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09. सप्त परमस्थान

July 15, 2017BooksHarsh Jain

सप्त परमस्थान


सज्जाति: सद्गृहस्थत्वं पारिव्राज्यं सुरेन्द्रता। ‘
साम्राज्यं परमार्हन्त्यं निर्वाणं चेति सप्तधा।।
१. सज्जाति,
२. सद्गृहस्थता (श्रावक के व्रत),
३. पारिव्राज्य (मुनियों के व्रत)
४. सुरेन्द्रपद,
५. साम्राज्य (चक्रवर्तीपद),
६. अरहंतपद और
७. निर्वाणपद ये सात परमस्थान कहलाते हैं। सम्यग्दृष्टि जीव क्रम–क्रम से इन परमस्थान को प्राप्त कर लेता है। इन्हें कर्तृन्वय क्रिया भी कहते हैं । इन सप्त परमस्थान  का कर्तृन्वय क्रियाओं के नाम से आदि पुराणआदिपुराण पर्व ३९, पृ० २७७ । में सुन्दर विवेचन देखा जाता है।

(१) सज्जाति परमस्थान

‘‘ इन क्रियाओं में कल्याण करने वाली सबसे पहली क्रिया सज्जाति है जो कि निकट भव्य को मनुष्य जन्म की प्राप्ति होने पर होती है। ‘‘ दीक्षा धारण करने योग्य उत्तम वंश में विशुद्ध जन्म धारण करने वाले मनुष्य के सज्जाति नाम का परमस्थान ता है। विशुद्ध कुल और विशुद्ध जाति रूपी संपदा सज्जाति है। इस सज्जाति से ही पुण्यवान् मनुष्य उत्तरोत्तर उत्तम—उत्तम वंशों को प्राप्त होता है। पिता के वंश की जो शुद्धि है उसे कुल कहते हैं और माता के वंश की शुद्धि जाति कहलाती है। कुल और जाति इन दोनों की विशुद्धि को ‘सज्जाति’ कहते हैं, इस सज्जाति के प्राप्त होने पर बिना प्रयत्न के सहज ही प्राप्त हुये गुणों से रत्नत्रय की प्राप्ति सुलभ हो जाती है ।
 
’’स नृजन्मपरिप्राप्तौ दीक्षायोग्ये सदन्वये।
विशुद्धं लभते जन्म सैषा सज्जातिरिष्यते ।।८३।।
 
पितुरन्वयशुद्धिर्या तत्कुलं परिभाष्यते।
मातुरन्वयशुद्धिस्तु जातिरित्यभिलप्यते ।।८५।।
 
विशुद्धिरुभयस्यास्य सज्जातिरनुवर्णित।
यत्प्राप्तौ सुलभा बोधियत्नोपनतैर्गुणै:।।८६।। आदिपु० पर्व३९।
 
आर्यखंड की विशेषता से सज्जातित्व की प्राप्ति शरीर आदि योग्य सामग्री मिलने पर प्राणियों के अनेक प्रकार के कल्याण उत्पन्न करती है। यह सज्जाति उत्तम शरीर के जन्म से ही वर्णन की गई है क्योंकि पुरुषों के समस्त इष्ट पदार्थों की सिद्धि का मूलकारण यही एक सज्जाति है। संस्काररूप जन्म से जो सज्जाति का वर्णन है। वह दूसरी सज्जाति है उसे पाकर भव्य जीव द्विजन्मा कहलाता है। अर्थात् प्रथम उत्तम वंश में जन्म यह एक सज्जाति हुई पुन: व्रतों के संस्कार से संस्कारित होना यह द्वितीय जन्म माना जाने से उस भव्य की ‘द्विज’ यह संज्ञा अन्वर्थ हो जाती है। जिस प्रकार विशुद्ध खान में उत्पन्न हुआ रत्न संस्कार के योग से उत्कर्ष को प्राप्त होता है उसी प्रकार क्रियाओं और मंत्रों से सुसंस्कार को प्राप्त हुआ आत्मा भी अत्यंत उत्कर्ष को प्राप्त हो जाता है। यहाँ विशेष बात समझने की यह है कि जाति व्यवस्था को माने बिना ‘सज्जातित्व’ नहीं बन सकती । इसी बात को श्री गुणभद्राचार्य कहते हैं—
 
१. आदिपुराण पर्व ३९, पृ० २७७ ।
 
२. स नृजन्मपरिप्राप्तौ दीक्षायोग्ये सदन्वये।
विशुद्धं लभते जन्म सैषा सज्जातिरिष्यते ।।८३।।
 
पितुरन्वयशुद्धिर्या तत्कुलं परिभाष्यते।
मातुरन्वयशुद्धिस्तु जातिरित्यभिलप्यते ।।८५।।
 
विशुद्धिरुभयस्यास्य सज्जातिरनुवर्णित।
यत्प्राप्तौ सुलभा बोधियत्नोपनतैर्गुणै:।।८६।। आदिपु० पर्व३९।
 
‘जिनमें शुक्लध्यान के लिये कारण ऐसे जाति गोत्र आदि कर्म पाये जाते हैं वे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ऐसे तीन वर्ण हैं। उनसे अतिरिक्त शेष शूद्र कहे जाते हैं। विदेह क्षेत्र में मोक्ष जाने के योग्य जाति का कभी विच्छेद नहीं होता क्योंकि वहीं उस जाति में कारणभूत नाम और गोत्र से सहित जीवों की निरंतर उत्पत्ति होती रहती है परन्तु भरत और ऐरावत क्षेत्र में चतुर्थकाल में ही जाति की परंपरा चलती है अन्य कालों में नहीं। जिनागम में मनुष्यों का वर्ण विभाग इस प्रकार बतलाया गया है । ’
 
जातिगोत्रादिकर्माणि शुक्लध्यानस्य हेतव: ।
येषु ते स्युस्त्रयो वर्णों: शेषा: शूद्रा: प्रकीर्तिता: ।।४९३।।
 
अच्छेद्यो मुक्तियोग्याया विदेहे जातिसंतते:।
तद्धतुनामगोत्राढ्यजीवाविच्छित्रयंभवात् ।।४९४।।
 
शेषयोस्तु चतुर्थे स्यात्काले तज्जातिसंतति:।
एवं वर्णविभाग: स्यान्मनुष्येषु जिनागमे।।४९५।। उत्तरपुराण, पर्व ७४।
 
कृतयुग की आदि में जब प्रजा भगवान् के सामने अपनी आजीविका की समस्या लेकर आई तब भगवान् ने उसे आशवासन देकर विचार किया— ‘ पूर्व और पश्चिम विदेह क्षेत्र में जो स्थिति वर्तमान में है वही स्थिति आज यहाँ प्रवृत्त करने योग्य है उसी से यह प्रजा जीवित रह सकती है। वहाँ जैसे असि, मषि आदि षट्कर्म हैं, जैसे क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र इन तीन वर्णों की स्थिति है और जैसी ग्राम, घर, नगर आदि की रचना है वह सब यहाँ पर भी होनी चाहिये । अनंतर भगवान् के स्मरण मात्र से देवों के साथ सौधर्म इंद्र वहाँ आया और उसने शुभ मुहूर्त में जगद्गुरु भगवान् की आज्ञानुसार मांगलिक कार्य पूर्वक अयोध्या के बीच में ‘जिन मंदिर’ की रचना की। पुन: सर्व ग्राम नगर आदि की रचना कर प्रजा को बसाकर चला गया।
 
पूर्वापरविदेहेषु या स्थिति: समवस्थिता।
साद्य प्रवर्तनीयात्र ततो जीवान्त्यमू: प्रजा: ।।१४३।।
 
षट्कर्माणि यथा तत्र यथा वर्णाश्रमस्थिति: ।
यथा ग्रामगृहादीनां संस्त्यायाश्चं पृथग्विधा:।।१४४।। आदिपुराण, पर्व १६।
 
‘ पुन: भगवान् ने असि, मषि आदि षट्कर्मों का उपदेश देकर क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र इन तीन वर्णों की स्थापना की। उस समय प्रजा अपने वर्ण की निश्चित आजीविका को छोड़कर अन्य आजीविका नहीं करती थी इसलिये उनके कार्यों में कभी संकर (मिलावट) नहीं होती थी। उनके विवाह, जाति सम्बन्ध तथा व्यवहार आदि सभी कार्य भगवान् की आज्ञानुसार ही होते थेआदिपुराण पर्व १६, पृ० ३६२, ३६३।।’ अर्थात् इस कर्मभूमि की आदि में भगवान् वृषभदेव ने अपने अवधिज्ञान के बल से विदेह क्षेत्र की अनादिनिधन कर्मभूमि की व्यवस्था को देखकर उसी के सदृश ही यहाँ सब व्यवस्था बनाई थी। अत: जैसे इस भरतक्षेत्र में मोक्षमार्ग की व्यवस्था सादि है भोगभूमि में या प्रथम, द्वितीय, तृतीय तथा पंचम और छठे काल में मोक्ष नहीं होता है वैसे ही यह वर्ण व्यवस्था भी सादि है फिर भी इसके बिना मोक्ष नहीं है।
 
१. जातिगोत्रादिकर्माणि शुक्लध्यान स्य हेतव: ।
येषु ते स्युस्त्रयो वर्णा: शेषा: शूद्रा: प्रकीर्तिता: ।।४९३।।
 
अच्छेद्यो मुक्तियोग्याया विदेहे जातिसंतते:।
तद्धतुनामगोत्राढ्यजीवाविच्छित्रयंभवात् ।।४९४।।
 
शेषयोस्तु चतुर्थे स्यात्काले तज्जातिसंतति:।
एवं वर्णविभाग: स्यान्मनुष्येषु जिनागमे।।४९५।। उत्तरपुराण, पर्व ७४।
 
२. पूर्वापरविदेहेषु या स्थिति: समवस्थिता।
साद्य प्रवर्तनीयात्र ततो जीवान्त्यमू: प्रजा: ।।१४३।।
 
षट्कर्माणि यथा तत्र यथा वर्णाश्रमस्थिति: ।
यथा ग्रामगृहादीनां संस्त्यायाश्चं पृथग्विधा:।।१४४।। आदिपुराण, पर्व १६।
 
३. आदिपुराण पर्व १६, पृ० ३६२, ३६३।
 
स्वयं कुंदकुंददेव भी कहते हैं— ‘देश, कुल, जाति से शुद्ध, विशुद्ध मन—वचन—काय से संयुक्त ऐसे हे गुरुदेव । तुम्हारे चरणकमल हमारे लिये हमेशा मंगलमयी होवें ।’देसकुलजाइसुद्धा विसुद्धमणवयकायसंजुत्ता। तुह्मं पायपयोरुहमहि मंगलमत्थु में णिच्चं ।। (श्री कुन्दकुन्दकृत आचार्यभक्ति) जातिव्यवस्था को स्वीकार करने पर ही जाति से शुद्ध यह विशेषण सार्थक होता है । सिद्धांतचक्रवर्ती श्री नेमिचंद्राचार्य भी कहते हैं— ‘दुर्भाव, अशुचि, सूतक—पातक दोष से युक्त, रजस्वला स्त्री और जातिसंकर आदि दोष से दूषित लोग यदि दान देते हैं तो वे कुभोगभूमि में जन्म लेते हैं। तथा जो कुपात्र में दान देते हैं वे भी कुभोगभूमि में जन्म लेते है।
 
’दुब्भावअसुयसूदगपुप्फवईजाइसंकरादीहिं ।
कयदाणा वि कुवत्ते जीवा कुणरेसु जायंते ।।९१४।।
 
(त्रिलोकसार) जाति व्यवस्था मानने पर ही ‘जातिसंकर’ दोष बनेगा अन्यथा नहीं । उपासकाध्ययन में भी कहा है— ‘जैसे माता—पिता के शुद्ध होने पर संतान की शुद्धि देखी जाती है। वैसे ही आप्त के निर्दोष होने पर उनका कहा हुआ आगम निर्दोष माना जाता है।
 
 पित्रो: शुद्धौ यथापत्ये विशुद्धिरिह दृश्यते ।
तथाप्तस्य विशुद्धत्वे भवेदागमशुद्धता।।९६।। उपासकाध्ययन, पृ० २६।
 
‘ द्रव्य, दाता और पात्र की विशुद्धि होने पर ही विधि शुद्ध हो सकती है क्योंकि सैकड़ों संस्कार से भी शूद्र ब्राह्मण नहीं हो सकता है।
 
’तद् द्रव्यदातृपात्राणां विशुद्धौ विधिशुद्धता।
यत्संस्कारशतेनापि नाजातिद्र्विजतां व्रजेत् ।।३०८।। उपासका०, पृ० १३९।
 
उत्तर पुराण में एक कथा आती है कि ‘ जब सत्यभामा ब्राह्मणी को यह मालूम हुआ कि मेरा पति कपिल, ब्राह्मण न होकर दासी पुत्र है तो वह ब्रह्मचर्यव्रत लेकर राजा की शरण में गई। राजा ने सोचा कि ‘ पापी और विजातीय के लिये न करने योग्य कुछ भी नहीं है। इसलिये राजा लोग कुलीन मनुष्यों का ही संग्रह करते है।
 
 पापिष्ठानां विजातीनां नाकार्यं नाम किञ्चन ।
एतदर्थं कुलीनानां नृपा: कुर्वंति संग्रहम् ।। उत्तरपुराण, पृ० १६१।
 
ऐसा समझकर राजा ने उस मायावी कपिल को दंड़ित किया। ऐसे ही गुणभद्रसूरि ने बताया है कि ‘ एक समय एक मुनि वेश्या के दरवाजे की तरफ से निकले तब वेश्या ने विनय से निवेदन किया—हे मुने! मेरा कुलदान देने योग्य नहीं है। इस तरह अपने कुल की निंदा करती हुई वह पूछती है भगवन्! उत्तम कुल और रूपादि इस जीव को किन कार्यों से मिलते हैं ? तब मुनि ने कहा हे भदे्र! मद्य, मांस आदि के त्याग करने से उत्तम कुल आदि की प्राप्ति होती है ।
 
’दानयोग्यकुला नाहमस्सीत्यात्मानमुच्छुचा ।
निंदन्ती वाढमप्राक्षीत् मुने कथय जन्मिनाम् ।।२६०।।
 
कुलरूपादय: केन जायंते संस्तुता इति।
मद्यमांसादिकत्यागादित्युदीर्य मुनिश्च स:।।२६१।। उत्तरपुराण, पर्व, ५९।
 
इसलिये सोमदेवसूरि कहते हैं—
 
१. देसकुलजाइसुद्धा विसुद्धमणवयकायसंजुत्ता ।
तुह्मं पायपयोरुहमहि मंगलमत्थु में णिच्चं ।। (श्री कुंदकुंदकृत आचार्यभक्ति)
 
२. दुब्भावअसुयसूदगपुप्फवईजाइसंकरादीहिं ।
कयदाणा वि कुवत्ते जीवा कुणरेसु जायंते ।।९१४।। (त्रिलोकसार)
 
३. पित्रो: शुद्धौ यथापत्ये विशुद्धिरिह दृश्यते ।
तथाप्तस्य विशुद्धत्वे भवेदागमशुद्धता।।९६।। उपासकाध्ययन, पृ० २६।
 
४. तद् द्रव्यदातृपात्राणां विशुद्धौ विधिशुद्धता।
यत्संस्कारशतेनापि नाजातिद्र्विजतां व्रजेत् ।।३०८।। उपासका०, पृ० १३९।
 
५. पापिष्ठानां विजातीनां नाकार्यं नाम किञ्चन ।
एतदर्थं कुलीनानां नृपा: कुर्वंति संग्रहम् ।। उत्तरपुराण, पृ० १६१।
 
६. दानयोग्यकुला नाहमस्सीत्यात्मानमुच्छुचा ।
निंदन्ती वाढमप्राक्षीत् मुने कथय जन्मिनाम् ।।२६०।।
 
कुलरूपादय: केन जायंते संस्तुता इति।
मद्यमांसादिकत्यागादित्युदीर्य मुनिश्च स:।।२६१।। उत्तरपुराण, पर्व, ५९। 
 
मनुष्यों की क्रियायें शुद्ध होने पर भी यदि उनके आप्त और आगम निर्दोष नहीं हैं तो उन्हें उत्तम फल की प्राप्ति नहीं हो सकती है। जैसे कि क्रियायें शुद्ध होने पर भी विजाति लोगों से कुलीन संतान रूप उत्तम फल की प्राप्ति नहीं हो सकती है।’
 
आप्तागमाविशुद्धत्वे क्रिया शुद्धापि देहिषु ।
नाभिजातफलप्राप्त्यै विजातिष्विव जायते ।।१७८।।उपासकाध्ययन, पृ० ६१।
 
अत: आचार्य आदेश देते हैं कि— ‘ धर्मभूमि में स्वभाव से ही मनुष्य कम कामी होते हैं । अत: अपनी जाति की विवाहित स्त्री से ही संबंध करना चाहिये। अन्य कुजातियों की स्त्रियों से, बंधु—बांधवों की तथा व्रती स्त्रियों से भी संबंध नहीं करना चाहिये।
 
धर्मभूमौ स्वभावन मनुष्यो नियतस्मर: ।
यज्जात्यैव पराजातिबंधुलिंगिस्त्रियस्त्यजेत् ।।४०६।।
यही कारण है कि जीवंधर कुमार ने गायों के जीतने के बाद ग्वालसरदार की कन्या गोविंदा को स्वयं न वरण कर अपने मित्र पद्मास्य को ही उसके योग्य समझा और उसके साथ विवाह कराया।’गद्यचिंतामणि ।
श्री रविषेणाचार्य कहते हैं—  १. कुल, २. शील, ३. धन, ४. रूप, ५. समानता, ६. बल, ७. अवस्था, ८. देश, ९. विद्यागम ये नौ गुण वर के कहे गये हैं तथापि उत्तम पुरुष इन सभी गुणों में एक कुल को ही श्रेष्ठगुण मानते हैं। परन्तु वही कुल नाम का गुण जिस वर में न हो भला उसे कन्या कैसे दी जा सकती है।
 
कुलं शीलं धनं रुपं समानत्वं बलं वय:।
देशो विद्यागमश्चेति यद्युप्युक्ता वरे गुण: ।।१४।।
 
तथापि तेषु सर्वेषु संतोऽभिजनमेककम् ।
वरिष्ठमनुरुध्यन्ते शेषेषु तु मन: समम् ।।१५।।
 
स च न ज्ञायते यस्य वरस्य प्रथमो गुण: ।
कथं प्रदीयते तस्मै कन्या मान्या समंतत: ।।१६।। पद्मपुराण, सर्व १०१।
 
यही कारण है कि जब सुग्रीव की भार्या सुतारा के महल में साहसगति विद्याधर कृत्रिम सुग्रीव का रूप बनाकर घुस आया और सत्य सुग्रीव के आ जाने के बाद जब मंत्री लोग सत्य और मायावी का निर्णय नहीं कर सके। तब उन लोगों ने विचार किया कि— ‘ लोक में गोत्रशुद्धि अत्यंत दुर्लभ है इसलिये उसके बिना बहुत भारी राज्य से भी प्रयोजन नहीं है। निर्मल गोत्र पाकर ही शीलादि आभूषणों से भूषित हुआ जाता है इसलिये इस निर्मल अंतःपुर की यत्नपूर्वक रक्षा करनी चाहिये।
 
