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षट्काल परिवर्तन

July 3, 2022स्वाध्याय करेंAlka Jain

षट्काल परिवर्तन


‘‘भरत और ऐरावत क्षेत्र में अवसर्पिणी और उत्सर्पिणी इन दो कालों के द्वारा षट्काल परिवर्तन होता रहता है। इनमें से अवसर्पिणी काल में जीवों के आयु, शरीर आदि की हानि एवं उत्सर्पिणी में वृद्धि होती रहती है।’’

अवसर्पिणी के सुषमा-सुषमा, सुषमा, सुषमा-दुःषमा, दुःषमा-सुषमा, दुःषमा और अतिदुःषमा ऐसे छः भेद हैं। ऐसे ही उत्सर्पिणी के इनसे उल्टे अर्थात् दुःषमा-दुःषमा, दुषमा, दुःषमा-सुषमा, सुषमा-दुःषमा और सुषमा-सुषमा ये छह भेद हैं।

अवसर्पिणी के सुषमासुषमा की स्थिति ४ कोड़ाकोड़ी सागर, सुषमा की ३ कोड़ाकोड़ी सागर, सुषमादुःषमा की २ कोड़ाकोड़ी सागर, दुःषमा सुषमा की ४२ हजार वर्ष कम एक कोड़ाकोड़ी सागर, दुषमा की २१ हजार वर्ष की एवं अतिदुःषमा की २१ हजार वर्ष की है। ऐसे ही उत्सर्पिणी में २१ हजार वर्ष से समझना।

इन छह कालों में से प्रथम, द्वितीय और तृतीय काल में क्रम से उत्तम, मध्यम और जघन्य भोगभूमि की व्यवस्था रहती है तथा चौथे, पाँचवे और छठे काल में कर्मभूमि की व्यवस्था हो जाती है। उत्तम भोगभूमि में मनुष्यों के शरीर की ऊँचाई तीन कोश और आयु तीन पल्य प्रमाण होती है। मध्यम भोगभूमि में शरीर की ऊँचाई दो कोश, आयु दो पल्य की होती है और जघन्य भोगभूमि में शरीर की ऊँचाई एक कोश और आयु एक पल्य की होती है। यहाँ पर दश प्रकार के कल्पवृक्षों से भोगोपभोग सामग्री प्राप्त होती है। चतुर्थ काल में उत्कृष्ट अवगाहना सवा पाँच सौ धनुष और उत्कृष्ट आयु एक पूर्व कोटि वर्ष है। पंचमकाल में शरीर की ऊँचाई ७ हाथ और आयु १२० वर्ष है। छठे काल में शरीर २ हाथ और आयु २० वर्ष है।

इस वर्तमान की अवसर्पिणी में-

‘‘तृतीयकाल में पल्य का आठवाँ भाग शेष रहने पर प्रतिश्रुति, सन्मति, क्षेमंकर, क्षेमन्धर, सीमंकर, सीमन्धर, विमलवाहन, चक्षुष्मान्, यशस्वी, अभिचन्द्र, चन्द्राभ, मरुदेव, प्रसेनजित, नाभिराय और उनके पुत्र ऋषभदेव ये कुलकर उत्पन्न हुए हैं।’’

अन्यत्र ग्रन्थों में नाभिराय को १४वाँ अन्तिम कुलकर माना है। यहाँ पर नाभिराय के पुत्र प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव को भी कुलकर संज्ञा दे दी है।

इस युग में कर्मभूमि के प्रारम्भ में  तीर्थंकर ऋषभदेव के सामने जब प्रजा आजीविका की समस्या लेकर आई, तभी प्रभु की आज्ञा से इन्द्र ने ग्राम, नगर आदि की रचना कर दी पुनः प्रभु ने अपने अवधिज्ञान से विदेहक्षेत्र की सारी व्यवस्था को ज्ञातकर प्रजा में वर्ण व्यवस्था बनाकर उन्हें आजीविका के साधन बतलाये थे। यही बात श्री नेमिचन्द्राचार्य ने भी कही है-

