शुद्ध निश्चयनय और अशुद्ध निश्चयनय ये दोनों द्रव्यार्थिकनय के भेद हैं।
निश्चयनय का लक्षण-जिसके द्वारा अभेद और अनुपचरितरूप से वस्तु का निश्चय किया जाता है वह निश्चयनय है। इस निश्चयनय का हेतु द्रव्यार्थिकनय है।
व्यवहारनय का लक्षण-जिसके द्वारा भेद और उपचार से वस्तु का व्यवहार किया जाता है वह व्यवहारनय है। वह व्यवहारनय का हेतु पर्यायार्थिकनय है।
व्यवहारेण मोक्षस्य, मार्गमाश्रित्य निश्चयात्।
मार्ग आश्रियते भव्यै:, क्रम एष सनातन:।।१।।
भव्यजन व्यवहार से मोक्षमार्ग का आश्रय लेकर निश्चय से मार्ग का आश्रय लेते हैं अर्थात् व्यवहार मोक्षमार्ग का आश्रय लेकर ही निश्चय मोक्षमार्ग प्राप्त होता है यही क्रम सनातन है-अनादिनिधन है।
(प्रत्येक वस्तु अनंतधर्मात्मक है। उनमें से एक-एक धर्म को कहने वाले नय होते हैं। वर्तमान में निश्चय और व्यवहार नयों का विषय एक चर्चा का विषय बना हुआ है। ये नय वस्तु के स्वरूप का ज्ञान कराने में साधन होते हैंं। इनका निर्दोष लक्षण क्या है ? इन दोनों में कौन सा नय सत्य है और कौन सा असत्य ? अथवा दोनों ही सत्य हैं क्या ? इत्यादि विषयों पर प्रकाश डाला जा रहा है।)
‘व्यवहार’ शब्द के अनेक अर्थ हैं-
भेद, पर्याय, औपाधिक, उपचार आदि अर्थों में व्यवहार शब्द का प्रयोग देखा जाता है।
भेद-जैसे जीव के दर्शन, ज्ञान, चारित्र व्यवहार से हैं। यहाँ भेद से हैं ऐसा अभिप्राय है।
पर्याय-जीव अनित्य है। यह पर्याय की अपेक्षा से प्रवृत्त हुआ व्यवहार है।
औपाधिक-जीव अशुद्ध है, संसारी है। यह कर्मोपाधि को ग्रहण करने वाला व्यवहार है।
उपचार-देवदत्त का घर, घी का घड़ा इत्यादि, इन कथनों में प्रयुक्त हुये व्यवहार के अनेक भेद हैं।
ऐसे ही और बहुत से अर्थों में व्यवहार शब्द का प्रयोग देखा जाता है सो आगम के आधार से यथास्थान दिखलाया जायेगा।
अभेद, निरुपाधि, द्रव्य, शक्ति और शुद्ध भाव इत्यादि में निश्चय शब्द का प्रयोग देखा जाता है।
अभेद-जीव के न दर्शन है, न ज्ञान है, न चारित्र है किन्तु जीव ज्ञायक भाव मात्र है। इसमें अभेद का प्रतिपादक निश्चयनय है।
निरुपाधि-जीव सिद्ध सदृश शुद्ध है। यह कर्मोपाधिरहित निश्चय है।
द्रव्य-जीव नित्य है। यह द्रव्यमात्र की विवक्षा से प्रवृत्त हुआ है।
शक्ति-संसारी जीव को भगवान आत्मा या परमात्मा कहना यह शक्ति की अपेक्षा से है जैसे कि दूध को घी व स्वर्णपाषाण को सुवर्ण कहना।
शुद्धभाव-जीव टंकोत्कीर्ण ज्ञान मात्र है। दर्शन-ज्ञान स्वरूप है इत्यादि।
तत्त्व विचार के समय तथा ध्यान में निश्चयनय का विषय आश्रयणीय है अर्थात् चौथे, पाँचवें और छठे गुणस्थान तक निश्चयनय से तत्त्व का विचार किया जाता है। आगे ध्यान से उसका विषय अवलंबनीय हो जाता है।
