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01.1 सम्प्रदाय निरपेक्षता का पाठ पढ़ाता है जैनधर्म

December 8, 2022Booksjambudweep

सम्प्रदाय निरपेक्षता का पाठ पढ़ाता है जैनधर्म


धर्म निरपेक्षता


भारत धर्म प्रधान देश होने के साथ कर्म प्रधान देश भी है। यहाँ भाग्य के साथ पुरुषार्थ को भी समानता से मान्यता प्राप्त है। प्रत्येक धर्म में भेदभाव से रहित होकर आचरण करने पर बल दिया गया है। भारत में समान संस्कृति और सभ्यता वाले लोग तो मिलकर रहते ही हैं परन्तु असमान सभ्यता और संस्कृति वाले लोगों का समावेश भी भारत की धर्म निरपेक्षता की विशेषता है। यहाँ पर विभिन्न जाति, धर्म, संस्कृति, सभ्यता के अनुयायी निवास करते हैं। इन सभी के मध्य भाईचारा का संबंध स्थापित करने के लिए धर्म निरपेक्षता की नितान्त आवश्यकता है। जैनधर्म का कथन है कि सभी जीवों के प्रति मैत्री, प्रमोद, करुणा, माध्यस्थ का भाव रखने से द्वेषभाव कम होता है। अन्य धर्मों ने मात्र मनुष्य के प्रति मैत्री, प्रेम का भाव रखने का संकेत दिया है, परन्तु जैनदर्शन में आचार्य अमितगति ने कहा है कि—

सत्त्वेषु मैत्रीं गुणिषु प्रमोदं क्लिष्टेषु जीवेषु कृपापरत्वं।
माध्यस्थभावं विपरीतवृत्तौ सदा ममात्मा विदधातु देव।।

अर्थात् सभी से मित्रता, गुणीजनों में आनन्द का भाव, दु:खी जीवों पर कृपा का भाव तथा विपरीतवृत्ति वाले जीवों में माध्यस्थ भाव रखना चाहिये। इन भावों के कारण से बुद्धि में विकार भाव उत्पन्न नहीं होते तथा व्यक्ति नि:स्वार्थ भावना से सतत धर्म निरपेक्षता के प्रति प्रयत्नशील होता है।


धर्म का स्वरूप


जैनदर्शन के परिप्रेक्ष्य में विविध आचार्यों ने धर्म के स्वरूप का कथन बहुत प्रकार से किया है। आचार्य समन्तभद्र स्वामी ने रत्नकरण्ड श्रावकाचार में कहा है कि—

देशयामि समीचीनं धर्मं कर्म निवर्हणम्।
संसार दु:खत: सत्त्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे।।

अर्थात् जो जीवों के कर्म नाश करने में सहायक तथा संसार रूपी दु:ख से छुड़ाकर उत्तम सुख में धरता है उस धर्म को कहने की प्रतिज्ञा आचार्य महाराज ने की है। इसी प्रकार अन्य कवियों ने भी कहा है—

जो धर्मात्मा पुरुषों को नीचपद से उच्चपद में धारण करता है वह धर्म कहलाता है। संसार नीचपद है तथा मोक्ष उच्चपद है। जो मनुष्य को इस अपार संसार—सागर के दु:खों के उद्धार करके नित्य और अविनाशी सुख वाले मोक्ष में धरे, उसे धर्म जानना चाहिये। यशस्तिलक चम्पू में सोमदेव सूरि महाराज ने अभ्युदय मोक्ष सुख प्राप्त कराने वाले को धर्म कहा है तथा सर्वार्थसिद्धिकार आचार्य पूज्यपादस्वामी ने ‘इष्टस्थाने धत्ते इति धर्म:’ कहकर आत्मा को इष्ट स्थान में धरने वाले को धर्म कहा है।


