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षडावश्यक!

July 15, 2017स्वाध्याय करेंHarsh Jain

षडावश्यक


लेखक – पूज्य १०८ आचार्य श्री अजितसागर जी महाराज ( समाधिस्थ )
मुनि और श्रावक दोनों के लिये आगम में कुछ ऐसे कार्य निश्चित किये गये हैं जिनका करना उन्हें अनिवार्य होता है। ऐसे कार्यों को आवश्यक कहा गया है। इस विवक्षा में आवश्यक शब्द की निरुक्ति ‘अवश्यं करणीयं आवश्यकम्’ होती है। पण्डित प्रवर आशाधरजी ने अनगार धर्मामृत में आवश्यक शब्द की निरुक्ति इस प्रकार बतलाई है—‘वश्य इन्द्रियायत्त:। न वश्योऽवश्य इन्द्रियानायत्त इत्यर्थ:। अवश्यस्य कर्मावश्यकमिति। द्वन्द्वमनोज्ञादे: ३/४/१२३ इति वुज् । अर्थात् जो इन्द्रियों के आधीन नहीं है वह अवश्य कहलाता है। ऐसे अवश्य—जितेन्द्रिय साधु का जो कार्य है वह आवश्यक कहा जाता है। उन्होंने आवश्यक शब्द का एक अर्थ यह भी किया है कि जो वश्य—स्वाधीन नहीं है अर्थात् जो रोगादिक से पीड़ित है वह अवश्य कहलाता है। अवश्य—रोगादिक से पीड़ित होने पर भी जिनका करना अनिवार्य है वह आवश्यक कहलाता है। कुन्दकुन्द स्वामी ने नियमसार में आवश्यक शब्द की निरुक्ति इस प्रकार दी है—
जो ण हवदि अण्णवसो तस्स दु कम्मं भणंति आवासं। कम्म विणासण जोगो णिव्वुदिमग्गो त्ति पिज्जुत्तो।।१४१।।
जो अन्य के वश नहीं है वह अवश है, और उस अवश का जो कार्य है वह आवश्यक है। यह आवश्यक कर्मों का विनाश करने वाला योग तथा निर्वाण का मार्ग है, ऐसा कहा गया हैं मुनि के आवश्यक कार्य इस प्रकार है—
सामायिकं चतुर्विंशतिस्तवो वन्दना प्रतिक्रमणम्। प्रत्याख्यानं कायोत्सर्गश्चावश्यकस्य षड्भेदा:।।१७।।
सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान और कायोत्सर्ग ये छह मुनियों के आवश्यक कार्य हैं। इनका विवेचन आगम में नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव इन छह के आलम्बन से किया गया है। जैसे सामायिक के विषय में इन छह का आलम्बन लेने से उसके नामसामयिक, स्थापना सामायिक, द्रव्यसामायिक, क्षेत्रसामायिक, कालसामायिक और भावसामायिक यह छह भेद होते हैं।
सामायिक— ‘समये भव: सामायिकम्’ अर्थात् सम रागद्वेषजनित इष्ट अनिष्ट की कल्पना से रहित जो अय ज्ञान है वह समाय कहलाता है और उस समाय में जो होता है उसे सामायिक कहते हैं। यह सामायिक शब्द का निरुक्तार्थ है और समता परिणति का होना वाच्यार्थ है। शुभ—अशुभ नामों को सुनकर रागद्वेष का छोड़ना नाम सामायिक है। यथोक्त मान—उन्मान आदि गुणों से मनोहर अथवा अमनोहर प्रतिमा आदि के विषय में रागद्वेष का न होना स्थापनासामायिक है। सुवर्ण तथा मिट्टी आदि पदार्थों में समता परिणाम होना द्रव्यसामायिक है। बाग—बगीचे तथा कण्टक वन आदि अच्छे—बुरे क्षेत्रों में समभाव