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समयसार की ‘ज्ञानज्योति’ टीका का वैशिष्ट्य

September 19, 2017स्वाध्याय करेंjambudweep

समयसार की ‘ज्ञानज्योति’ टीका का वैशिष्ट्य


लेखक-डॉ. श्रेयांस कुमार जैन, बड़ौत’

अध्यात्म की अजस्र स्रोतस्विनी प्रवाहित करने वाला श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य विरचित समयसार आत्मतत्त्व निरूपण करने वाले ग्रंथों में सर्वश्रेष्ठ है। इस ग्रंथराज पर असाधारण प्रतिभाशाली आचार्य श्री अमृतचन्द्रसूरि ने दण्डान्वय प्रक्रिया का आश्रय लेकर ‘आत्मख्याति’ नामक टीका लिखी, जिसकी भाषा समाज बहुल है और दार्शनिक प्रकरणों की अधिकता के कारण सामान्यजनों को दुरुह है। इसमें समयसार को नाटक का रूप दिया गया है। नाटकीय निर्देशों को पूरा-पूरा स्थान दिया है। यथा पीठिका परिच्छेद को पूर्वरङ्ग कहा गया है।

ग्रंथ को नाटक के समान ९ अंकों में विभक्त किया गया है- १. जीवाजीव २. कत्र्ताकर्म ३. पुण्य-पाप ४. आस्रव ५. संवर ६. निर्जरा ७. बंध ८. मोक्ष ९. सर्वविशुद्धज्ञान। नवम अंक के अन्त में समाप्तिसूचक पंक्तियाँ इस प्रकार हैं-‘‘इति श्रीअमृतचन्द्रसूरिविरचिताय समयसारव्याख्यामात्मख्यातौ सर्वविशुद्धज्ञानप्ररूपको नवमोज्र्:’’ नवम अंक के बाद नयों का सामञ्जस्य उपस्थित करने के लिए स्याद्वादाधिकार तथा उपायोपेय भावाधिकार नामक दो स्वतंत्र परिशिष्ट जोड़ दिए हैं। आत्मख्याति टीका चार सौ पन्द्रह गाथाओं पर लिखी गई है, उसी के मध्य २७८ कलश काव्यों के माध्यम से सारभूत विषयों को प्रस्तुत किया है। कलश काव्य भावपूर्ण एवं रोचक हैं। आचार्य श्री अमृतचन्द्रसूरि का अनुगमन करते हुए विलक्षण प्रतिभावान आचार्यवर्य श्री जयसेन स्वामी ने समयसार के ऊपर अत्यन्त सरल और सुबोध संस्कृत में तात्पर्यवृत्ति टीका लिखी है। इसमें गुणस्थान विवक्षा से कथन किया गया है किस गुणस्थानवर्ती की क्या पात्रता होती है। इससे आचार्य जयसेन स्वामी को विशेष प्रसिद्धि मिली है। इन्होंने पदखण्डना विधि को अपनाया है। टीका लिखने की इनकी विशेष विधि है। मूल की सुरक्षा की है। इसलिए यह विधि श्रेष्ठ है। श्री कुन्दकुन्दाचार्य के मूल शब्दों की संरक्षा में प्राकृत शब्दानुसारी इस टीका का महत्वपूर्ण स्थान है। यह ४३९ गाथाओं पर लिखी हुई तात्पर्यवृत्ति समयसार को दस अधिकारों में विभक्त करती है। आचार्य अमृतचन्द्रसूरि ने जीवाजीवाधिकार की टीका एक साथ कर एक अंक माना है किन्तु श्री जयसेन स्वामी ने उसको दो अधिकारों में विभक्त कर टीका की है। अन्त में स्याद्वाद अधिकाररूप से ग्रंथ समाप्ति के बाद जोड़ा है। आचार्य श्री जयसेन की विशेषता है कि प्रत्येक अधिकार या उपपरिच्छेद के प्रारंभ में इन्होंने इस अधिकार का विश्लेषण विषय वस्तुओं के अनुसार उत्थानिका के रूप में गाथाओं की संख्या को भी उपस्थित कर दिया। इस टीका ने अध्यात्म और सिद्धान्त में रुचि रखने वालों को प्रभावित किया है। समयसार की आत्मख्याति और तात्पर्यवृत्ति दोनों टीकाओं का सम्यक् स्वाध्याय कर संस्कृति संवाहिका अध्यात्मविद्या प्रवीणा गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने दोनों टीकाओं को एक साथ विविध रहस्योद्घाटन के साथ प्रस्तुत करने का विचार बनाया। दोनों संस्कृत टीकाओं का अक्षरश: अनुवाद करते हुए विशेषार्थ भावार्थ सहित ‘‘ज्ञानज्योति’’ नामक टीका लिखी। ज्ञानज्योति रथ का सम्पूर्ण देश में प्रवर्तन चल रहा था और गणिनीप्रमुख आर्यिकाश्री का समयसार टीका लिखते हुए आत्मरथ प्रवर्तित था अत: टीका का नाम ‘‘ज्ञान ज्योति’’ रखा गया।