धर्म निरपेक्षता का अर्थ


धर्म निरपेक्षता में दो शब्दों का समावेश होता है। जिसमें धर्म का अर्थ धारण करना है तथा निरपेक्षता का अर्थ एकान्त अपेक्षा से रहित होना है अर्थात् जिसमें एकान्त अपेक्षा से रहित होकर अनेकान्त को धारण किया जाता है, वह धर्म निरपेक्षता है।
१.४ सैद्धान्तिक धर्म निरपेक्षता—
जैनदर्शन में जिन सिद्धान्तों का प्रतिपादन अरिहन्त भगवन्तों ने किया है वह सभी जीव मात्र के लिए है। चाहे वे एकन्द्रिय हों अथवा पंचेन्द्रिय हों, चाहे निम्न वर्ग के हों अथवा उच्चवर्ग के हों। सभी को इन सिद्धान्तों को मानने के लिए स्वतंत्रता प्राप्त है। ये सिद्धान्त किसी के व्यक्तिगत न होकर सार्वजनिक सिद्धान्त हैं, तभी तो जैनदर्शन के सिद्धान्तों की अन्य भारतीय दर्शनों के सिद्धान्तों के साथ भिन्नता देखी जाती है। इसे ही धर्म निरपेक्षता के अंतर्गत लिया गया है। जैनदर्शन में सिद्धान्तों का विवेचन जितना सूक्ष्म दृष्टि से किया गया है उतना अन्य भारतीय दर्शनों में सूक्ष्म रूप प्राप्त नहीं होता अपितु भारतीय दर्शनों में इन सिद्धान्तों का बहिरंग रूप अथवा स्थूल रूप प्राप्त होता है।


अहिंसा


अहिंसा जैनाचार का प्राण तत्त्व है। इसे ही परमब्रह्म और परमधर्म कहा गया है। किसी जीव को मात्र मारना ही िंहसा नहीं है। िंहसा और अिंहसा का संबन्ध तो हमारे भावों, परिणामों (विचारों) से है। इसे हमें व्यापक अर्थों में समझना चाहिए। यूँ तो संसार में सर्वत्र जीव भरे हैं तथा वे प्रतिसमय अपने—अपने निमित्तों से मरते रहते हैं। इतने मात्र से कोई िंहसक नहीं हो सकता। जैनधर्म के अनुसार िंहसा रूप परिणाम होने पर भी किसी को हिंसक माना गया है। हिंसा की परिभाषा बताते हुए आचार्य उमास्वामी ने तत्त्वार्थसूत्र में कहा है कि ‘प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा’ अर्थात् जब कोई प्रमादी बनकर, जान—बूझकर असावधानी अथवा लापरवाही से किसी भी जीव का घात करता है अथवा कष्ट पहुँचाता है तभी उसे िंहसक कहा जा सकता है। आशय यह है कि हिंसा तीन परिस्थितियों में होती है। पहली जान बूझकर—अभिप्राय पूर्वक, दूसरी असावधानी या लापरवाही जन्य और तीसरी िंहसा न चाहते हुए भी पूर्ण सावधानी बरतने पर भी, अचानक या अनायास किसी जीव का वध हो जाने पर। जब कोई प्रेरित व्यक्ति कषाय के वशीभूत होकर किसी पर वार करता है तो यह हिंसा कषाय प्रेरित िंहसा असावधानीकृत िंहसा कही जाती है, लेकिन पर को कष्ट पहुँचाने की भावना से शून्य पूरी तरह से सावधान व्यक्ति द्वारा यदि अनायास किसी प्राणी का घात हो जाता है तो उक्त परिस्थिति में उसे िंहसक नहीं कहा जा सकता। इस बात को स्पष्ट करते हुए आचार्य कुन्दकुन्द स्वामी कहते हैं कि—

उच्चलियम्हि य पाए इरियासमिदस्स णिग्गमत्थाए।
आबाधेज्ज कुिंलगं मरिज्ज तं जोगमासेज्ज।
णहि तस्स तण्णिमित्तो बन्धो सुहुमोवि देसिदो समये।

यदि कोई मनुष्य सावधानीपूर्वक जीवों को बचाते हुए देखभाल कर चल रहा है, फिर भी यदि कदाचित् कोई जीव उसके पैरों के नीचे आकर मर भी जाए तो उसे तज्जन्य िंहसा संबन्धी सूक्ष्म पाप भी नहीं लगता, क्योंकि उसके मन में िंहसा का भाव नहीं है तथा वह सावधान है।

जैनदर्शन में अिंहसा को व्रत के रूप में स्वीकार किया गया है तथा उसकी रक्षा के लिए पाँच भावनाओं का विवेचन भी किया है। कहा है कि ‘वाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिपेक्षणसमित्यालोकितपानभोजनानि पंच’ अर्थात् अहिंसा की रक्षा के लिए वचनगुप्ति, मनोगुप्ति, ईर्यासमिति, आदाननिक्षेपण समिति और आलोकितपान भोजन का पालन करना चाहिए। इनके दोषों से बचने के लिए बंध, वध, छेद, अतिभारारोपण और अन्नपान निरोध का निषेध किया है।

