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सकलकीर्ति भट्टारक और उनका पार्श्वनाथचरितम्

July 8, 2017साधू साध्वियांjambudweep

भट्टारक सकलकीर्ति और उनका पार्श्वनाथचरितम्


-डॉ. कमलेशकुमार जैन
पिर्श्व विघ्नविनाशको वृषजुषा पापार्श्वता धार्मिका:,
पाश्र्वेपार्श्वशु विलभ्यतेऽखिलसुखंपार्श्वय तस्मै नम:।
पार्श्वन्नास्त्यपरो हितार्थजनक: पापार्श्व मुक्ति: प्रिया,
पापार्श्वचित्तमहं दधे जिनप माँ शीघ्रं स्वपापार्श्वनय।।
 
भगवान महावीर स्वामी की परम्परा में दीक्षित दिगम्बर जैन मुनियों को कठोर साधना का सम्यक् निर्वाह न कर पाने तथा कालदोष के कारण भट्टारक-परम्परा का जन्म हुआ।
 
भट्टारक-परम्परा- यह भट्टारक-परम्परा दिगम्बर मुनियों की तुलना में अपनी आचारगत शिथिलता के कारण अपने उत्पत्ति काल से बहुप्रतिष्ठित न हो सकी, किन्तु परवर्ती काल में इसके द्वारा की गई जैनधर्म एवं जैन संस्कृति की प्रभावना तथा प्राचीन जैन साहित्य की सुरक्षा और नवीन तथा लोक कल्याणकारी साहित्य की संरचना के कारण अत्यधिक समादृत हुई है।
 
भट्टारक सकलकीर्ति-भट्टारक- परम्परा में भट्टारक सकलकीर्ति का नाम बहुत ही आदर के साथ लिया जाता है। इनका वैदुष्य एवं लोक प्रभाव इनकी साहित्य-सेवा से स्वत: प्रमाणित है। भट्टारक सकलकीर्ति वि.सं.१४४४ में ईडर की गद्दी पर बैठे थे और उनकी मृत्यु गुजरात के महसाना नामक स्थान पर वि.सं.१४९९ में हुई। उनका समाधिस्थल महसाना में बना हुआ है।जैन साहित्य का इतिहास (सिद्धांताचार्य पं. वैलाशचंद्र शास्त्री, भाग १ पृ.४५२) भट्टारक सकलकीर्ति संस्कृत भाषा के प्रौढ़ और प्रतिष्ठित विद्वान् थे। उनके द्वारा संस्कृत भाषा में लिखित उनतीस रचनाओं का उल्लेख मिलता है।तीर्थंकर महावीर और उनकी आचार्य परम्परा, भाग ३, पृ. ३२९-३३०। साथ ही राजस्थानी भाषा में निबद्ध लगभग पन्द्रह रचनाएँ. द्रष्टव्य जैन धर्म का प्राचीन इतिहास (परमानंद शास्त्री), भाग २, पृ.४९२-४९३ उनकी बहुमुखी प्रतिभा के दस्तावेज हैंं।
 
तिरेसठ शलाका-पुरूष- जैनधर्म में बारह चक्रवर्ती, नौ नारायण, नौ प्रति-नारायण, नौ बलभद्र और चौबीस तीर्थंकरों की गणना तिरेसठ शलाका पुरुषों अर्थात् श्रेष्ठ पुरुषों के रूप में की गई है और इन्हीं का जीवन-चरित लोक मंगल स्वरूप स्वीकार किया गया है। अत: इन्हीं महापुरूषों का चरित्र-चित्रण जैन पुराणों अथवा जैन काव्यों में सामान्य रूप से आदर्श मानकर चित्रित किया है।
 
उक्त तिरेसठ शलाका- पुरुषों के अतिरिक्त अन्य जिन महापुरुषों को जैन चरित-काव्यों में प्रमुख स्थान मिला है उनमें चौबीस कामदेवों का नाम उल्लेखनीय हैवादिराजकृत पार्श्वनाथचरित का समीक्षात्मक अध्ययन (डॉ. जयकुमार जैन) पृ. २। इन महापुरूषों के जीवन से ही हमें यह शिक्षा मिलती है कि ‘रामवद् वर्तिव्यं, न रावणादिवत्’- अर्थात् राम की तरह आचरण करना चाहिए, रावण आदि की तरह नहीं।
 