नगर, ग्राम, पत्तन आदि की रचना, लौकिक शास्त्र, असि, मषि, कृषि, विद्या, वाणिज्य आदि लोक व्यवहार और दयाप्रधान धर्म की स्थापना आदिब्रह्मा श्री ऋषभनाथ तीर्थंकर ने किया है।

विजयार्ध पर्वतों की व्यवस्था-

भगवान ऋषभदेव की ध्यानावस्था के समय नमि-विनमि नाम के राजकुमारों के द्वारा राज्य की याचना करने पर धरणेन्द्र उन्हें सन्तुष्ट करने हेतु विजयार्ध पर्वत पर ले जाकर उन्हें वहाँ की व्यवस्था आदि का दिग्दर्शन कराता है। वही वर्णन यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है-

यह विजयार्ध पर्वत ५० योजन विस्तृत (५०²४०००·२,००,००० मील) है तथा पूर्व पश्चिम में लवणसमुद्र को स्पर्श करता हुआ उतना ही लम्बा है। यह इस जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र के ठीक बीच में स्थित है। इसमें तीन कटनी हैं। भूमितल से १० योजन ऊपर जाकर अन्दर १० योजन गहरी प्रथम कटनी है। यह कटनी दक्षिण और उत्तर दोनों तरफ है। पुनः दस योजन ऊपर जाकर १० योजन अन्दर ही दूसरी कटनी है। इसके ऊपर ५ योजन जाकर तीसरी कटनी है। यह कटनी भी १० योजन चौड़ी है। इसकी प्रथम कटनी पर तो विद्याधर नगरियां हैं। दूसरी कटनी पर आभियोग्य जाति के देवों के भवन बने हुए हैं और तीसरी कटनी पर नवकूट हैं। ये कूट ६-१/४ योजन चौड़े, इतने ही ऊँचे तथा घटते हुए अग्रभाग में कुछ अधिक तीन योजन चौड़े हैं। इनमें से आठ कूटों पर तो देवों के भवन बने हुए हैं और पूर्व दिशा के कूट पर अकृत्रिम जिनमन्दिर हैं। यह पर्वत चांदी के समान हैं अतः इसे रजताचल भी कहते हैं। इतना कहते हुए वह धरणेन्द्र उन्हें साथ लेकर इस पर्वत की पहली कटनी पर उतरता है और विद्याधरों की नगरियों को दिखाता हुआ कहता है-‘‘हे कुमार! सुनो, इस दक्षिण श्रेणी पर विद्याधरों के रहने के लिए अकृत्रिम अनादिनिधन ५० नगरियां हैं, उनके नाम क्रम से इस प्रकार हैं-१. किन्नामित, २. किन्नरगीत, ३. नरगीत, ४. बहुकेतुक, ५. पुण्डरीक, ६. सिंहध्वज, ७. श्वेतकेतु, ८. गरुड़ध्वज, ९. श्रीपुण्डरीक, १०. सिंहध्वज, ११. श्वेतकेतु, १२. अरिंजय नगर, १३. वङ्काार्गल,१४. वङ्कााढ्य, १५. विमोच, १६. पुरंजय, १७. शकटमुखी, १८. चतुर्मुखी, १९. बहुमुखी, २०. अरजस्का, २१. विरजस्का, २२. रथनूपुर चक्रवाल, २३. मेखलाग्र, २४. क्षेमपुरी, २५. अपराजित, २६. कामपुष्प,२७. गगनचरी, २८. विनयचरी, २९. चक्रपुर, ३०. संजयंती, ३१. जयंती, ३२. विजया, ३३. वैजयंती,३४. क्षेमंकर, ३५. चंद्राभ, ३६. सूर्याभ, ३७. रतिवूâट, ३८. चित्रकूट, ३९. महाकूट, ४०. हेमकूट,४१. मेघकूट, ४२. विचित्रकूट, ४३. वैश्रवणकूट, ४४. सूर्यपुर, ४५. चंद्रपुर, ४६. नित्योद्योतिनी,४७. विमुखी, ४८. नित्यवाहिनी, ४९. सुमुखी और ५०. पश्चिमा’’।

