिहंत परमेष्ठी हैं, उनका ध्यान करना चाहिए।
  • अरिहंत भगवान ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अंतराय इन चार घातिया कर्मों को नाश करके अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख और अनंतवीर्य इन चार चतुष्टयरूप हो चुके हैं। सात प्रकार की धातुओं से रहित परमौदारिक दिव्य-शुभ शरीर में स्थित हैं, यह उनका शरीर हजारों सूर्यों के समान देदीप्यमान है।
    क्षुधा, तृषा, भय, द्वेष, राग, मोह, चिंता, जरा, रोग, मरण, स्वेद, खेद, मद, अरति, विस्मय, जन्म, निद्रा और विषाद ये १८ दोष हैं। ये इन दोषों से रहित होते हैं इसीलिए शुद्ध कहलाते हैं।
  • ‘अरि’ अर्थात् मोहनीय कर्म, ‘रज’ से ज्ञानावरण, दर्शनावरण और ‘रहस्य’ से अंतराय। इस प्रकार अरि, रज, रहस्य इन तीनों को हनन करने वाले-नष्ट करने वाले होने से अरिहंत कहलाते हैं तथ इन्द्र आदि देवों द्वारा गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाणकल्याणक के समय की गई महापूजा को प्राप्त होने से ‘अर्हन्’ कहलाते हैं। इनके १००८ नाम आगम में कहे गये हैं। ऐसे अर्हंत जिन भट्टारक ध्यान के विषय हैं। इनका ध्यान पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ ध्यान के अंतर्गत है।

सिद्ध परमेष्ठी-

अष्ट कर्म तनु नष्ट किया, औ शाश्वत लोकालोक सकल।
उसके ज्ञाता औ दृष्टा हैं, जो पुरुषाकार तथा निष्कल।।
जो लोकशिखर पर स्थित हैं, वे आत्मा सिद्ध कहाते हैं।
तुम सब जन उनका ध्यान करो, वे सबको सिद्ध बनाते हैं।।५१।।

  • जिन्होंने आठ कर्मरूपी शरीर का नाश कर दिया है, जो लोक-अलोक के जानने और देखने वाले हैं, पुरुषाकार हैं, लोक के अग्रभाग पर स्थित हैं, ऐसे आत्मा सिद्ध परमेष्ठी हैं तुम सब लोग उनका ध्यान करो।
  • ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय इन कर्मरूपी शरीर को जिन्होंने नष्ट कर दिया है तथा नामकर्म के अंतर्गत औदारिक, तैजस, कार्मण आदि शरीर से भी रहित हैं इसलिए अशरीरी हैं, निराकार हैं, फिर भी ज्ञानशरीरी हैं, चैतन्य धातु की मूर्ति स्वरूप हैं। परम ज्ञान कांड की भावना के फलस्वरूप निर्मल पूर्ण ज्ञान और दर्शन के द्वारा सर्वलोक-अलोक को तथा उनके अन्तर्गत सम्पूर्ण पदार्थों को और उनकी भूत-वर्तमान-भविष्यत् ऐसी तीनों काल संबंधी पर्यायों को एक साथ जानने और देखने वाले होने से सर्वज्ञ हैं, सर्वदर्शी हैं।
  • निश्चयनय से इन्द्रियों के अगोचर हैं, मूर्तिरहित होने से निराकार हैं फिर भी व्यवहारनय से भूतपूर्व नय की अपेक्षा अंतिम शरीर से कुछ कम आकार वाले होने से पुरुषाकार हैं। जैसे मोमरहित मूस के बीच का आकार होता है अथवा छाया के प्रतिबिम्ब का आकार होता है, ऐसे हैं। इसीलिए जिस आसन से-पद्मासन या खड्गासन से मोक्ष गये हैं, उसी आसन से पुरुषाकार हैं।
  • अंजनसिद्ध, पादुकासिद्ध, गुटिकासिद्ध, खड्गसिद्ध और मायासिद्ध आदि लौकिक सिद्धि से रहित अपने आत्मा के स्वरूप की उपलब्धिरूप सिद्धि से सहित होने से ही ये सिद्ध परमेष्ठी कहलाते हैं।
  • ये मोहनीय के अभाव से सम्यक्त्व, ज्ञानावरण-दर्शनावरण के अभाव से ज्ञान-दर्शन, अन्तराय के अभाव से वीर्य, वेदनीय के अभाव से अव्याबाध, आयु के अभाव से अवगाहनत्व, नाम के अभाव से सूक्ष्मत्व और गोत्र के अभाव से अगुरुलघुत्व इस प्रकार आठ कर्मों के नष्ट हो जाने से आठ गुणों को प्राप्त कर चुके हैं। यद्यपि ये आठ गुण मुख्य हैं फिर भी इनके अनंतगुण प्रगट हो चुके हैं। ऐसे सिद्ध भगवान लोक के अग्रभाग पर विराजमान हैं, उनका ध्यान करना चाहिए। देखे, सुने, अनुभव में आए ऐसे पंचेन्द्रिय विषयोेंं का त्याग कर सम्पूर्ण संकल्प-विकल्प को छोड़कर निर्विकल्प अवस्था में तीन गुप्ति से सहित होकर ‘रूपातीत’ धर्मध्यान में एकाग्र होकर इन सिद्धों का ध्यान करना चाहिए।