होना क्षेत्र सामायिक है। बसन्त ग्रीष्म आदि ऋतुओं अथवा दिन रात आदि इष्ट अनिष्ट काल के विषय में रागद्वेषरहित होना काल सामायिक है और सब जीवों में मैत्रीभाव का होना तथा अशुभ परिणामों का छोड़ना भाव सामायिक है। मूलाचार में सामायिक शब्द की निरुक्ति समय शब्द से की है तथा अनगार धर्मामृत में भी उसका उल्लेख किया गया है। दर्शन ज्ञान तप यम तथा नियम आदि में जो सम—प्रशस्त अय—गमन है उसे समय कहते हैं और समय का नाम ही सामायिक है क्योंकि समय शब्द से स्वार्थ में ठण प्रत्यय होने से सामायिक शब्द की सिद्धि होती है। विधि रूप में प्रतिदिन तीनों संध्याओं के समय रागद्वेष छोड़कर सामायिक करना सामायिक नाम का आवश्यक है। सामायिक के प्रारम्भ में ‘णमो अरहंताणं’ आदि सामायिक दण्डक बोलनाचाहिये।
चतुवशतिस्तव—वृषभादि चतुवशति तीर्थंकरों का स्तवन करना चतुा\वशति स्तव कहलाता है। यह स्तव भी नाम स्थापना आदि के भेद से छह प्रकार का होता है। जैसे अष्टोत्तर सहस्र नामों के द्वारा स्तुति करना नाम स्तव है, कृत्रिम अकृत्रिम प्रतिमाओं की स्तुति करना स्थापना स्तव है, एक सौ आठ लक्षण तथा नौ सौ व्यञ्जनों से सहित तीर्थंकरों के शरीर का स्तवन करना द्रव्यस्तव है, गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान तथा निर्वाण आदि के क्षेत्रों का स्तवन करना क्षेत्रस्तव है, गर्भादि कल्याणकों के समय का आश्रय लेकर स्तुति करना कालस्तव है और केवलज्ञानादि गुणों का स्तवन करना भावस्तव है। विधिरूप में ‘‘थोस्सामि हं जिणवरे तित्थयरे केवली अणंतजिणे। णर पवरलोयमहिए विहुयरयमले महप्पण्णे’’ आदि स्तव दण्डक बोलकर चौबीस तीर्थंकरों का स्तवन किया जाता है।
वन्दना— अरहन्त आदि पञ्च परमेष्ठियों तथा वृषभ आदि चौबीस तीर्थंकरों में से किसी एक की भाव शुद्धिपूर्वक नति नुति, आशीर्वचन तथा जयकार आदि के रूप में विनय क्रिया करना वन्दना कहलाती है। इस वन्दना का आगम में ‘कृतिकर्म’ शब्द द्वारा भी उल्लेख किया गया है। ‘जयति भगवान्’ इत्यादि पाठ बोलकर वन्दना की जाती है। गुरू वन्दना भी इसी का अङ्ग है। साधु को चाहिये कि वह प्रतिदिन प्रभातकाल में प्रात:काल सम्बन्धी क्रियाओं के करने के बाद, मध्याह्न में देवस्तुति के बाद और सायंकाल प्रतिक्रमण के बाद गुरुवन्दना करें।
प्रतिक्रमण— प्रमादवश लगे हुए दोषों का निन्दा, गर्हा और आलोचना पूर्वक दूर करना प्रतिक्रमण कहलाता है। यह दैवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, र्वािषक, ऐर्यापथिक और उत्तमार्थ के भेद से सात प्रकार का होता है। सूर्यास्त होने के पूर्व दिन सम्बन्धी दोषों का प्रतिक्रमण करना दैवसिक प्रतिक्रमण हैं सूर्योदय के समय रात्रि सम्बन्धी दोषों का प्रतिक्रमण करना रात्रिक प्रतिक्रमण है। चतुर्दशी के