समयसार पर हिन्दी भाषा में 

अनेक टीकाएँ लिखी जा चुकी थीं उनमें विशेषार्थ आदि द्वारा विषयों को भी स्पष्ट किया गया था फिर भी आर्यिकारत्न को व्याख्या लिखने की आवश्यकता महसूस हुुई क्योंकि कोई भी टीका आत्मख्याति और तात्पर्यवृत्ति तथा अध्यात्मामृतकलश के हिन्दी भाषा सहित एक साथ नहीं थी। स्वाध्यायियों को अध्यात्म और सिद्धान्त के विषय स्पष्ट नहीं हो पाते थे। जो विषय आत्मख्याति से स्पष्ट नहीं होता वह तात्पर्यवृत्ति स्पष्ट करती है। दोनों टीकाओं का एक साथ अर्थ देखने पर विषय की स्पष्टता हो जाती है। इसलिए माताजी ने दोनों टीकाओं को सार्थ एक साथ तैयार किया है। आत्मख्याति टीका के बाद विशेषार्थ और तात्पर्यवृत्ति के पश्चात् भावार्थ लिखकर निश्चय-व्यवहार परक अर्थ को सुस्पष्ट कर वर्तमान में व्यवहार को असत्यार्थ और हेय मानने वाले लोगों के भ्रम का निवारण करने और सम्यक् बोध कराने का प्रयत्न किया है। यथा गाथा संख्या
आठजह णवि सक्कमणज्जो अणज्जभासं विणा उ गाहेउं।
तह ववहारेण विणा परमत्थुवएसणमसक्कं।।८।।
समयसार।। (आ.ता.)
की आत्मख्याति टीका में श्री अमृतचन्द्रसूरि ने कहा है कि ‘‘इति वचनात् व्यवहारनयो नानुसर्तव्य:’’ इस कथन से व्यवहार नय अनुसरण करने योग्य नहीं किन्तु वहीं आगे ११
वींववहारोऽभूयत्थो भूयत्थो देसिदो दु सुद्धणओ।
भूयत्थमस्सिदो खलु सम्माइट्ठी हवइ जीवो।।११।।
समयसार (आ.)
गाथा की टीका के अंत में कहते हैं ‘‘अथ च केषाञ्चित्कदाचित् सोऽपि प्रयोजनवान्’’ अर्थात् किन्हीं लोगों को व्यवहार प्रयोजनीभूत है।
पुन: १२वींसुद्धो सुद्धादेसो णायव्वो परमभावदरसीहिं।
ववहारदेसिदा पुण जे दु अपरमेट्ठिदा भावे।।१२।।
समयसार (आ.)
गाथा की टीका में स्वयं श्री अमृतचन्द्रसूरि कह रहे हैं कि जो सोलह ताव से तपे शुद्ध स्वर्ण के समान परमभाव का अनुभव करते हैं, उनके लिए निश्चयनय प्रयोजनवान् है, उसके पहले एक दो आदि से लेकर पन्द्रह ताव तक शुद्ध होते हुए सुवर्ण के समान अपरमभाव में स्थित जनों को व्यवहारनय प्रयोजनभूत है। इसका अर्थ स्पष्ट है कि पूर्ण शुद्ध हुए बारहवें गुणस्थानवर्ती के लिए अथवा जिनके बुद्धिपूर्वक राग का अभाव है, ऐसे शुद्धोपयोगी निर्विकल्पध्यानी मुनि के लिए निश्चय प्रयोजनीभूत है। शेष चतुर्थ, पंचम, षष्ठ, सप्तम गुणस्थानवर्ती जनों को व्यवहार पूर्णत: कार्यकारी है। दोनों नयों की क्या व्यवस्था है और वे किसकी अपेक्षा प्रयोजनीभूत हैं और किसकी अपेक्षा प्रयोजनीभूत नहीं हैं बताने में आगम और अध्यात्म का सम्यक् अनुगम करने वाली गणिनी आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ही समर्थ हुई हैं क्योंकि इतनी स्पष्टता अन्य टीकाओं में देखने को नहीं मिलती है। सम्यक्त्व के स्वरूप को प्रतिपादन करते हुए आचार्यश्री कुन्दकुन्द ने कहा है-
भूयत्थेणाभिगदा जीवाजीवा य पुण्यपावं च।
आसवसंवरणिज्जर बंधो मोक्खो य सम्मत्तं।।१३।। (अ.)