अत्यंतदुर्लभा लोके गोत्रशुद्धिस्तया बिना।
नितान्तपरमेणापि न राज्येन प्रयोजनम्।।६४।।
 
संप्राप्य निर्मलं गोत्रं भव्यं शीलादिभूषितै: ।
तस्मादन्त:पुरं यत्नादिदं रक्षयं सुनिर्मलम् ।।६५।।पद्मपु०, पर्व ४७ ।
 
इसीलिये तो भारतीय संस्कृति में विधवा विवाह का सर्वथा निषेध है। जब चन्द्रनखा को खरदूषण ने हरण कर लिया तब रावण के कुपित होने पर मंदोदरी कहती है— ‘ यदि किसी तरह वह खरदूषण मारा भी गया तो हरण के दोष से दूषित कन्या अन्य दूसरे को नहीं दी जा सकेगी उसे तो मात्र विधवा ही रहना पड़ेगा ।
 
’कथंचिच्च हतेऽप्यस्मिन् कन्याहरणदूषिता ।
अन्यस्मै नैव विश्राण्या केवलं विधवीभवेत् ।।३६।। पद्मपु०, पर्व,९।
 
१. आप्तागमाविशुद्धत्वे क्रिया शुद्धापि देहिषु ।
नाभिजातफलप्राप्त्यै विजातिष्विव जायते ।।१७८।।उपासकाध्ययन, पृ० ६१।
 
२. धर्मभूमौ स्वभावन मनुष्यो नियतस्मर: ।
यज्जात्यैव पराजातिबंधुलिंगिस्त्रियस्त्यजेत् ।।४०६।।
 
३. गद्यचिंतामणि ।
 
४. कुलं शीलं धनं रुपं समानत्वं बलं वय:।
देशो विद्यागमश्चेति यद्युप्युक्ता वरे गुण: ।।१४।।
 
तथापि तेषु सर्वेषु संतोऽभिजनमेककम् ।
वरिष्ठमनुरुध्यन्ते शेषेषु तु मन: समम् ।।१५।।
 
स च न ज्ञायते यस्य वरस्य प्रथमो गुण: ।
कथं प्रदीयते तस्मै कन्या मान्या समंतत: ।।१६।। पद्मपुराण, सर्व १०१।
 
५. अत्यंतदुर्लभा लोके गोत्रशुद्धिस्तया बिना।
नितान्तपरमेणापि न राज्येन प्रयोजनम्।।६४।।
 
संप्राप्य निर्मलं गोत्रं भव्यं शीलादिभूषितै: ।
तस्मादन्त:पुरं यत्नादिदं रक्षणं सुनिर्मलम् ।।६५।।पद्मपु०, पर्व ४७ ।
 
६. कथंचिच्च हतेऽप्यस्मिन् कन्याहरणदूषिता ।
अन्यस्मै नैव विश्राण्या केवलं विधवीभवेत् ।।३६।। पद्मपु०, पर्व,९।
 
जब सुलोचना ने स्वयंवर में जयकुमार के गले में वरमाला डाल दी, तब भरत सम्राट के पुत्र अर्वकीर्ति कुछ लोगों के भड़काने से युद्ध के लिये तैयार हो गये । उसी बीच अर्वकीर्ति कहते हैं ‘ मैं सुलोचना को भी नहीं चाहता हूँ क्योंकि सबसे ईष्र्या करने वाला यह जयकुमार अभी मेरे बाणों से ही मर जावेगा तब उस विधवा से मुझे क्या प्रयोजन रह जावेगा।
 
नाहं सुलोचनाथ्र्यस्मि मत्सरी मच्छरैरयं ।
परासुरधुनैव स्यात् किं में विधवया त्वया।।६५।।
 
इन सब उदाहरणों से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन काल में कुल की शुद्धि देखकर सजाति में ही विवाह किये जाते थे। विधवा विवाह, पुनर्विवाह आदि प्रथायें निषिद्ध थीं। सजातीय भार्या को ही ‘धर्मपत्नी’ यह संज्ञा दी जाती है। राजाओं के जो अन्य विजातीय स्त्रियाँ भी रहती थीं वे केवल भोगपत्नी मानी जाती थीं। क्योंकि ‘सज्जाति’ से उत्पन्न संतान ही दान, पूजन करने के लिये अधिकारी है और ‘सज्जाति’ को ही दैगंबरी दीक्षा का विधान है। आचार ग्रन्थों में तो है ही, श्री पूज्यपाद आचार्य विरचित ‘जैनेन्द्र—व्याकरण’ का भी सूत्र है— जो वर्ण से अर्हत् रूप के योग्य नहीं हैं. ‘वर्णोनार्हदृरूपायोग्यानां’। इससे स्पष्ट है कि तीन वर्ण ही दीक्षा के योग्य हैं और अंतिम वर्ण दीक्षा के अयोग्य है। जिस प्रकार गुलाब के वृक्ष की टहनी (कलम) काटकर लगाते हैं तो श्वेत, लाल या गुलाबी जैसे भी गुलाब तरु की टहनी है वैसा ही फूल आता है और यदि आजकल विज्ञान से शिक्षित लोग सफेद गुलाब की कलम और लाल गुलाब की कलम दोनों को मिलाकर लगा देते हैं तो उसमें श्वेत या लाल गुलाब न आकर एक तीसरे ही रंग का फूल आ जाता है तथा श्वेत या लाल गुलाब जैसी असली सुगंधि भी उसमें नहीं रहती है। कालांतर में उस संकर (मिश्रित) गुलाब की कलम भी नहीं लगायी जा सकती है चूँकि उसकी उपजाऊ शक्ति खत्म हो जाती है। वैसे ही ‘जातिसंकर’ से दूषित कुल में मोक्षमार्ग परंपरा नहीं चलती है। क्योंकि ‘सज्जाति’ परम स्थान के बिना ‘पारिव्राज्य’ परम स्थान और मोक्ष मिलना असंभव है। कुछ लोगों का कहना है कि छठे काल में ‘सज्जातित्व’ समाप्त हो जावेगा, क्योंकि तब विवाह प्रथा रहेगी ही नहीं। पुन: आगे छठे और पंचम काल के बाद चतुर्थ काल के अंत में कुलकर जन्म लेंगे एवं उन्हीं में तीर्थंकरों का भी जन्म होगा। तो बिना ‘सज्जाति’ के भी मोक्षमार्ग चलेगा ही । इस पर चारित्रचक्रवर्ती आचार्यवर्य श्री शांतिसागर जी महाराज ने बहुत ही सुंदर समाधान दिया था। उन्होंने कहा था कि छठे काल के अंत में प्रलय के समय जो बहत्तर जोड़े देवों। द्वारा यहाँ से ले जाये जाकर विजयार्ध की गुफाओं में सुरक्षित किये जावेंगे। तिलोयपण्णत्ति में ऐसा कथन है कि उस समय कुछ और भी मनुष्य सुरक्षित रखे जावेंगे। उन्हीं में से जिनमें ‘सज्जाति’ (बिना विवाह के भी एक स्त्री से संबंध होने की परंपरा) सुरक्षित रह जावेगी उन्हीं से कुलकर तीर्थंकर आदि जन्म लेवेंगे। उदाहरण के लिये देखिये—
 
१. नाहं सुलोचनाथ्र्यस्मि मत्सरी मच्छरैरयं ।
परासुरधुनैव स्यात् किं में विधवया त्वया।।६५।। आदिपुराण, पर्व, ४४, पृ० ३९१।
 
२. ‘वर्णोनार्हदृरूपायोग्यानां’।
 
यदि कोई एक बोरी गेहूँ घुने हुये लाकर किसी चतुर महिला को दे देवे और कहे कि इन सर्वथा घुने हुये गेहूँ में से भी तुम २—४—१० गेहूँ बिना घुने हुये निकाल दो तो आप ही बतलाइये १०—२० गेहूँ बिना घुने हुये उस बोरी भर गेहूँ में से ढूंढने पर मिलेंगे या नहीं ? यदि मिल सकते हैं तो फिर वैसे ही कई करोड़ों की संख्या में से १०—२० स्त्री— पुरुष (दंपती) शुद्ध ‘सज्जाति’ वाले तब भी सुरक्षित रह सकते हैं और उन्हीं में से ही किन्हीं को कुलकर तीर्थंकर जैसे महापुरुषों को जन्म देने का सौभाग्य मिल सकता है ऐसा विश्वास करना चाहिये।

(२) सद्गृहस्थत्व परम परमस्थान

सज्जाति नाम के परमस्थान प्राप्त करने वाला भव्य ‘सद्गृहित्व’ परमस्थान प्राप्त करता है। वह सद्गृहस्थ आर्य पुरुषों के करने योग्य छह कर्मों का पालन करता है। गृहस्थ अवस्था में करने योग्य जो—जो विशुद्ध आचरण कहे गये हैं अरहंत भगवान् द्वारा कहे गये उन—उन समस्त आचरणों का जो आलस्यरहित होकर पालन करता है जिसने श्री जिनेन्द्र देव से उत्तम जन्म प्राप्त किया है और गणधर देव ने जिसे शिक्षा दी है ऐसा वह उत्तम द्विज उत्कृष्ट ब्रह्मतेज/ आत्मतेज को धारण करता है। अर्थात् प्रथम तो शरीर का जन्म पुन: गुरु के द्वारा व्रतों को ग्रहण करने से संस्कार का जन्म जिसके होते हैं उसे द्विज/द्विजन्मा कहते हैं। वर्तमान में ब्राह्मणों को द्विज संज्ञा है। भरत सम्राट ने भी जैनव्रती श्रावकों को ही ब्राह्मण संज्ञा दी थी। किन्तु यहाँ पर तो उच्चवर्णीय सद्गृहस्थ ही विवक्षित हैं। यहाँ यह आशंका हो सकती है कि जो असि, मषी आदि छह कर्मों से आजीविका करने वाले जैनद्विज अथवा गृहस्थ हैं उनके भी हिंसा का दोष लग सकता है परन्तु इस विषय में जैनाचार्य कहते हैं कि यद्यपि आजीविका के लिये छह कर्मों के करने वाले जैन गृहस्थों को थोड़ी सी हिंसा की संगति अवश्य होती है परन्तु शास्त्रों में उन दोषों की शुद्धि भी तो दिखलाई गई है। उनकी विशुद्धि के अंग तीन हैं— पक्ष, चर्या और साधन। मैत्री, प्रमोद, कारूण्य और माध्यस्थ्य भाव से वृद्धि को प्राप्त हुआ समस्त हिंसा का त्याग करना जैनियों का पक्ष कहलाता है। किसी देवता के लिये, किसी मंत्र की सिद्धि के लिये अथवा किसी औषध या भोजन बनवाने के लिये मैं किसी जीव की हिंसा नहीं करूँगा ऐसी प्रतिज्ञा करना चर्या कहलाती है। इस प्रतिज्ञा में यदि कभी इच्छा न रहते हुये प्रमाद से दोष लग जावे तो प्रायश्चित से उसकी शुद्धि की जाती है तथा अंत में अपना सब कुटुम्ब पुत्र के लिये सौंपकर घर का परित्याग किया जाता है। यह गृहस्थ लोगों की चर्या कही। आयु के अंत समय में शरीर, आहार और समस्त प्रकार की चेष्टाओं का परित्याग कर ध्यान की शुद्धि से जो आत्मा को शुद्ध करना है वह साधन है। अरहंत देव को मानने वाले जैनों का पक्ष, चर्या और साधन इन तीनों में हिंसा के साथ स्पर्श भी नहीं होता।
१. जिनसेनाचार्य (आदिपुराण पर्व ३९) चारों आश्रमों की शुद्धता भी श्री अर्हंत देव के मत में ही है। अन्य लोगों ने जो चार आश्रम माने हैं ये विचार किये बिना ही सुन्दर प्रतीत होते हैं। ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और भिक्षुक ये जैनियों के चार आश्रम माने हैं जो कि उत्तरोत्तर अधिक विशुद्धि होने से प्राप्त होते हैं। ये चारों ही आश्रम अपने—अपने अंतर्भेदों से सहित होकर अनेक प्रकार के हो जाते हैं । मैत्री आदि चारों भावनाओं का लक्षण राजवार्तिक में बहुत ही सुन्दर है— १. अनादिकाल से आठ प्रकार के कर्म बंधन से बंधे हुये जीव तीव्र दु:खों के लिये कारणभूत ऐसी चारों गतियों में हमेशा ही दु:ख उठाते रहते हैं। इन संसारी प्राणियों को ही यहाँ सत्व संज्ञा है। ऐसे सभी सत्वों में— प्राणीमात्र में मैत्रीभाव रखना अर्थात् मन वचन काय और कृत कारित अनुमोदना से दूसरों को दु:ख न होने देने की अभिलाषा का नाम मैत्री भावना है। मैं सब जीवों के प्रति क्षमाभाव रखता हूँ, सब जीव मुझे क्षमा करें, मेरी सब जीवों से प्रीति है मेरा किसी से वैर नहीं है ? इत्यादि प्रकार की भावना ही मैत्री है।
२. सम्यग्दर्शन ज्ञान आदि गुणों से विशिष्ट पुरुष गुणाधिक हैं। ऐसे गुणीजनों में प्रमोद भाव होता है गुणीजनों को देखकर मुख की प्रसन्नता, नेत्र का आल्हाद, रोमाञ्च, स्तुति, सद्गुण कीर्तन आदि के द्वारा अंतरंग की भक्ति को, भावों के अनुराग को प्रगट करना प्रमोद भावना है।
३. असाता वेदनीय के उदय से जो शारीरिक या मानसिक दु:खों से संतप्त हैं, क्लिश्यमान कहलाते हैं। ऐसे दीन प्राणियों के ऊपर अनुग्रहरूप भाव का होना कारूण्य भावना है। मोह से अभिभूत कुमति, कुश्रुत और विभंगज्ञान से युक्त विष्यतृष्णा से जलने वाले हित — अहित में विपरीत प्रवृत्ति करने वाले, विविध दु:खों से पीड़ित दीन, अनाथ, बाल, वृद्ध आदि जीव क्लिश्यमान हैं। उन जीवों के प्रति दया भाव से ओत—प्रोत हो जाना कारूण्य भावना है।
४. तत्वों के उपदेश को जो श्रवण करते हैं और उनकों ग्रहण करने के पात्र हैं उन्हें विनेय कहते हैं। इससे विपरीत अविनेय हैं। इन विरुद्धचित्त वालों में माध्यस्थभाव रखना। जो व्यक्ति ग्रहण, धारण, विज्ञान और ऊहापोह से रहित हैं, महामोह से अभिभूत हैं और विपरीत दृष्टि— महामिथ्यादृष्टि हैं ऐसे विरुद्धवृत्ति वाले जीवों के प्रति राग—द्वेष न करके माध्यस्थ्यभाव रखना चौथी भावना है। वास्तव में ऐसे अविनेय लोगों के प्रति किया गया धर्म का उपदेश सफल नहीं हो सकता है प्रत्युत्त कभी—कभी अनर्थ का कारण भी बन जाया करता है अतएव आचार्यों ने ऐसे विपरीत वृत्ति वालों के प्रति माध्यस्थ रहने का आदेश दिया है। जैसे कि रक्षाबंधन कथा में श्रुतसागर मुनि के द्वारा दिया गया तत्वों का उपदेश बलि आदि दुर्बुद्धि मंत्रियों के लिये उल्टा हुआ और वे संघ के अहित में तत्पर हो गये। इस प्रकार से इन मैत्री, प्रमोद, कारूण्य और माध्यस्थ भावनाओं को भाने वाला व्यक्ति जब समस्त हिंसा को अर्थात् संकल्पपूर्वक त्रस हिंसा को छोड़ देता है और धर्म के पक्ष में तत्पर हो जाता है तब वह पाक्षिक कहलाता है। सागारधर्मामृत में इस पाक्षिक श्रावक के लिये मद्य—मांस—मधु और पंच उदुंबर फल इन आठों का त्याग करना अत्यावश्यक बतलाया है। रात्रिभोजन त्याग और अनछना पानी पीने का त्याग भी कहा है। हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँचों पापों का भी स्थूल त्याग करना चाहिये तथा जुआ, मांस, मदिरा, वेश्या, शिकार, चोरी और परस्त्री इन सात व्यसनों का त्याग भी होना चाहिये। तभी वह ‘पाक्षिक’ संज्ञा को प्राप्त होता है।

श्रावक के धर्म

दान, पूजा, शील और उपवास ये चार श्रावकों के धर्म हैं। ऐसा आर्ष में कहा गया है। दान के चार भेद हैं— आहार दान, औषधिदान, शास्त्रदान और वसतिकादान । अंतिम दो दान के ज्ञानदान और अभयदान भी नाम प्रसिद्ध हैं। श्रावक मुनि, आर्यिका, क्षुल्लक, क्षुल्लिका आदि चतुर्विध संघ को ये चारों दान देते हैं। पात्र के भी उत्तम, मध्यम और जघन्य की अपेक्षा तीन भेद माने गये हैं। आदि पुराण में पूजा के पांच भेद बताये हैं— नत्यमह, चतुर्मुखमह, कल्पद्रुममह, आष्टन्हिकमह और ऐंद्रध्वजमह। मह का अर्थ पूजा है। नित्यप्रति जिनेंद्रदेव की जलगंधादि से अर्चना करना, जिनबिंब—जनमंदिर बनवाना, मुनिश्वरों की पूजा करके उन्हें आहार देना यह सब नित्यमह है। महामुकुटबद्ध राजा लोग जो बड़े वैभव से पूजा करते हैं वह चतुर्मुख या सर्वतोभद्र है। आष्टान्हिक पर्व में की गई पूजा आष्टान्हिक है। चक्रवर्ती सबकी इच्छा पूर्ण करने वाला ऐसा किमिच्छक दान देते हुये जो पूजा करते हैं वह कल्पद्रुम पूजा है। इंद्रों के द्वारा जो पूजन होती है उसका नाम ऐंद्रध्वज है। ब्रह्मचर्य का पालन करना शील है और अष्टमी आदि पर्वों में चतुर्विध आहार का त्याग करना उपवास है। इस उपवास के अनुष्ठान में अनेकों भेद होते हैं। इस श्रावक धर्म का उपदेश जिनेंद्रदेव ने किया है। वह बात सिद्धांतग्रन्थों में कही गई है।
कषाय पाहुड़— टीका जयधवला में शंका— समाधान पूर्वक इसी बात को कहा है—
शंका — ‘‘ चौबीसों तीर्थंकर सदोष हैं क्योंकि उन्होंने छहकाय के जीवों की विराधना के कारणभूत ऐसे श्रावक धर्म का उपदेश दिया है। दान, पूजा, शील और उपवास ये चार श्रावकों के धर्म हैं। यह चारों ही प्रकार का श्रावक धर्म छहकाय के जीवों की विराधना का कारण है। क्योंकि भोजन का पकाना, दूसरे से पकवाना, अग्नि का सुलगाना, अग्नि का जलाना, अग्नि का खूतना और खुतवाना आदि व्यापारों से होने वाली जीव विराधना के बिना दान नहीं बन सकता है। उसी प्रकार वृक्ष का काटना और कटवाना, ईट  का गिराना—गरवाना तथा उनकों पकाना—पकवाना आदि ‘छहकाय’ के जीवों की विराधना के कारणभूत व्यापार के बिना जिनभवन का निर्माण करना अथवा करवाना नहीं बन सकता है। तथा अभिषेक करना, अवलेप करना, समार्जन करना, चंदन लगाना, फूल चढ़ाना, और धूप जलाना आदि जीववध के अविनाभावी व्यापारों के बिना पूजा करना नहीं बन सकता है।’
 