दिन पक्ष सम्बन्धी दोषों का प्रतिक्रमण करना पाक्षिक प्रतिक्रमण है। र्काितक, फाल्गुन और आषाढ़ के अन्त में चार चार माह का प्रतिक्रमण करना चातुर्मासिक प्रतिक्रमण है। वर्ष के अन्त में होने वाला प्रतिक्रमण र्वािषक प्रतिक्रमण है। ईर्यापथ—गमन सम्बन्धी दोषों का प्रतिक्रमण ऐर्यापथिक प्रतिक्रमण है और समस्त जीवन के दोषों की आलोचना कर जीवन पर्यंन्त के लिये चारों प्रकार के आहार का त्याग करते हुए सल्लेखना धारण करना उत्तमार्थ प्रतिक्रमण है। अपने द्वारा किये हुए दोषों के विषय में आत्मसाक्षी पूर्वक ‘‘हा दुट्ठ कयं हा दुट्ठ चिंतयं’’ इस प्रकार मन में चिन्तन करना निन्दा कहलाती है। गुरु के सामने उक्त प्रकार का मन में चिन्तन करना गर्हा है और गुरु के लिये अपने दोष प्रकट करना आलोचना है। ये निन्दा गर्हा तथा आलोचना प्रतिक्रमण के ही अङ्ग हैं। मोक्षाभिलाषी जीव, भूत वर्तमान और आगामी कर्मों का क्रम से प्रतिक्रमण, आलोचन और प्रत्याख्यान करके उनके फलों का त्याग करता है। श्री अमृतचन्द्र सूरि ने निम्नांकित कलश काव्यों में इस भाव को बड़ी सुन्दरता से दरशाया है।
मोहाद्यदहमकार्षं समस्तमपि कर्म तत्प्रतिक्रम्य। आत्मनि चैतन्यात्मानि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्तें।।
अज्ञानवश जो कर्म मैंने किया था, उस सभी का प्रतिक्रमण कर मैं कर्मरहित चैतन्य स्वरूप आत्मा में निरन्तर लीन होता हूँ।
मोहविलास विजृम्भितमिदमुदयत् कर्म सकलमालोच्य। आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि निम्यमात्मना वर्ते।।
मोह के विलास से वृद्धि को प्राप्त हुआ जो यह कर्म उदय में आ रहा है उस सब की आलोचना कर मैं कर्मरहित चैतन्य स्वरूप आत्मा में निरन्तर लीन होता है।
प्रत्याख्याय भविष्यत्कर्म समस्तं निरस्तसंमोह:। आत्मनि चैतन्यात्मनि निष्कर्मणि नित्यमात्मना वर्ते।।
मैं निर्मोह हुआ, भविष्यत्कालीन समस्त कर्मों का त्याग कर कर्म रहित चैतन्य स्वरूप आत्मा में निरन्तर लीन रहता हूँ। समयसार में प्रतिक्रमणादि को जो विषकुम्भ बताया है वह उपरितन भूमिका में स्थित मुनियों को लक्ष्य कर बताया गया है।अधस्तन भूमिका—षष्ठ गुणस्थान में स्थित मुनियों के लिये उसका करना आवश्यक है।क्योंकि चरणानुयोग की पद्धति में दोषों को दूर करने के लिये जो विधि निश्चित की गई है उसका न करना अपराध माना गया है। हां, ऐसा विचार अवश्य किया जाता है कि मेरी ऐसी निर्दोष अवस्था हो जावे जिसमें प्रतिक्रमणादि का विकल्प न रहे। पं० आशाधरजी ने कहा भी है-
प्रतिक्रमणं प्रतिसरणं परिहरणं धारणा निवृत्तिश्च। निन्दा गर्हा शुद्धिश्चामृतकुम्भोऽन्यथापि विषकुम्भः।।६३।। अ० ८
प्रतिक्रमणादिक आठो विधियों का करना अधस्तन भूमिका में अमृतकुम्भ है और नहीं करना विषकुम्भ भी है।