इसी प्रकार उत्तर श्रेणी में ६० नगरियाँ हैं, जिनके नाम-

१. अर्जुनी, २. वारुणी, ३. कैलाश वारुणी, ४. विद्युत्प्रभ, ५. किलकिल, ६. चूड़ामणि, ७. शशिप्रभा,८. वंशाल, ९. पुष्पचूड़, १०. हंसगर्भ, ११. बलाहक, १२. शिवंकर, १३. श्रीहम्र्य, १४. चमर,१५. शिवमंदिर, १६. वसुमत्क, १७. वसुमती, १८. सिद्धार्थक, १९. शत्रुंजय, २०. केतुमाला, २१. सुरेन्द्रकांत, २२. गगननंदन,२३. अशोका, २४. विशोका, २५. वीतशोका, २६. अलका, २७. तिलका, २८. अम्बरतिलक, २९. मंदिर, ३०. कुमुद, ३१. कुंद, ३२. गगनवल्लभ, ३३. धुतिलक, ३४. भूमितिलक, ३५. गंधर्वपुर,३६. मुक्ताहार, ३७. निमिष, ३८. अग्निज्वाल, ३९. महाज्वाल, ४०. श्रीनिकेत, ४१. जय, ४२. श्रीनिवास, ४३. मणिवङ्का, ४४. भद्राश्व, ४५. भवनंजय, ४६. गोक्षीर, ४७. फेन, ४८. अक्षोम्य, ४९. गिरिशिखर,५०. धरणी, ५१. धारण, ५२. दुर्ग, ५३. दुर्धर, ५४. सुदर्शन, ५५. महेन्द्रपुर, ५६. विजयपुर, ५७. सुगंधिनी, ५८. वङ्कापुर, ५९. रत्नाकर, ६०. चन्द्रपुर।

ये दक्षिण और उत्तर श्रेणी की ५०+६०= ११० नगरियां हैं। इनमें से प्रत्येक नगरी तीन-तीन परिखाओं से घिरी हुई है। ये परिखाएं सुवर्णमय ईटों से निर्मित और रत्नमयी पाषाणों से जड़ी हैं। इनमें ऊपर तक स्वच्छ जल भरा हुआ है जिनमें लाल, नीले, सफेद कमल फूल रहे हैं। उसके बाद एक कोट है जो ६ धनुष (६²४·२४ हाथ) ऊंचा और १२ धनुष (१२²४=४८ हाथ) चौड़ा है। इस धूलिकोट के आगे एक परकोटा है यह १२ धनुष (१२²४=४८ हाथ) चौड़ा और २४ धनुष (२४²४=९६ हाथ) ऊंचा है। यह परकोटा भी सुवर्ण इटो से व्याप्त और रत्नमय पाषाणों से युक्त है। इस परकोटे पर अट्टालिकाओं के बीच-बीच में गोपुर द्वार हैं  और उन पर रत्नों के तोरण लगे हुए हैं। गोपुर और अट्टालिकाओं के बीच में बुर्ज बने हुए हैं। इस प्रकार परिखा (खाई) कोट और परकोटे से घिरी हुई ये नगरियाँ १२ योजन लम्बी और ९ योजन चौड़ी हैं। इन सभी नगरियों का मुख पूर्व दिशा की ओर है। इन नगरियों में से प्रत्येक नगरी में एक हजार चौक हैं, बारह हजार गलियाँ हैं और छोटे-बड़े सब मिलाकर एक हजार दरवाजे हैं। इन नगरियों के राजभवन आदि का वर्णन बहुत सुन्दर है। प्रत्येक नगरी के प्रति १-१ करोड़ गांवों की संख्या है तथा खेट, मडम्ब आदि की रचना जुदी-जुदी है।