भूतार्थ से जाने हुए जीव अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर, निर्जरा, बंध और मोक्ष ये नव पदार्थ ही सम्यक्त्व हैं। इस गाथा से एक प्रश्न खड़ा हो गया है कि भूतार्थ की विवक्षा से ये नव पदार्थ कैसे होंगे क्योंकि भूतार्थ तो शुद्धनय है। शुद्धनय से जीव के साथ कर्म का संबंध हो नहीं सकता है। तब भूतार्थ से क्या अर्थ लिया जाये? इसका समाधान टीकाकत्र्री ने बहुत सुन्दर किया है कि यहाँ पर ‘भूतार्थ’ शब्द से अशुद्ध निश्चयनयरूप भूतार्थ को लेना चाहिए। इसी गाथा की तात्पर्यवृत्ति में व्यवहार के भूतार्थ और अभूतार्थ और निश्चय के भूतार्थ-अभूतार्थ किये गये हैं। भूतार्थ के शुद्धनिश्चय और अशुद्धनिश्चय दो भेद करना चाहिए। शुद्धनिश्चय से नव पदार्थ की व्यवस्था नहीं बन सकती है किन्तु अशुद्धनिश्चय से अवश्य बनेगी। इस टीका की यह भी विशेषता है कि जो विषय सामान्यत: स्पष्ट न हो रहा हो उसे माताजी ने प्रश्नोत्तर शैली में समझाकर स्पष्ट कर दिया जैसे कि-नव पदार्थ सम्यक्त्व वैâसे होंगे? क्योंकि आत्मा का श्रद्धानरूप भाव सम्यग्दर्शन होता है? इसका समाधान करते हुए बताया है कि यहाँ कारण में कार्य का उपचार करके अभेदोपचार से इन नव तत्त्वों को ही सम्यग्दर्शन कह दिया है। चूँकि ये नवतत्त्व जो श्रद्धानरूप सम्यक्त्व हैं उसके लिए कारण हैं अथवा उसके विषय हैं। इस दृष्टि से भी विषय, नव तत्त्व और विषयी सम्यक्त्व इनमें अभेद करके अभेदोपचार से इन्हें ही सम्यक्त्व कह दिया है। इस प्रकार स्पष्टीकरण करना टीका की अपनी विशेषता है। इसकी विशेषताओं को गिनाया नहीं जा सकता है यह टीका हर दृष्टि से महत्वपूर्ण है। इसमें समग्रता के दर्शन होते हैं। आत्मख्याति के अंगभूत कलशकाव्य साथ में दिये गये हैं उनका काव्यार्थरूप में अर्थ उपस्थित किया गया है। विशेषार्थ को अन्य ग्रंथों के प्रमाण देकर लिखने से प्रामाणिक बनाया गया है। सम्यक्त्व के प्रकरण में कलश काव्य का मुक्तकरूप में छायानुवाद दृष्टव्य है-
जिस तरह वर्णमाला कलाप में स्वर्ण निमग्न रहा जानो।
यह आत्मज्योति वैसे ही नव तत्त्वों के मध्य छिपी मानो।।
सब द्रव्यों से जो भिन्न सदा, है एक रूप चेतन देखो।
हर पर्यायों में आत्मज्योति, चिच्चमत्कार भासित लेखो।।
इसके द्वारा आत्म ज्योति के स्वरूप को जनसाधारण को समझाने में रोचकता उत्पन्न की गई है। इसी प्रकार आत्म ख्याति के अनुवाद के साथ कलशों का काव्यार्थ और उनका भी भावार्थ देकर टीका को अध्यात्मरसिक विद्वानों के लिए स्पृहणीय बना दिया गया है। आचार्य जयसेन स्वामी सम्यक्त्व की प्रतिपादिका उक्त गाथा से ही जीवाधिकार का प्रारंभ करते हैं। जयसेनाचार्य के कथ्य को बहुत सरल भाषा में आर्यिका श्री ने प्रस्तुत किया है कि ये नव पदार्थ अभेदरत्नत्रय लक्षण निर्विकल्पध्यान में अभूतार्थ हैं इसके पहले तक भूतार्थ हैं। इससे इस भूतार्थ का प्रयोजनीभूत यह अर्थ सुघटित हो जाता है और इससे यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि शुद्धोपयोग के पहले-पहले यह निश्चय सम्यक्त्व भी नहीं होता है। यहाँ पर भी जो भूतार्थ को निश्चयनय कहा है उससे अशुद्धनिश्चयनय ही ठीक लगता है क्योंकि शुद्ध निश्चयनय से तो जीव त्रिकाल शुद्ध सिद्ध ही है। ऐसे ही प्रमाण नय आदि भी छठे गुणस्थान तक प्रयोजनीभूत ही हैं।समयसार (पूर्वार्ध) पृष्ठ ७९। इस प्रकार से भावार्थ और विशेषार्थ लिखकर माताजी ने इस टीका को सर्वजन बोध्य बना दिया इसीलिए जबसे यह टीका प्रकाश में आयी स्वाध्यायियों ने इसे स्वाध्याय का विषय बनाया है। इसमें गाथाओं का छन्दानुवाद भी अपना महत्त्व रखता है। गणिनीप्रमुख ने काव्य रचना के माध्यम से पूजा साहित्य की जो अभिवृद्धि की है, वैसी अद्यावधि अन्य किसी कवि या कवियित्री के द्वारा नहीं हुई है। अध्यात्म ग्रंथों का पद्यानुवाद भी अनूठा है, जो गाथाओं के पूर्ण अर्थ को प्रगट करता है।धर्मादि छहों द्रव्य मेरे कुछ भी नहीं हैं। उपयोगमयी आत्मा निश्चय से कही है।