प्रत्याख्यान या स्वाध्याय

प्रत्याख्यान का अर्थ त्याग है। वह त्याग भी नाम, स्थापना, द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के आश्रय से होता है अतः प्रत्याख्यान के नाम प्रत्याख्यान आदि छह भेद हैं। मोक्षाभिलाषी मुनि, जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा तथा गुरâ नियोग से उल्लासित होता हुआ सचित्त तथा मिश्र द्रव्यों का त्याग करता है। कर्म निर्जरा का इच्छुक साधु अनागत, अतिक्रान्त, कोटीयुत, अखण्डित, साकार, निराकार, परिमाण, अपरिमाण, वर्तनीयात और सहेतुक के भेद से जो दश प्रकार के उपवास करता है वह भी प्रत्याख्यान ही है। अनागत आदि का स्वरूप अनगार धर्मामृत अध्याय ८ श्लोक ६९ की टीका आदि में द्रष्टव्य है। विस्तार भय से सबका स्वरूप यहां नहीं दिया जा सका है। कहीं कहीं प्रत्याख्यान को प्रतिक्रमण में गतार्थ कर उसके स्थान पर स्वाध्याय का समावेश किया गया है। वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश के भेद से स्वाध्याय के पांच भेद हैं। साधु को अपनी योग्यता के अनुसार प्रतिदिन पाँचों प्रकार का अथवा यथासंभव जितने प्रकार का बन सके स्वाध्याय अवश्य करना चाहिये। यह स्वाध्याय ज्ञानवृद्धि के साथ साथ कर्मनिर्जरा का भी प्रमुख कारण है। स्वाध्याय करते समय व्यञ्जनशुद्धि आदि आठ अङ्गों का ध्यान रखना चाहिये। कायोत्सर्ग काय का त्याग करना सो कायोत्सर्ग है। यहाँ काय शब्द से काय का ममत्व लिया गया है, उसका त्याग करना कायोत्सर्ग कहलाता है। जैसा कि कहा गया है-
ममत्वमेव कायस्थं तात्स्थ्यात्कायोऽभिधीयते। तस्योत्सर्गस्तनूत्सर्गो जिनबिम्बाकृतेर्यतेः।।
शरीर में स्थित होने से शरीरस्थ ममत्व ही काय कहलाता है उसका त्याग करना कायोत्सर्ग है कायोत्सर्ग करने वाला यति जिनप्रतिमा के समान निश्चल होता है। कायोत्सर्ग करने के हेतुओं का संग्रह इस प्रकार किया गया है-
आगः शुद्धितपोवृद्धि कर्मनिर्जरणादयः। कायोत्सर्गस्य विज्ञेया हेतवो व्रतवर्तिना।।
व्रती मनुष्य को अपराध शुद्धि तपोवृद्धि तथा कर्मनिर्जरा आदि को कायोत्सर्ग के हेतु जानना चाहिये। कायोत्सर्ग की उत्कृष्ट अवधि एक वर्ष की तथा जघन्य अवधि अन्तर्मुहूर्त की है। २७ उच्छ्वास आदि का प्रमाण अन्तर्मुहूर्त में ही गतार्थ हो जाता है। कायोत्सर्ग के काल में किसी भी प्रकार का उपसर्ग आदि आवे तो उसे समताभाव से सहन करना चाहिये। प्रचलित परम्परा में एक कायोत्सर्ग २७ उच्छ्वास तक चलता है। उनमें नौ बार णमोकार मन्त्र के उच्चारण करने की परम्परा चालू है। एक बार णमोकार मन्त्र के उच्चारण में ३ उच्छ्वास लगते है। जैसे ‘णमो अरहंताणं णमो सिद्धाणं’ इतने उच्चारण में एक उच्छ्वास, णमो आयरियाणं णमो उवज्झायाणं’ इतने उच्चारण में एक उच्छ्वास और ‘णमो लोए सव्वसाहूण’ इतने उच्चारण में एक उच्छ्वास होता है। नौ बार णमोकार मन्त्र के उच्चारण में ९ गुणा ३ बराबर २७ उच्छ्वास लगते हैं। २७ उच्छ्वास तक कायोत्सर्ग करने का तात्पर्य यह है कि इतने समय के लिए शरीर का ममत्व का त्याग किया जाता है। उसी समय के भीतर यदि शरीर पर किसी प्रकार का उपसर्ग आदि आता है तो उसे समता भाव से सहन किया जाता है। मुनि की दिन रात सम्बन्धी चर्या में २८ कायोत्सर्ग कहे गये हैं। उनका विवरण इस प्रकार है-
स्वाध्याये द्वादशेष्टा षड्वन्दनेऽष्टौ प्रतिक्रमे। कायोत्सर्गा योगभक्तौ द्वौ चाहोरात्रगोचराः।।७५।। अ.८ अनगार
स्वाध्याय के १२, वन्दना के ६, प्रतिक्रमण के ८ और योभगक्ति के २ सब मिला कर २८ कायोत्सर्ग होते हैं। मुनि को आलस्य छोड़कर यथा समय कायोत्सर्ग करना चाहिये। कायोत्सर्ग सम्बन्धी दोष तथा वन्दना आदि के आसन और मुद्राओं के विशेष अध्ययन के लिये अनगार धर्मामृत और मूलाचार के तत्तत् प्रकरण द्रष्टव्य हैं। आवश्यकों की उपयोगिता बताते हुये नियमासार में कुन्द-कुन्द स्वामी ने कहा है-
आवासएण हीणो पब्भट्टो होदि चरणदो समणो। पुव्वुत्ततमेण पुणो तम्हा आवासयं कुञ्जा।।१४८।।
आवश्यक रहित श्रमण, चारित्र से भ्रष्ट है इसलिये पूर्वाक्त विधि से आवश्यक नियम से करना चाहिये।