छज्जीवविराीणहेडणा विणा जिणभवणकरणकरावणण्णहाणुववत्तीदो।
ण्हवणोवलेवण—संमज्जण—छुहावणपुर— पुल्लारोहणधूवदहणादिवावारेहि
जीववहाविणाभावीहि विणा पूजकरणाणुववत्तीदो च।’ जयधवला, पुस्तक १, पृ० १००
 
शील की रक्षा भी सावद्य है क्योंकि अपनी स्त्री को पीड़ा दिये बिना शील का परिपालन नहीं हो सकता है। उपवास भी सावद्य है क्योंकि अपने पेट में स्थित प्राणियों को पीड़ा दिये बिना उपवास बन नहीं सकता है। अथवा जिनेंद्रदेव श्रावकों को स्थूल अहिंसा का उपदेश देते हैं। अर्थात् ‘स्थावर जीवों को छोड़कर केवल त्रस जीवों को ही मत मारो।’ ऐसा प्रतिपादन करते हैं इन्हीं सब सावद्य कारणों का उपदेश देने से जिनेंद्रदेव निर्दाष नहीं हैं। अथवा अनशन, अवमौदर्य, वृतपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्तशय्यासन, वृक्ष के मूल में सूर्य के आताप में और खुले हुये स्थान में निवास करना, उत्कुटासन, पल्यंकासन, अर्धपल्यंकासन, खड़गासन, गवासन, वीरासन, विनय, वैयावृत्त्य, स्वाध्याय और ध्यानादि क्लेशों में जीवों को डालकर उन्हें ठगने के कारण जिनेंद्रदेव निरवद्य नहीं हैं और इसीलिये वे वंदनीय नहीं हैं।’’ यहाँ तक शंकाकार ने अपनी शंका रखी है अब आचार्य इसका समाधान देते हैं—
‘‘ उपर्युक्त शंकाओं का परिहार करते हैं कि— यद्यपि तीर्थंकर पूर्वोक्त प्रकार का उपदेश देते हैं तो भी उनके कर्मबंध नहीं होता है। ’’जयवि एवमुवदिसंति तित्थयरा तो वि ण तेसि कम्मबंधो अत्थि। (जयधवला, पु० १. पृ० १०१) ‘‘तीर्थंकर का विहार संसार के लिये सुखकर है किंतु उससे पुण्य फलरूप कर्मबंध होता हो ऐसा नहीं है तथा दान और पूजा आदि आरम्भ के करने वाले वचन उन्हें कर्मबंध से लिप्त नहीं करते हैं। अर्थात् वे दान पूजा आदि आरंभों का उपदेश देते हैं। उससे भी उन्हें कर्मबंध नहीं होता है।’
तित्थयरस्सविहारो लोअस्रहो णेव तत्थ पुण्णफलो।
वयणं च दाणपूजारंभयरं तं ण लेवेई ।।५४।। (जयधवला, पु० १, पृ०१०५)’‘‘
 
जीवों में पापास्रव के द्वारा अनादिकाल से खुले हुये हैं। उनके खुले रहते हुये जो जीव शुभास्रव के द्वार को खोलता है अर्थात् शुभास्रव के कारणभूत कार्यों को करता है वह सदोष कैसे हो सकता है।
 
पावागमदाराइं अणाइरूवद्धियाइ जीवम्मि।
तत्थ सुहासवदारं उग्घादेतो कउ सदोसो ।।५७।। (जयधवला पु० १, पृ० १०६) 
 
और जब महाव्रती मुनियों के प्रतिसमय घटिकायंत्र जल के समान असंख्यातगुणित श्रेणी रूप से कर्मों की निर्जरा होती रहती है तब उनके पाप कैसे संभव है ?’’
 
घडियाजलं व कम्मे अणुसमयसंखगुणियसेढीए।
णिज्जरमाणें संते वि महत्वईर्णं कुदो पावं ।।६०।। (जयधवला, पु० १, पृ० ६०)
 

(३) पारिव्रात्य परमस्थान

 घर से विरक्त होकर जो पुरुष का दीक्षा ग्रहण करना है यह पारिव्राज्य है। परिव्राट् का जो निर्वाणदीक्षारूप भाव है उसे पारिव्राज्य कहते हैं। इस पारिव्राज्य परमस्थान ममत्व भाव छोड़कर दिगंबर रूप धारण करना पड़ता है। मोक्ष के इच्छुक पुरुष को शुभ तिथि, शुभ नक्षत्र, शुभयोग, शुभ लग्न और शुभ ग्रहों के अंश में निग्र्रंन्थ आचार्य के पास जाकर दीक्षा ग्रहण करनी चाहिये। जिसका कुल और गोत्र विशुद्ध है, चारित्र उत्तम है, मुख सुंदर है और प्रतिभा अच्छी है ऐसा पुरुष ही जैनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करने के योग्य माना गया है। जिस दिन ग्रहों का उपराग हो, ग्रहण लगा हो, सूर्य—चन्द्रमा पर परिवेष—मंडल हो, इंद्रधनुष हो, दुष्ट ग्रहों का उदय हो, संक्रांति हो अथवा क्षय तिथि हो उस दिन बुद्धिमान् आचार्य को मोक्ष की इच्छा करने वाले भव्यों का दीक्षा संस्कार नहीं करना चाहिये। इन शंका और समाधान के प्रकरण को पढ़कर यह स्पष्ट हो जाता है कि जिनेंद्रदेव ने श्रावकों के लिये दान—पूजन करना, जिनमंदिर बनवाना आदि आरंभ का उपदेश दिया है। एवं मुनियों के लिये अनशन आदि तपश्चरण का उपदेश दिया है फिर भी न वे सदोष हैं और न उनके बताये मार्ग पर चलने वाले श्रावक और मुनि ही सदोष हैं। अत: इस ‘सद्गृहित्व’ नामक परमस्थान इच्छुक गृहस्थ को दान, पूजा, शील, उपवास धर्मों को यथाशक्ति करते रहना चाहिये। आचार्य सुयोग्य शिष्य को दीक्षा विधि में सर्वप्रथम केशलोच कराते हैं, पुन: सर्ववस्त्र आभूषण त्याग कराकर अट्ठाईस मूलगुणों की विधि समझाकर उन्हें दीक्षा देते हैं। संयम की रक्षा के लिये मयूर पंखों की पिच्छी, शौच के लिये काठ का कमंडलु और ज्ञान के लिये शास्त्र देते हैं।
अट्ठाईस मूलगुण — पांच महाव्रत, पंच समिति, पंच इंद्रियों को वश करना, छह आवश्यक क्रिया, लोच, आचेलक्य, स्नान का त्याग, क्षिति शयन, दंत धावन न करना, खड़े होकर आहार करना, एक बार आहार करना ये २८ मूलगुण हैं।
पांच महाव्रत — मुख्य व्रतों को महाव्रत कहते हैं। मोक्ष प्राप्ति के लिये कारणभूत हिंसादि के त्याग को व्रत कहते हैं। जिनको तीर्थंकर आदि महापुरुष ग्रहण करते हैं अथवा जो पालन करने वाले को महान् बना देते हैं वे महाव्रत कहलाते हैं।
इसके पांच भेद हैं— अहिंसा महाव्रत — कषाययुक्त मन, वचन, काय की प्रवृत्ति को प्रमत्तयोग कहते हैं। प्रमत्त योग से दश प्राणों का वियोग करना हिंसा है। ऐसी हिंसा से विरत होना, सर्व प्राणियों पर पूर्ण दया का पालन करना अहिंसा महाव्रत है।
सत्य महाव्रत — प्राणियों को जिससे पीड़ा होगी। ऐसा भाषण, चाहे विद्यमान पदार्थ विषयक हो अथवा न हो, उसको त्याग करना।
अचौर्य महाव्रत — अदत्तवस्तु को ग्रहण नहीं करना।
ब्रह्मचर्य महाव्रत — पूर्णतया मैथुन का— स्त्री मात्र का त्याग कर देना।
परिग्रहत्याग महाव्रत — बाह्य अभ्यंतर परिग्रहों का त्याग करना, मुनियों के लिए अयोग्य समस्त वस्तुओं का त्याग करना। ये पाँच महाव्रत सर्व सावद्य — पापों के त्याग के कारण हैं।
पांच समिति — सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति करना समिति है।
उसके पांच भेद हैं—
ईर्या समिति — अच्छी तरह देखकर मन को स्थिर कर गमन—आगमन करना।
भाषा समिति — आगम से अविरुद्ध, पूर्वापर संबंध से रहित, निष्ठुरता, कर्कश, मर्मच्छेदक आदि दोषों से रहित भाषण करना।
एषणा समिति — लोकनिंद्य आदि कुलों को छोड़कर और सूतक, पातक, जाति संकर आदि दोषों से रहित घरों में छ्यालीस दोष और बत्तीस अंतराय टालकर आहार ग्रहण करना।
आदान निक्षेपण समिति — आंखों से देखकर और पिच्छिका से शोधन कर यत्नपूर्वक वस्तु को रखना और उठाना।
प्रतिष्ठापन समिति — जंतु रहित प्रदेश में ठीक से देखकर मलमूत्रादि का त्याग करना। ये पांच समितियाँ हैं।
पंच इन्द्रिय निरोध — स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण इन पांच इंद्रियों के विषयों से इंद्रियों को हटाना— नियंत्रण करना इंद्रिय निरोध है।
छह आवश्यक क्रियायें — अवश्य करने योग्य क्रियाएँ आवश्यक कहलाती हैं।
समता — रागद्वेष मोह से रहित होना अथवा त्रिकाल पंचपरमेष्ठी को नमस्कार करना।
स्तव — ऋषभादि चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति करना।
वंदना — एक तीर्थंकर का दर्शन या वंदन करना अथवा पंचगुरुभक्ति पर्यंत वंदना करना।
प्रतिक्रमण — अशुभ मन, वचन और कार्य के द्वारा जो प्रवृत्ति हुई थी उससे परावृत्त होना। अथवा किये हुये दोषों का शोधन करना । इस प्रतिक्रमण के दैवसिक, रात्रिक, एर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, वार्षिक और उत्तमार्थ ऐसे सात भेद हैं।
प्रत्याख्यान — अयोग्य द्रव्य का त्याग करना अथवा योग्य वस्तु का त्याग करना।
व्युत्सर्ग — देह से ममत्व रहित होकर जिनगुण चिंतन युक्त कायोत्सर्ग करना। ऐसे छह आवश्यक हैं। इंद्रिय, कषाय, रागद्वेषादि के वश में जो नहीं हैं वे अवश हैं, उनकी क्रियाएँ आवश्यक क्रियाएँ हैं। ये छह आवश्यक मुनियों को नित्य ही करना चाहिये।
लोच — अपने हाथों से मस्तक और दाढ़ी—मूँछ के केशों को उखाड़ कर फैक देना। यह केशलोंच उत्कृष्ट दो महीने में, मध्यम तीन और जघन्य चार महीने में होता है। आचेलक्य — चेल—वस्त्र एवं मुनिपने के अयोग्य सर्व परिग्रहों का त्याग कर देना।
अस्नान — स्नान का त्याग ।
क्षितिशयन — घास,लकड़ी का फलक, शिला इत्यादि पर सोना।
अदंतधावन — दातौन के लिये दंत मंजन, काष्ठादि का उपयोग नहीं करना।
स्थितिभोजन — खड़े होकर पैरों को चार अंगुल अंतर में रखकर भोजन करना।
एक भक्त — दिन में एक बार आहार लेना। इस प्रकार ये अट्ठाईस मूलगुण कहलाते हैं। प्रत्येक दिगंम्बर मुनियों में इन मूलगुणों का होना आवश्यक है। मुनियों के २२ परीषह जय और १२ तप ये ३४ उत्तर गुण कहलाते हैं। ये किन्हीं में होते हैं, किन्हीं में नहीं भी होते हैं।