उनको हि धर्म निर्ममत्व ज्ञानिजन कहें।
मुनि शुद्धज्ञानी ही इसे प्राप्त कर सकें ।।३७।।
स.सा. (आ.)
टीका में अन्य मतों का पक्ष रखते हुए उनका खण्डन भी बड़ी कुशलता से किया है यद्यपि श्रीमत्कुन्दकुन्दाचार्य अजीवाधिकार के प्रारंभ में पाँच गाथाओं में अन्यमतावलम्बियों की अत्यावश्यक मान्यताओं को दर्शाते हैं। आत्मख्याति और तात्पर्यवृत्ति भी उन्हें स्पष्ट करती हैं किन्तु पांचों गाथाओं का सार संक्षेप में आर्यिकाश्री ने विशेषार्थ द्वारा दर्शाकर आत्माविषयक मान्यताओं को सहज में बता दिया। जैसे-गाथाओं में आचार्य देव ने पूर्वपक्ष की तरफ से आठ मान्यताएं रखी हैं।
१. रागद्वेष आदि विभाव परिणाम ही जीव है,
२. कर्म ही जीव है
३. तीव्र-मन्द अनुभाग से सहित परिणामों की परम्परा ही जीव है
४. शरीररूपनोकर्म ही जीव है
५. पुण्य-पापकर्मों का समूह ही जीव है
६. साता असातारूप से सुख-दु:ख का अनुभव ही जीव है
७. आत्मा और कर्म ये दोनों मिलकर ही जीव है
८. आठोें कर्मों का संयोग ही जीव है। इस प्रकार से अन्य मान्यताओं को बताकर आचार्यदेव की कथनीसमयसार पूर्वार्ध,
पृष्ठ १७९ को सरल शब्दों में बता दिया है कि जीव और पुद्गल अनादिकाल से एक क्षेत्रावगाही होकर संसारी बने हुए हैं विकारसहित अनेक अवस्थाओं में परिणमन करते हैं। इत्यादि रूप से जीव-अजीव अधिकार संबंधी सभी गाथाओं को स्पष्ट कर भेदविज्ञान को समझा दिया है। व्यवहार-निश्चय की परस्पर मैत्रीरूप मीमांसा अद्भुत है। निश्चयाभासी एकान्तवादियों के लिए आखें खोलने वाली है। उनके मिथ्यात्व को गलाकर सम्यक्त्व की ज्योति प्रदान करने वाली है। इस ‘ज्ञानज्योति’ टीका में शुद्धोपयोग की स्वामित्व विवक्षा पर विशेष चिन्तन है। इसमें अनेक गाथाओं के विशेषार्थों में इस विषय को विस्तार से खोला गया है। शुद्धात्म स्वभाव में तल्लीन रहने वाला ही शुद्धोपयोगी होता है। शुद्धोपयोग के बल से ही आस्रव भावों को नष्ट करता है। समयसार की कर्तृकर्माधिकार की ७८वीं गाथा में स्पष्ट किया गया है कि शुद्धोपयोग के द्वारा ही जीव विचारता है कि मैं निश्चय से एक हूँ, शुद्ध हूँ, ममता रहित हूँ और ज्ञानदर्शन से परिपूर्ण हूँ। अत: इसी स्वभाव में स्थित होता हुआ एवं चैतन्य के अनुभव में लीन होता हुआ मैं इन क्रोधादिक समस्त आस्रव भावों का क्षय करता हूँ। आचार्य श्री जयसेन ने भूताविष्ट और ध्यानाविष्ट दृष्टान्तों द्वारा समझाया है कि जैसे किसी पुरुष के भूत आदि ग्रह लग गया हो तो वह भूत में और अपने आप में भेद को नहीं जानता हुआ मनुष्य से न करने योग्य बड़ी भारी शिला उठाना आदि रूप आश्चर्यजनक व्यापार को करता हुआ दीख पड़ता है, उसी प्रकार यह जीव भी वीतरागमय परम सामायिक भाव में परिणत होने वाला शुद्धोपयोग है लक्षण जिसका ऐसे भेदज्ञान के न होने से कामक्रोधादिभावों में प्रवृत्ति करने वाला होता है कर्तृकर्माधिकार (स.सा.) गाथा. ९६ की टीका और भेदज्ञान होने पर शुद्धात्मा के सुखानुभवरूप स्वसंवेदन ज्ञान वाला होता है कर्तृकर्माधिकार (स.सा.) गाथा. ९६ की टीका ।