व्यवहारनय भी तीर्थ प्रवृत्ति निमित्त प्रवृत्त होता है। इसके द्वारा भी वस्तु के औपाधिक भाव आदि का निर्णय करने रूप छठे तक चलता है तथा इसके द्वारा कथित विषय का आश्रय भी छठे तक व कथंचित् सातवें तक भी रहता है। आगे ये नय स्वयं छूट जाते हैं और नयातीत परिणति होकर निर्विकल्प ध्यान होता है।
इन नयों का प्रयोग श्री कुंदकुंददेव की गाथाओं में तथा सर्वत्र ग्रंथों में यथासंभव घटित करना चाहिए।
नियमसार में श्री कुंदकुंददेव ने जीव के ज्ञान-दर्शन गुणों का वर्णन करते हुए उन्हें स्वभाव और विभाव ऐसे दो रूप से कहा है। उसी प्रकार से जीव की पर्यायोें के भी स्वभाव-विभाव ऐसे दो भेद किये हैं।
द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा से सभी जीव पूर्वकथित पर्यायों से (स्वभाव-विभाव गुण पर्यायों से) रहित हैं एवं पर्यायार्थिकनय की अपेक्षा सभी जीव स्वभाव-विभाव इन दोनों प्रकार की पर्यायों से सहित हैं।
यहाँ पर द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक इन दोनों नयों का सामान्य कथन है, अत: शुद्ध द्रव्यार्थिक और अशुद्ध द्रव्यार्थिक दोनों आ जाते हैं। संसारी जीव अशुद्ध पर्यायों से एवं मुक्त जीव शुद्ध पर्यायों से रहित हैं ऐसा अर्थ स्पष्ट हो जाता है। चूँकि यह द्रव्यार्थिकनय मात्र द्रव्य को ही ग्रहण करता है पर्यायों को नहीं तथा पर्यायार्थिक नय से भी शुद्ध-अशुद्ध दोनों प्रकार की पर्यायों को समझना चाहिए।
ये दोनों नय अपने-अपने विषय को स्वतंत्ररूप से ग्रहण करते हुए भी परस्पर सापेक्ष रहते हैं तभी सम्यक् हैं अन्यथा निरपेक्ष होते ही मिथ्या हो जाते हैं।
उसी प्रकार से जहाँ कहीं भी गाथाओं में ‘निश्चयनय’ कहा गया है वहाँ पर यथायोग्य शुद्ध या अशुद्ध को घटित करना चाहिए।
यह आत्मा पुद्गल कर्मों का कर्त्ता और भोक्ता है यह व्यवहारनय का कथन है तथा कर्मजनित भावों का कर्त्ता और भोक्ता है यह निश्चयनय का कथन है। अब यहाँ कर्मजनित औपाधिक भावों का कर्त्ता-भोक्ता मानने में अशुद्ध निश्चयनय को ग्रहण करना चाहिए।
उसी प्रकार से-
ज्ञानी के चारित्र, दर्शन और ज्ञान ये व्यवहार से कहे जाते हैं किन्तु (निश्चय से) उस ज्ञानी के न ज्ञान है, न चारित्र है और न दर्शन है वह तो मात्र ज्ञायक शुद्ध है।
यहाँ पर जो व्यवहारनय है वह मात्र भेद के द्वारा वस्तु का निश्चय कराता है न कि उपचार के द्वारा क्योंकि ज्ञानी आत्मा के ये ज्ञान, दर्शन और चारित्र व्यवहार से कहे गये हैं, इसका अर्थ-भेद से कहे गये हैं न कि उपचार अथवा कर्मोपाधि से। उसी प्रकार से आत्मा के न ज्ञान है, न चारित्र है और न दर्शन है वह तो मात्र ज्ञायक शुद्ध है। यह कथन ‘भेदकल्पनानिरपेक्ष’ द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से है।
उसी प्रकार से-