२७ सूत्रपद—

पारिव्राज्य  परमस्थान सत्ताईस सूत्रपद निरुपित किये गये हैं कि जिनका निर्णय होने पर पारिव्राज्य का साक्षात् लक्षण प्रगट होता है। उनके नाम— जाति, मूर्ति, उसमें रहने वाले लक्षण, शरीर की सुंदरता, प्रभा, मंडल, चक्र, अभिषेक, नाथता, सिंहासन, उपधान, छत्र, चामर, घोषणा, अशोक वृक्ष, निधि, गृहशोभा, अवगाहन, क्षेत्रज्ञ, आज्ञा, सभा, कीर्ति, वंदनीयता, वाहन, भाषा, आहार और सुख ये जाति आदि सत्ताईस सूत्रपद कहलाते हैं। ये परमेष्ठियों के गुणस्वरूप हैं। ये गुण जिस प्रकार परमेष्ठियों में होते हैं उसी प्रकार दीक्षा लेने वाले शिष्य में भी यथा संभव रूप से होते हैं परन्तु शिष्य को अपने जाति आदि गुणों का सम्मान नहीं करके परमेष्ठी के ही जाति आदि गुणों का सन्मान करना चाहिये क्योंकि ऐसा करने से वह शिष्य अहंकार आदि दुर्गुणों से बचकर अपने आपका उत्थान शीघ्र ही कर सकता है।
१. जाति — स्वयं उत्तम जातिवाला होने पर भी अहंकार रहित होकर अरहंतदेव के चरणों की सेवा करनी चाहिये क्योंकि ऐसा करने पर वह भव्य मुनि दूसरे जन्म में क्रम से दिव्या, विजयाश्रिता, परमा और स्वा इन चार जातियों को प्राप्त हो जाता है। इंद्र के दिव्य जाति होती है, चक्रवर्तियों के विजयाश्रिता, अरहंतदेव के परमा और मोक्ष को प्राप्त हुये जीवों के अपने आत्मा से उत्पन्न होने वाली स्वा जाति होती है।
२. मूर्ति — जो मुनि दिव्य आदि मूर्तियों को प्राप्त करना चाहता है उसे अपना शरीर कृश करना चाहिये। जिस प्रकार जाति के चार भेद हैं उसी प्रकार मूर्ति के भी चार भेद होते हैं। दिव्या मूर्ति, विजयाश्रिता मूर्ति, परमामूर्ति और स्वामुर्ति। कोई आचार्य मूर्ति के तीन भेद ही मानते हैं वे सिद्धों में स्वामूर्ति नहीं मानते हैं क्योकि मूर्ति का अर्थ शरीर से है।
३. लक्षण — शरीर में उत्तम—उत्तम तिल, व्यंजन आदि लक्षणों को धारण करता हुआ भी मुनि उन अपने लक्षणों को निर्देश करने के अयोग्य मानता हुआ जिनेंद्र देव के लक्षणों का चिंतवन करते हुये तपश्चरण करे। इसमें भी दिव्य लक्षण, विजयाश्रित लक्षण, परमालक्षण और स्वालक्षण ऐसे चार भेद हो जाते हैं।
४. सुन्दरता — जिनकी परम्परा अक्षुण्ण है ऐसे दिव्य आदि सौंदर्यों की इच्छा करता हुआ मुनि अपने शरीर के सौंदर्य को मलिन करता हुआ कठिन तपश्चरण करे। इसके प्रभाव से ही उसे अगले भवों में दिव्य सौंदर्य, विजयाश्रित सौंदर्य, परम सौंदर्य और स्वसौंदर्य प्राप्त होगा।
५. प्रभा — मुनि अपने शरीर से उत्पन्न होने वाली प्रभा का त्याग कर शरीर को रज पसीने आदि से मलिन रखते हुये अरहंत देव की प्रभा का ध्यान करे। इसी के प्रभाव से वह अगले भवों में दिव्य प्रभा, विजयाश्रित प्रभा, परमप्रभा और स्वप्रभा को प्राप्त कर लेता है।
६. मण्डल — जो मुनि अपने मणि और दीपक आदि के तेज को छोड़कर तेजोमय जिनेंद्र देव की आराधना करता है वह प्रभा मण्डल से उज्जवल हो उठता है। अर्थात् वह दिव्य प्रभा मण्डल, विजयाश्रित प्रभा मण्डल, परमप्रभा मण्डल और स्वप्रभा मण्डल को प्राप्त कर लेता है।
७. चक्र — जो पहले के अस्त्र, शस्त्र और वस्त्र आदि को छोड़कर अत्यन्त शांत होता हुआ जिनेन्द्र भगवान की आराधना करता है वह मुनि धर्मचक्र का अधिपति होता है। अर्थात् वह इन्द्र का दिव्य चक्र, चक्रवर्ती का विजयाश्रित— सुदर्शन चक्र, अरहंत देव का परमचक्र—धर्मचक्र और सिद्धों का स्वचक्र— स्वगुणसमहू को प्राप्त कर लेता है।
८. अभिषेक — जो मुनि स्नान आदि संस्कार छोड़कर केवली जिनेन्द्र का आश्रय लेता है अर्थात् उनका चिंतवन करता है वह मेरु पर्वत पर उत्कृष्ट जन्माभिषेक को प्राप्त होता है। यहाँ पर भी इन्द्र का दिव्य अभिषेक, चक्रवर्ती का साम्राज्य पद पर विजयाश्रित अभिषेक और तीर्थंकर अरहंत का जन्मकाल में जन्माभिषेक समझना चाहिये।
९. नाथता — जो मुनि अपने इस लोक सम्बन्धी स्वामीपने को छोड़कर परमस्वामी श्री जिनेन्द्र देव की सेवा करता है वह जगत के जीवों द्वारा सेवनीय होने से सबके नाथपने को प्राप्त हो जाता है अर्थात् जगत् के सब जीव उसकी सेवा करते हैं। यहाँ पर भी दिव्य नाथता, विजयाश्रित नाथता, परमनाथता और स्वानाथता घटित कर लेना चाहिये।
१०. सिंहासन — जो मुनि अपने योग्य अनेक आसनों के भेदों का त्यागकर दिगंबर हो जाता है वह सिंहासन पर आरूढ़ होकर तीर्थ को प्रसिद्ध करने वाला तीर्थंकर होता है। यहाँ पर भी क्रम से दिव्य सिंहासन, विजयाश्रित सिंहासन, परम सिंहासन और स्व सिंहासन लगा लेना चाहिये।
११. उपधान — जो मुनि अपने तकिया आदि का अनादर करके परिग्रह रहित हो जाता है और केवल अपनी भुजा पर शिर को रखकर पृथ्वी के ऊँचे—नीचे प्रदेश पर शयन करता है वह महा अभ्युदय को प्राप्त कर जिन हो जाता है। उस समय सब लोग उसका आदर करते हैं और वह देवों के द्वारा बने हुये देदीप्यमान तकिया को प्राप्त होता है। यहाँ भी दिव्य उपधान, विजयाश्रित उपधान, और स्व उपधान, परम उपधान समझना चाहिये।
१२. छत्र — जो मुनि शीतल छत्र— छाते आदि अपने समस्त परिग्रह का त्याग कर देता है वह स्वयं देदीप्यमान रत्नों से युक्त तीन छत्रों से सुशोभित होता है। अर्थात् गृहस्थावस्था के धूप के निवारक छाता आदि परिग्रह त्यागी मुनि को क्रम से दिव्य छत्र , विजयाश्रित छत्र, परमछत्र, और स्वछत्र प्राप्त होते हैं।
१३. चामर — जसने अनेक प्रकार के पंखाओं के त्याग से तपश्चरण विधि का पालन किया है ऐसे मुनि को जिनेन्द्र पर्याय प्राप्त होने पर चौंसठ चामर ढुलाये जाते हैं अर्थात् दिव्य चामर, विजयाश्रित चामर औरा परम चामर संज्ञक चंवर उन पर ढुरते हैं।
१४. घोषणा — जो मुनि नगाड़े तथा संगीत आदि की घोषणा का त्याग कर तपश्चरण करता है उसके विजय की सूचना स्वर्ग की दुंदुभियों के गम्भीर शब्दों से घोषित की जाती है। यहाँ पर भी क्रम से दिव्य घोषणा, विजयाश्रित घोषणा और परमघोषणा समझना चाहिये।
१५. अशोकवृक्ष — चूँकि पहले उसने अपने उद्यान आदि की छाया का परित्याग कर तपश्चरण किया था इसलिये अब उसे अरहंत अवस्था में महा अशोक वृक्ष की प्राप्ति होती है। यहाँ पर भी इन्द्र के नंदन वन का अशोक—दव्य अशोक, चक्रवर्ती के उद्यान का विजयाश्रित अशोक और अरहंतदेव का परम अशोक वृक्ष समझना।
१६. निधि — जो अपना योग्य धन छोड़कर निर्ममत्व भाव को प्राप्त होता है। समवसरण भूमि में निधियाँ दरवाजे पर खड़ी होकर उसकी सेवा करती हैं। यहाँ पर भी दिव्य निधि, विजयाश्रित निधि और परमनिधि की कल्पना की जा सकती है।
१७. गृहशोभा — जसकी सब ओर से रक्षा की गई थी ऐसे अपने घर की शोभा को छोड़कर इसने तपश्चरण किया था इसीलिये श्रीमंडप की शोभा अपने आप इसके सामने आ जाती है। यहाँ पर भी इन्द्र के विमान की शोभा दिव्य गृह शोभा है, चक्रवर्ती के भवन की शोभा विजयाश्रित गृहशोभा है और अरहंत देव के समवरण में श्रीमंडप की शोभा है। अंत में निर्वाणधाम की शोभा स्व — गृहशोभा कही जायेगी।
१८. अवगाहन — जो मुनि तप करने के लिये सघन वन में निवास करता है उसे तीनों जगत् के जीवों के लिये स्थान दे सकने वाली अवगाहन शक्ति प्राप्त हो जाती है। अर्थात् उसका ऐसा समवसरण रचा जाता है जिसमें तीनों लोकों के समस्त जीव स्थान पा सकते हैं। यहाँ पर भी इन्द्रों का दिव्य अवगाहन , चक्रवर्ती का विजयाश्रित अवगाहन, अरहंत का परम अवगाहन और सिद्धों का स्व अवगाहन घटित कर लेना चाहिये।
१९. क्षेत्रज्ञ — जो क्षेत्र मकान आदि का त्याग कर शुद्ध आत्मा का आश्रय लेता है उसे तीनों जगत् को अपने आधीन रखने वाला ऐश्वर्य प्राप्त होता है। अर्थात् इन्द्र को दिव्य क्षेत्रज्ञ, चक्रवर्ती को विजयाश्रित क्षेत्रज्ञ, अरहंत को परम क्षेत्रज्ञ और सिद्धों को स्वक्षेत्रज्ञ प्राप्त होता है।
२०. आज्ञा — जो मुनि आज्ञा देने का अभिज्ञान छोड़कर मौन धारण करता है उसकी उत्कृष्ट आज्ञा सुर—असुर गण अपने मस्तक से धारण करते हैं अर्थात् उसकी आज्ञा समस्त जीव मानते हैं। यहाँ भी दिव्य आज्ञा, विजयाश्रित आज्ञा, परम आज्ञा और अंत में स्व आज्ञा प्राप्त होती है।
२१. सभा — जो मुनि अपने इष्ट सेवक तथा भाई आदि की सभा का परित्याग कर देता है उसके अरहंत अवस्था में तीनों लोकों की सभा समवसरण सभा प्राप्त होती है। अर्थात् इन्द्र की दिव्य सभा, चक्रवर्ती की विजयाश्रित सभा, अरहंत की परमसभा और सिद्धों की स्व—सभा ये क्रम से उसे प्राप्त हो जाती है।
२२. कीर्ति — जो सब प्रकार की इच्छाओं का परित्याग कर अपने गुणों की प्रशंसा करना छोड़ देता है और महातपश्चचरण करता हुआ स्तुति — नंदा में समान भाव रखता है वह तीनों लोकों के इन्द्रों द्वारा प्रशंसित होता है। यहाँ भी क्रम से दिव्य कीर्ति, विजयाश्रितकीर्ति, परमकीर्ति, और स्वकीर्ति मिलती है।
२३. वंदनीयता — इस मुनि ने वंदना करने योग्य अरहंतदेव की वंदना कर तपश्चरण किया था इसीलिये यह वंदना करने योग्य भी पूज्य पुरुषों द्वारा वंदना को प्राप्त हो जाता है। यहाँ भी दिव्य वंदनीयता, विजयाश्रित वंदनीयता, परमवंदनीयता और स्ववंदनीयता इन चारों की प्राप्ति उन वंदना करने वाले मुनि को प्राप्त हो जाती है।
२४. वाहन — जो पादत्राण— जूता और सवारी आदि का त्याग कर पैदल चलता हुआ तपश्चरण करता है वह कमलों के मध्य में चरण रखने योग्य हो जाता है अर्थात् अरहंत अवस्था में देवगण उनके चरणों के नीचे कमलों की रचना करते हैं । यहाँ भी दिव्यवाहन, विजयाश्रित वाहन, परमवाहन और स्ववाहन घटित करना चाहिये।
२५. भाषा — चूँकि यह मुनि वचनगुप्ति को धारण कर अथवा हित—मत वचनरूप भाषा समिति का पालनकर तपश्चरण में स्थित हुआ था इसलिये ही इसे समस्त सभा को संतुष्ट करने वाली दिव्यध्वनि प्राप्त हुई है। यहाँ भी इंद्रो की दिव्यभाषा, चक्रवर्ती की विजयाश्रित भाषा , अरहंत की परमभाषा समझना तथा सिद्धों की भाषा नहीं है।
२६. आहार — इस मुनि ने पहले उपवास धारण कर अथवा नियमित आहार और पारणायें कर तप तपा था इसलिये ही इसे दिव्यतृप्ति, विजयतृप्ति, परमतृप्ति और अमृततृष्ति ये चारों ही तृप्तियाँ प्राप्त हुई हैं।
२७. सुख — यह मुनि काम जनित सुख को छोड़कर चिरकाल तक तपश्चरण में स्थिर रहा है इसलिये ही यह सुखस्वरूप होकर परमानन्द को प्राप्त हुआ है। यहाँ पर भी क्रम से इसे दिव्यसुख, विजयसुख, परमसुख और स्वसुख प्राप्त हो जाते हैं। इस प्रकार से ये सत्ताईस सूत्रपद कहे गये हैं । इनके होने पर मुनि चर्या आदर्श चर्या हो जाती है। इस विषय में बहुत कहने से क्या लाभ है ; संक्षेप में इतना ही कह देना ठीक है कि मुनि संकल्परहित होकर जिस प्रकार की जिस — जस वस्तु का परित्याग करता है उसका तपश्चरण उसके लिये वही — वही वस्तु उत्पन्न कर देता है । जिस तपश्चरण रूपी चिंतामणि का फल उत्कृष्ट पद की प्राप्ति आदि मिलता है और जिससे अरहंत देव की जाति तथा मूर्ति आदि की प्राप्ति होती है ऐसे पारिव्राज्य नाम के परमस् परमस्थान वर्णन किया गया है। जो आगम में कही हुई जिनेन्द्र आज्ञा को प्रमाण मानता हुआ तपस्या धारण करता है अर्थात् दीक्षा ग्रहण करता है उसी के वास्तविक पारिव्राज्य होता है। अनेक प्रकार के वचनों के जाल में निबद्ध तथा मुक्ति में बाधित अन्य लोगों के पारिव्राज्य को छोड़कर इसी सर्वोत्कृष्ट पारिव्राज्य को ग्रहण करना चाहिये। यह तीसरा पारिव्राज्य परम  परमस्थानता है।

(४) सुरेंद्रता परमस्थान

 इंद्र पद प्राप्त करना ‘सुरेन्द्रता’ नाम का चौथा  परमस्थान होता है। जिन्होंने पारिव्राज्य नामक परमस्थान प्राप्त कर अन्त में सल्लेखना विधि से शरीर को छोड़ा है उन्हीं को यह ‘सुरेन्द्रता’ परमस्थान राप्त होता है। कोई भी पुण्यशाली मुनि संन्यास विधि से मरणकर देवगति नाम कर्म के उदय से स्वर्ग में इंद्र पर्याय को प्राप्त होता है। वहाँ उपपादगृह में उपपादशय्या से जन्म होता है। अंतर्मुहूर्त में ही छहों पर्याप्तियाँ पूर्ण हो जाने से नवयौवन संपन्न दिव्य वैक्रियिक शरीर बन जाता है। उस शरीर में नख, केश, रोम, चर्म, रुधिर, मांस, हड्डी एवं मल— मूत्रादि धातुयें नहीं होती हैं। देव विमान में उत्पन्न होते ही बिना खोले किवाड़ खुल जाते हैं । उसी समय आनंदभेरी का शब्द होने लगता है। उस भेरी के शब्द को सुनकर परिवार के देव—देवियाँ ‘जय—जय, नंद—नंद’ आदि शब्दों को बोलते हुये वहाँ आ जाते हैं। किल्विष देव घंटा, पटह आदि बजाने लगते हैं । गंघर्व देव नृत्य प्रारम्भ कर देते हैं । सब देव—देवियों को देखकर नवीन जन्म को प्राप्त हुये इन्द्र कौतुक से सबको देखते हैं। तत्क्षण ही अवधिज्ञान प्रकट हो जाता है। तब वे अपने इंद्र जन्म को जानकर प्रसन्नता से अपने परिकर की ओर देखते हैं। नियोग के अनुसार द्रह में स्नान करके वस्त्राभूषण धारण कर सर्वप्रथम जिनमंदिर में जाकर जिनेंद्रदेव की प्रतिमा का १००८ कलशों से अभिषेक करते हैं। जल, चंदन आदि से पूजा करते हैं। पुन: अपने स्थान पर आकर सिंहासन पर आरूढ़ होकर सभी देव—देवियों को संतुष्ट करते हुये उन्हें अपने— अपने कार्यों में नियुक्त कर देते हैं।
सौधर्म इन्द्र का वैभव — सौधर्म इन्द्र के दश प्रकार के परिवार होते हैं— प्रतीन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, लोकपाल, आत्मरक्ष, परिषद, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषक। एक इंद्र के एक ही प्रतीन्द्र होते हैं । वे आज्ञा एवं ऐश्वर्य के सिवाय बाकी के सभाी वैभव में इन्द्र के सदृश होते हैं। सौधर्म के ८४ हजार सामानिकदेव होते हैं। तेतीस त्रायस्त्रिंश होते हैं। सोम, यम, वरुण और कुबेर नाम के ४ लोकपाल होते हैं। तीन लाख छत्तीस हजार आत्मरक्ष देव होते हैं । परिषद देवों में अभ्यंतर परिषद की संख्या बारह हजार, मध्यम परिषद की चौदह हजार और बाह्य परिषद की सोलह हजार है। अनीक जाति के देवों में सेनाओं के भेद से ७ भेद होतें हैं। वृषभ , अश्व, रथ, गज, पदाति, गंधर्व और नर्तक ये ७ सेनायें हैं। इन सातों में से प्रत्येक सेना सात—सात कक्षाओं से युक्त रहती हैं। उनमें से प्रथम सेना का प्रमाण अपने सामानिक देवों के बराबर है। इससे आगे सप्तम सेना पर्यंत उससे दूना—दूना है। सौधर्मइन्द्र की बैल की प्रथम सेना की प्रथम कक्षा में चौरासी हजार बैल हैं। इससे आगे सात कक्षाओं तक इस बैल सेना का प्रमाण एक करोड़ छह लाख अड़सठ हजार है। अश्व, रथ आदि सेनाये भी इतने—इतने मात्र हैं। सौधर्म इन्द्र के समस्त अनीकों की संख्या सात करोड़ छयालीस लाख छयत्तर हजार प्रमाण है। इन सातों अनीकों मे जो अधिपतिदेव हैं उनके नाम क्रम से दामयष्ठि, हरिदाम, मातलि, ऐरावत, वायु, यशस्क, और नीलांजना हैं । सौधर्म इन्द्र के आभियोग्य प्रकीर्णक और किल्विषक देवों का प्रमाण असंख्यात है।

सौधर्म इन्द्र की देवियाँ

सौधर्म इन्द्र के १ लाख ६० हजार देवियाँ हैं और उनमें आठ महादेवियाँ हैं। आठ महादेवियों में प्रथम देवी का नाम ‘शची’ है। अनुपम लावण्यवाली इन महादेवियों के १६—१६ ह्जार परिवार देवियाँ हैं तथा इस इन्द्र के ३२ हजार वल्लभिका देवियाँ हैं । ऐसे कुल मिलाकर ८ १६०००± ३२०००· १६००० हो जाती हैं । ये ८ महादेवियाँ और ३२००० बल्लभायें ये प्रत्येक ही १६—१६ हजार विक्रिया करने में समर्थ होती हैं। सौधर्म इन्द्र का अधिपत्य— यह सौधर्म इंद्र बत्तीस लाख विमानों का अधिपति है। ऐसे ही ईशानेंद्र के २८ लाख आदि विमान माने गये हैं । सौधर्म— ईशान इन दो स्वर्गों के इन्द्रक विमान ३१ हैं। उनके नाम— ऋतु, विमल, चंद्र, वल्गु, वीर, अरुण, नंदन, नलिन, कंचन, रोहित, चंच, मरुत, ऋद्धीश, वैडूर्य, रूचक, रुचिर, अंक, स्फटिक, तपनीय, मेद्य, अभ्र हारिद्र, पद्म, लोहित, वङ्का, नंद्यावर्त, प्रभाकर, पृष्ठक, गज, मित्र और प्रभा। ये सभी इंद्रक एक के ऊपर एक होने से भवनों के खन के समान हैं।
एक—एक इंद्रक का आपस में अंतराल असंख्यात योजन प्रमाण है। सब इंद्रक विमानों की चारों दिशाओं में श्रेणीबद्ध और विदिशाओं में प्रकीर्णक विमान हैं। सभी इंद्रक और श्रेणीबद्ध विमान गोल है। दिव्य रत्नों से निर्मित है और ध्वजा-तोरणों से सुशोभित हैं। इनके अंतराल में विदिशाओं में पुष्पों के सदृश रत्नमय उत्तम प्रकीर्णक विमान है। इस सौधर्म स्वर्ग में ३१ इंद्रक, चार हजार तीन सौ इकहत्तर श्रेणीबद्ध और इकतीस लाख पंचानवे हजार पांच सौ अट्ठानवे प्रकीर्णक विमान हैं। ये सब मिलकर ३१±४३७१±३१९५५९८·३२००००० हो जाते हैं। सभी इन्द्रक विमान संख्यात योजन प्रमाण वाले है। जिनमें से पहला ऋतु नाम का इन्द्रक विमान ४५ लाख योजन प्रमाण वाला है। सभी श्रेणीबद्ध विमान असंख्यात योजन प्रमाण विस्तार वाले हैं। प्रकीर्णक विमानों में कुछ संख्यात योजन वाले हैं कुछ असंख्यात योजन वाले हैं। ये सभी विमान सुंदर—सुंदर तटवेदी, गोपुरद्वार, तोरण और पताकाओं से सुशोभित हैं।

सौधर्म इन्द्र का निवास 

३१ इन्द्रकों में जो अंतिम ‘प्रभा’ नाम का इन्द्रक है। उसके दक्षिण श्रेणी में जो अठारवाँ श्रेणीबद्ध विमान है उसमें सौधर्म इन्द्र रहता है। वहाँ पर ८४ हजार योजन विस्तृत एक नगर बना हुआ है। जिसका नाम है सौधर्म इन्द्र नगर। यह नगर सुवर्णमय परकोटेसे वेष्ठित है। परकोटे के अग्रभाग पर कहीं पर पंक्तिबद्ध ध्वजायें हैं और कहीं पर मयूराकार यंत्र शोभायमान हो रहे हैं। इस नगर में सौधर्म इन्द्र का प्रासाद (भवन) है जो कि १२० योजन विस्तार वाला है और ६०० योजन ऊँचा है। इस भवन में सौधर्म इन्द्र अपनी १ लाख ६० हजार इन्द्राणियों सहित निरंतर सुख समुद्र में मग्न रहता है। सौधर्म इन्द्र के परिवार देवों के निवास स्थान—इन्द्र के नगर के बाह्य पांच परकोेटे माने गये हैं । उन्हें वेदी भी कहते हैं । इन पांचों परकोटों के बीच में चार अंतराल हो जाते हैं । प्रथम अंतराल १३ लाख योजन का है, दूसरा ६३ लाख योजन का है, तीसरा ६४ लाख योजन का है और चौथा ८४ लाख योजन वाला है। प्रथम अंतराल में सौधर्म इन्द्र के आत्मरक्षक देव अपने—अपने परिवार सहित रहते हैं। दूसरे में पारिषद् जाति के देव, तीसरे में सामानिक देव और चौथे में आरोहक, अनीक, आभियोग, किल्विषक, प्रकीर्णक तथा त्रायस्त्रिंश देव सपरिवार रहते हैं । इंद्र भवन के चारों ओर इंद्राणी और वल्लभाओं के भवन बने हुये हैं।