वर्तमान में कुछ लोग अविरतसम्यक्त्व का समर्थन करते हैं 

‘वर्तमान में कुछ लोग अविरतसम्यक्त्व के काल में शुद्धात्मा के सुखानुभव रूप स्वसंवेदन का समर्थन करते हैं उन्हें समझाते हुए कहा है कि स्वसंवेदन भी सराग और वीतराग के भेद से दो प्रकार का है अर्थात् विषय सुखानुभव के आनन्दरूप स्वसंवेदन ज्ञान सर्वजन प्रसिद्ध सराग है किन्तु जो शुद्धात्मा के सुखानुभवरूप स्वसंवेदन ज्ञान होता है, वह वीतराग स्वसंवेदन है अतएव यह सर्वत्र मानना चाहिए कि वीतराग स्वसंवेदन शुद्धोपयोग के बिना संभव नहीं है और शुद्धोपयोग अप्रमत्त निर्विकल्प समाधि के बिना संभव नहीं है। शुद्धात्मा की भावना और शुद्धोपयोग को एक मानकर वर्तमान में अनेक लोग भ्रमित हो रहे हैं उनके भ्रम का निवारण करते हुए कहा है कि शुद्धात्मा की भावना व शुद्धोपयोगी में इतना ही अन्तर है जितना की विद्यार्थी और अध्यापक में है। शुद्धात्मा की भावना अलब्धोप्लिप्सा नहीं प्राप्त हुई वस्तु के प्राप्त करने की उत्सुकता रूप होने से अविरत सम्यग्दृष्टि आदि के भी होती है किन्तु शुद्धोपयोग तो शुद्धात्मा से तन्मयता रूप होता है जैसा कि कुन्दकुन्द स्वामी ने कहा है ‘‘जिसने निज शुद्धात्मा आदि पदार्थ और सूत्र को भलीभांति जान लिया है। जो संयम और तप से युक्त है। राग रहित है जिसको सुख दु:ख समान हैं, वे शुद्धोपयोगी श्रमण कहा गया है ।
सुविदिदपयत्थसुत्तो संयम तव संजुदो विगदरागो।
समणो समसुहदुक्खो भणिदो सुद्धोव ओगोत्ति।।१४।।
प्रवचनसार