अन्य भारतीय दर्शनों में अिंहसा का इतना सूक्ष्म विवेचन अप्राप्य है, परन्तु धर्म निरपेक्षता के कारण अन्य दर्शनों में जैन अिंहसा के स्थूल रूप के समान अिंहसा को माना है। जिसमें दूसरे जीवों को काय से सताना, मारना तथा दु:ख देना िंहसा कहा है तथा इनसे बचने का नाम अिंहसा कहा है, परन्तु वचन और मन से की जाने वाली िंहसा को परिगणित नहीं किया है।


सत्यव्रत


सत्यव्रत जैनधर्म का मौलिक तत्त्व है। अिंहसा की आराधना के लिए सत्य की उपासना अनिवार्य है। झूठा व्यक्ति सही अर्थों में अिंहसक आचरण कर ही नहीं सकता तथा सच्चा अिंहसक कभी असत्य आचरण नहीं कर सकता। सत्य और अिंहसा में इतना घनिष्ट संबंध है कि एक के अभाव में दूसरे का पालन हो ही नहीं सकता। ये दोनों एक—दूसरे के पूरक हैं। जिस झूठ से समाज में प्रतिष्ठा न रहे, प्रामाणिकता खण्डित होती हो, लोगों में अविश्वास उत्पन्न होता हो तथा राजदण्ड का भागी बनना पड़े, इस प्रकार के झूठ को स्थूल झूठ कहते हैं। सत्याणुव्रती श्रावक इस प्रकार के स्थूल झूठ का मन, वचन, काय से सर्वथा त्याग करता है, साथ ही वह कभी ऐसा सत्य भी नहीं बोलता जिससे किसी पर आपत्ति आती हो। वह अपनी अिंहसक भावना की सुरक्षा के लिए हित, मित और प्रिय वचनों का ही प्रयोग करता है। आचार्य उमास्वामी जी ने सत्य की परिभाषा में कहा है कि ‘असदभिधानमनृतम्’ अर्थात् असत् कहना झूठ है। असत् के तीन अर्थ लिए जा सकते हैं पहला अर्थ जो बात नहीं है वह कहना, दूसरा अर्थ जैसी बात कही गई है वैसी न कहना, तीसरा अर्थ बुराई या दुर्भावना को लेकर किसी से कहना। इसे झूठ कहा गया है।

अन्य भारतीय धर्मों में सत्य को ईश्वर का रूप कहा गया है। प्राचीन युग में एक कहावत थी कि इस संसार से यदि सत्य नष्ट हो जाए तो संसार समाप्त हो जाएगा। पारसी धर्म में नम्रता, दया, प्रेम, शान्ति के साथ सत्कथन अर्थात् सत्यता को भी धर्म की संज्ञा दी है। बुद्ध ने अपने अनुयायियों के आचरण के लिए चार नियमों का प्रतिपादन किया जिसमें मृषावाद का अर्थ असत्य नहीं बोलने का निर्देश दिया है। महाभारत काल में युधिष्ठिर को सत्य बोलने के कारण धर्मराज की उपाधि से भूषित किया गया था। पुराण, कथाओं में राजा हरिचन्द्र को सत्य की मूर्ति के रूप में स्वीकार किया है। इस प्रकार भेदभाव से रहित होने के कारण सभी धर्मों के मूल नियमों में समानता देखी जाती है।