नन्दनवन 

 इस पाँचवे परकोटे के आगे ‘इन्द्रपुर’ की चारों ही दिशाओं में दिव्य वनखण्ड हैं। इनको ही ‘नंदनवन’ कहते हैं। इनमें से पूर्व दिशा में अशोकवन हैं, दक्षिण में सप्तच्छदवन हैं, पश्चिम में चंपकवन हैं और उत्तर में आम्रवन हैं। इन चारों दिशाओं के वनों में प्रत्येक के मध्य में एक—एक चैत्यवृक्ष हैं। ये जंबूवृक्ष के समान प्रमाण वाले पृथ्वीकायिक हैं। इन एक—एक चैत्यवृक्षों के चारों तरफ ‘पल्यंकासन’ से जिनप्रतिमायें विराजमान हैं। इस प्रकार ये वन खण्ड चैत्यवृक्षों से सुशोभित, पुष्करिणी, वापी, मणिमयदेव भवनों से संयुक्त, फल—पुष्पादि से परिपूर्ण होकर सबको आनन्द देने वाले हैं। अत: ‘नन्दनवन’ नाम से प्रसिद्ध हैं।

दिव्यस्तम्भ

 सौधर्म इन्द्र नगर के मध्य में सौधर्म इन्द्र का प्रासाद है। इन्द्र के गृहों के आगे ३६ योजन ऊँचे, १ योजन मोटे ऐसे स्तम्भ हैं जिन्हें मानस्तम्भ भी कहते हैं। इनमें १२ धारायें हैं अर्थात् ये स्तम्भ बारह कोण संयुक्त गोल हैं। १ योजन मोटे—गोल की परिधि बारह कोश होने से १-१ कोश की धारायें कोण बने हुये हैं। इन मानस्तम्भों में उत्तम रत्नमय करण्डक (पिटारे) हैं। प्रत्येक करण्डक ५०० धनुष विस्तृत और एक कोश लम्बे हैं। रत्नमय सींकों के समूहों से लटकते हुये ये सब संख्यातों करण्डक शक्रादि से पूज्य अनादि निधन महारमणीय हैं। इन सौधर्म इन्द्र के मानस्तम्भों के करण्डकों से भरतक्षेत्र के तीर्थंकर के लिये दिव्य आभरण, भूषण आदि लाये जाते हैं। ऐसे ही ईशान, सानत्कुमार और माहेन्द्र स्वर्गों में भी मानस्तम्भ हैं। जिनसे इन्द्र क्रमश: ऐरावत, पूर्वविदेह और पश्चिमविदेह के तीर्थंकरों के लिये दिव्य वस्त्रादि लाते हैं।
न्यग्रोधवृक्ष — इन इन्द्र के भवनों के आगे न्यग्रोधवृक्ष होते हैं जो कि जम्बूवृक्ष के समान पृथ्वीकायिक हैं। इनके मूल में प्रत्येक दिशा में जिन प्रतिमायें विराजमान हैं जिनके चरणों में सतत इन्द्रादि गण नमस्कार करते रहते हैं।
उपपादगृह — उस मानस्तम्भ के पास ईशान दिशा में ८ योजन ऊँचा, लम्बा और चौड़ा उपपादगृह है उसमें दो रत्नमयी उपपाद शय्या हैं। यहीं पर इन्द्र का जन्म स्थान है।
जिनभवन — ईशान दिशा में ही उपपादगृह के समीप जिनमंदिर स्थित है जो कि अनेक शिखरों से युक्त है। इस मन्दिर में रत्नमयी १०८ जिनप्रतिमायें विराजमान हैं।
सुधर्मासभा — इन्द्र भवन से ईशान दिशा में ३०० कोश ऊँची, ४००कोश लम्बी, २०० कोश विस्तृत ‘सुधर्मा’ नामक सभा है।
इस सभा भवन में इन्द्र के सिंहासन के आगे ८ पट्टदेवियों के ८ आसन हैं। इन महादेवियों के आसन के बाहर पूर्व आदि दिशा में क्रम से सोम, यम, वरुण और कुबेर इन चार लोकपालों के ४ आसन हैं। इन्द्रासन के आग्नेय दक्षिण और नैऋत्य दिशा में अभ्यंतर, मध्यम और बाह्य पारिषद देवों के क्रम से १२ हजार, १४ हजार और १६ हजार आसन हैं। नैऋत्यदिशा में ही त्रायस्त्र्ािंश देवों के ३३ आसन हैं। सेनानायकों के ७ आसन पश्चिम दिशा में हैं, वायव्य और ईशान दिशा में क्रम से ४२—४२ हजार आसन हैं। चारों ही दिशाओं में अंगरक्षक के भ्रदासन हैं। सौधर्म इन्द्र के पूवादि दिशाओं में ८४ हजार आसन हैं। इस प्रकार सुधर्मा सभा में आसनों की व्यवस्था है।
इन्द्र का यान — सौधर्म इन्द्र का ‘बालुक’ नामक यान विमान होता है। यह १ लाख योजन लम्बा—चौड़ा है। इसमें आसन, शय्या, धूपघट, चामर, आदि विद्यमान हैं। ध्वजायें फहराती रहती हैं। सुन्दर द्वार हैं और वज्रमय कपाट लगे हुये हैं।
ऐरावत हाथी — सौधर्म इन्द्र के आभियोग्य देवों का अधिपति ‘बालक’ नामक देव है। यह देव विक्रिया से १ लाख योजन प्रमाण हाथी का रूप बना लेता है। इस हाथी के बत्तीस मुख होते हैं, एक— एक मुख में चार—चार दांत होते हैं। एक— एक दाँत पर निर्मल जल से युक्त १—१ सरोवर होता है। एक— एक सरोवर में एक— एक कमलवन रहते हैं। इन कमलवनों में ३२—३२ महाकमल होते हैं। विक्रिया से बनाये गये ये कमल सुवर्णमय हैं। एक— एक कमल पर १—१ नाट्यशाला होती है। उस १—१ नाट्यशाला में ३२—३२ अप्सरायें नृत्य करती रहती हैं। सौधर्म इन्द्र भगवान् के जन्मोत्सव आदि अवसर में इसी ऐरावत हाथी पर बैठकर आता है। सौधर्म इन्द्र के लोकपालों का परिवार — लोकपालों में से प्रत्येक के विमानों की संख्या छह लाख , छ्यासठ हजार, छह सौ छयासठ हैं। प्रत्येक लोकपाल के तीन करोड़, पचास लाख देवांगनाये होती हैं। इन्द्रों की विक्रिया — इन्द्र—इन्द्राणी अथवा देवगण मूल शरीर से कहीं भी नहीं जाते—आते हैं। तीर्थंकरों के कल्याणकों में, अकृत्रिम चैत्यालयों की वंदना करने हेतु या अन्यत्र कहीं भी क्रीड़ा हेतु जाने में ये इन्द्रादिदेव विक्रिया से निर्मित शरीर से ही गमनागमन करते हैं। मूल शरीर से नहीं । ये देवगण अंतर्मुहूर्त—अंतर्मुहूर्त में शरीर की नई—नई विक्रिया करते रहते हैं। इसमें इन्हें कष्ट का अनुभव नहीं होता है प्रत्युत आनंद का अनुभव होता है।
आयु — सौधर्म स्वर्ग में उत्कृष्ट आयु २ सागर प्रमाण है। जघन्य आयु १ पल्य है। इनमें देवियों की जघन्य आयु १ पल्य से कुछ अधिक और उत्कृष्ट आयु ५ पल्य है। अवगाहना — सौधर्म स्वर्ग में शरीर की ऊँचाई ७ हाथ प्रमाण है। आहार व उच्छ्वास — जिन देवों की आयु २ सागर है वे २००० वर्षों के बीत जाने पर दिव्य अमृतमय मानसिक आहार ग्रहण करते हैं और ये देव दो पक्ष बाद उच्छवास ग्रहण करते हैं। जिनकी आयु पल्य प्रमाण है वे पाँच दिन में आहार ग्रहण करते हैं। विशेष व्यवस्था त्रिलोकसार आदि से समझना चाहिये। कायप्रवीचार विक्रियाआदि— सौधर्म स्वर्ग के देव— देवियाँ परस्पर में शरीर से काम—सेवन करते हैं। ये देव पहले नरक तक विक्रिया करते हैं। इनका अवधिज्ञान भी पहले नरक तक ही जानने में समर्थ है। अन्तराल — एक इन्द्र मरण को प्राप्त होता है तो उसी स्थान पर दूसरे इन्द्र का जन्म हो जाता है। कदाचित इन्द्र के मरने के बाद दूसरे इन्द्र के जन्म लेने में अधिक से अधिक अंतर पड़ जावे तो छह मास का पड़ सकता है। इसके बाद नियम से दूसरा इन्द्र जन्म ले लेता है। देवों में अकालमृत्यु नहीं होती है अत: वे अपनी आयु पूरी करके ही मरण को प्राप्त होते हैं। यहाँ तक संक्षेप से सौधर्म इन्द्र का वर्णन किया है विस्तार से तिलोयपण्णत्ति, त्रिलोकसार आदि ग्रन्थों से जानना चाहिये। ‘सुरेन्द्रता’ नाम के परमस्थान सौधर्म इन्द्र का पद प्रमुख है। क्योंकि तीर्थंकरों के कल्याणकों में प्रमुखता सौधर्म इन्द्र की ही रहती है। वैसे ईशान इन्द्र आदि इन्द्रों के पद प्राप्त करना भी इस परमस्थान गर्भित है। सौधर्म इन्द्र नियम से एक भवावतारी ही होता है। ईशान इन्द्र आदि उत्तर इन्द्रों के लिये कोई नियम नहीं है। यह इन्द्र पद सम्यग्दर्शन सहित घोर तपश्चरण करने वाले महामुनियों को ही प्राप्त होता है। अत: सप्त परमस्थान में पारिव्राज्य परमस्थान बाद में इस परमस्थान नाम आता है। जो भव्यजीव इस चतुर्थ परमस्थान प्राप्त कर लेता है वह क्रम से साम्राज्य अरिहंत पद और निर्वाण परमस्थान अधिकारी हो जाता है।

(५) साम्राज्य  परमस्थान

जसमें  चक्ररत्न के साथ—साथ निधियों और रत्नों से उत्पन्न हुये भोगोपभोग रूपी संपदाओं की परम्परा प्राप्त होती है ऐसे चक्रवर्ती के बड़े भारी राज्य को प्राप्त करना ‘साम्राज्य’ नाम का पाँचवाँ परमस्थान लाता है। इस पद के भोक्ता छह खण्ड पृथ्वी पर एक छत्र शासन करने वाले चक्रवर्ती कहलाते हैं। इस चक्रवर्ती पद में परिवार और विभूति कितनी होती है ? चक्रवर्ती के शरीर में वङ्का की हड्डियों के बन्धन और वङ्का के ही वेष्टन रहते हैं और वह वङ्कामय कीलियों से कीलित रहता है इसलिये अभेद्य रहता है। अर्थात् चक्रवर्ती के वङ्कावृषभनाराच संहनन रहता है। उनके शरीर का आकार और अंगोपांग बहुत ही सुन्दर मनोहर रहते हैं अर्थात् उनके समचतुरस्त्र—संस्थान रहता है। छह खण्ड के सभी राजाओं से अधिक उनके शरीर में बल रहता है। उनके सुदर्शन नामक चक्ररत्न के प्रभाव से छह खण्ड के सभी राजा उनकी आज्ञा को शिर से धारण करते हैं। बत्तीस हजार मुकुटबद्ध राजा उनके चरणों की सेवा करतें हैं। अच्छी—अच्छी रचना वाले बत्तीस हजार देश होते हैं। जिससे चक्रवर्ती का लम्बा—चौड़ा क्षेत्र बहुत ही अच्छा मालूम पड़ता है। ऐरावत हाथी के समान चौरासी लाख हाथी होते हैं। सूर्य की चाल के साथ स्पर्धा करने वाले दिव्य रत्नों से निर्मित चौरासी लाख ही रथ होते हैं। पृथ्वी, जल तथा आकाश में समान रूप से चलने में समर्थ ऐसे अठारह करोड़ घोड़े रहते हैं। योद्धाओं के मर्दन में प्रसिद्ध ऐसे चौरासी करोड़ पदाति—पैदल चलने वाले सिपाही रहते हैं। एक चक्रवर्ती के छयानवें हजार रानियाँ होती हैं। जिनमें बत्तीस हजार कन्यायें आर्यखण्ड की रहती हैं, विद्याधरों की बत्तीस हजार कन्यायें होती हैं एवं म्लेच्छ खण्ड के राजाओं की कन्यायें बत्तीस हजार होती हैं ऐसे कुल छयानवे हजार रानियाँ होती हैं । इन रानियों के साथ रति क्रीड़ा में चक्रवर्ती विक्रिया के प्रभाव से एक साथ ही एक कम १६ हजार रूप बना लेते हैं। तत्तीस हजार नाट्यशालायें होती हैं । इन्द्र के नगर के समान बहत्तर हजार नगर होते हैं।
नन्दनवन सदृश बगीचों से रम्य छयानवे करोड़ गाँव होते हैं। निन्यानवे हजार द्रोणमुख अर्थात् बन्दरगाह होते हैं। अड़तालीस हजार पत्तन होते हैं। कोट, परकोटे, अटारियाँ और परिखाओं से शोभायमान सोलह हजार खेट होते हैं। कुभोग भूमियाँ मनुष्यों से व्याप्त छप्पन अन्तरद्वीप होते हैं। जिनके चारों ओर पारिखा बनी रहती है ऐसे चौदह हजार संवाह—पहाड़ों पर बसने वाले नगर होते हैं। चावलों को पकाने वाले ऐसे पाकशालाओं में एक करोड़ हण्डे होते हैं। जिनके साथ बीज की नाली लगी हुई है ऐसे एक लाख करोड़ हल होते हैं। दही मथने में शब्दों से पथिकों को आकृर्षित करने वाली ऐसे तीन करोड़ वङ्का अर्थात् गोशालायें रहती हैं। जहाँ रत्नों के व्यापरा होते हैं ऐसे सात सौ कुक्षिवास होते हैं । निर्जन प्रदेश और ऊँचे—ऊँचे पहाढ़ी विभागों से विभक्त ऐसे अठ्ठाईस हजार सघन वन होते हैं। जिनके चारों ओर रत्नों की खाने विद्यमान हैं ऐसे अठारह हजार म्लेच्छ राजा होते हैं। प्रत्येक चक्रवर्ती के काल, महाकाल, नैस्सप्र्य, पांडुक, पद्म, माणव, पिंगल, शंख, और सर्वरत्न इन नामों से प्रसिद्ध ऐसी नव निधियाँ होती हैं। जिनसे चक्रवर्ती घर की आजीविका से बिल्कुल निश्ंिचत रहते हैं। ‘काल’ नाम की निधि से प्रतिदिन लौकिक शास्त्र, व्याकरण आदि की उत्पत्ति होती रहती है। तथा यही निधि वीणा, बांसुरी आदि इंद्रियों के मनोज्ञ विषय भी प्रदान करती रहती है। महाकाल नाम की निधि असि,मषी आदि छह कर्मों के साधन भूत द्रव्य तथा सम्पदाओं को उत्पन्न करती रहती है।
नैस्सप्र्य निधि से शय्या आसन, मकान आदि मिलते रहते हैं। पाण्डुक निधि से धान्यों की उत्पत्ति होती है तथा छहों प्रकार के रस भी मिलते रहते हैं। पाण्डुक निधि से धान्यों की उत्पत्ति होती है तथा छहों प्रकार के रस भी मिलते रहते हैं । पद्मनिधि रेशमी, सूती आदि सब तरह के वस्त्रों को देती रहती है। पिंगल निधि से भव्य आभरण मिलते रहते हैं। माणव निधि से नीतिशास्त्र तथा अनेक प्रकार के शास्त्रों की उत्पत्ति होती है। शंख निधि से सुवर्ण उत्पन्न होता है और सर्वरत्न नाम की निधि से नील, मरकत, पद्मराग आदि नाना मणिरत्नों की उत्पत्ति होती रहती है। चक्रवर्ती के चौदह रत्न होते हैं जिनमें सात अजीव और सात सजीव होते हैं। चक्र, छत्र, दण्ड, असि, मणि, चर्म और काकिणी ये सात अजीव रत्न हैं एवं सेनापति , गृहपति, हाथी, घोड़ा, स्त्री, स्थपति (सिलावट) और पुरोहित ये सात सजीव रत्न हैं। चक्र, दण्ड, असि और छत्र ये चार रत्न आयुधशाला में उत्पन्न होते हैं। मणि, चर्म तथा काकिणी ये तीन रत्न श्रीगृह में प्रगट होते हैं। स्त्री, हाथी और घोड़ा इन तीन की उत्पत्ति विजयार्ध शैल पर होती है और अन्य रत्न निधियों के साथ—साथ अयोध्या में ही उत्पन्न होते हैं। चक्रवर्ती सम्राट् स्त्री रत्न के साथ—साथ छहों ऋतुओं में उत्पन्न होने वाले पंचेंद्रियों के योग्य भोगों को भोगता है। भरत चक्रवर्ती के सुभद्रा नाम का स्त्री रत्न था। चक्रवर्ती के दशांग भोग माने गये हैं— रत्न सहित नौ निधियाँ, रानियाँ, नगर, शय्या, आसन, सेना, नाट्यशाला, भाजन, भोजन और वाहन ये दश भोग के साधन होते हैं। चक्रवर्ती के रत्न, निधि और स्वयं की रक्षा करने में तत्पर ऐसे सोलह हजार गणबद्ध देव होते हैं। जो हाथ में तलवार धारण कर रक्षा करते हैं। चक्रवर्ती के घर को घेरे हुये ‘क्षितिसार’ नाम का कोट होता है। देदीप्यमान रत्नों के तोरणों से युक्त ‘सर्वतोभद्र’ नाम का गोपुर रहता है। उनकी बड़ी भारी छावनी के ठहरने का स्थान ‘नंद्यावर्त’ नाम का है। सब ऋतुओं में सुख देने वाला ऐसा ‘वैजयन्त’ नाम का महल होता है। बहुमूल्य रत्नों से जड़ी हुई ‘दिक्स्वस्तिका’ नाम की सभा भूमि होती है। टहलने के समय हाथ में लेने के लिये मणियों की बनी हुई ‘सुविधि’ नाम की छड़ी रहती है। सब दिशायें देखने के लिये ‘गिरिकूटक’ नाम का राजमहल होता है।
चक्रवर्ती के नृत्य देखने के लिये ‘वर्धमानक’ नाम की नृत्यशाला होती है। ग्रीष्म संताप दूर करने के लिये बड़ा भारी ‘धारागृह’ रहता है। वर्षा ऋतु में निवास करने वे लिये ‘गृहकूटक’ नाम का महल रहता है। सफेद चूना से पुता हुआ ‘पुष्करावर्त’ नाम का खास महल होता है। ‘वसुधारक’ नाम का बड़ा भारी अटूट कोठार रहता है। और ‘जीमूत’ नाम का बहुत बड़ा स्नानगृह होता है। ‘कुबेरकांत’ नाम का भण्डारगृह रहता है जो कभी खाली नहीं होता है। ‘अवतंसिका’ नाम की सुन्दर माला होती है। ‘देवरम्या’ नाम की सुन्दर चाँदनी होती है ‘सिंहवाहिनी’ नाम की शय्या रहती है। तथा ‘अनुत्तर’ नाम का सिंहासन होता है। विजयार्धकुमार के द्वारा प्रदत्त ‘अनुपमान’ नाम के चंवर होते हैं। बहुमूल्य रत्नों से निर्मित ‘सूर्यप्रभ’ नाम का देदीप्यमान छत्र होता है। विद्युत् की दीप्ति को तिरस्कृत करने वाले ‘विद्युत्प्रभ’ नाम के दो सुन्दर कुण्डल होते हैं। ‘विषमोचिका’ नाम की खड़ाऊं होती है जो कि चक्रवर्ती के अतिरिक्त दूसरे के पैर का स्पर्श होते ही विष छोड़ने लगती है। ‘अभेद्य’ नाम का कवच रहता है। दिव्यशास्त्रों से सुसज्जित ‘अजितंजय’ नाम का रथ होता है।
जिसकी प्रत्यञ्चा के आघात से समस्त संसार काँप उठे ऐसा ‘वजुकाण्ड’ नाम का धनुष होता है। जो कभी व्यर्थ नहीं जाते ऐसे ‘अमोघ’ नाम के बाण होते हैं। वङ्का से निर्मित ऐसी ‘वङ्कातुण्डा’ नामक शक्ति (शास्त्र) होती है। ‘सिंहाटक’ नाम का भाला होता है। रत्नों से जिसकी मूठ बनी हुई है ऐसी ‘लोहवाहिनी’ नाम की छुरी रहती है। व्रज के समान ‘मनोवेग’ नाम का कणप (अस्त्रविशेष) रहता है। ‘सौनंदक’ नाम की उत्तम तलवार होती है। भूतों के मुखों से चिन्हित ‘भूतमुख’ नाम का खेट (अस्त्रविशेष) रहता है। ‘सुदर्शन’ नाम का चक्ररत्न होता है। ‘चण्डवेग’ नाम का दण्डरत्न होता है। वङ्कामय ‘चर्मरत्न’ रहता है जिसके बल से चक्रवर्ती की सेना जल के उपद्रव से बच जाती है। ‘चूड़ामणि’ नाम का चिंतामणि रत्न रहता है। ‘चिंताजननी’ नाम का काकिणी रतन होता है। जो विजयार्ध पर्वत की गुफाओं के अन्धकार को दूर करता है। अयोध्या नाम का सेनापति रत्न होता है। समस्त धार्मिकक्रियाओं में कुशल ‘बुद्धिसागर’ नाम का पुरोहित रत्न रहता है। ‘कामवृष्टि’ नाम का गृहपति रत्न होता है। राजभवन आदि के निर्माण में कुशल ‘भद्रमुख’ नाम का शिलावटरत्न— इंजीनियर रहता है।
‘विजयपर्वत’ नाम का सफेद हाथी होता है। विजयार्ध पर्वत की गुफा के मध्य भाग को लीलामात्र में उल्लंघन करने वाला ‘पवनञ्जय’ नाम का घोड़ा होता है। तथा ‘सुभद्रा’ नाम का स्त्रीरत्न होता है। चक्रवर्ती के इन दिव्य रत्नों की देवगण सदा रक्षा किया करते हैं। चक्रवर्ती के बारह योजन तक गम्भीर आवाज पहुँचाने वाली ऐसी ‘आनन्ददायिनी’ नाम की बारह भेरियाँ होती हैं। इसी प्रकार के ‘विजयघोष’ नाम के बारह पटह नगाड़े होते हैं। ‘गम्भीरावर्त’ नाम के चौबीस शंख होते हैं। वायु के झकोरे से उड़ती हुई और चक्रवर्ती के यश को फैलाती हुई ‘अड़तीस करोड़’‘पताकायें होती हैं। चक्रवर्ती को हाथ में पहनने के लिये ‘वीरांगद’ नाम के रत्ननिर्मित उत्तम कड़े होते हैं ‘महाकल्याण’ नाम का दिव्य भोजन होता है जो कि उनको अतिशय तृप्ति और पुष्टि करता है, जिसे अन्य कोई नहीं पचा सकते ऐसे गरिष्ठ, स्वादिष्ट और सुगन्धित ‘अमृतगर्भ’ नाम के मोदक आदि भक्ष्य पदार्थ होते हैं। ‘अमृतकल्प’ नाम के खाद्यपदार्थ एवं ‘अमृत’ नाम के दिव्य पानक— पीने योग्य पदार्थ होते हैं। चक्रवर्ती के ये सब भोगोपभोग के साधन उसके पुण्यरूप कल्पवृक्ष के ही फल रूप से फलते हैं। उन्हें अन्य कोई नहीं भोग सकता है और वे संसार में अपनी बराबरी नहीं रखते हैं। ‘चक्रवर्ती के बन्धुवुल— परिवार का प्रमाण साढ़े तीन करोड़ होता है। और संख्यात हजार पुत्र—पुत्रियाँ होती हैं।’ ये सब चक्रवर्ती का वैभव उन्हें ही प्राप्त होता है जो ‘सज्जाति, सद्गार्हस्थ्य, पारिव्राज्य और सुरेन्द्रता’ नाम के चार परम स्थानों को प्राप्त कर चुके हैं। मुनिव्रत धारण कर जो सम्यक्तव सहित घोर तपश्चरण करते हैं वे ही चक्रवर्ती के साम्राज्य रूप इस पाँचवें परम स्थान के स्वामी होते हैं।