पापार्श्वथ-चरितम्- भट्टारक सकलकीर्ति ने अपने चरित काव्यों में जिन महापुरुषों के आदर्शमयी जीवन की झाँकी प्रस्तुत की है, उनमें भगवान पापार्श्वथ का लोक मंगलकारी जीवन-चरित ‘पापार्श्वथ-चरितम्’ के माध्यम से प्रस्तुत किया है।
 
भगवान पापार्श्वथ और कमठ- चौबीस तीर्थंकरों में भगवान पापार्श्वथ, तेईसवें तीर्थंकर के रूप में प्रतिष्ठित हैं। ये ऐतिहासिक महापुरूष हैं। पुराणों एवं काव्यों के माध्यम से ज्ञात होता है कि इनके पूर्व भवों का जीवन बहुत ही संघर्षमय रहा है। किन्तु भगवान पापार्श्वथ की सहनशीलता और इनके जन्म-जन्मान्तर के बैरी कमठ के जीव द्वारा छाया की तरह इनका प्रतिपल विरोध-दोनों ही आश्चर्यकारी हैं। कमठ का जीव बदले की भावना से निरंतर उपसर्ग करता है और भगवान पापार्श्वथ का जीव अपने पूर्वकृत कर्मों को उदय में आया जानकर उन उपसर्गों को शांतिपूर्वक सहता है। पूर्वकृत अच्छे या बुरे कर्मों की फल व्यवस्था का भगवान पापार्श्वथ के पूर्व भवों में और तीर्थंकर पर्याय में भी जैसा परिपाक हुआ है वह अत्यंत विरल है। इस कथानक से जैनदर्शन के कर्म-सिद्धांत की समंतात् पुष्टि होती है।
 
अहिंसा और हिंसा का संघर्ष- इस कथानक में एक साथ एक ओर अहिंसा और दूसरी ओर हिंसा, एक ओर क्षमा दूसरी ओर क्रोध, एक ओर भावों की सरलता और दूसरी ओर भावों की कुटिलता, एक ओर शांति का लहराता हुआ सिंधु और दूसरी ओर ज्वार-भाटा से संतप्त समुद्र का विकराल रूप आदि ऐसे कार्य हैं, जो नदी के दो तटों की भांति एक दूसरे से सर्वथा प्रतिकूल हैं। मरुभूति का जीव अहिंसा आदि संस्कृतियों का प्रतीक है और कमठ का जीव हिंसा का नग्न ताण्डव करता हुआ राक्षसी संस्कृति का मूर्तिमान् पिण्ड है।
 
श्रमण और वैदिक संस्कृति- यह वह संघर्षपूर्ण काल था जब एक ओर वैदिक संस्कृति के पुरोधा यज्ञ-यागादि में धर्म के नाम पर पशुओं की बलि का न केवल समर्थन करते थे, अपितु निरीह पशुओं की बलि चढ़ाकर स्वर्ग के दरवाजे खोलना चाहते थे और दूसरी ओर श्रमण संस्कृति के उन्नायक महापुरुष सर्वस्व त्यागकर प्राणिमात्र की रक्षा के लिए कृतसंकल्प थे। वस्तुत: कमठ का जीव और भगवान पापार्श्वथ का जीव उपर्युक्त वैदिक और श्रमण-इन दोनों संस्कृतियों के तत्कालीन संघर्ष के प्रतीक हैं, जिन्हें भट्टारक सकलकीर्ति ने ‘पापार्श्वथ-चरितम्’ में वर्णित भगवान पापार्श्वथ और कमठ के जीव के संघर्षमय जीवन के माध्यम से प्रस्तुत करने का सफल प्रयास किया है।
 
अनंतानुबंधी कषाय का परिपाक- जैनदर्शन में प्रतिपादित अनंतानुबंधी कषाय किस प्रकार जन्म-जन्मांतर तक बदला लेने को प्रेरित करती है, यह कमठ के जीव के पूर्वभवों एवं वर्तमान भव के क्रिया-कलापों से स्पष्ट होता है।
 