हे राजकुमारों! अब मैं तुम्हें यह बतलाता हूँ कि यहां के मनुष्य कैसे हैं ? इन मनुष्यों को शत्रु राजाओं से तीव्र भय नहीं होता है, न यहां अति वर्षा होती है और न अनावृष्टि-अकाल ही पड़ता है। यहां पर दुर्भिक्ष, ईति, भीति आदि के प्रकोप भी नहीं होते हैं। यहाँ पर चतुर्थ काल के आदि से अंत तक परिवर्तन होता है। अभिप्राय यह है कि यहां भरतक्षेत्र के आर्यखण्ड में जब अवसर्पिणी का चतुर्थकाल प्रारम्भ होता है उस समय मनुष्यों की ऊंचाई ५०० धनुष (२००० हाथ) और उत्कृष्ट आयु एक करोड़ वर्ष पूर्व की होती है। पुनः घटते-घटते चतुर्थ काल के अंत में शरीर की ऊंचाई ७ हाथ और आयु सौ वर्ष की हो जाती है। ऐसे ही इन विजयार्ध पर्वत के विद्याधरों में चतुर्थ काल के आदि में उत्कृष्ट आयु १ करोड़ वर्ष पूर्व तक रहती है। पुनः घटते-घटते जब यहां आर्यखण्ड में चतुर्थकाल का अंत आ जाता है तब वहां पर जघन्य ऊंचाई ७ हाथ और आयु मात्र १०० वर्ष रह जाती है। यहां पंचम और छठा काल होने तक तथा बाद में भी छठा, पंचम काल व्यतीत होेने तक यही जघन्य व्यवस्था बनी रहती है। जब यहां आर्यखण्ड में उत्सर्पिणी के चतुर्थ काल में ऊंचाई ७ हाथ और आयु मात्र १०० वर्ष से बढ़ना शुरू होती है, तब वहां भी बढ़ते-बढ़ते यहां के चतुर्थ काल के अंत में वहां की ऊंचाई और आयु बराबर उत्कृष्ट हो जाती है।

तभी तो यहां आर्यखण्ड के चक्रवर्तियों के विवाह संबंध वहां से होते हैं। चूंकि उस-उस समय इस आर्यखण्ड के समान ही वहाँ के विद्याधरों की आयु, ऊंचाई आदि रहती है। भरत, ऐरावत क्षेत्रों के विजयार्धों को विद्याधर श्रेणियों में तथा यहीं के म्लेच्छ खण्डों में यह चतुर्थकाल की आदि से अन्त तक का परिवर्तन माना गया है। अन्यत्र विदेहक्षेत्र के आर्यखण्डों में सदा एक सी व्यवस्था रहने से वहां के विजयार्धों के विद्याधर श्रेणियों और म्लेच्छ खण्डों में भी परिवर्तन नहीं है। वहां चतुर्थ काल के प्रारंभ जैसी व्यवस्था ही सदा काल रहती है। यहां विद्याधर नगरियों में कर्मभूमि की व्यवस्था रहती है। वर्षा, सर्दी, गर्मी आदि ऋतुओं का परिवर्तन रहता है तथा असि, मषि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प और कला इन छह कर्मों से आजीविका चलती है। आर्यखण्ड की कर्मभूमि से यहां पर यह एक विशेषता अधिक है कि यहां मनुष्यों को महाविद्याएं उनकी इच्छानुसार फल दिया करती हैं। ये विद्याएं दो प्रकार की हैं- १. कुल या जाति पक्ष के आश्रित, २. साधित। पहले प्रकार की विद्याएं माता अथवा पिता की कुल परम्परा से ही प्राप्त हो जाती हैं। दूसरी विद्याएं यत्नपूर्वक आराधना करने से प्राप्त होती हैं। विद्या सिद्ध करने वाले मनुष्य सिद्धायतन में या उसके समीप अथवा द्वीप, पर्वत या नदी के किनारे आदि किसी भी पवित्र स्थान में पवित्र वेष धारण कर उन विद्याओं की (खास मंत्रों की) आराधना करते हैं। इस तरह नित्य पूजा, तपश्चरण, जाप्य और होम आदि से वे प्रज्ञप्ति आदि महाविद्याएं सिद्ध हो जाती हैं। विद्याओं के बल से यह विद्याधर लोग आकाशमार्ग में विचरण करते हुए अनेक अकृत्रिम चैत्यालयों के दर्शन, पूजन का पुण्य लाभ लिया करते हैं।