आचार्य परमेष्ठी-

दर्शन औ ज्ञान प्रधान जहाँ, ऐसे जो वीर्याचार तथा।
चारित्र महातप ये पाँचों, आचार कहाते सौख्यप्रदा।।
इन पंचाचारों में निज को, पर को जो नित्य लगाते हैं।
वे ध्यान योग्य हैं श्रेष्ठ मुनी, वे ही आचार्य कहाते हैं।।५२।।

  • जिनमें ज्ञानाचार-दर्शनाचार प्रधान हैं ऐसे वीर्याचार, चारित्राचार और तप आचार मेें जो अपने को और पर को लगाते हैं वे आचार्य परमेष्ठी हैं जो कि ध्यान करने योग्य हैं।निश्चयनय का विषयभूत ‘शुद्ध समयसार’ इस शब्द से वाच्य, भावकर्म-द्रव्यकर्म-नोकर्म आदि समस्त परपदार्थों से भिन्न और परम चैतन्य का विलासरूप निज शुद्धात्मा ही उपादेय है, ऐसी रुचि का नाम सम्यग्दर्शन है। उसमें जो परिणमन-आचरण है, उसी का नाम दर्शनाचार है।
  • उसी शुद्ध आत्मा को स्वसंवेदनरूप भेद ज्ञान के द्वारा रागादि पर भावों से भिन्न जानना ज्ञानाचार है।
  • वीतराग चारित्र के लिए कारण ऐसे व्यवहार चारित्र में प्रवृत्ति करना चारित्राचार है।
  • समस्त परद्रव्यों की इच्छा के रोकने से तथा अनशन आदि बाह्य तपों को तपते हुए जो आचरण है, सो तप आचार है।
  • दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इनकी रक्षा के लिए अपनी शक्ति को नहीं छिपाना वीर्याचार है।
  • आचार्यों के लिए ये पाँच आचार प्रधान हैं। वैसे आचार्य के छत्तीस गुण माने हैं। १२ तप, १० धर्म, ५ आचार, ६ आवश्यक और ३ गुप्ति ये ३६ गुण हैं। इन गुणों से युक्त आचार्यदेव ध्यान के विषय हैं। इनका ध्यान पदस्थ ध्यान के अन्तर्गत है।

उपाध्याय परमेष्ठी-

जो रत्नत्रय से युक्त सदा, धर्म

Previous post तत्त्व और पदार्थ Next post प्राकृत पूजा : एक अनुशीलन
Privacy Policy