कमठ और मरुभूति- भट्टारक सकलकीर्ति द्वारा चरित ‘पापार्श्वथ-चरितम्’ भगवान पापार्श्वथ के इत:पूर्व नौ भवों एवं वर्तमान तीर्थंकर पर्याय की जीती-जागती कथा है। यह कथा पोदनपुर के महाराज अरविन्द के न्यायपूर्ण शासन एवं उनके मंत्री विश्वभूति नामक ब्राह्मण के उदात्त गुणों से प्रारंभ होती है। विश्वभूति और उसकी पत्नी अनुन्धरी से दो पुत्र हुये-कमठ और मरुभूति। कमठ विष के समान और मरुभूति अमृतोपम था। एक दिन विश्वभूति अपने मस्तक पर उगे हुये एक सफेद बाल को देखकर संसार से भयभीत हो गये और उन्होंने पुण्य के संयोग से उस सफेद केश के छल से धर्म का श्रेष्ठ अंकुर उत्पन्न हुआ माना, जो कालक्रम से चारित्र को उत्पन्न करने वाला है-
 
अथैकदा विलोक्याशु मस्तके पलितं कचम्। राजमंत्री ससंवेगं प्राप्येदं चिन्तयेद् हृद्।
अहो मे पुण्ययोगेन केऽभूद् धर्मांकुरो महान्। पलितच्छद्मना केशोऽयं चारित्रविधायक:।।
वही, १/७१-७२। ७. वही,१/८६-८९। ८. वही, १/९० ।
 
अपने चारित्र रूप संयम के द्वारा विश्वभूति का जीव कालक्रम से मुक्ति को प्राप्त हुआ। कमठ द्वारा कुशील सेवन एवं उसका दुष्परिणाम-उधर राजा अरविन्द और मरुभूति के युद्ध में चले जाने के पश्चात् कमठ के जीव ने काम-वासना से प्रेरित हो जब अपने अनुज की पत्नी का सेवन करना चाहा तो कवि ने उसके मित्र कलहंस के माध्यम से अनुज-वधु के सेवन रूप निकृष्ट कार्य की निंदा की है और उसके दुष्परिणामों का उल्लेख करते हुए अधोगति का भय दिखलाया है कि परस्त्री के लम्पट वे पापी मूर्ख राजा वध-बन्धन आदि प्राप्त कर दुर्गति रूपी समुद्र में निमग्न होते हैं। जो मनुष्य इस लोक में अन्य स्त्रियों का आलिंगन करते हैं, वे नरक में तपाये हुए लोहे की पुतलियों के आलिंगन को प्राप्त होते हैं और इस लोक में राजा के द्वारा सर्वस्व हरण और प्राणदण्ड आदि प्राप्त करते हैं।७ कवि ने रावण आदि के उदाहरण देकर कुशील सेवन की अभिलाषा करने वाले को महापाप का भागी एवं नरकगामी बतलाया है।८ किन्तु जिस प्रकार अन्ध पुरुष के सामने नृत्य, क्षीण आयु वाले पुरुष को प्रदत्त औषधि और रागी पुरुष को दिया गया हितकारी धर्म का उपदेश व्यर्थ होता है, उसी प्रकार पाप को नष्ट करने वाले धर्म के सूचक और अनाचार को नष्ट करने वाले कलहंस नामक मित्र के सारपूर्ण समस्त वचन कमठ के पाप से व्यर्थ हो गये। वही,१/-९३-९४। १०. वही, २/२८-३८, ४/९ ११. वही, ३/३७-४९, ५/१०-११, १७/२८-३२। यहाँ कवि ने कमठ के द्वारा सेवित कुशील और उसके परिणामस्वरूप अनेक कुगतियों को प्राप्त होने वाले कमठ के जीव का क्रमश: अनेक सर्गों में विवेचन किया है और स्पष्ट किया है कि कुशील ही वह मूलाधार है जिस पर कमठ के जीव का आगामी भवों का निकृष्ट एवं पापमय जीवन का ढांचा खड़ा हुआ है।
 
भगवान पार्श्वनाथ के दश भव- तेईस सर्गों में विभक्त यह ‘पापार्श्वथ-चरितम्’ एक उत्कृष्ट महाकाव्य है, जो पुराण एवं काव्य-इन दोनों शैलियों में गुम्फित किया गया है। इसके प्रारम्भिक नौ सर्गों में भगवान पापार्श्वथ के प्रथम नौ भवों-मरुभूति, वङ्काघोष हाथी, सहस्रार स्वर्ग का देव शशिप्रभ, अग्निवेग विद्याधर, अच्युत स्वर्ग का देव विद्युत्प्रभ, वङ्कानाभि चक्रवर्ती, मध्यम ग्रैवेयक में अहमिन्द्र, आनंद राजा और आनत स्वर्ग के देव रूप का विवेचन किया गया है। तदनंतर दशम स्वर्ग में काशी के महाराज विश्वसेन और उनकी प्राणप्रिया ब्राह्मी से कुमार पापार्श्व जन्म होने से पूर्व देवोें द्वारा रत्नवृष्टि आदि और ग्यारहवें सर्ग से तेईसवें सर्ग तक भगवान के गर्भ-जन्म, जन्माभिषेक, कुमार द्वारा आभूषणों को धारण करना और आनंद नामक नाटक खेलना, बालक्रीड़ा एवं वैराग्योत्पत्ति, अनुप्रेक्षाओं का चिंतवन, दीक्षा वर्णन, केवलज्ञानोत्पत्ति, समवसरण रचना, गणधरों द्वारा विविध प्रश्न, भगवान द्वारा तत्त्वोपदेश एवं विविध कर्मों से प्राप्त होने वाले फलों के विवेचन, भगवान पाश्र्वपार्श्व विहार और अंत में मोक्ष-गमन का क्रमश: वर्णन किया गया है।
 