इस प्रकार विस्तार से विजयार्ध पर्वत का वर्णन करके धरणेन्द्र इन दोनों के साथ दक्षिण श्रेणी की २२वीं नगरी ‘‘रथनूपुर-चक्रवाल’’ में प्रवेश करता है। वहां पर दोनों को सिंहासन पर बिठाकर सभी विद्याधर राजाओं  को बुलाकर कहता है- ‘‘हे विद्याधरों! सुनो, ये तुम्हारे स्वामी हैं। कर्मभूमि रूपी जगत को उत्पन्न करने वाले जगत्गुरु श्रीमान् भगवान ऋषभदेव ने अपनी सम्मति से इन दोनों को यहां भेजा है इसलिए आप सब लोग प्रेम से मस्तक झुकाकर इनकी आज्ञा पालन करो। अब इनका राज्याभिषेक कर इनके मस्तक पर राज्यपट््ट बांधो।’’ इतना कहकर विद्याधरों के साथ धरणेन्द्र स्वयं बड़े आदर से सुवर्ण के बड़े-बड़े कलशों से इन दोनों का राज्याभिषेक कर देता है। पुनः इन दोनों को गांधारपदा और पन्नगपदा नाम की विद्याओं को देकर विद्याधरों से कहता है-
‘‘ये नमि महाराज दक्षिण श्रेणी के स्वामी हैं और ये विनमि महाराज उत्तरश्रेणी के अधिपति हैं।
हे विद्याधरों! अब आप इनके अनुशासन में रहते हुए अपने अभ्युदयों का अनुभव करो।’’ इतना कहकर धरणेन्द्र अपने स्थान पर चला जाता है। तब पुनः विद्याधर राजागण अनेक भोग सामग्री, रत्नों के उपहार आदि भेंट करते हुए इन दोनों का बहुत ही सम्मान करते हैं। आचार्य कहते हैं-
‘‘देखोे कहाँ इन नमि, विनमि का जन्म भूमिगोचरियों में और कहां विद्याधर श्रेणियों का आधिपत्य ? अहो! भगवान की भक्ति की कितनी महिमा है कि जो अज्ञान रूप से की गई थी, कल्पवृक्ष के समान उत्तम फल देने वाली हो गई।’’ इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि भगवान ऋषभदेव की उपासना कभी भी निष्फल नहीं जा सकती है।

विदेहक्षेत्र की व्यवस्था

इसी जम्बूद्वीप में सुमेरु के पूर्व के विदेह को पूर्व विदेह कहते हैं। उसमें सीता नदी के उत्तर तट पर चार वक्षार और तीन विभंगा नदी के निमित्त से आठ देश के विभाग हो गए। वे एक-एक देश यहां के इस भरतक्षेत्र के विस्तार से कई गुने बड़े हैं। उनके नाम हैं-कच्छा, सुकच्छा, महाकच्छा, कच्छकावती, आवर्ता, लांगलावर्ता, पुष्कला और पुष्कलावती। प्रत्येक क्षेत्र का पूर्वापर विस्तार २२१२-७/८ योजन है तथा दक्षिण-उत्तर लम्बाई १६५९२-२/१९ योजन है। ये प्रत्येक विदेह देश समान व्यवस्था वाले हैं।
इनमें जो आठवाँ पुष्कलावती देश है वह वन, ग्राम, नगर, खेट, कर्वट, मटंब, पत्तन, द्रोणमुख, दुर्ग-अटवी, अन्तरद्वीप और कुक्षिवासों से सहित तथा रत्नाकरों से अलंकृत है। इस देश में छियानवे करोड़ ग्राम, पचहत्तर हजार नगर, सोलह हजार खेट, चौंतीस हजार कर्वट, चार हजार मटंब, अड़तालीस हजार पत्तन, निन्यानवे हजार द्रोणमुख, चौदह हजार संवाहन, अट्ठाईस हजार दुर्गाटवी, छप्पन अन्तरद्वीप, सात सौ कुक्षिनिवास और छब्बीस हजार रत्नाकर होते हैं।