जो ज्ञायक भाव है वह अप्रमत्त भी नहीं है और न प्रमत्त ही है इस तरह उसे शुद्ध कहते हैं और जिसे ज्ञायक भाव के द्वारा लिया गया है वह वही है, अन्य कोई नहीं है। यहाँ पर ‘परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक’ नय के द्वारा आत्मा को कहा गया है।
इसी तरह सभी के उदाहरण समझ लेना।
द्रव्यार्थिक नय के दश भेदों में ‘कर्मोपाधिनिरपेक्ष’, ‘सत्तामात्रग्राहक’ और ‘भेदकल्पनानिरपेक्ष’ ये तीन नय शुद्ध द्रव्यार्थिक हैं। ‘कर्मोपाधिसापेक्ष’, ‘उत्पादव्ययसापेक्ष’ और ‘भेदकल्पनासापेक्ष’ ये तीन अशुद्ध द्रव्यार्थिक हैं। ‘अन्वयसापेक्ष’ ‘स्वद्रव्यादिग्राहक’ और ‘परद्रव्यादिग्राहक’ ये तीन सामान्य हैं एवं ‘परमभावग्राहक द्रव्यार्थिक’ यह मात्र वस्तु के शुद्ध स्वभाव को ही कहता है।
इसी प्रकार पर्यायार्थिक के ६ भेदों में भी शुद्ध-अशुद्ध व्यवस्था समझ लेना चाहिए।
नैगमनय-नैगमनय के भूत, भावी और वर्तमान काल की अपेक्षा तीन भेद हैं।
१. जहाँ पर अतीतकाल में वर्तमान का आरोपण किया जाता है वह भूत नैगमनय है। जैसे-आज दीपावली के दिन वर्धमान स्वामी मोक्ष गये हैं।
२. भविष्यत् पर्याय में भूतकाल के समान कथन करना भावी नैगमनय है। जैसे-अर्हंत सिद्ध ही हैं।
३. करने के लिए प्रारंभ की गई ऐसी ईषत् निष्पन्न-थोड़ी बनी हुई अथवा अनिष्पन्न-बिल्कुल नहीं बनी हुई वस्तु को निष्पन्नवत् कहना वर्तमान नैगमनय है। जैसे-भात पकाया जाता है।
संग्रहनय-संग्रहनय के दो भेद हैं-सामान्य संग्रह और विशेष संग्रह।
१. सभी को सामान्यरूप से ग्रहण कर लेना सामान्य संग्रह है। जैसे-सर्व द्रव्य परस्पर अविरोधी हैं-अर्थात् एक हैं। इसी नय के एकांत से ब्रह्माद्वैत आदि अद्वैतवाद हो गये हैंं।
२. एक जातिविशेष से सबको ग्रहण करना विशेष संग्रह है। जैसे-सभी जीव परस्पर अविरोधी हैं-अर्थात् एक हैं।
व्यवहारनय-व्यवहारनय के भी दो भेद हैं-सामान्य और विशेष।
१. सामान्यसंग्रहनय के विषयभूत पदार्थ में भेद करने वाला सामान्य संग्रह भेदक व्यवहारनय है। जैसे-द्रव्य के दो भेद हैं-जीव और अजीव।
२. विशेष संग्रह के द्वारा ग्रहण किये गये विषय में भेद करने वाला विशेष संग्रह भेदक व्यवहारनय है। जैसे-जीव के संसारी और मुक्त दो भेद हैंं।
ऋजुसूत्रनय-ऋजुसूत्रनय के भी दो भेद हैं-सूक्ष्मऋजुसूत्र और स्थूलऋजुसूत्र।
१. एक समयवर्ती पर्याय को ग्रहण करने वाला सूक्ष्मऋजुसूत्रनय है। जैसे-शब्द क्षणिक हैं।
२. अनेक समयवर्ती पर्यायों को ग्रहण करने वाला स्थूलऋजुसूत्रनय है। जैसे-मनुष्यादि पर्यायें अपनी-अपनी आयु प्रमाण काल तक रहती हैं।
शब्दनय-लिंग, संख्या आदि के व्यभिचार को छोड़कर शब्द के अनुसार अर्थ को ग्रहण करना शब्दनय है। जैसे-दारा, भार्या, कलत्र अथवा जल व अप एकार्थवाची हैं। यह नय एक ही है।
समभिरूढ़नय-नाना अर्थों को छोड़कर जो प्रधानता से एक अर्थ में रूढ़ होता है वह समभिरूढ़नय है। जैसे-‘गो’ शब्द के वाणी शब्द आदि अनेक अर्थ होते हुए भी वह ‘पशु’ अर्थ में रूढ़-प्रसिद्ध है।