(६) आर्हन्त्य  परमस्थान’

अर्हंत परमेष्ठी का भाव अथवा कर्मरूप जो उत्कृष्ट क्रिया है उसे आर्हन्त्य क्रिया कहते हैं। इस क्रिया में स्वर्गावतार आदि महाकल्याणरूप संपदाओं की प्राप्ति होती है। स्वर्ग से अवतीर्ण हुये तीर्थंकर महापुरुष को जो पंचकल्याणकरूप संपदाओं का मिलना है उसे ही आर्हंत्य नाम का छठा परमस्थान नना चाहिये। जिन्होंने सोलह कारण भावनाओं को भाते हुये तीर्थंकर के पादमूल में अथवा सामान्यकेवली या श्रुतकेवली के पादमूल में तीर्थंकर नामक नामकर्म की प्रकृति का बंध कर लिया है ऐसे महामुनि स्वर्ग में जाकर इंद्र—अहमिंद्र आदि उत्तम पद को प्राप्त कर लेते हैं। वहाँ के सुखों का अनुभव करते हुये जब उनकी आयु छह महिने की शेष रह जाती है तब यहाँ मत्र्यलोक में जिस क्षत्रिय महाराजा के यहाँ उनका जन्म होने को होता है इंद्र की आज्ञा से कुबेर उस नगरी को स्वर्गपुरी के समान सुंदर सजाकर माता के आंगन में प्रतिदिन साढ़े तीन करोड़ प्रमाण रत्नों की वर्षा करना शुरू कर देता है। तीर्थंकर शिशु के गर्भ में आने के पूर्व ही माता वृषभ आदि उत्तम— उत्तम सोलह स्वप्नों को देखती है। श्री ह्री आदि देवियां इन्द्र की आज्ञा से माता की सेवा में तत्पर हो जाती हैं। जब वह स्वर्ग का इन्द्र अपनी आयु पूर्णकर माता के गर्भ में अवतीर्ण होता है तब इन्द्रादि देवगण आसन के कंपायमान होने से भगवान् का गर्भावतार जानकर मत्र्यलोक में आकर माता—पिता की पूजा कर गर्भ कल्याणक उत्सव मनाते हैं। नव महीने बाद तीर्थंकर का जन्म होते ही इन्द्र महावैभव सहित यहाँ आकर बालक को सुमेरु पर्वत पर ले जाकर १००८ कलशों से महा अभिषेक आदि क्रिया संपन्न करके जन्मकल्याणक महोत्सव मनाते हैं। तीर्थंकर महापुरुष को राज्य अनुशासन करने के बाद अथवा किसी को कुमारावस्था में ही वैराग्य हो जाने से जब वे दीक्षा के लिये तैयार होते हैं तब इंद्रों द्वारा प्रभु का दीक्षा कल्याणक उत्सव मनाया जाता है। दीक्षा लेकर तपश्चरण करते हुये जब केवलज्ञान उत्पन्न हो जाता है। तब इंद्र की आज्ञा से समवसरण की रचना की जाती है। उस समय इंद्रगण बड़ी भक्ति से आकर ज्ञानकल्याणक महोत्सव मनाते हैं । इसी समय तीर्थंकर प्रकृति उदय में आती है और यह समवसरण आदि वैभव आर्हन्त्य वैभव कहलाता है। मुख्यरूप से यही आर्हन्त्य अवस्था छठा परम[[परमस्थान]]। बहुत काल तक श्रीविहार करते हुये भगवान् असंख्य प्राणियों को धर्मामृत का पान कराते हैं पुन: आयु के अंत में निर्वाण धाम को प्राप्त कर लेते हैं। उस समय भी इंद्रों द्वारा निर्वाण कल्याणक उत्सव किया जाता है । इस प्रकार से गर्भ, जन्म, तप, ज्ञान और निर्वाण ये पांच कल्याणक कहलाते हैं। यहाँ पर आर्हन्त्य परम[[परमस्थान]] प्रकरण होने से केवलज्ञान के अनंतर होने वाली आर्हन्त्य विभूति का कुछ वर्णन करना आवश्यक प्रतीत होता है। केवलज्ञान के उत्पन्न होते ही तीर्थंकर का परमौदारिक शरीर पृथ्वी से पाँच हजार धनुष प्रमाण ऊपर चला जाता है।
उस समय तीनों लोकों में अतिशय क्षोभ उत्पन्न होता है और सौधर्म आदि इन्द्रों के आसन कंपायमान हो जाते हैं। भवनवासी देवों के यहाँ अपने आप शंख का नाद होने लगता है। व्यंतरवासी देवों के यहाँ भेरी बजने लगती है, ज्योतिषी देवों के यहाँ सिंहनाद होने लगता है और कल्पवासी देवों के यहाँ घण्टा बजने लगता है। इंद्रों के मुकुट के अग्रभाग स्वयमेव झुक जाते हैं और कल्पवृक्षों से पुष्पों की वर्षा होने लगती है। इन सभी कारणों से इन्द्र और देवगण तीर्थंकर के केवलज्ञान की उत्पत्ति को जानकर भक्तियुक्त होते हुये सात पैर आगे बढ़कर भगवान् को प्रणाम करते हैं। जो अहमिन्द्रदेव हैं, वे भी आसनों के कंपित होने से केवलज्ञान की उत्पत्ति को जानकर सात पैर आगे बढ़कर वहीं से परोक्ष में जिनेंद्रदेव की वंदना कर अपना जीवन सफल कर लेते हैं। सोलह स्वर्ग तक के देव—देवियाँ तो भगवान् की वंदना के लिये चले आते हैं। उसी क्षण सौधर्म इन्द्र की आज्ञा से कुबेर विक्रिया के द्वारा तीर्थंकर के समवसरण (धर्मसभा) को विचित्र रूप से रचता है। उस समवसरण का अनुपम संपूर्णस्वरूप वर्णन करने के लिये साक्षात् सरस्वती भी समर्थ नहीं है। यहाँ पर लेशमात्र वर्णन किया जाता है१। इस समवसरण के वर्णन में यहाँ ३१ विषय बताये जा रहे हैं — सामान्य भूमि, सोपान, विन्यास, वीथी, धूलिशाल, चैत्यप्रासाद भूमि, नृत्यशाला, मानस्तम्भ, वेदी, खातिका, वेदी, लताभूमि, साल, उपवनभूमि, नृत्यशाला, वेदी, घ्वजभूमि, साल, कल्पभूमि, नृत्यशाला, वेदी, भवनभूमि, स्तूप, साल, श्रीमण्डप, ऋषि आदि गुणों का विन्यास, वेदी, प्रथम पीठ , द्वितीय पीठ , तृतीय पीठ और गंधकुटी।
१. सामान्य भूमि — समवसरण की संपूर्ण सामान्य भूमि सूर्यमण्डल के सदृश गोल, इन्द्रनीलमणिमयी होती है।
यह सामान्यतया बारह योजन प्रमाण होती है। विदेह क्षेत्र के संपूर्ण तीर्थंकरों की समवसरण भूमि का यही प्रमाण है। यहाँ भरत क्षेत्र के और ऐरावत के तीर्थंकरों की समवसरण भूमि का उत्कृष्ट प्रमाण यही है जघन्य प्रमाण एक योजन मात्र है। मध्यम के अनेक भेद हैं। जैसे कि भगवान् वृषभदेव का समवसरण बारह योजन का था शेष तीर्थंकरों का घटते—घटते अंतिम भगवान् महावीर का एक योजन मात्र था।
२. सोपान — समवसरण में चढ़ने के लिए भूमि से १ हाथ ऊपर से आकाश में चारों ही दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में ऊपर—ऊपर २०,००० सीढ़ियाँ होती हैं। ये सीढ़ियाँ १ हाथ ऊँची और इतनी ही विस्तार वाली रहती हैं। ये सब स्वर्ण से निर्मित होती हैं। देव, मनुष्य और तिर्यंच गण अंतर्मुहूर्त मात्र में ही इन सभी सीढ़ियों को पार कर समवसरण में पहुँच जाते हैं।
३. विन्यास — समवसरण में चार कोट, पांच वेदियाँ, इनके बीच में आठ भूमियाँ और सर्वत्र प्रत्येक अन्तर भाग में तीन पीठ होते हैं । इस क्रम से समवसरण में सारी रचनायें रहती हैं। इन सबका वर्णन क्रम से आ जावेगा।
४. वीथी — प्रत्येक समवसरण में प्रारम्भ से लेकर प्रथम पीठ (कटनी) पर्यंत, सीढ़ियों की लम्बाई के बराबर विस्तार वाली चार वीथियाँ होती हैं। यहाँ ‘वीथी’ से जाने का मार्ग (सड़क) समझना चाहिये। इन वीथियों के पाश्र्व भाग में स्फटिकपाषाण से बनी हुई वेदियाँ होती हैं। ये बाउंड्रीवाल के समान हैं। जो आठ भूमियाँ कही जायेंगी उन आठों भूमियों के मूल में वङ्कामय कपाटों से सुशोभित बहुत से तोरणद्वार होते हैं। जिनमें देव, मनुष्य और तिर्यंचों का संचार बना रहता है।
५. धूलिशाल — सबके बाहर विशाल एवं समान गोल, मानुषोत्तर पर्वत के आकार—वाला धूलिशाल नाम का कोट होता है यह पंचवर्णी रत्नों से निर्मित होता है इसलिये इसका धूलिशाल नाम सार्थक है। इस कोट में मार्ग, अट्टालिकायें और पताकायें रहती हैं। चार गोपुर द्वार (मुख्य फाटक) होते हैं। यह तीनों लोकों को विस्मित करने वाला बहुत ही सुन्दर दिखता है। इस कोट के चारों गोपुर
१. यह समवसरण का वर्णन तिलोयपण्णति ग्रन्थ के आधार से है। द्वारों में से पूर्वद्वार का नाम ‘विजय’ है, दक्षिणद्वार का ‘वैजयंत’ है, पश्चिमद्वार को ‘जयंत’ और उत्तरद्वार को ‘अपराजित’ कहते हैं । ये चारों द्वार सुवर्ण से बने रहते हैं, तीन भूमियों (खनों ) से सहित देव और मनुष्य के जोड़ों से संयुक्त और तोरणों पर लटकती हुई मणिमालाओं से शोभायमान होते हैं। पुतली के ऊपर गोशीर्ष, और कालगास आदि भूपों के गंध से व्याप्त एक—एक प्रत्येक द्वार के बाहर और मध्य भाग में, द्वार के पाश्र्व भागों में मंगल—द्रव्य, निधि और धूपघट से युक्त विस्तीर्ण पुतलियाँ होती हैं। झारी, कलश, दर्पण, चामर, ध्वजा, पंखा, छत्र, और सुप्रतिष्ठ (ठोना) ये ८ मंगलद्रव्य हैं। ये प्रत्येक १०८—१०८ होते हैं। काल, महाकाल, पाण्डु, माण्वक, शंख, पद्म, नैसर्प, पिंगल और नानारत्न , ये नव निधियाँउ प्रत्येक १०८ होती हैं। ये निधियाँ क्रम से ऋतु के योग्य द्रव्य—माला आदि भाजन,धान्य, आयुध, वादित्र, वस्त्र,महल, आभरण, और सम्पूर्ण रत्नों को देती हैं। वहाँ एक—एक धूप घट होते हैं। इन विजय आदि द्वार के प्रत्येक बाह्य भाग में सैकड़ों मकरतोरण और अभ्यंतर भाग में सैकड़ों रत्नमय तोरण होते हैं। इन द्वारों के बीच दोनों पाश्र्व भागों में एक—एक नाट्यशाला होती है जिसमें देवांगनायें नृत्य करती रहती हैं। इस धूलिशाल के चारों गोपुर द्वारों पर ज्योतिष्कदेव द्वार रक्षक होते हैं जो कि हाथ में रत्नदण्ड को लिये रहते हैं। इन चारों दरवाजों के बाहर और अन्दर भाग में सीढ़ियाँ बनी रहती हैं जिनसे सुखपूर्वक संचार किया जाता है । प्रत्येक समवसरण के धूलिशाल कोट की ऊँचाई अपने तीर्थंकर के शरीर से चौगुनी होती है। इस कोट की ऊँचाई से तोरणों की ऊँचाई अधिक रहती है और इससे भी अधिक विजय आदि द्वारों की ऊँचाई रहती है।
६. चैत्यप्रासाद — धूलिशाल के अभ्यंतर भाग में ‘चैत्यप्रासाद’ नामक भूमि सकलक्षेत्र को घेरे हुये बनी रहती है। इसमें एक—एक जिन भवन के अन्तराल से ५—५ प्रासाद बने रहते हैं जो विविध प्रकार के वनखण्ड और बावड़ी आदि से रमणीय होते हैं। इन जिन भवन और प्रासादों की ऊँचाई अपने तीर्थंकर की ऊँचाई से बारह गुणी रहती है।
७. नृत्यशाला — प्रथम पृथ्वी में पृथक्—पृथक् वीथियों के दोनों पाश्र्व भागों में उत्तम सुवर्ण एवं रत्नों से निर्मित दो—दो नाट्यशालायें होती हैं। प्रत्येक नाट्यशाला में ३२ रंग— भूमियाँ और प्रत्येक रंगभूमि में ३२ भवनवासी देवियाँ नृत्य करती हुई नाना अर्थ से युक्त दिव्य गीतों द्वारा तीर्थंकरों के विजय के गीत गाती हैं और पुष्पाञ्जलि क्षेपण करती हैं। प्रत्येक नाट्यशाला में नाना प्रकार की सुगंधित धूप से दिग्मंडल को सुवासित करने वाले दो—दो धूपघट रहते हैं।
८. मानस्तम्भ — प्रथम पृथ्वी के बहुमध्य भाग में चारों वीथियों के बीचों—बीच समान गोल मानस्तम्भ भूमियाँ होती हैं। उनके अभ्यंतर भाग में चार गोपुर द्वारों से सुन्दर, कोट होते हैं । इनके भी मध्य भाग में विविध प्रकार के दिव्य वृक्षों से युक्त वनखण्ड होते हैं। इनके मध्य में पूर्वादि दिशाओं में क्रम से सोम, यम, वरुण और कुबेर इन लोकपालों के रमणीय क्रीड़ानगर होते हैं उनके अभ्यंतर भाग में चार गोपुरद्वार से युक्त कोट और इसके आगे वनवापिकायें होती हैं जिनमें नील कमल खिले रहते हैं। उनके बीच में लोकपालों के अपनी—अपनी दिशा तथा चार विदिशाओं में भी दिव्य क्रीड़ानगर होते हैं। उनके अभ्यंतर भाग में उत्तम विशाल द्वारों युक्त कोट होते हैं और फिर इनके बीच में पीठ होते हैं। इनमें से पहला पीठ वैडूर्यमणिमय, उसके ऊपर दूसरा पीठ सुवर्णमय और उसके ऊपर तीसरा पीठ बहुत वर्ण के रत्नों से निर्मित होता है। ये तीन पीठ तीन कटनी रूप होते हैं। इन पीठों के ऊपर मानस्तम्भ होते हैं। इन मानस्तम्भों की ऊँचाई अपने—अपने तीर्थंकर की ऊँचाई से बारहगुणी होती है। प्रत्येक मानस्तम्भ का मूलभाग वङ्का से युक्त और मध्यम भाग स्फटिकमणि से निर्मित होता है। इन मानस्तम्भों के उपरिमभाग वैडूर्यमणिमय रहते हैं। ये मानस्तम्भ गोलाकार होते हैं। इनमें चमर,—घंटा किंकणी, रत्नहार और ध्वजायें सुशोभित रहती हैं। इनके शिखर पर प्रत्येक दिशा में आठ प्रातिहार्यों से युक्त रमणीय एक—एक जिनेन्द्र प्रतिमायें होती हैं। दूर से ही मानस्तम्भों के देखने से मान से युक्त मिथ्यादृष्टि लोग अभिमान से रहित हो जाते हैं, इसीलिये इनका ‘मानस्तम्भ’ यह नाम सार्थक है। सभी समवसरण में तीनों कोटों के बाहर चार दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में क्रम से पूर्वादि वीथी (गली) के आश्रित पूर्वादि भागों में विजया, वैजयंता, जयन्ता और अपराजिता नामक चार वापिकायें होती हैं। पश्चिम मानस्तम्भ के आश्रित वापिकायें होती हैं। पूर्व दिशा के मानस्तम्भ के पूर्वादि भागों में क्रम से नंदोत्तरा, नंदा नंदिमती और नंदीघोषा नामक चार वापिकायें होती हैं। दक्षिण मानस्तम्भ के आश्रित पूर्वादि भागों में क्रम से अशोका, सुप्रबुद्धा, कुमुदा और पुण्डरीका ये चार वापिकायें होती हैं। उत्तर मानस्तम्भ के आश्रित पूर्वादि भागों में क्रम से हृदयानन्दा, महानन्दा, सुप्रतिबुद्धा और प्रभंकरा ये चार वापिकायें होती हैं। ये वापिकायें समचतुष्कोण, कमलादि से संयुक्त, प्रभंकरा ये चार वापिकायें होती हैं। ये वापिकायें समचतुष्कोण, कमलादि से संयुक्त, टंकोत्कीर्ण, वेदिका, चार तोरण एवं रत्नमालाओं से रमणीय होती हैं। सब वापिकाओं के चारों तटों में से प्रत्येक तट पर जलक्रीड़ा के योग्य दिव्य द्रव्यों से परिपूर्ण मणिमयी सीढ़ियाँ होती हैं। इन वापिकाओं में भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और कल्पवासी देव तथा मनुष्य क्रीड़ा क्रिया करते हैं। प्रत्येक वापिकाओं के आश्रित, निर्मल जल से परिपूर्र्ण दो—दो कुण्ड होते हैं।, जिनमें देव, मनुष्य और तिर्यंच अपने पैरों की धूलि धोया करते हैं।
