जिनको अवश्य ही करना होता है, वे आवश्यक क्रियाएँ कहलाती हैं। उनके छ: भेद हैं-देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान।
१. देवपूजा –जिनेन्द्र भगवान के चरणों की पूजा संपूर्ण दु:खों का नाश करने वाली है और सभी मनोरथों को सफल करने वाली है अत: श्रावक को प्रतिदिन देवपूजा अवश्य करनी चाहिए।
पूजा की विधि – धुले हुए बिना किसी से स्पर्शित, शुद्ध वस्त्र (धोती दुपट्टा) धारण कर शुद्ध धुली हुई सामग्री (अष्टद्रव्य) को हाथ में लेकर मंदिर पहुँचकर दर्शन करके पहले ईर्यापथ शुद्धि करें। पुन: सिद्धभक्ति करके अपने ललाट पर चंदन से तिलक लगाकर अभिषेक पाठ में कही हुई विधि के अनुसार अभिषेक करें। अनन्तर थाली के मध्य में स्वस्तिक बनाकर निम्न अंको को लिखें- नीचे ३ (रत्नत्रय का सूचक), बाजू में २४ (२४ तीर्थंकरों का), ऊपर ५ (पंचपरमेष्ठी का) एवं दायीं तरफ २ (चारणमुनि का सूचक है।) इसका श्लोक- रयणत्तयं च वंदे, चउवीसजिणं च सव्वदा वंदे। पंचगुरूणां वंदे, चारणचरणं सदा वंदे।। इनके ऊपर बंधी मुट्ठी से पाँच परमेष्ठी के ५ पुंज, चार अनुयोग के ४ पुंज और रत्नत्रय के ३ पुंज रखना चाहिए। पुन: पूजा प्रारंभ करना चाहिए। सबसे पहले स्थापना की जाती है जो कि दोनों हाथों में पुष्पांजलि लेकर क्षेपण करते हुए करना चाहिए। संक्षेप में मंत्रों द्वारा निम्नानुसार पूजन विधि बताई जा रही है। पूजन करने वालों को छपी हुई पूजन पुस्तकों में स्वरुचि अनुसार भक्तिभाव से पूजन करना चाहिए। समयाभाव में केवल मंत्र बोलकर भी पूजा की जा सकती है।
स्थापना
ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननं। ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: ठ: स्थापनं। ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुसमूह! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधीकरणं। ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो! जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा। (झारी से जल चढ़ावें) ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो! संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा। (अनामिका अंगुली से चंदन चढ़ावें) ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो! अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति स्वाहा। (बंधी मुट्ठी से अक्षत चढ़ावें) ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो! कामबाणविध्वंसनाय पुष्पंं निर्वपामीति स्वाहा। (दोनों हाथों से पुष्प चढ़ावें) ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो! क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा। (रकेबी से नैवेद्य चढ़ावें) ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो! मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा। (आरती उतारेंं) ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो! अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा। (अग्नि में धूप खेवेंं) ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो! मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा। (रकेबी से फल चढ़ावें) उदक चंदनतंदुलपुष्पवैश्चरु सुदीपसुधूप फलाघ्र्यवै:। धवल मंगलगानरवाकुलेर्जिनगृहे जिनराजमहं यजे।। ॐ ह्रीं देवशास्त्रगुरुभ्यो अनघ्र्यपदप्राप्तये अघ्र्यं निर्वपामीति स्वाहा। (रकेबी से अघ्र्य चढ़ावें) पुन: ‘शांतये शांतिधारा’ बोलकर झारी से या कलश से शांतिधारा देवें और ‘परिपुष्पांजलि:’ बोलकर पुष्पांजलि अर्पण करें। अनंतर जयमाला बोलकर अघ्र्य चढ़ा देवें। पूजन के अनंतर किसी भी मंत्र को १०८ बार जपना चाहिए अर्थात् एक माला करनी चाहिए। ॐ एक अक्षर के मंत्र में पंचपरमेष्ठी शामिल हैं। अरिहंत का ‘अ’, सिद्ध अशरीरी का ‘अ’ सन्धि होकर अ+अ·आ बना। आचार्य का आ सन्धि होकर आ+आ=आ रहा। उपाध्याय का ‘उ’ सन्धि होकर आ + उ·ओ बना। साधु-मुनि का म् लेकर ओम् बन गया। ऐसे ॐ सिद्ध, ॐ ह्रीं नम:, असिआउसा, अरिहंत सिद्ध, ॐ नम: सिद्धेभ्य:, णमो अरिहंताणं आदि मंत्र हैं। पैंतीस अक्षर वाला णमोकार मंत्र है। ये मंत्र बीज के समान बहुत फल देने वाले हैं। पुन: आरती करके शांति पाठ और विसर्जन करना चाहिए।
विसर्जन का मंत्र-ॐ ह्रीं अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधु-जिनधर्मजिनागम-जिनचैत्यचैत्यालयादि-सर्वदेवा: स्वस्थानं गच्छत ज: ज:।
२. गुरुपास्ति – जिनेन्द्र भगवान की पूजा के बाद निग्र्रंथ दिगम्बर मुनियों के पास जाकर उन्हें भक्ति से नमोस्तु करके उनकी स्तुति करके अष्टद्रव्य से पूर्ववत् पूजा करनी चाहिए। उनके मुख से धर्मोपदेश सुनना चाहिए। यदि अष्टद्रव्य से पूजा न कर सकेतो अक्षत, फलादि चढ़ाकर नमस्कार करना चाहिए।
३. स्वाध्याय –अपनी बुद्धि के अनुसार जैन शास्त्रों का पढ़ना या पढ़ाना स्वाध्याय कहलाता है।
४. संयम – छहकाय के जीवों की दया करना एवं पाँच इन्द्रिय और मन को वश करना संयम है। श्रावक अपनी योग्यता के अनुसार त्रस जीवों की दया करते हुए व्यर्थ में स्थावर जीवों का वध भी नहीं करें और यथाशक्य अपने इन्द्रिय तथा मन पर नियंत्रण करें।
५. तप – अपनी शक्ति के अनुसार अनशन, ऊनोदर आदि बारह प्रकार के तपों को भी धारण करें। नंदीश्वर के आठ दिन में उपवास या एकाशन करना, अष्टमी चतुर्दशी के दिन उपवास या एकाशन आदि तथा कर्मदहन उपवास आदि सभी व्रत तप में शामिल हैं।
६. दान – गृहस्थ की ६ क्रियाओं में यह दान महाक्रिया कहलाती है। आगे इसका विशेष वर्णन किया जायेगा। आचार्य श्री कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है कि दाणं पूजा मुक्खो, सावय धम्मो ण सावया तेण विणा अर्थात् श्रावक के धर्म में दान और पूजा ये दो क्रियाएँ मुख्य हैं। इनके बिना श्रावक नहीं हो सकता है।