इससे स्पष्ट है कि काम क्रोधादि

इससे स्पष्ट है कि काम क्रोधादि विकारी भावों का मूलोच्छेद करने वाला ही शुद्धोपयोगी है। गृहस्थ को विकारों का मूलोच्छेद कदापि संभव नहीं है, क्योंकि वह कौटुम्बिक कार्यों में फसा होकर निद्र्वन्दता प्राप्त करने में कैसे समर्थ हो सकता है? अतएव अविरत सम्यग्दृष्टि को शुद्धोपयोगी कहना आगम और अध्यात्म का अपलाप है। आर्यिकाश्री ने ज्ञानी के स्वरूप को प्रतिपादित करने वाली गाथा
कम्मस्स य परिणामं णोकम्मस्स य तहेव परिणामं।
ण करेइ एयमादा जो जाणदि सो हवदि णाणी।।७५।।(आ.)
को भावार्थ के द्वारा सहज बोधगम्य बना दिया अर्थात् जब कत्र्ता-कर्म का संबंध छूट जाता है, तब वह आत्मज्ञानी हो जाता है। यह पूर्ण ज्ञान तो केवलज्ञानी के होता है उससे पूर्व श्रेणी में महामुनि निर्विकल्प ध्यान में अनुभव करते हैं। वे मात्र ज्ञाता दृष्टा ही रहते हैं। शिर पर अंगीठी जला देने पर भी उन्हें मान नहीं होता है, वे ही ज्ञानी कहलाते हैं। इससे पहिले श्रद्धान मात्र से अपने आपको ज्ञाता दृष्टा समझते हैं, विश्वास करते हैं किन्तु राग-द्वेष आदि रूप से तद्रूप परिणत हो जाने से ज्ञानी नहीं हो पाते हैंसमयसार पूर्वाद्र्ध पृष्ठ २८७। कलशकाव्य के द्वारा भी यही बताया गया हैव्याप्यव्यापक भावरूप इक में अन्य स्वरूपं नहीं। द्रव्यं औ गुण भाव-भावक बिना कत्र्ता न कर्म स्थिती।।
ऐसा श्रेष्ठ विवेक भेदकर, जो मिथ्यान्धकारं नशे।
सो ज्ञानी यह धन्य शोभित अहो, कर्तृत्व शून्यं कहे।।४९।।
कर्तृकर्माधिकार, पृ. २८६।
इस प्रकार उदाहरण आदि के माध्यम से समयसार में वर्णित विषयों को माताजी ने अनूठे ढंग से स्पष्ट किया है। अध्यात्म प्रधान समयसार की यह हिन्दी टीका माताजी की गहरी आध्यात्मिक अभिरुचि की दिग्दर्शिका है। इसमें माताजी ने अपनी बुद्धिबल के आधार पर सूक्ष्म से सूक्ष्म आध्यात्मिक विषयों को जनसामान्य के लिए ग्राह्य बना दिया है। आचार्य श्री कुन्दकुन्ददेव, आचार्य श्री अमृतचन्द्रसूरि आचार्य श्री जयसेन स्वामी द्वारा प्रतिपादित सूक्ष्म और गंभीर सिद्धान्तों को अपनी सरल भाषा में प्रश्नोत्तर शैली और उदाहरणों के माध्यम से समझाकर जिनवाणी आराधकों का महान उपकार किया है। समयसार को पूर्वाद्र्ध और उत्तराद्र्ध दो भागों की टीका के साथ प्रकाशित कराया गया है। पूर्वाद्र्ध में जीवाजीवाधिकार, कर्तृकर्माधिकार, पुण्य-पापाधिकार, आस्रवाधिकार, संवराधिकार का विवेचन है और उत्तराद्र्ध में निर्जराधिकार, बंधाधिकार, मोक्षाधिकार, सर्वविशुद्धज्ञानाधिकार