अचौर्य व्रत


चोरी हिंसा का एक रूप है। अिंहसा के सम्यक््â परिपालन के लिए चोरी का त्याग भी आवश्यक है। जब किसी की कोई वस्तु चोरी हो जाती है अथवा वह किसी प्रकार से ठगा जाता है तो उसे बहुत मानसिक पीड़ा होती है। उस मानसिक पीड़ा के परिणामस्वरूप कभी—कभी हृदयाघात भी हो जाता है। अत: चोरी करने से अिंहसा नहीं पल सकती तथा चोरी करने वाला सत्य का पालन नहीं कर सकता, क्योंकि सत्य और चोरी दोनों साथ—साथ नहीं हो सकते। आचार्य उमास्वामी ने चोरी का कथन करते हुए कहा है कि ‘अदत्तादानं स्तेयम्’ अर्थात् बिना किसी के द्वारा दी हुई वस्तु को ग्रहण करना चोरी कहलाती है तथा जिस पर अपना स्वामित्व नहीं है, ऐसी किसी भी पराई वस्तु को बिना अनुमति के ग्रहण करना चोरी है। श्रावक स्थूल चोरी का त्याग करता है। वह जल और मिट्टी के सिवाय बिना अनुमति के किसी के भी स्वामित्व की वस्तु का उपयोग नहीं करता। वह मार्ग में पड़ी हुई, रखी हुई या किसी की भूली हुई, अल्प या अधिक मूल्य वाली किसी वस्तु को ग्रहण नहीं करता।
अचौर्यव्रती उक्त प्रकार की समस्त चोरियों का त्याग कर देता है, जिसके करने से राजदण्ड भोगना पड़ता है। समाज में अविश्वास बढ़ता है तथा प्रामाणिकता खण्डित होती है। प्रतिष्ठा को धक्का लगता है। किसी को ठगना, किसी की जेब काटना, किसी का ताला तोड़ना, किसी को लूटना, डाका डालना, किसी के घर सेंध लगाना, किसी की संपत्ति हड़प लेना, किसी का गड़ा धन निकाल लेना आदि सब स्थूल चोरी के उदाहरण हैं। भारतीय दण्ड संहिता और भारतीय दर्शन चोरी को अपराध मानते हैं तथा चोरी करने वाले को पापी कहते हैं। इसी कारण प्राचीन समय में राजा चोरी करने वाले व्यक्ति के हाथ आदि कटवा देते थे। अत: सर्वविदित है कि चोरी अपराध है वही जैनदर्शन चोरी का सूक्ष्म और स्थूल के भेद से श्रावक और साधक को त्यागने का निर्देश करता है।


ब्रह्मचर्य व्रत


यौनाचार के त्याग को ब्रह्मचर्य कहते हैं। गृहस्थ अपनी कमजोरी वश पूर्ण ब्रह्मचर्य ग्रहण नहीं कर पाता। उसके लिए विवाह का मार्ग खुला है वह कौटुम्बिक जीवन में प्रवेश करता है। उसके विवाह का प्रमुख उद्देश्य धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थों का सेवन करना ही होता है। विवाह के बाद वह अपनी पत्नी के अतिरिक्त अन्य सभी स्त्रियों को माता, बहिन और पुत्री की तरह समझता है तथा पत्नी अपने पति के सिवाय अन्य सभी पुरुषों को पिता, भाई और पुत्र की तरह समझती हुई दोनों एक दूसरे के साथ ही संतुष्ट रहते हैं। इसे ब्रह्मचर्याणुव्रत या स्वदारसंतोष व्रत कहते हैं। ब्रह्मचर्य को हिन्दू एवं जैन दोनों धर्म महत्त्वपूर्ण मानते हैं। हिन्दुओं में नागा साधुओं को सबसे उत्कृष्ट साधु माना जाता है। वे नागा साधु आजीवन ब्रह्मचारी रहते हैं, परन्तु जैन आगमों में कहा गया है कि ब्रह्मचर्यधारी जीव को इन्द्र भी नमस्कार करता है। जैनदर्शन में स्वदार संतोषी श्रावक को भी आंशिक ब्रह्मचारी कहा गया है अन्य दर्शनों की अपेक्षा जैनदर्शन में ब्रह्मचर्य का जितना सूक्ष्म विवेचन प्राप्त होता है उतना सूक्ष्म विवेचन अन्यत्र अप्राप्य है।


अपरिग्रह व्रत


धन—धान्यादि बाह्य पदार्थों के प्रति ममत्व, मूर्च्छा या आसक्ति को परिग्रह कहते हैं। मनुष्य के पास जितनी अधिक संपत्ति की कामना होती है उसके पास उतनी ही अधिक मूर्च्छा आसक्ति या ममत्व होती है। अपनी इसी आसक्ति के कारण आवश्यकता न होने पर भी वह अधिक से अधिक धन प्राप्त करने की कोशिश करता है। यद्यपि मनुष्य की आवश्यकताएँ बहुत सीमित हैं। उन आवश्यकताओं की पूर्ति थोड़े से प्रयत्न से की जा सकती हैं, किन्तु आकांक्षाओं के अनन्त होने के कारण मनुष्य में और अधिक जोड़ने की भावना बनी रहती है इसे परिग्रह की संज्ञा दी है। संसार में परिग्रह को पाप की संज्ञा देने वाला जैनधर्म ही एक मात्र धर्म है अन्य धर्म परिग्रह को पाप न मानकर आजीविका का साधन मानते हैं और उसे प्राप्त करने के लिए पूरा जीवन समाप्त कर देते हैं।