९. प्रथम वेदी — इस समवसरण में उत्तम रत्नमय ध्वजा, तोरण और घंटाओं से युक्त प्रथम वेदिका होती है। इसमें गोपुर द्वार, पुत्तलिका, १०८ मंगलद्रव्य एवं नव निधियाँ पूर्व के समान ही होती हैं। इन वेदियों के मूल और उपरिम भाग का विस्तार धूलिशाल कोट के मूलविस्तार के समान होता है।
१०. खातिका — इसके आगे स्वच्छ जल से परिपूर्ण और अपने जिनेन्द्रदेव की ऊँचाई के चतुर्थ भाग प्रमाण खातिका (खाई) होती है। इस खातिका में खिले हुये कुमुद, कुवलय और कमल अपनी सुगन्धि फैलाते रहते हैं, इनमें मणिमय सीढ़ियाँ बनी रहती हैं एवं हंस, सारस आदि पक्षी सदा क्रीड़ा किया करते हैं।
११. द्वितीय वेदी — यह वेदिका भी अपनी पूर्व वेदी के सदृश है। इसका विस्तार प्रथम वेदिका से दूना माना गया है।
१२. लताभूमि — इसके आगे पुन्नाग, नाग, कुब्जक, शतपत्र और अतिमुक्त आदि से संयुक्त, क्रीड़ा, पर्वतों से सुशोभित, फूले हुये कमलों से सहित जल भरी बावड़ियों से मनोहर ऐसी लताभूमि शोभायमान होती हैं।
१३. साल — इसके आगे दूसरा कोट है इसे ही साल कहते हैं। इसका सारा वर्णन धूलिसाल कोट के समान है। अन्तर इतना ही है कि यह विस्तार में उसका दूना रहता है। रजतमयी है एवं यक्ष जाति के देव इसके चारों द्वारों पर खड़े रहते हैं।
१४. उपवन भूमि — द्वतीय कोट के आगे चौथी उपवनभूमि होती है। इसमें पूर्वादि दिशाओं के क्रम से अशोकवन, सप्तपर्णवन, चम्पकवन और आम्रवन, ये चार वन शोभायमान होते हैं। यह भूमि विविध प्रकार के वन समूहों से मण्डित, विविध नदियों के पुलिन और क्रीड़ा पर्वतों से तथा अनेक प्रकार की उत्तम वापिकाओं से रमणीय होती है। इस भूमि में अशोक, सप्तपर्ण, चम्पक और आम्र ये चार सुन्दर वृक्ष होते हैं इन्हें चैत्यवृक्ष कहते हैं । इनकी ऊँचाई अपने तीर्थंकर की ऊँचाई से बारहगुणी रहती है। एक — एक चैत्यवृक्ष के आश्रित आठ प्रातिहार्यों से संयुक्त चार—चार मणिमय जिनप्रतिमायें होती हैं। इस उपवन भूमि की बावड़ियों के जल में निरिक्षण करने पर प्रत्येक जन अपने अतीत — अनागत सात भावों को देख लेते हैं। एक—एक चैत्यवृक्ष के आश्रित तीन कोटों से वेष्टित व तीन कटनियों के ऊपर चार—चार मानस्तमभ होते हैं। इन मानस्तम्भों के चारों तरफ भी कमल आदि फूलों से युक्त स्वच्छ जल से भरित वापियाँ होती है। वहाँ कहीं पर रमणीय भवन, कहीं क्रीड़नशाला और कहीं नृत्य करती हुई देवांगनाओं से युक्त नाट्यशालायें होती हैं। ये रमणीय भवन पंक्ति क्रम से इस भूमि में शोभायमान होते हैं। ये भवन भी कई खनों से र्नििमत अपने तीर्थंकर की ऊँचाई से बारहगुणे ऊँचे होते हैं। अपनी प्रथम भूमि की अपेक्षा इस उपवन भूमि का विस्तार दूना होता है।
१५. नृत्यशाला — सब वनों के आश्रित सब वीथियों (गलियों) के दोनों पाश्र्व भागों में दो—दो नाट्यशालायें होती हैं। इनमें से आदि की आठ नाट्यशालाओं में
भवनवासिनी देवांगनायें और इससे आगे की आठ नाट्शालयों में कल्पवासिनी देवांगनायें नृत्य किया करती हैं। इन नाट्यशालाओं का सुन्दर वर्णन पूर्व के समान है।
१६. तृतीय वेदी — यह तीसरी वेदिका अपनी दूसरी वेदिका के समान है, अन्तर इतना ही है कि यहाँ के चारों द्वारों के रक्षक यक्षेन्द्र रहते हैं।
१७.ध्वजभूमि — वेदिका के आगे इस पंचम ध्वजभूमि में दिव्य ध्वजायें होती हैं। जिनमें िंसह, गज, वृषभ, गरुड़, मयूर, चन्द्र, सूर्य, हंस, पद्म और चक्र ये दश प्रकार के चिन्ह बने रहते हैं। चारों दिशाओं में से प्रत्येक दिशा में इन दश प्रकार की ध्वजाओं में से प्रत्येक १०८ रहती हैं। और इनमें से भी प्रत्येक ध्वजा अपनी १०८ क्षुद्रध्वजाओं से संयुक्त रहती हैं। इस प्रकार इस ध्वजभूमि में महाध्वजा १० ² १०८ ² ४ · ४३२० व क्षुद्रध्वजायें १० ² १०८ ² १०८ ² ४ · ४६६५६०। समस्त ध्वजायें ४३२० ± ४६६५६० · ४७०८८० होती हैं। ये समस्त ध्वजायें रत्नों से खचित सुवर्णमय स्तम्भों में लगी रहती हैं। इन ध्वजस्तम्भों की ऊँचाई अपने तीर्थंकर की ऊँचाई से बारहगुणी रहती है।
१८. साल — इस ध्वजभूमि के आगे चाँदी के समान वर्णवाला तीसरा कोट अपने धूलिशाल कोट के ही सदृश है। इस कोट का विस्तार द्वितीय कोट की अपेक्षा दूना है। और इसके द्वार रक्षक भवनवासी देव रहते हैं।
१९. कल्पभूमि — इस छठी भूमि का नाम कल्पभूमि है, यह दश प्रकार के कल्पवृक्षों से परिपूर्ण है। पानांग, तूर्यांग, भूषणांग, वस्त्रांग, भोजनांग, आलयांग, दीपांग, भाजनांग, मालांग और तेजांग, ये देश प्रकार के कल्पवृक्ष हैं। इस भूमि में कहीं पर कमल, उत्पल से सुगंधित बावड़ियाँ हैंं, कही पर रमणीय प्रासाद, कहीं पर क्रीड़नशालायें और कहीं पर जिनेन्द्रदेव के विजयचरित्र के गीतों से युक्त प्रेक्षणशालायें होती हैं। ये सब भवन बहुत भूमियों (खनों) से सुशोभित, रत्नों से निर्मित पंक्तिक्रम से शोभायमान होते हैं। इस कल्पभूमि के भीतर पूर्वादि दिशाओं में नमेरू, मंदार, संतानक और पारिजात ये चार—चार महान् सिद्धार्थ वृक्ष होते हैं ये वृक्ष तीनों कोटों से युक्त और तीन मेखलाओं के ऊपर स्थित होते हैं। इनमें से प्रत्येक वृक्ष के मूलभाग में विचित्र पीठों से युक्त, रतनमय चार—चार सिद्धों की प्रतिमायें होती हैं। ये वंदना करने मात्र से दुरंत संसार के भय को नष्ट कर देती हैं। एक—एक सिद्धार्थ वृक्ष के आश्रित, तीन कोटों से वेष्टित, पीठत्रय के ऊपर चार—चार मानस्तम्भ होते हैं। कल्पभूमि में स्थित सिद्धार्थ वृक्ष क्रीड़नशालायें और प्रासाद जिनेन्द्र की ऊँचाई से बारहगुणे ऊँचे होते हैं।
२०. नाट्यशाला — इस कल्पभूमि के पाश्र्व भागों में प्रत्येक वीथी (गली) के आश्रित, दिव्य रत्नों से र्नििमत और अपने चौत्यवृक्षों के सदृश ऊँचाई वाली चार—चार नाट्यशालायें होती हैं। सब नाट्यशालायें पाँच भूमियों (खनों) से विभूषित, बत्तीस रंगभूमियों से सहित और नृत्य करती हुई ज्योतिषी देवांगनाओं से रमणीय होती हैं। २१. वेदी — इस नाट्यशाला के आगे प्रथम वेदी के सदृश ही चौथी वेदी होती है। यहाँ भवनवासी देव द्वारों की रक्षा करते हैं।
२२. भवनभूमि — इस वेदी के आगे भवनभूमि नाम से सातवीं भूमि होती है। इसमें रत्नों से रचित, फहराती हुई ध्वजा—पताकाओं से सहित और उत्तम तोरण युक्त उन्नत द्वारों वाले भवन होते हैं। वे एक—एक भवन सुरयुगलों के गीत, नृत्य एवं बाजे के शब्दों से तथा जिनाभिषेकों से शोभायमान होते हैं। यहाँ पर भी उपवन, वापिका आदि की सुन्दर शोभा पूर्व के समान रहती है।
२३. स्तूप — इस भवनभूमि के पाश्र्वभागों में प्रत्येक वीथी के मध्य जिन और सिद्धों की अनुपम प्रतिमाओं से व्याप्त नौ—नौ स्तूप होते हैं। इन स्तूपों पर छत्रों पर छत्र फिरते रहते हैं, ध्वजायें फहराती रहती हैं, ये दिव्यरत्नों से र्नििमत रहते हैं और आठ मंगल द्रव्यों से सहित होते हैं एक—एक स्तूप के बीच में मकर के आकार के सौ तोरण होते हैं। इन स्तूपों की ऊँचाई अपने चैत्यवृक्षों की ऊँचाई के समान होती है। भव्यजीव इन स्तूपों का अभिषेक, पूजन और प्रदक्षिणा किया करते हैं।
२४. साल — स्तूपों के आगे आकाश स्फटिक के सदृश और मरकत मणिमय चार गोपुर द्वारों से रमणीय चौथा कोट होता है। यहाँ के द्वारों पर कल्पवासी देव उत्तम रत्नमय दण्डों को हाथ में लेकर खड़े रहते हैं। ये जिनेन्द्र भगवान् के चरणों की परम भक्ति से द्वारपाल का कार्य करते है।
२५. श्रीमण्डप भूमि — इस आठवीं भूमि का नाम ‘श्रीमण्डप’ है। यह अनुपम उत्तमरत्नों के खम्भों पर स्थित और मुक्ताजालादि से शोभायमान रहती है। इसमें निर्मल स्फटिकमणि से र्नििमत सोलह दीवालों के बीच में बारह कोठे होते हैं। इन कोठों की ऊँचाई अपने जिनेन्द्र की ऊँचाई से बारहगुणी होती है।
२६. गणविन्यास — इन बारह कोठों के भीतर पूर्वादि प्रदक्षिण क्रम से पृथक् — पृथक् ऋषि आदि बारहगण बैठते हैं। उनका क्रम यह है—प्रथम कोठे में सम्पूर्ण ऋद्धियों के धारक गणधर देव और सर्वदिगंबर मुनिगण बैठते हैं। स्फटिकमणि की दीवाल से व्यवहित दूसरे कोठे में कल्पवासिनी देवियाँ, तीसरे कोठे में अतिशय नम्र र्आियकायें तथा श्राविकायें बैठती हैं। चतुर्थ कोठे में ज्योतिर्वासी देवियाँ, पांचवें में व्यंतर देवियाँ, छठे में भवनवासी देवियाँ, सातवें में भवनवासी देव, आठवें में व्यंतरदेव, नौवें में सूर्य, चन्द्र आदि ज्योतिषीदेव, दशवें में कल्पवासीदेव, ग्यारहवें में चक्रवर्ती, मण्डलीक राजा एवं अन्य मनुष्य तथा बारहवें में परस्पर वैरभाव को छोड़कर िंसह, व्याघ्र, नकुल, हरिण आदि तिर्यंचगण बैठते हैं।
२७. वेदी — इसके अनंतर निर्मल स्फटिक पाषाण से बनी हुई पाँचवीं वेदिका होती है। जिसका सर्व वर्णन प्रथम वेदी के सदृश ही है।
२८. प्रथम पीठ — इस पांचवीं वेदी के आगे वैडूर्यमणि से र्नििमत प्रथम पीठ होती है। इन पीठों की ऊँचाई भी अपने मानस्तम्भ के पीठ के सदृश है। इस प्रथम पीठ के ऊपर बारह कोठों के प्रत्येक कोठे में से प्रत्येक कोठे के प्रवेश द्वारों में और समस्त (चार) वीथियों के सन्मुख सोलह—सोलह सीढ़ियाँ होती हैं। चूड़ी के सदृश गोल नाना प्रकार के पूजा द्रव्य और मंगल द्रव्यों से सहित इस पीठ पर चारों दिशाओं में अपने शिर पर धर्मचक्र को रखे हुए यक्षेंद्र स्थित रहते हैं। वे गणधर देव आदि बारहगण इस पीठ (कटनी) पर चढ़कर और प्रदक्षिणा देकर जिनेन्द्रदेव के सम्मुख हुये पूजा करते है।। सैकड़ों स्तुतियों द्वारा गुणकीर्तन करके असंख्यात गुणश्रेणीरूप से अपने कर्मों की निर्जरा करते हुये प्रसन्नचित्त होकर अपने अपने कोठों में प्रवेश करते हैं।
२९. द्वितीय पीठ — प्रथम पीठ (कटनी) के ऊपर दूसरा पीठ होता है। यह पीठ भी नानारत्नों से खचित भूमि युक्त होता है। इस सुवर्णमय पीठ पर चढ़ने के लिये चारों दिशाओं में पांच वर्ण के रत्नों से र्नििमत सीढ़ियाँ होती हैं। इस पीठ के ऊपर मणिमय स्तम्भों पर लटकती हुई ध्वजायें होती हैं, जिनमें िंसह, बैल, कमल, चक्र, माला, गरुड़, वस्त्र और हाथी ऐसे आठ प्रकार के चिन्ह बने रहते हैं। इसी पीठ पर धूपघट, मंगल द्रव्य पूजनद्रव्य और नवनिधियाँ रहती हैं जिनका वर्णन करने के लिये कोई भी समर्थ नहीं है।
३०. तृतीय पीठ — द्वितीय पीठ के ऊपर विविध प्रकार के रत्नों से खचित तीसरा पीठ (कटनी) होता है। सूर्यमण्डल के समान गोल इस पीठ के चारों ओर रत्नमय और सुखकर स्पर्शवाली आठ—आठ सीढ़ियाँ होती हैं।
३१. गंधकुटी — इस तृतीय पीठ के ऊपर एक गंधकुटी होती है। यह चामर किंकणी, वन्दनमाला और हार आदि से रमणीय, गोशीर, मलय चंदन, कालागरु आदि धूपों के गंध से व्याप्त, प्रज्वलित रत्नों के दीपकों से सहित तथा फहराती हुई विचित्र ध्वज पंक्तियों से संयुक्त होती है। वृषभदेव के समय गंधकुटी की ऊँचाई ९०० धनुष थी। आगे घटते—घटते वीरनाथ के समय ७५ धनुष प्रमाण रह गई थी। गंधकुटी के मध्य में पादपीठ सहित, उत्तम स्फटिक मणि से र्नििमत, घंटाओं के समूहादि से रमणीय िंसहासन होता है। रत्नों से खचित उस िंसहासन की ऊँचाई तीर्थंकर की ऊँचाई के ही योग्य हुआ करती है। इस प्रकार यहाँ ३१ अधिकारों द्वारा समवसरण का वर्णन किया गया है। लोक और अलोक को प्रकाशित करने के लिये सूर्य के समान भगवान् अर्हंतदेव उस िंसहासन के ऊपर आकाश मार्ग में चार अंगुल के अन्तराल से स्थित रहते हैं।