एवंभूतनय-जिस नय में वर्तमान क्रिया ही प्रधान होती है वह एवंभूतनय है जैसे-इंदन क्रिया में तत्पर देवराज को ‘इंद्र’ कहना।
इस प्रकार द्रव्यार्थिक से लेकर एवंभूत तक नयों के २८ भेद होते हैं। अब उपनयों को देखिये।
जो नयों के समीप रहें वे उपनय हैं। इसके तीन भेद हैं–सद्भूतव्यवहार, असद्भूतव्यवहार और उपचरित असद्भूत व्यवहार।
सद्भूतव्यवहार उपनय-जो नय संज्ञा, संख्या, लक्षण और प्रयोजन आदि के भेद से गुण और गुणी में भेद करता है वह सद्भूत व्यवहार उपनय है। इसके दो भेद हैं-शुद्ध सद्भूतव्यवहार और अशुद्ध सद्भूत व्यवहार।
१. जो नय शुद्धगुण और शुद्धगुणी में तथा शुद्धपर्याय और शुद्ध पर्यायी में भेद करता है वह शुद्धसद्भूत व्यवहार उपनय है। जैसे-जीव का केवलज्ञान गुण है, जीव गुणी है तथा जीव की सिद्ध पर्याय है।
२. जो नय अशुद्धगुण अशुद्धगुणी में और अशुद्धपर्याय-अशुद्धपर्यायी में भेद करता है वह अशुद्ध सद्भूतव्यवहार उपनय है।
असद्भूतव्यवहार उपनय-अन्य में प्रसिद्ध धर्म (स्वभाव) का अन्य में समारोपण करना असद्भूत-व्यवहारोपनय है। इनके तीन
भेद हैं-स्वजात्यसद्भूतव्यवहार, विजात्यसद्भूत-व्यवहार और स्वजातिविजात्यसद्भूतव्यवहार।
१. जो नय स्वजातीय द्रव्यादिक में स्वजातीय द्रव्यादि के संबंध से होने वाले धर्म का आरोपण करता है वह स्वजात्यसद्भूतव्यवहार उपनय है। जैसे-‘परमाणु बहुप्रदेशी है’ ऐसा कहना।
२. जो नय विजातीय द्रव्यादि में विजातीय द्रव्यादि का आरोपण करता है वह विजात्यसद्भूतव्यवहार उपनय है। जैसे-मतिज्ञान मूर्त है, क्योंकि वह मूर्तद्रव्य से उत्पन्न हुआ है।
३. जो नय स्वजातीय द्रव्यादि में विजातीय द्रव्यादि के संबंध का आरोपण करता है वह स्वजाति विजात्यसद्भूतव्यवहार उपनय है। जैसे-ज्ञेयभूत जीव और अजीव में ज्ञान है, क्योंकि वे ज्ञान के विषय हैं।
उपचरितअसद्भूतव्यवहार उपनय-असद्भूतव्यवहार ही उपचार है, जो नय उपचार से भी उपचार करता है वह उपचरितासद्भूतव्यवहार उपनय है। इसके भी तीन भेद हैं-स्वजात्युपचरित असद्भूतव्यवहार, विजात्युपचरित असद्भूतव्यवहार और स्वजातिविजात्युपचरित असद्भूतव्यवहार।
१. जो उपचार से स्वजातीय द्रव्य का स्वजातीय द्रव्य को स्वामी बतलाता है वह स्वजात्युपचरितासद्भूत व्यवहार उपनय है। जैसे-पुत्र, स्त्री आदि मेरे हैं।
२. जो विजातीय द्रव्य का विजातीय द्रव्य को स्वामी कह देता है वह विजात्युपचरितासद्भूतव्यवहार उपनय है। जैसे-वस्त्र, आभूषण, स्वर्ण, रत्न आदि मेरे हैं।
३. जिसमें मिश्रद्रव्य का स्वामी कह दिया जाता है वह स्वजाति-विजात्युपचरित-असद्भूतव्यवहार उपनय है। जैसे-देश, राज्य, दुर्ग आदि मेरे हैं।
ये सभी नय और उपनय सैद्धांतिक भाषा में कहे गये हैं।