धर्म का सेवन हितकारी- भट्टारक सकलकीर्तिकृत प्रस्तुत पार्श्वनाथचरितम्’ पर समग्र दृष्टि से विचार करने पर ज्ञात होता है कि कवि ने भगवान पार्श्वनाथ के समग्र जीवन और मुनिधर्म का विवेचन किया है। कवि का मानना है कि जिस प्रकार जगत् में चतुर मनुष्यों के द्वारा कार्य की सिद्धि के लिए सेवक का पालन किया जाता है उसी प्रकार ग्रास मात्र के दान से राग के बिना शरीर का पालन करना चाहिए। शरीर का चाहे पोषण किया जाये अथवा शोषण, वह अवश्य ही मृत्यु को प्राप्त होता हैै। अत: मुक्ति प्राप्ति के लिए उसका सम्यक् प्रकार से शोषण करना अर्थात् अंत समय में सल्लेखना आदि धारण करना ही श्रेष्ठ है। क्योंकि संसार में दु:ख की ही प्रबलता हैै, कोई सुखी नहीं है।१४ अत: धर्म का सेवन करना ही हितकारी है। धर्म विविध प्रकार से पापों को हरने वाला है, मुक्ति रूपी स्त्री को देने वाला है, अनंत सुख का सागर है, अत्यंत निर्मल है, अभिलषित पदार्थों का दाता है, समस्त लक्ष्मियों का पिता है, अनंत गुणों को देने वाला है, तीर्थंकर की विभूति का दायक है और चक्रवर्ती तथा इन्द्र के पद आदि को प्रदान करने वाला है।१५