३४ अतिशय

 तीर्थंकर के जन्म से लेकर अन्त तक ३४ अतिशय होते हैं, जिनका वर्णन निम्न प्रकार है। जन्म के १० अतिशय, घातिकर्म क्षय से ११ अतिशय और देवों के द्वारा किये गये १३ अतिशय, ऐसे कुल मिलाकर ३४ अतिशय होते हैं। पसीना का न होना, शरीर में मल—मूत्र का न होना, दूध के समान सफेद रुधिर का होना, वज्रवृषभनाराचसंहनन, समचतुरस्रसंस्थान, अत्यन्त सुन्दर शरीर, नवचंपक की उत्तम गंध के समान सुगन्धित शरीर, १००८ उत्तम लक्षणों का होना, अनंत बल—वीर्य, हित—मत एवं मधुर भाषण, प्रत्येक तीर्थंकर के जन्मकाल से ही ये स्वाभाविक दश अतिशय होते हैं। १. यह गणना तिलोयपण्णत्ति के आधार से है। अन्य ग्रंथों में जन्म के १०, केवलज्ञान के १० और देवकृत १४ ऐसे ३४ गिनाये हैं। अपने पास से चारों दिशाओं में १०० योजन तक सुभिक्षता, आकाश में गमन, हिंसा का अभाव, भोजन का अभाव, उपसर्ग का अभाव, सबकी ओर मुख करके स्थित होना, छाया का न होना, पलकों का न झपकना, सर्व विद्याओं की ईश्वरता, नख और केशों का न बढ़ना, अठारह महाभाषा, सात सौ क्षुद्र भाषा तथा और भी जो संज्ञी जीवों की समस्त अक्षर—अनक्षरात्मक भाषायें हैं उनमें तालु, दाँत, ओष्ठ और कण्ठ के व्यापार से रहित होकर एक ही समय भव्यजनों को दिव्य उपदेश देना। भगवान् जिनेन्द्रदेव की स्वभावत: अस्खलित और अनुपम दिव्यध्वनि तीनों संध्या कालों में नव मुहूर्तों तक निकलती है और एक योजन पर्यंत जाती है। इससे अतिरिक्त गणधर देव, इन्द्र अथवा चक्रवर्ती के प्रश्नानुरूप अर्थ के निरूपणार्थ वह दिव्यध्वनि शेष समयों में भी निकलती है। यह दिव्यध्वनि भव्यजीवों को छह द्रव्य, नव पदार्थ, पाँच अस्तिकाय और सात तत्त्वों का नाना प्रकार के हेतुओं द्वारा निरूपण करती है। इस प्रकार घातिया कर्मों के क्षय से उत्पन्न हुये ये महान् आश्चर्यजनक ग्यारह अतिशय तीर्थंकर को केवलज्ञान के होने पर प्रगट होते हैं। तीर्थंकर के माहात्म्य से संख्यात योजनों तक वन असमय में ही पत्ते, फूल और फलों की समृद्धि से युक्त हो जाता है।
कंटक और रेती को दूर करती हुई सुखदायक वायु चलने लगती है। जीव पूर्व वैर को छोड़कर मैत्रीभाव से रहने लगते है।। उतनी भूमि दर्पण तल के सदृश स्वच्छ और रत्नमय हो जाती है। सौधर्मइन्द्र की आज्ञा से मेघकुमार देव सुगंधित जल की वर्षा करता है। देव विक्रिया से फलों के भार से नम्रीभूत शालि और जौ आदि खेत को रचते हैं सब जीवों को नित्य आनंद उत्पन्न होता है। वायुकुमार देव विक्रिया से शीतल पवन चलाता है। कुये और तालाब आदि निर्मल जल से पूर्ण हो जाते हैं। आकाश धुआँ और उल्कापात आदि से रहित होकर निर्मल हो जाता है। सम्पूर्ण जीवों को रोगादि की बाधायें नहीं होती हैं। यक्षेन्द्रों के मस्तकों पर स्थित और किरणों से उज्जवल ऐसे दिव्य धर्मचक्रों को देखकर जनों को आश्चर्य होता है। तीर्थंकर की चारों दिशाओं में (विदिशाओं सहित) छप्पन सुवर्ण कमल, एक पाद पीठ और दिव्य एवं विविध प्रकार के पूजनद्रव्य होते हैं। इस प्रकार ये चौंतीस अतिशय कहे गये हैं।
आठ महाप्रातिहार्य—ऋषभ आदि तीर्थंकरों के जिन वृक्षों के नीचे केवलयज्ञान उत्पन्न हुआ है। वे ही अशोक वृक्ष कहलाते हैं। ये जिनेन्द्रदेव के शरीर की ऊँचाई से बारह गुणे अधिक ऊँचे होते हैं। ये इतने सुन्दर होते हैं कि इनको देखकर इन्द्र का चित्त भी अपने नन्दन वनों में नहीं रमता है। तीर्थंकर के मस्तक के ऊपर बिना स्पर्श किये ही चन्द्रमण्डल के सदृश, मुक्ता के समूह से युक्त तीन छत्र शोभित होते हैं। निर्मल स्फटिक पाषाण से र्नििमत और उत्कृष्ट रत्नों से खचित िंसहासन होता है। गाढ़ भक्ति में आसक्त, हाथों को जोड़े हुये, विकसित मुख कमल से संयुक्त, बारह गण के मुनिगण आदि भव्य जीव भगवान् को घेर कर स्थित रहते हैं। मोह से रहित होकर जिनप्रभु के शरण में आवो, आवो, ऐसा कहते हुये ही मानों देवों की दुंदुभी बाजा बजता रहता है। भगवान् के चरणों के मूल में देवों के द्वारा की गई पुष्पवृष्टि होती रहती है। करोड़ों सूर्य के समान देदीप्यमान प्रभामण्डल अपने दर्शनमात्र से ही सम्पूर्ण लोगों को सात भवों को दिखला देता है। कुंदपुष्प के समान श्वेत चौंसठ चंवर देवों के द्वारा ढुराये जाते हैं। ये आठ महाप्रातिहार्य कहलाते हैं।
इन चौंतीस अतिशय और आठ महाप्रातिहार्य से संयुक्त मोक्षमार्ग के नेता और तीनों लोकों के स्वामी ऐसे अर्हंतदेव की मैं वंदना करता हू। समवसरण में कितने जीव रहते हैं ?—प्रत्येक समवसरण में पल्य के असंख्यातवें भाग प्रमाण अर्थात् असंख्यात जीव जिनेन्द्रदेव की वंदना में प्रवृत्त हुये स्थित रहते हैं। कोठों के क्षेत्र से यद्यपि जीवों का क्षेत्रफल असंख्यात गुणा है, फिर भी वे सब भव्यजीव जिनदेव के माहात्म्य से एक दूसरे से अस्पृष्ट रहते हैं। वहाँ पर बालक से लेकर वृद्ध तक सभी लोग प्रवेश करने में अथवा निकलने में अंतर्मुहूर्त काल (४८ मिनट) के भीतर संख्यात योजन चले जाते हैं। इन कोठों में मिथ्यादृष्टि, अभव्य और असंज्ञी जीव कदापि नहीं होते; तथा अनध्यवसाय, संदेह और विपरीतता से युक्त जीव भी नहीं होते है।। इससे अतिरिक्त वहाँ पर जिन भगवान् के माहात्म्य से आंतक, रोग, मरण, उत्पत्ति, वैर, काम बाधा तथा भूख और प्यास की बाधायें भी नहीं होती हैं। यक्ष—यक्षिणी— गोवदन, महायक्ष, त्रिमुख, यक्षेश्वर, तुम्बुरव, मातंग, विजय, अजित, ब्रह्म, ब्रह्मेश्वर, कुमार, षण्मुख, पाताल, किन्नर, किंपुरुष, गरुड़, गंधर्व, कुबेर, वरुण,भृकुटि, गोमेध, पाश्र्व, मातंग(धरणेंद्र)और गुह्यक चौबीस तीर्थंकरों के ये चौबीस यक्ष हैं। अपने— अपने तीर्थंकर के यक्ष अपने—अपने जिनेंद्रदेव के पास में स्थित रहते हैं। चव्रेश्वरी, रोहिणी, प्रज्ञप्ति, वङ्काशृंखला, वङ्काकुशा, अप्रतिचव्रेश्वरी, पुरुषदत्ता, मनोवेगा, काली, ज्वालामालिनी, महाकाली, गौरी, गांधारी, वैरोटी, सोलसाअनन्तमती, मानसी, महामानसी, जया विजया, अपराजिता, बहुरूपिणी, कूष्माण्डी, पद्मा (पद्मावती) और सिद्धायिनी चौबीस तीर्थंकरों की क्रम से ये चौबीस यक्षिणी हैं।
अपने—अपने तीर्थंकर के समीप में एक—एक यक्षिणी रहा करती हैं। दिव्यध्वनि का माहात्म्य— जैसे चन्द्रमा से अमृत झरता है उसी प्रकार खिरती हुई जिन भगवान् की वाणी को अपने कत्र्तव्य के बारे में सुनकर वे बारह गुणों के भिन्न— भन्न जीव नित्य ही अनन्तगुणश्रेणीरूप से विशुद्ध परिणामों को धारण करते हुये अपने असंख्यात—गुणश्रेणीरूप कर्मों को नष्ट कर देते हैं। वहाँ पर रहते हुये वे भव्य जीव जिनेन्द्रदेव के चरणकमलों में परमआस्थावान होते हुये परम भक्ति में आसक्त होकर अतीत, वर्तमान और भावी काल को भी नहीं जानते हैं। अर्थात् बहुत सा काल व्यतीत कर देते हैं। इस प्रकार से तीर्थंकर को जब आर्हंत्य पद नामक [[परमस्थान]]राप्त होता है तब समवसरण की विभूति आदि महा अतिशय प्रगट होता है। अरिहंत पद [[परमस्थान]] यह समवसरण आदि विभूति तो बहिरंग वैभव है। इसके साथ चार घातिया कर्मों के नाश होने से चार अनंत गुण प्रगट हो जाते हैं। ज्ञानावरण कर्म के अभाव से अनन्तज्ञान, दर्शनावरण के नाश से अनन्तदर्शन, मोहनीय के नाश से अनन्तमुख और अन्तराय के क्षय से अनन्तवीर्य प्रगट हो जाते हैं। ये चार गुण ही अनन्तचतुष्टय कहे जाते हैं। भगवान् की सभा में द्वादशांग श्रुत के ज्ञाता, मन:पर्ययज्ञान पर्यंत चार ज्ञान के धारी और चौंसठ ऋद्धियों से समन्वित गणधर देव रहते हैं जो भगवान् की दिव्यध्वनि को श्रवण कर जन—जन में उसका विस्तार करते हैं। गणधर के अभाव में तीर्थंकर की दिव्यदेशना नहीं होती है ऐसा नियम है। भगवान् की बारह सभा में मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका, यह चतुर्विध संघ रहता है। असंख्यातों देव—देवियाँ रहते हैं और संख्यातों तिर्यंच रहते हैं। ये सभी भगवान् के दिव्य उपदेश को सुनकर सम्यक्तव को और अपने योग्य व्रतों को ग्रहण कर अपनी आत्मा को मोक्षमार्गी बना लेते हैं। इस प्रकार से संक्षेप में अरिहंत पद की प्राप्ति नामक छठा परमस्थान कहा गया है।

(७) निर्वाण परमस्थान

 संसार के बंधन से मुक्त हुये परमात्मा की जो अवस्था होती है उसे परिनिर्वृत्ति कहते हैं इसका दूसरा नाम परिनिर्वाण भी है। समस्त कर्मरूपीमल के नष्ट हो जाने से जो अन्तरात्मा की शुद्धि होती है उसे सिद्धि कहते हैं यह सिद्धि ‘सिद्धि: स्वात्मोपलब्धि:’ के अनुसार अपने आत्मतत्त्व की प्राप्तिरूप है अभावरूप नहीं है और न ज्ञान आदि गुणों के नाशरूप ही है। इस निर्वाण स्थान को प्राप्त कर लेना ही परिनिर्वाण नाम का सातवां परमस्थान माना गया है। श्रीकुंदकुंददेव ने निर्वाण का लक्षण बहुत ही सरल भाषा में कह दिया है— पुन: केवली भगवान् के आयुकर्म का क्षय हो जाने से शेष बची संपूर्ण प्रकृतियों का विनाश हो जाता है, पश्चात् वे एक समय मात्र में लोक के अग्रभाग पर पहुँच जाते हैं। वहाँ पर वे जन्म—जरा—मरण से रहित, आठ कर्म से रहित, परम, शुद्ध, अनंतज्ञान, दर्शन, सौख्य, वीर्य इन चार स्वभावरूप, अक्षय, अविनाशी, अच्छेद्य, अव्याबाध, अनिंद्रिय, अनुपम, पुण्यपाप से निर्मुक्त , नित्य, अचल, अनालम्ब और पुनरागमन से रहित हो जाते हैं। जहाँ पर न दु:ख है, न सुख है, न पीड़ा है, न बाधा है, न मरण है, और न जन्म है वहीं पर निर्वाण होता है अर्थात् उसी अवस्था का नाम निर्वाण है। जहाँ पर न इन्द्रियाँ हैं, न उपसर्ग है, न मोह है, न विस्मय है, न निद्रा है, न तृष्णा है और न क्षुधा है वहीं पर निर्वाण होता है। जहाँ पर न कर्म है, न नोकर्म है, न चिंता है न आर्त— रौद्रध्यान और न धर्म—शुक्ल ध्यान ही है वहीं पर निर्वाण है अर्थात् उसीअवस्था को निर्वाण कहते हैं। प्रश्न होता है कि फिर वहाँ पर क्या है ? सो ही कहते हैं— वहाँ पर निर्वाण में केवलज्ञान है, केवलदर्शन है, केवलसौख्य है, केवलवीर्य है, अमूर्तव्य है, अस्तित्व है और सप्रदेशत्व है।
अर्थात् उन सिद्धों में केवल — परिपूर्णज्ञान दर्शन सुख और वीर्य ये चार गुण प्रगट हो चुके हैं वे अमूर्तिक होते हुये भी अपनी सत्ता से विद्यमान हैं और अपने असंख्यात प्रदेशों से सहित पुरुषाकार होने से सप्रदेशी हैं। अब आगे कहते है कि— १. तेईसवें तीर्थंकर के यक्ष का नाम धरणेंद्र और चौबीसवें का नाम मातंग, अन्य ग्रन्थों में प्रसिद्ध है। निर्वाण ही सिद्ध हैं और सिद्ध ही निर्वाण है ऐसा कहा गया है। तथा कर्म से विमुक्त हुआ आत्मा लोक के अग्रभाग पर्यंत चला जाता है। पुनरपि प्रश्न होता है कि लोक के बाहर अलोकाकाश में क्यों नहीं चले जाते हैं ? उस पर श्री कुंदकुंददेव कहते हैं—
‘जीवाण पुग्गलाणं गमणं जाणेइ जाव धम्मत्थी’
धम्मत्थिकायभावे तत्तो परदो ण गच्छंति १।।१८४।।
‘‘जहाँ तक धर्मास्तिकाय है वहीं तक जीवों और पुद्गलों का गमन होता है क्योंकि धर्मास्तिकाय के अभाव में उस लोकाकाश से आगे नहीं जा सकते हैं ऐसा तुम जानो।’’ इस प्रकार से निर्वाण परमस्थान स्वरूप कहा गया है। वास्तव में अनादिकाल से इस संसार में प्रत्येक जीव के साथ कर्मों का सम्बन्ध लगा हुआ है जैसे कि खान से निकला हुआ सोना प्रारम्भ से किट्ट कालिमा से युक्त ही रहता है पुन: योग्य सामग्री का मिश्रण करके जब उसे अग्नि में शुद्ध किया जाता है तब वह किट्ट कालिमा से रहित हो जाता है। उसी प्रकार से इस जीव के साथ पौद्गलिक कर्मों का संबंध चला आ रहा है इसे द्रव्य कर्म कहते हैं। उसी के निमित्त से आत्मा में राग, द्वेष, मोह आदि विभाव परिणाम उत्पन्न होते हैं इन्हें भावकर्म कहते हैं। इन कर्मों के निमित्त से ही यह जीव संसार में चतुर्गति में परिभ्रमण करता हुआ जन्ममरण के दु:ख उठा रहा है। जब यह जीव काललब्धि आदि के निमित्त से निकट संसारी हो जाता है तब यह सज्जाति नामक प्रथम परमस्थान प्राप्त कर मोक्ष के लिये उद्यमशील हो जाता है तब यह सद्गृहस्थ नामक द्वितीय परमस्थान प्राप्त कर लेता है। इसके अनंतर पारिव्राज्य नामक तृतीय परमस्थान राप्त करने को उत्सुक होता है। यहाँ इतनी बात अवश्य ध्यान रखने की है कि सज्जाति परमस्थान बिना सद्गृहस्थ और पारिव्राज्य स्थान असंभव है अत: यह सज्जाति निर्वाण नामक सप्तम परमस्थान लिये महत्वपूर्ण है। इस पारिव्राज्य तृतीय स्थान के बाद सुरेन्द्रता नामक चतुर्थ परमस्थान राप्त होता है।
अनंतर साम्राज्य नामक पाँचवां स्थान उपलब्ध होता है। इसके बाद आर्हन्त्य नामक छठे परमस्थान प्राप्त कर अंत में निर्वाण नामक सप्तम परमस्थान स्वामी हो जाता है। जितने भी सिद्ध हुये हैं, होते हैं और होंगे उन सबने प्रथम स्थान सज्जाति, तृतीय स्थान पारिव्राज्य और छठे स्थान आर्हन्व्य को अवश्य ही प्राप्त किया करते हैं और करेंगे क्योंकि इन तीन स्थान के बिना निर्वाण स्थान की प्राप्ति सर्वथा असंभव ही है। हाँ, किन्हीं ने सातों को प्रापत किया होगा व किन्हीं ने पाँच या छह को प्राप्त किया होगा या करेंगे। सप्त [परमस्थान प्राप्त करने वाले भगवान् वृषभदेव, शांतिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर स्वामी आदि विरले ही महापुरुष होते हैं। इन सप्त परमस्थान को पढ़कर प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य है कि वह सज्जाति के महत्त्व को समझे और सप्त परमस्थान राप्त करने की सदा भावना भाता रहे।
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