के बाद स्याद्वादाधिकार का वर्णन है। परिशिष्ट में दसों अधिकारों की गाथाओं को प्रस्तुत किया गया है। पूर्वाद्र्ध में प्रकाशित अधिकारों का अन्वयार्थ भी उत्तराद्र्ध में प्रकाशित किया गया है जिससे स्वाध्याय करने वाले सम्पूर्ण ग्रंथ को उत्तराद्र्ध एक भाग द्वारा पढ़ सकते हैं। इस टीका में माताजी की बेजोड़ भाषाशैली उनके अध्ययन, चिंतन एवं साहित्यसृजन, भाषानुवाद की विलक्षण प्रतिभा पद-पद पर दृष्टिगत होती है। समयसार ‘‘उत्तराद्र्ध’’ में ‘‘पूर्वाद्र्ध’’ की तरह ही शैली को अपनाया गया है। निर्जराधिकार में सम्यग्दृष्टि का वर्णन करते हुए निम्न गाथा है-
एवं सम्माद्दिट्ठी, अप्पाणं मुणदि जाणयसहावं।
उदयं कम्मविवागं, य मुअदि तच्च्ां वियाणंतो।।२००।।
आ. २१० ता.
अर्थात् इस प्रकार सम्यग्दृष्टि आत्मा को ज्ञायक स्वभाव जानता है और वास्तविक तत्त्व को जानते हुए उदयस्वरूप कर्म के फल को छोड़ देता है। आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी सम्यग्दृष्टि को निज स्वरूप को जानने वाला और कर्मों के उदय के फलस्वरूप से उत्पन्न हुए समस्त परभावों को छोड़ने वाला बताकर उसे ज्ञान वैराग्य सम्पन्न कहते हैं। कलश के माध्यम से कहते हैं कि ‘‘मैं सम्यग्दृष्टि हूँ मुझे कभी भी बंध नहीं होता है, ऐसा मानकर जिनका मुख गर्व से ऊँचा और पुलकित हो रहा है, ऐसे रागी जीव भले ही महाव्रतादि का आचरण करें तथा समितियों का भी उत्कृष्ट रीति से अवलम्बन लेवें तो भी वे अभी भी पापी हैं क्योंकि वे आत्मा और अनात्मा के ज्ञान से रहित होने से सम्यग्दर्शन से ही रिक्त हैं।
सम्यग्दृष्टि: स्वयमयमहं जातु बन्धो न मे स्या-दित्युत्तानोत्पुलकवदना रागिणोप्याचरन्तु।
आलम्बंतां समितिपरतां ते यतोऽद्यापि पापा-आत्मानात्मावगमविरहात्सन्ति सम्यक्त्वरिक्ता:।।१३७।।
(अध्यात्म कलश)।
इस कलश काव्य के आधार पर जो लोग मुनियों को पापी आदि शब्दों का व्यवहार कर देते हैं उन दुष्ट लोगों के लिए टीकाकत्र्री ने विशेषार्थ में समझाया है कि यह ग्रंथ महाव्रत-समितियों में तत्पर मुनियों के लिए ही है वे ही सच्चे भेदज्ञानी होकर सम्यग्दृष्टि बनते हैं वे ही वीतरागी होकर कर्मबंध से छूट सकते हैं। महाव्रत और समिति के पालक मुनि पापी नहीं है किन्तु जो सरागी मुनि हैं महाव्रत समिति आदि चारित्र में तत्पर हैं फिर भी मैं सम्यग्दृष्टि हूँ मुझे कदाचित् भी कर्मबंध नहीं होता, ऐसा अहंकार करके ऊँचा मुख करते हुए अहंकार से चूर हो रहे हैं उनको ही यहाँ पापी कहा है।