यहां पुष्कलावती देश के बीचोंबीच ५० योजन विस्तृत, २२१२-८/७ योजन लम्बा विजयार्ध पर्वत है। इसमें तीन कटनी हैं। प्रथम कटनी पर विद्याधर मनुष्य रहते हैं। दूसरी कटनी पर आभियोग्य जाति के देवों के भवन हैं और तीसरी कटनी पर ९ वूâट हैं। इसमें एक कूट पर जिनमन्दिर, शेष ८ पर देवों के भवन हैं।

नील पर्वत की तलहटी में दो कुण्ड बने हुए हैं, जिनसे गंगा, सिन्धु नदी निकलकर विजयार्ध की गुफा में प्रवेश कर इस क्षेत्र में बहती हुई सीता नदी में प्रवेश कर जाती हैं। इस निमित्त से यहां भी भरतक्षेत्र के समान छह खण्ड हो जाते हैं। जिसमें से नदी की तरफ के मध्य का आर्यखण्ड है और शेष पांच म्लेच्छ खण्ड हैं।
इस आर्यखण्ड के ठीक बीच में पुण्डरीकिणी नाम की नगरी है। इसके बाहर प्रत्येक दिशा में ३६० वनखण्ड हैं जिनमें सदा फल-फूलों से शोभा बनी रहती है।

यह नगरी नौ योजन विस्तृत और बारह योजन लम्बी है। इसके चारों तरफ सुवर्ण प्राकार-परकोटा है। पुनः परकोटे को घेरकर विस्तृत खातिका-खाई है।

यह चक्रवर्ती आदि महापुरुषों की राजधानी रहती है। इस नगरी में एक हजार गोपुर द्वार, पांच सौ क्षुद्र द्वार, बारह हजार वीथियां और एक हजार चतुष्पथ हैं। वहाँ सुवर्ण, प्रवाल, स्फटिक, मरकत आदि से निर्मित सुन्दर महल बने हुए हैं।

इस आर्यखण्ड में मनुष्यों की उत्कृष्ट अवगाहना ५०० धनुष है और उत्कृष्ट आयु कोटि पूर्व वर्ष की है। यहां इन्द्र, धरणेन्द्र और चक्रवर्तियों से भी नमस्कृत तीर्थंकर भगवान होते रहते हैं।

गणधर देव, अनगार मुनि, केवली मुनि, चारणऋद्धिधारी मुनि और श्रुतकेवली भी विहार करते रहते हैं। मुनि, आर्यिका और श्रावक-श्राविका का चतुर्विध संघ वहां सर्वदा विचरण करता ही रहता है।

छह खण्ड पर अनुशासन करने वाले चक्रवर्ती, त्रिखण्डाधिपति नारायण, प्रतिनारायण और बलभद्र भी जन्म लेते हैं।
इसी जम्बूद्वीप में सुमेरु की उत्तर दिशा में उत्तरकुरु नाम की भोगभूमि है। वहां पर मद्यांग, वादित्रांग, भूषणांग, मालांग, दीपांग, ज्योतिरंग, गृहांग, भोजनांग, भाजनांग और वस्त्रांग इन दस प्रकार के कल्पवृक्ष हैं। यह पृथ्वीकायिक हैं और भोगभूमि में उत्पन्न हुए मनुष्यों को सर्व भोगसामग्री प्रदान करते रहते हैं।

‘‘मद्यांग जाति के कल्पवृक्ष अमृत के समान अनेक प्रकार के रस देते हैं। कामोद्दीपन१ करने वाले होने से इन्हें उपचार से मद्य कह देते हैं। वास्तव में ये वृक्षों के एक प्रकार के रस हैं। मद्यपायी लोग जिस मदिरा का पान करते हैं वह नशा करने वाला है और अन्तःकरण को मोहित करने वाला है अतः वह आर्य पुरुषों के लिए सर्वथा त्याज्य है।’’
वादित्रांग वृक्ष दुन्दुभि आदि बाजे देते हैं। भूषणांग मुकुट, हार आदि भूषण देते हैं। मालांग वृक्ष माला आदि अनेक सुगंधित पुष्प देते हैं। दीपांग वृक्ष मणिमय दीपकों से शोभायमान रहते हैं। ज्योतिरंग वृक्ष सदा प्रकाश फैलाते रहते हैं। गृहांग वृक्ष ऊँचे-ऊँचे महल आदि देते हैं। भोजनांग वृक्ष अमृतसदृश अशन, पान आदि भोजन देते हैं। भाजनांग थाली, कटोरा आदि देते हैं। वस्त्रांग वृक्ष अनेक प्रकार के वस्त्र प्रदान करते हैं।