अचेतन जिन-प्रतिमा की पूजा से पुण्य-प्राप्ति

अनेक प्रश्नों का समाधान भी इस ग्रंथ में किया गया है। अचेतन जिन-प्रतिमा की पूजा पुण्य का कारण कैसे होती है? इसका समाधान करते हुए कवि का कहना है कि-जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा तथा मंदिर आदि भव्य जीवों के पुण्य का कारण नियम से हैं, इसमें संशय नहीं। जिनेन्द्र भगवान के उत्तम बिम्ब आदि का दर्शन करने वाले धर्माभिलाषी भव्य जीवों के परिणाम तत्काल शुभ-श्रेष्ठ होते हैं। जिनेन्द्र भगवान का सादृय रखने वाली महाप्रतिमाओं के दर्शन से साक्षात् जिनेन्द्र भगवान का स्मरण होता है, निरंतर उनका साक्षात् ध्यान होता है और उसके फलस्वरूप पापों का निरोध होता है। शस्त्र, आभरण, वस्त्रादि, विकार पूर्ण आकार, रागादिक महान् दोष और व्रूरता आदि अवगुणों का समूह जिस प्रकार पृथिवीतल पर जिनप्रतिमाओं में नहीं है उसी प्रकार धर्मतीर्थ प्रवृत्ति करने वाले श्री जिनेन्द्र देव में नहीं है। साम्यता आदि गुण तथा कीर्ति, कांति और शांति आदि विशेषतायें जिस प्रकार जिनबिम्ब में दिखलाई देती हैं उसी प्रकार श्री जिनेन्द्र देव में विद्यमान हैं। जिस प्रकार जिनप्रतिमाओं में मुक्ति का साधनभूत स्थिर वङ्काासन और नासाग्रदृष्टि देखी जाती है उसी प्रकार धर्म के प्रवर्तक जिनेंद्र देव में वे सब विद्यमान हैं। इस प्रकार तीर्थंकर प्रतिमाओं के लक्षण देखने से उनकी भक्ति करने वाले पुरुषों को तीर्थंकर भगवान का परम निश्चय होता है अर्थात् वस्त्राभूषण तथा राग-द्वेषसूचक अन्य चिंहों से रहित जिन-प्रतिमाओं के दर्शन से वीतराग सर्वज्ञ देव के यथार्थ स्वरूप का ज्ञान होता है। इसलिए उन जैसे परिणाम होने से तथा उनका ध्यान और स्मरण आने से तथा उनका निश्चय होने से धर्मात्माजनों को महान् पुण्य होता है। पुण्योदय से इस लोक में पुण्यशाली जनों की इस भव तथा परभव में त्रिलोक संबंधी सभी अभिलाषित पदार्थों की सिद्धियाँ सम्पन्न होती हैं। अत: तीर्थंकर प्रतिमाओं की भक्तिपूर्वक पूजा करने से सत्पुरुषों को समस्त मनोवांछित फल पृथिवी तल पर तथा स्वर्ग लोक में प्राप्त होते हैं। जिस प्रकार दशांग कल्पवृक्ष दान चाहने वाले पुरुषों को संकल्पित महान् भोग देते हैं उसी प्रकार पूजी हुई जिनप्रतिमाएँ पूजा करने वाले पुरुषों को महान् भोग देती हैं। जिस प्रकार चिन्तामणि रत्न सत्पुरुषों को मन से चिन्तित पदार्थ देता है उसी प्रकार अचेतन प्रतिमा भी भक्ति करने वालों को मन से चिन्तित पदार्थ देती है। जिस प्रकार अचेतन मणि, मंत्र, औषधि आदि विष तथा रोगादिक को नष्ट करते हैं उसी प्रकार अचेतन प्रतिमाएँ भी पूजा-भक्ति करने वाले पुरुषों के विष तथा रोगादिक को नष्ट करती हैं।
 
अन्य विविध वर्णन- उपर्युक्त के अतिरिक्त कवि ने अन्य अनेक विषयों का समायोजन अपने इस ग्रंथ में किया है। कवि का कहना है कि-गृहस्थ धर्म का ठीक-ठीक पालन करने से प्राणियों को सोलह स्वर्ग तक की प्राप्ति होती है और क्रम से सुख के सागर स्वरूप निर्वाण को प्राप्त होते हैं। धर्म से अर्थ, अर्थ से काम और क्रम से मोक्ष प्राप्त होता है। प्रसंग प्राप्त होने पर कवि ने अन्य जिन विषयों का विवेचन किया है, उनमें दश धर्म सम्यग्दर्शन के आठ अंग, षोडशकारण भावनाएँ, सोलह स्वप्न, स्वप्नों का फल, देवियाँ द्वारा तीर्थंकर की माता से अनेक प्रश्न और माता द्वारा उनके उत्तर, प्रहेलिका, क्रिया गुप्ति, और निरोष्ठ्य काव्य की रचना , मेरु पर्वत एवं पाण्डुकशिला का वर्णन, आनंद नाटक, पार्श्वनाथ भगवान के शरीर के एक सौ आठ लक्षण, द्वादशानुप्रेक्षा,पंच महाव्रत, पंच महाव्रतों की पाँच-पाँच भावनायें, ऐरावत हाथी, समवसरण, कौन कर्म से जीव क्या प्राप्त करता है, इसका विस्तार से विवेचन और भगवान के १०८ सार्थक नामों की सूची विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इन विषयों के विवेचन से इतना तो स्पष्ट है कि कवि ने इस ‘पार्श्वनाथचरितम्’ में यद्यपि भगवान पार्श्वनाथ के दश भवों का विशेष रूप से वर्णन किया है, किन्तु भिन्न-भिन्न प्रसंगों में जैनधर्म एवं दर्शन के अनेक गूढ़ सिद्धांतों तथा आचार संबंधी विषयों का सांगोपांग वर्णन करने से पाठक मात्र इसी ग्रंथ के अध्ययन से संक्षेप में जैनधर्म के विविध पक्षों को हृदयंगम कर सकता है।
 