आर्यिकाश्री ने स्पष्ट किया है 

सरागसंयमी मुनियों के दसवें गुणस्थान तक अपने अपने गुणस्थानों के अनुसार कर्मों का बंध हो रहा है। जानकार अपने को अबंधक नहीं कहेगा। जो अहंकारवश कहे कि मेरे कर्मों का बंध नहीं हो रहा है, वह अज्ञानी है। अहंकार करने वाले भी मुनि को आचार्य अमृतचन्द्रसूरि जैसे उनके गुरु उन्हें पापी कह सकते हैं। न कि गृहस्थ व्यक्ति जो निरन्तर सांसारिक भोगों में लिप्त हैं। जो अविरत हैं, वे कहते हैं कि समिति और व्रत पालक मुनि तो पापी हैं और हम सम्यग्दृष्टि हैं, ऐसे लोग संयम द्वेषी हैं, मुनिद्रोही हैं। संयम द्वेषी सम्यग्दृष्टि कदापि नहीं हो सकता। रागी जीव सम्यग्दृष्टि क्यों नहीं होता? इस प्रश्न के उत्तर में आचार्य श्री कुन्दकुन्द ने कहा है कि जिसके रागादि भावों का अणुमात्र भी विद्यमान है, वह भले ही सम्पूर्ण शास्त्रों का ज्ञाता हो, फिर भी आत्मा को नहीं जानता है और वह आत्मा का न जानता हुआ अनात्मा को भी नहीं जानता है, वह जीव-अजीव को नहीं जानता हुआ सम्यग्दृष्टि वैâसे हो सकता है।
परमाणुमित्तयं पि हु रायादीणं तु विज्जदे जस्स।
णवि सो जाणदि अप्पाणयं तु सव्वागमधरोवि।।२०१।।
आ.ता.।।२११।।
अप्पाणमयाणंतो अणप्पयं चावि सो अयाणंतो।
कह होदि सम्मदिट्ठी जीवाजीवे अयाणंतो।।२०२।।
(आ.) ता. २१२

गाथा संख्या २०१ में ‘‘सव्वागमघरोवि’ पद है 

गाथा संख्या २०१ में ‘‘सव्वागमघरोवि’ पद है जिसका अर्थ अमृतचन्द्रसूरि ‘श्रुतकेवली सदृश’ करते हैंस श्रुतकेवलिकल्पोऽपि तथापि ज्ञानमयभावनामभावेन न जानात्यात्मानं यस्तु आत्मानं न जानाति सोऽनात्मानमपि न जानीति।। आत्म. गा. २०१ श्रुतकेवली भावलिङ्गी मुनि ही होते हैं, वे तो सम्यग्दृष्टि नियम से होंगे, उनमें सम्यक्त्वपने का संदेह असंगत है अत: माताजी ने इस विषय को बहुत सुन्दर स्पष्टीकरण दिया है कि दिगम्बर मुद्राधारी कोई-कोई ग्यारह अंग चौदह पूर्व के ज्ञाता श्रुतकेवली होते हैं वे भावलिङ्गी मुनि ही होते हैं अत: सर्वागम से ग्यारह अंग १० पूर्व तक का ही ज्ञान लेना चाहिए तथा च. जो राग का अणुमात्र भी न होने से सम्यग्दृष्टि कहा है वे सम्यग्दृष्टि ग्यारहवें-बारहवें गुणस्थान में वीतरागी ही होंगे। दसवें गुणस्थान तक के सरागी मुनि कथमपि नहीं होंगे। इस प्रकार से ‘ज्ञानज्योति’ नामक इस टीका में अन्य भी अनेक सैद्धान्तिक विषयों को स्पष्ट किया गया है। पूरा का पूरा टीका ग्रंथ अपने आप में अद्भुत है। समयसार के हार्द को प्रस्पुâटित करने में पूर्णरूपेण समर्थ है। माताजी ने इसमें किसी भी रूप में कमी नहीं रहने दी है। जहाँ माताजी का पूजा साहित्य समृद्ध है, वहाँ उनका टीका साहित्य भी अपूर्व है। संस्कृत काव्य जगत् में टीकाकार के रूप में जो ख्याति मल्लिनाथ को मिली, साहित्य शास्त्र के टीकाकार में अभिनव गुप्त को मिली, उनसे भी अधिक संस्कृत और हिन्दी टीका करने में आर्यिकारत्न श्री ज्ञानमती माताजी की कीर्ति है। यद्यपि माताजी की दार्शनिक ग्रंथों की टीकाओं ने विद्वानों को उनका चरण चञ्चरीक बना दिया और अध्यात्मिक ग्रंथों में नियमसार की स्याद्वाद चन्द्रिका और हिन्दी टीका महत्वपूर्ण है। समयसार की ज्ञानज्योति टीका की प्रशंसा के लिए शब्द नहीं हैं, निश्चितरूप से सुधीजन इसका आदर के साथ पठन-पाठन करके आध्यात्मिक रहस्यों को आत्मसात् करेेंगे। अध्यात्म विषयों की प्रतिपादिका यह टीका मुक्ति पथिकों के लिए अत्यधिक उपयोगी है। 
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