श्रावक के षडावश्यक

 श्रावक का लक्षण लिखते हुए सागार धर्मामृत में पं० आशाधरजी ने लिखा है-
मूलोत्तरगुणनिष्ठामधितिष्ठन् पञ्चगुरुश्पदशरण्यः। दानयजनप्रधानो ज्ञानसुधां श्रावकः पिपासुः स्यात्।।१५।। अ०
जो आठ मूलगुण तथा बारह व्रत रूप उत्तर गुणो का पालन करता है, पञ्चपरमेष्ठीयों के चरणों की शरण जिसे प्राप्त हुई है जो प्रधानता से दान और पूजन करता है तथा ज्ञान रूपी अमृत के पीने की इच्छा रखता है वह श्रावक कहलाता है। पद्मनन्दि आचार्य ने पञ्चिंवशतिका में श्रावक के निम्नाज्र्ति जिन आवश्यक कार्यों का दिग्दर्शन कराया है उनका समावेश श्रावक के उपर्युक्त लक्षण में अच्छी तरह हो जाता है।
देवपूजा गुरुपास्तिः स्वाध्यायः संयमस्तपः। दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने।।
देवपूजा, गुरुपासना, स्वाध्याय, संयम,तप और दान ये छह गृहस्थों के प्रतिदिन करने योग्य-आवश्यक कार्य हैं। ‘मूलोत्तरगुणनिष्ठामधितिष्ठन्’ इस विशेषण से संयम और तप का, ‘पञ्चगुरूपदशरण्यः’ इस विशेषण से गुरूपासना का, ‘दान यजनप्रधानो-इस विशेषण से देवपूजा और दान का तथा ‘ज्ञानसुधां पिपासुः’ इस विशेषण से स्वाध्याय का समावेश होता है। गृहस्थ जिनगुणस्थानों की भूमिका में रहता है उनमें शुभोपयोग रूप धर्म ही सिद्ध हो पाता है। देवपूजा आदि कार्य शुभोपयोग यप होने से यद्यपि पुण्यबन्ध के कारण हैं तथापि आत्मा के वीतराग स्वभाव की ओर लक्ष्य ले जाने में परम सहायक हैं।

