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श्रद्धा से लेकर क्षमा तक!

July 20, 2017जनरल नॉलेजjambudweep

श्रद्धा


कदाचित् धर्म—श्रवण का अवसर पर लेने पर भी उसमें श्रद्धा होना अत्यंत दुर्लभ है। धर्म की और ले जाने वाली सही मार्ग को जानकर भी अनेक लोग उस मार्ग से भ्रष्ट हो जाते हैं।

ज्ञान का अंकुश

 उच्छृंखल मन एक उन्मत्त हाथी की भाँति है लेकिन इसे ज्ञान रूपी अंकुश से वश में किया जा सकता है। 

दुर्लभ संयोग

 जीव—मात्र के लिए चार उत्तम संयोग मिलना अत्यंत दुर्लभ हैं—
१. मनुष्य—जन्म,
२.धर्म का श्रवण,
३.धर्म में श्रद्धा, और
४. धर्म के पालन में पराक्रम। 

धर्म—श्रवण

 मनुष्य—जन्म प्राप्त होने पर भी उस धर्म का श्रवण अतिदुर्लभ है, जिसे सुनकर मनुष्य तप, क्षमा और अहिंसा को स्वीकार करता है।

पुरुषार्थ

 कदाचित् धर्म को सुनकर उसमें श्रद्धा हो जाय तो भी समय पालन में पुरुषार्थ होना अत्यंत दुर्लभ है धर्म में रुचि रखते हुए कई लोग उसके अनुसार आचरण नहीं करते। 

कर्म शत्रु पर विजय

मनुष्य जन्म को पाकर जो धर्म को सुनता और श्रद्धा करता हुआ उसके अनुसार आचरण करता हैं, वह तपस्वी नये कर्मों को रोकता हुआ संचित कर्म—रूपी रज को धुन डालता है, आत्मा से हटा देता है। 

पछतावा

 जो इस जन्म में परलोक की हित साधना नहीं करता, उसे मृत्यु के समय पछताना पड़ता है।

आराधना

ज्ञान आत्मा को प्रकाशित करता है, तप उसे शुद्ध करता है और संयम पापों का निरोध करता है। इन तीनों की समन्वित आराधना से ही मोक्ष मिलता है,यही जिनशासन में प्रतिपादित है। 

प्रतिस्रोत

अनुस्रोत अर्थात् जगत् के प्रवाह में बहना (विषयासक्त रहना) संसार है। प्रतिस्रोत अर्थात् जगत् के प्रवाह के विपरीत चलना (विषयों से विरक्त रहना) संसार सागर से पार होना है। 

कापुरुष

 जो बड़ी कठिनाई से मिलता है, जो बिजली की चमक की तरह अस्थिर है, ऐसे मनुष्य जन्म को पाकर भी जो धर्म के आचरण में प्रमाद करता है, वह कापुरुष ही है, सत्पुरुष नहीं 

अनुभव

मैंने सुना है और अनुभव किया है कि बंध और मोक्ष अपनी आत्मा में ही स्थित हैं। 

मुक्ति का मार्ग

 जिनेश्वर देव ने ज्ञान दर्शन, चारित्र और तप को मोक्ष का मार्ग बतलाया है। 

क्रोध

 पत्थर पर खींची गई रेखा के समान कभी नहीं मिटनेवाला उग्र क्रोध आत्मा को नरक गति में ले जाता है। 

क्रोध का परिणाम

 क्रोध में अंधा हुआ मनुष्य पास में खड़ी माँ, बहन और बच्चे की भी हत्या करने को उतारू हो जाता है। 

क्रोध रूपी अग्नि

 जैसे खलिहान में रखे गए वर्षभर में इकट्ठे किए हुए अनाज की आग की एक चिनगारी जला डालती है, वैसे ही क्रोध रूपी अग्नि श्रमण जीवन के सभी उत्कृष्ट गुणोें को जला डालती है। 

चारित्र की हानि

ज्यों—ज्यों क्रोधादि कषाय की वृद्धि होती है, त्या—त्यों चारित्र की हानि होती है। 

प्रीति का नाश

 क्रोध प्रीति का नाश करता है। 

कषाय से आसक्त

 जो मनुष्य क्रोधी, अविवेकी, अभिमानी, कटुभाषी, कपटी तथा धूर्त हैं, वे अविनीत व्यक्ति नदी के प्रभाव में बहते हुए काठ की तरह संसार में प्रवाह में बहते रहते हैं। 

अहंकार

 पत्थर के खम्भे के समान कभी नहीं झुकने वाला अहंकार आत्मा को नरक गति की ओर ले जाता है। 

ममता का बन्धन

 साधक ममत्व के बन्धन को उसी प्रकार हटा दें जैसे एक महानाग अपने केचुल को उतार फैकता है।

मोह का क्षय

 जिस वृक्ष की जड़ सूख गई हो, उसे कितना ही सींचा जायें, वह कभी हरा—भरा नहीं होता है। मोह के जीत लिये जाने पर कर्म को भी फिर अंकुरित नहीं होते। 

मोह का परिणाम

 मोह से जीव बार—बार जन्म मरण को प्राप्त होता है। 

मोहाग्नि

 बाहर से जलती हुई अग्नि को थोड़े से जल से शान्त किया जा सकता है, किन्तु मोह रूपी अग्नि को समस्त समुद्रो के जल से भी शान्त नहीं किया जा सकता। 

माया की गाँठ

 जीव जन्म, वृद्धा अवस्था और मरण से होनेवाले दु:ख को जानता है, उनका विचार भी करता है, किन्तु विषयों से विरक्त नहीं हो पाता। अहो! माया की गाँठ कितनी सुदृढ़ होती है। 

मायावी

 भले ही कोई नग्न रहे और घोर तप द्वारा देह को कृश करे, भले ही कोई मास—मास के अंतर से भोजन करे, किन्तु यदि वह मायवी है, तो उसे अनन्त बार गर्भ धारण करना पड़ेगा। वह जन्म और मरण के चक्र में घूमता ही रहेगा। 

लोभ

 जैसे—जैसे लाभ है, वैसे—वैसे लोभ होता है। लाभ से लोभ बढ़ता जाता है। दो माशा सोने से पूर्ण होनेवाला कार्य करोड़ों स्वर्ण—मुद्राओं से भी पूरा नहीं हुआ। 

अनंत इच्छाएँ

 कदाचित् साने और चाँदी के केलाश के समान असंख्य पर्वत प्राप्त हो जाएँ, तो भी लोभी पुरुष को उनसे तृप्ति नहीं होती, क्योंकि इच्छाओं आकाश के समान अनंत हैं।

लोभ का परिणाम

 लोभ के बढ़ जाने पर मनुष्य कार्याकार्य का विचार नहीं करता और अपनी मौत की भी परवाह नहीं करता हुआ चोरी करता है। 

माया

 माया सहस्रों सत्यों को नष्ट कर डालती है। 

तृष्णा और मोह

जैसे बलाका (बगुली) अंडे से उत्पन्न होती है और अंडा बलाका से उत्पन्न होता है, उसी प्रकार तृष्णा मोह से उत्पन्न होता है। और मोह तृष्णा से उत्पन्न होता है। 

इच्छा

कदाचित् सोने और चाँदी के केलाश के समान असंख्य पर्वत मिल जाएँ तो भी मनुष्य को संतोष नहीं होता क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनन्त है। 

क्षमा

 क्रोध को जीत लेने से क्षमाभाव जाग्रत होता है।
Tags: Pearl of Wisdom
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