जलगालन


जैनधर्म में पानी छानने की एक विशेष विधि है। जिसमें एक मोटा कपड़ा लिया जाता है जिससे सूर्य की रोशनी आरपार नहीं जा सके। उसका नाप ३६ अंगुल लम्बा और २४ आंगुल चौड़ा वस्त्र को दोहरा करके पानी छानने का निर्देश है। इस प्रकार के जल को ग्रहण करने का प्रत्येक जैन के लिए निर्देश दिया है। साधु त्रस, स्थावर दोनों प्रकार के जीवों की िंहसा के त्यागी होते हैं। इसलिए वह गर्म पानी को ही ग्रहण करते हैं तथा डॉक्टर और वैज्ञानिक भी लोगों को स्वस्थता के लिए गर्म प्रासुक जल पीने की सलाह देते हैं। इससे जीवों की हिंसा से भी बचा जा सकता है तथा स्वास्थ्य भी अच्छा रखा जा सकता है। डॉक्टर जगदीश चंद बसु ने अनछने पानी की एक बूँद में ३६४५० जीव बताये हैं। जैन ग्रंथों के अनुसार उक्त जीवों की संख्या काफी अधिक है। ऐसा कहा जाता है कि एक जल बिन्दु में इतने जीव पाये जाते हैं कि वे यदि कबूतर की तरह उड़ें तो पूरे जम्बूद्वीप को व्याप्त कर लें। उक्त जीवों के बचाव के लिए पानी को वस्त्र से छानकर पीना चाहिए। मनुस्मृति में भी ‘दृष्टिपूतं न्यसेत् पादं वस्त्रपूतं पिबेत् जलम्’ कहकर जल छानकर पीने का परामर्श दिया गया है।

जैनदर्शन में पानी छानने का मूल उद्देश्य जीवों की रक्षा करना तथा जीविंहसा से बचकर स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करना है। इसी कारण प्राचीनकाल में और वर्तमान काल में ग्रामों में आज भी पानी को कुओं, तालाबों से निकालकर उसकी जीवाणी अर्थात् छने हुए त्रस जीवों को यथास्थान पहुँचाने के लिए कुन्दे की बाल्टी से कुएं या तालाब में वापस पहुँचाते हैं। इसके साथ ही पानी निकालते समय ध्यान रखा जाता है कि पानी की जीवाणी भी उस जलाशय में डालनी चाहिए। इस प्रकार छने पानी के प्रयोग से स्वास्थ्य तथा धर्म दोनों की रक्षा होती है। अन्य दर्शनों में भी पानी छानने के लिए निर्देश देते हुए कहा है कि—

संवत्सरेण यत्पापं कुरुते मत्स्यवेधक:।
एकाहेन तदानोति अपूत जल संग्रही।।

अर्थात् एक मछली मारने वाला वर्ष भर में जितना पाप अर्जित करता है, उतना पाप बिना छने जल का उपयोग करने वाला एक दिन में कर लेता है। इसी प्रकार उत्तर मीमांसा में जल छानने की विधि का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि—

त्रिंशदंगुलप्रमाणं दिंशत्यंगुलमायतं।
तद्वस्त्रं द्विगुणीकृत्य गालयेच्चोदकं पिबेत्।
तस्मिन् वस्त्रे स्थिता जीवा स्थापयेज्जलमध्यत:
एवं कृत्वा पिबेत्तोयं स याति परमां गतिम्।।

अर्थात् तीस अंगुल लम्बे और बीस अंगुल चौड़े वस्त्र को दोहरा करके उससे छानकर जल पियें तथा उस वस्त्र में जो जीव हैं उनको उसी जलाशय में स्थापित कर देना चाहिए जहाँ से वह जल लाया गया हो। इस प्रकार से जो मनुष्य छना जल पीता है वह उत्तम गति को प्राप्त होता है।

अत: जैनधर्म एवं अन्य धर्मों के सिद्धान्तों में सामञ्जस्य देखने पर यह ज्ञात होता है कि पूर्व युग में जैनधर्म व्यक्तिगत किसी जाति का धर्म नहीं था वह सार्वभौमिक एवं धर्म निरपेक्ष था।