देव पूजा

जिनागम में अरहन्त और सिद्धपरमेष्ठी की देव संज्ञा है,इनकी जल, चन्दन, अक्षत, पुष्प नैवेद्य, दीप, धूप और फल इन आठ द्रव्यों के द्वारा पूजा करना देवपूजा है।देव पूजा के नित्य पूजा, आष्टाह्निक पूजा इन्द्रध्वज पूजा, महामह अथवा सर्वतोभद्र और कल्पद्रुममह के भेद से पाँच भेद हैं। प्रतिदिन घर से ले जाये गये जल चन्दनादि द्रव्यो के द्वारा जिनेन्द्र भगवान् की जो पूजा की जाती है वह नित्य पूजा है। मन्दिरों के लिये ग्राम तथा गृह आदि का दान तथा मुनियों के लिये आहार देना आदि इसी नित्यपूजा में गर्भित है। र्काितक, फाल्गुन और आषाढ़ के अन्तिम आठ दिनों में विशेष समारोह के साथ जो पूजा की जाती है वह आष्टाह्निक पूजा के नाम से प्रसिद्ध है। इंद्रादिक देवों के द्वारा जो पूजा की जाती है उसे इन्द्रध्वजपूजा कहते हैं। श्रावक, अपने आपमें इन्द्र प्रतीन्द्र आदि का आरोप कर जो पञ्च कल्याणक प्रतिष्ठा आदि के समय विशिष्ट पूजा करता है वह इसी इन्द्रध्वज पूजा में गर्भित है। मुकुटबद्ध राजाओं के द्वारा जो शक्ति पूर्वक पूजा की जाती है उसे महामह, सर्वतोभद्र अथवा चतुर्मुख पूजा कहते हैं और किमिच्छक दान के द्वारा सब जीवों की आशा को पूर्ण कर चक्रवर्ती बड़े उत्साह के साथ जिस पूजा को करते हैं वह कल्पद्रुममह कहलाती है। पूजा करते समय किसी लौकिक फल की आकांक्षा न कर आने ज्ञानानन्द स्वभावी वीतराग-स्वरूप आत्मा की ओर लक्ष्य रखना चाहिये। वीतराग जिनेन्द्र की शरण में पहुँचने पर लौकिक फल तो अपने आप प्राप्त होते हैं उनकी इच्छा करने से क्या प्रयोजन है? देश और काल के भेद से पूजा की पद्धति और द्रव्य आदि में जो भेद हैं, ज्ञानी जीव उसके विकल्प में न पड़ अरहन्तदेव के गुणों के प्रति अपना लक्ष्य स्थिर करता है। उसी से उसका कल्याण होता है। जिन पूजा का फल बतलाते हुए आशाधरजी ने कहा है-
यथाकथंचिद् भजतां जिनं निव्र्याजचेतसाम्। नश्यन्ति सर्वदु:ख दिश: कामान् दुहन्ति च।।४१।।अ.२ सा.ध.
जिस किसी तरह निश्चलभाव से जिनेन्द्रदेव की भक्ति करने वाले पुरुषों के समस्त दुःख नष्ट होते हैं और दिशाएँ उनके मनोरथों को पूर्ण करती हैं अर्थात् जिनेन्द्र भगवान् के भक्त जहाँ भी जाते हैं वहीं उन्हें सब सुख सुविधाएँ प्राप्त होती हैं। यह तो रही लौकिक फल की बात परन्तु पारमार्थिक फल की प्राप्ति भी सरल हो जाती है। प्रवचनसार में कुन्दकुन्द स्वामी ने लिखा है-
जो जाणदि अरहंतं दव्वत्तगुणत्त पञ्जयत्तेहिं। सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं।।८०।।
जो द्रव्य गुण और पर्याय की अपेक्षा अरहन्त को जानता है वह आत्मा को जानता है और जो आत्मा को जानता है उसका मोह नियम से विलय को प्राप्त होता है।