कमठ के वैर का अंत और सम्यग्दर्शन की प्राप्ति- कवि ने अंत में भगवान के दिव्य उपदेश के प्रभाव का उल्लेख करते हुए लिखा है कि—कमठ के जीव उस ज्योतिष्क देव ने भगवान की दिव्य-ध्वनि रूपी अमृत को पीकर अनंत भव से उत्पन्न मिथ्या वैर रूपी विष को नष्ट कर दिया तथा जगत् के स्वामी श्री पार्श्व जिनेन्द्र को नमस्कार कर चंद्रमा के समान निर्मल, शंकादि दोषों से रहित मुक्ति के उत्कृष्ट बीज स्वरूप सम्यग्दर्शन का ग्रहण किया। इससे स्पष्ट है कि महापापी जीव भी जिनेन्द्र वाणी के प्रभाव से आत्म-कल्याण करने में समर्थ है।
 
भगवान पार्श्वनाथ का लोकव्यापी प्रभाव- लोक में पूजा और प्रतिष्ठा वही व्यक्ति प्राप्त करता है जो जन-जन के कल्याण की भावना से प्रेरित होकर लोकमंगल के कार्य करता है। यत: भगवान् पार्श्वनाथ ने केवलज्ञान की प्राप्ति के पश्चात् कुरु, कौशल, काशी, सह्य, पुण्ड्र, मालव, अंग, बंग, कलिंग, पंचाल, मगध, विदर्भ, भद्रदेश तथा दशार्ण आदि अनेक स्थानों में विहार करके जीवों को सन्मार्ग का उपदेश दिया था, अत: वे जन-जन के प्रिय बन गये। उनका प्रभाव लोकव्यापी हो गया। वे लोक पूजित हो गये। भगवान पार्श्वनाथ के लोकव्यापी प्रभाव का उल्लेख करते हुए श्री बलभद्र जैन ने लिखा है कि-भगवान पार्श्वनाथ का सर्वसाधारण पर कितना प्रभाव था, यह आज भी बंगाल, बिहार, उड़ीसा में फैले हुए लाखों सराकों, बंगाल के मेदिनीपुर जिले के सद्गोपों, उड़ीसा के रंगिया जाति के लोगों, अलक बाबा आदि के जीवन-व्यवहार को देखने से चलता है। यद्यपि भगवान पार्श्वनाथ को लगभग पौने तीन हजार वर्ष व्यतीत हो चुके हैं और ये जातियाँ किन्हीं बाध्यताओं के कारण जैनधर्म का परित्याग कर चुकी हैं, किन्तु आज भी ये जातियाँ पार्श्वनाथ को अपना आद्य कुलदेवता मानती हैं। पार्श्वनाथ के उपदेश परम्परागत रूप से इन जातियों के जीवन में अब तक चले आ रहे हैं। पार्श्वनाथ के सिद्धांतों के संस्कार इनके जीवन में गहरी जड़ जमा चुके हैं। इसलिये ये लोग अहिंसा में पूर्ण विश्वास करते हैं, माँस भक्षण नहीं करते, जल छानकर पीते हैं, जैन तीर्थों की यात्रा करते हैं, अरिष्टनेमि, पार्श्वनाथ और महावीर की उपासना करते हैं। आगे वे लिखते हैं कि उनके लोक-व्यापी प्रभाव का ही यह परिणाम है कि तीर्थंकर मूर्तियों में सर्वाधिक मूर्तियाँ पार्श्वनाथ की ही उपलब्ध होती हैं और उनके कारण पद्मावती देवी की भी इतनी ख्याति हुई कि आज भी शासन-देवियोें में सबसे अधिक मूर्तियाँ पद्मावती की ही मिलती हैंं। इसी प्रसंग में दिल्ली के दिगम्बर जैन लाल मंदिर और वाराणसी के भेलूपुर स्थित दिगम्बर जैन मंदिर में स्थापित पद्मावती देवी की मूर्तियों की पूजा-प्रतिष्ठा भी उल्लेखनीय है। साथ ही अन्य अनेक नगरों के जैन मंदिरों में पद्मावती देवी की स्थापना के मूल में भी भगवान पार्श्वनाथ का लोकव्यापी प्रभाव ही कारण है। ‘पद्मावती कल्प’ आदि ग्रंथों की रचना और उनके माध्यम से तंत्र-मंत्रों की सिद्धि द्वारा लौकिक सम्पत्ति की प्राप्ति आदि के मूल में भी भगवान पार्श्वनाथ की ही भक्ति कारण कही जा सकती है। ऐसे लोक पूजित भगवान पार्श्वनाथ की शतश: वंदना करता हुआ मैं अपनी बात समाप्त करता हूँ। 
 
Tags: Ancient Aacharyas, Muni
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