ये कल्पवृक्ष न तो वनस्पतिकायिक हैं और न देवों के द्वारा ही अधिष्ठित हैं। केवल पृथ्वी के आकार से परिणत हुए पृथ्वी के सार ही हैं। यह सभी वृक्ष अनादिनिधन हैं और स्वभाव से ही फल देने वाले हैं। इन वृक्षों का ऐसा ही स्वभाव है इसलिए ‘‘ये वृक्ष वस्त्र, भोजन, बर्तन आदि वैâसे देंगे ? ऐसा कुतर्वâ कर इनके स्वभाव में दूषण लगाना उचित नहीं है। जिस प्रकार आजकल के अन्य वृक्ष अपने-अपने फलने का समय आने पर अनेक प्रकार के फल देकर प्राणियों का उपचार करते हैं उसी प्रकार उपर्युक्त कल्पवृक्ष भी मनुष्यों के दान के फल से अनेक प्रकार के फल देते हुए वहाँ के प्राणियों का उपकार करते हैं।’’

वहाँ पर न गर्मी है, न सर्दी है, न पानी बरसता है, न तुषार पड़ता है, न अतिवृष्टि आदि ईतियाँ हैं और न प्राणियों को भय उत्पन्न करने वाले साँप, बिच्छू, खटमल आदि दुष्ट जन्तु ही हैं। वहाँ न रात-दिन का विभाग है और न ऋतुओं का परिवर्तन ही है। वहाँ के दम्पत्ति युगल सन्तान को जन्म देते ही स्वयं स्वर्गस्थ हो जाते हैं। माता को छींक और पुरुष को जम्भाई आते ही मर जाते हैं और उनके शरीर क्षणमात्र में कपूर के समान उड़कर  विलीन हो जाते हैं इसलिए वहाँ पर पुत्र-पुत्री और भाई-बहन का व्यवहार नहीं रहता है। वे युगलिया सात दिन तक शैय्या पर उत्तान लेटे हुए अंगूठा चूसते रहते हैं। पुनः सात दिन तक पृथ्वी पर रेंगने-सरकने लगते हैं। तीसरे सप्ताह में खड़े होकर अस्पष्ट किन्तु मीठी भाषा बोलते हुए गिरते-पड़ते खेलते हुए जमीन पर चलने लगते हैं। पाँचवे सप्ताह में अनेक कलाओं और गुणों से सहित हो जाते हैं। छठे सप्ताह में युवावस्था को प्राप्त हो जाते हैं और सातवें सप्ताह में वस्त्राभूषण धारण कर पति-पत्नी रूप में भोग भोगने वाले हो जाते हैं।

इन आर्य-आर्या युगलिया दम्पत्ति के शरीर की ऊँचाई ६००० धनुष (तीन कोश) प्रमाण होती है और इनकी आयु तीन पल्य की होती है। दोनों का वङ्काऋषभनाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थान होता है। इन दम्पत्तियों को न बुढ़ापा है, न रोग है, न विरह है, न अनिष्ट का संयोग है, न चिन्ता है, न दीनता है, न नींद है, न आलस्य है, न नेत्रों के पलक झपकते हैं, न शरीर में मल-मूत्रादि हैं, न लार बहती है, न पसीना है, न उन्माद है, न कामज्वर है, न भोगों का विच्छेद है, न विषाद है, न भय है, न ग्लानि है, न अरुचि है, न क्रोध है, न कृपणता है, न अनाचार है, न वहाँ कोई बलवान है और न निर्बल ही है और न असमय में मृत्यु ही है। वहाँ के दम्पत्ति चक्रवर्ती से भी अधिक सुखी हैं।

Tags: Jain Geography
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