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समयसार में मुनियों को रत्नत्रय धारण करने की प्रेरणा!

February 10, 2017स्वाध्याय करेंjambudweep

समयसार में मुनियों को रत्नत्रय धारण करने की प्रेरणा


समयसार ग्रन्थ में आचार्य श्री कुन्दकुन्द देव ने मुख्यरूप से तो शुद्धात्म तत्त्व का ही वर्णन किया है किन्तु अनेक स्थानों पर मूल गाथाओं में उन्होंने ‘मुनी’ अथवा ‘साधु’ शब्द ग्रहण करके इस बात को प्रद्योतित किया है कि नग्न दिगम्बर मुनिराज ही व्यवहार क्रियाओं के पश्चात् निश्चय में लीन होकर शुद्ध आत्मा की प्राप्ति कर सकते हैं, अन्य कोई नहीं। सो ही वे गाथा नं० १६ में प्रस्तुत करते हुए कह रहे हैं—

दंसणणाण चरित्ताणि सेविदव्वाणि साहुणा णिच्चं। ताणि पुण जाण तिण्णिवि अप्पाणं चेव णिच्छयदो।।

—शेर छन्द—

साधु मुनी के लिए ज्ञान चरण औ दर्शन। है नित्य सेवितव्य नय व्यवहार का कथन।।

निश्चय से ये तीनों ही आत्म के स्वरूप हैं। दोनों नयों से आत्मतत्त्व प्राप्यरूप हैं।।

अर्थात् गाथा का अभिप्राय यहाँ यह है कि मुनियों को नित्य ही दर्शन, ज्ञान और चारित्र का सेवन करना चाहिए और पुनः ये तीनों भी निश्चयनय से आत्मा ही हैं, ऐसा जानो। इसकी आत्मख्याति टीका का हिन्दी अनुवाद करते हुए पूज्य गणिनीप्रमुख आर्यिका श्री ज्ञानमती माताजी ने लिखा है— ‘‘जिस किसी भाव से यह आत्मा साध्य और साधन रूप हो, उसी भाव से यह नित्य ही उपासना के योग्य है, इस प्रकार से स्वयं विचार करके दूसरों के लिए व्यवहारनय से ऐसा प्रतिपादन करते हैं कि मुनि को नित्य ही ये दर्शन, ज्ञान, चारित्र उपास्य हैं—सेवन करने योग्य हैं। पुनः परमार्थ से—निश्चयनय से ये तीनों भी एक आत्मा ही हैं क्योंकि ये आत्मा से भिन्न अन्य वस्तु नहीं हैं। जैसे—किसी देवदत्त नामक पुरुष के जो ज्ञान, श्रद्धान और आचरण हैं वे उसके स्वभाव का उल्लंघन नहीं करने से देवदत्त स्वरूप हैं, उस देवदत्त से भिन्न अन्य कोई वस्तु नहीं है। उसी प्रकार से आत्मा में भी जो रत्नत्रय है वे आत्मा के स्वभाव का उल्लंघन न करने से आत्मा ही है उससे भिन्न नहीं है इसीलिए यह निष्कर्ष निकला कि एक आत्मा ही उपासना करने योग्य है ऐसा स्वयमेव प्रकाशित हो रहा है।’’ आत्मा की इस स्थिति का वर्णन श्री अमृतचन्द्र सूरि ने कलश काव्यों में मेचक और अमेचक कहकर किया है। यहाँ मेचक का अर्थ अनेक रूप है और अमेचक का अर्थ एकरूप बताया है कि आत्मा व्यवहार नय से मेचक तीन रूप से परिणत रत्नत्रय स्वभावी है तथा वही आत्मा निश्चयनय से अमेचक एक अभेद रत्नत्रय स्वरूपी ही है, पुनः वे कहते हैं कि ‘‘इस भेदाभेद विकल्प को छोड़ो, वास्तव में आत्मा की सिद्धि रत्नत्रय के सिवाय अन्य प्रकार से कथमपि सम्भव नहीं है।’’ इसी विषय को श्री जयसेनाचार्य ने अपनी तात्पर्यवृत्ति टीका में सरलता से खुलासा किया है। दोनों टीकाओं से सम्बन्धित समयसार ग्रन्थ का अध्ययन जिज्ञासुओं को अवश्य करना चाहिए। विशेषार्थ में हिन्दी टीकाकत्र्री सिद्धान्त पक्ष को स्पष्ट करती हुई लिखती हैं— ‘‘यहाँ गाथा में ‘‘साहुणा’’ पद है इससे यह स्पष्ट है कि यह रत्नत्रय मुनियों के ही होता है, उससे पूर्व चौथे और पाँचवे गुणस्थान में नहीं होता है। अविरत गुणस्थान में तो चारित्र है ही नहीं, पाँचवें में अणुव्रत रूप से देशचारित्र है वह यहाँ विवक्षित नहीं है। श्रीकुन्दकुन्द देव ने इस गाथा में छठे गुणस्थान के योग्य व्यवहार रत्नत्रय को और सातवें आदि गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक होेने वाले निश्चय रत्नत्रय को सेवन करने के लिए प्रेरणा दी है। आत्मख्याति टीका में श्री अमृतचन्द्र सूरि ने इन्हीं व्यवहार रत्नत्रय और निश्चय रत्नत्रय की चर्चा की है पुनः कलशकाव्यों में भी प्रमाण से दोनों को कहकर व्यवहारनय-निश्चयनय की अपेक्षा से व्यवहार और निश्चय रत्नत्रय को कहा है। इसी गाथा की टीका में श्रीजयसेनाचार्य ने सरल शब्दों में कह दिया है कि व्यवहार नय से साधु को व्यवहार रत्नत्रय सेवन करने योग्य है और निश्चयनय से निर्विकल्प ध्यान में निश्चयरत्नत्रय स्वयं हो जाता है। श्रावक इन भेद-अभेद रत्नत्रय को प्राप्त करने की भावना करे और अपने पद के योग्य अणुव्रत—एक, दो प्रतिमा से लेकर सात प्रतिमा अथवा ग्यारह प्रतिमा तक के व्रतों को धारण कर अपनी शक्ति बढ़ाये। अव्रती सम्यग्दृष्टि अणुव्रती बनने का पुरुषार्थ करे और भेद रत्नत्रयधारी मुनियों की भक्ति, पूजा, उपासना करते हुए उन्हें नवधाभक्ति से आहार देते हुए अपने गार्हस्थ जीवन को सफल करे यही सनातन प्राचीन परम्परा है।’’ इसीलिए समयसार को प्रमुख रूप से पढ़ने और धारण करने का अधिकार मुनियों को ही है तथा श्रावक उसे पढ़कर श्रद्धान और ज्ञान ही कर सकते हैं, यह अभिप्राय हुआ।

 

Tags: Muni Dharm
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