गुरूपास्ति

निर्ग्रन्थ गुरु मोक्षमार्ग के साधक हैं अतः उनकी सुख सुविधाओं का ध्यान रखते हुए उनकी उपासना करना श्रावक का कत्र्तव्य है। दिगम्बर मुनिमार्ग खड्ग की धार पर चलने के समान कठिन है उसे धारण करने का साहस बिरले ही मनुष्य करते हैं इसलिए आहार दान तथा वैयावृत्य आदि के द्वारा सुविधा पहँुचाते हुए उन्हें उस मार्ग में उत्साहित करते रहना आवश्यक है।

स्वाध्याय

आत्मा के शुद्ध स्वरूप का बोध हो, इस अभिप्राय से विधिपूर्वक स्वाध्याय करना प्रत्येक श्रावक का कत्र्तव्य है। आत्मज्ञान के बिना अनेक शास्त्रों का ज्ञान भी निरर्थक है और आत्मज्ञान के साथ अष्टप्रवचन मातृका का जघन्य श्रुतज्ञान भी इस जीव को अन्तर्मुहूर्त में सर्वज्ञ बना देता है अतः शास्त्र पढ़ते समय स्वकीय शुद्धस्वरूप की ओर लक्ष्य रखना चाहिये।सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र के बीच में सम्यग्ज्ञान को आचार्यों ने इसी उद्देश्य से रखा है कि वह सम्यग्दर्शन और सम्यक्चारित्र दोनों को बल पहँचाता है। संयम-बढ़ती हुई इच्छाओं को नियन्त्रित करना तथा हिंसादि पाँच पापों से विरक्ति होना संयम है। यह संयम इन्द्रियसंयम और प्राणिसंयम के भेद से दो प्रकार का है पाँच इन्द्रियों और मन की उद्दाम प्रवृति को रोकना इन्द्रियसंयम है और छह काय के जीवों की यथाशक्य रक्षा करना प्राणिसंयम है। जिस प्रकार लगाम के बिना घोड़ा स्वच्छन्दचारी हो जाता है उसी प्रकार संयम के बिना मनुष्य स्वच्छन्दचारी हो जाता है स्वच्छन्दचारी होना संसार को बढ़ाना है और संयम को धारण करना मोक्ष का मार्ग है। तप-शक्ति अनुसार अनशन, ऊनोदर आदि बाह्य तप तथा प्रायश्चित विनय आदि अन्तरंग तप धारण करना तप है। श्रावक अपने मन में मुनिव्रत धारण करने का भाव रखता है और मुनिव्रत तपश्चरण प्रधान होता है इसलिए अभ्यास के रूप में तपश्चरण करता हुआ गृहस्थ मुनिव्रत धारण करने का अभ्यास करता है। दान-आहार, औषध, ज्ञान और अभय के भेद से दान के चार प्रकार हैं गृहस्थ अपनी शक्ति के अनुसार इन चारोें प्रकार के दानों को देता है। गृहस्थ के दान से ही मुनिमार्ग चलता है इसलिये गृहस्थ को लोभ तथा उपेक्षाभाव का परित्याग कर दान देने में निरन्तर तत्पर रहना चाहिये। जिसके हृदय में परोपकार का भाव होता है उसी की दान में प्रवृत्ति होती है। जो दान, सन्मान के साथ तथा पात्र-अपात्र का विचार कर दिया जाता है, वह दाता और पात्र दोनों के लिये लाभदायक होता है।
 
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