रात्रिभोजन त्याग


जीवन में सुख का अनुभव करने के लिए स्वास्थ्य लाभ आवश्यक है। स्वास्थ्य लाभ से ही मानव जीवन तथा अन्य जीवों का जीवन सुखी और शान्त बन सकता है। इसके लिए एक कहावत चरितार्थ होती है कि ‘पहला सुख निरोगी काया’ इस निरोगी काया के लिए प्राणी अनेक प्रयत्न करता है वह अपना पूरा जीवन शरीर को िनरोगी बनाने तथा संभालने में लगा देता है। परन्तु यह शरीर फिर भी रोगी बना रहता है। इसका कारण एक ही है कि वह कार्य तो निरोगी होने के करता नहीं, परन्तु निरोगी बनना चाहता है।

आचार्यों ने शरीर को निरोगी करने के लिए रात्रिभोजन त्याग करना जीवों के लिए आवश्यक बताया है। सभी जीवों में लगभग सभी शाकाहारी जीव तो रात्रि में आहार ग्रहण नहीं करते, परन्तु मानव एक ऐसा प्राणी है जो जानकर भी रात्रि में आहार ग्रहण कर अपनी काया को रोगी तथा आयु को कम करता है।


रात्रिभोजन के कारण


१. रात्रिभोजन के कुप्रभावों की सही जानकारी का अभाव।

२. सामाजिक और नौकरी पेशे की अव्यवस्थाएँ।

३. कार्यालयों और दुकानों में भोजन अवकाश का समय निर्धारित न होना।

४. असमय में बालकों का स्कूल, कॉलेज और ट्यूशन आदि करना।

५. सुबह की चाय, नाश्ता, लंच आदि प्रारंभ होने से दिन में निर्धारित समय पर भूख नहीं लगना।

६. मन और इन्द्रियों पर नियंत्रण का अभाव।

७. भौतिक समस्याओं की बढ़ती आवश्यकता और उसकी पूर्ति के कुप्रयास करना।

८. आर्थिक समस्याओं के समाधान हेतु रात—दिन श्रम करना।

९. सूर्य और कृत्रिम प्रकाश में अंतर की जानकारी का अभाव होना।

१०. पाश्चात्य संस्कृति और आधुनिकता का चरम सीमा पर प्रभाव।

११. विवाह, पार्टी आदि में सामूहिक रात्रिभोजन को देखकर रात्रिभोजन त्यागी को दूसरों के द्वारा व्यंग्य, तर्क—कुतर्क करके जबरन रात्रि भोजन करने को बाध्य करना।

१२. टी. वी., सिनेमा आदि पर रात्रि भोजन में मौज—मस्ती का प्रदर्शन और होटल, भोजनालय आदि में रात—दिन भोजन का उपलब्ध होना।


रात्रिभोजन त्याग की आवश्यकता


रात्रिभोजन त्याग के महत्त्व को जानने के साथ—साथ हमें शारीरिक संरचना को जानना भी परम आवश्यक है। संसार के प्रत्येक प्राणियों के शरीर की संरचना भिन्न—भिन्न प्रकार से है, अलग—अलग आकार प्रकार से भोजन करने और पचाने की प्रक्रिया होती है। आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार दुनिया का सबसे बड़ा आश्चर्य मानव शरीर है। वैज्ञानिक भी इस मानव शरीर के बारे में ऊहापोह में लगे हैं कि आखिर यह मानव शरीर इतने वर्षों तक निरन्तर वैâसे चलता रहता है जो संवेदना से युक्त होता है, जो अच्छे—बुरे का ज्ञान करा देता है जो अन्दर रासायनिक पदार्थों को तैयार करके आवश्यकता पड़ने पर बाहर निकालता रहता है जो अन्दर ही अन्दर अपना भोजन पचाकर आवश्यक ऊर्जा देता रहता है और बाहरी रोगाणुओं से अपनी सुरक्षा करता रहता है, परन्तु जो इसकी प्रकृति के विरुद्ध आता है उसे तत्काल दण्ड भी देता है।


अन्य धर्मों में रात्रिभोजन का निषेध


वर्तमान युग में रात्रिभोजन का सेवन प्रत्येक धर्म का अनुयायी कर रहा है। उसे इस विषय की जानकारी नहीं है कि रात्रिभोजन करने से धर्म के साथ स्वास्थ्य भी खराब होता है। वैदिक साहित्य में रात्रि भोजन के निषेध के लिए अनेक ग्रंथों में उल्लेख प्राप्त होता है। महाभारत के शांतिपर्व में रात्रिभोजन त्याग के बारे में बतलाते हुए कहते हैं कि—

ये रात्रौ सर्वदाहारं वर्जयन्ति सुमेधस:। तेषां पक्षोपवासस्य फलं मासेन जायते।।
नोदकमपि पातव्यं रात्रावत्र युधिष्ठिर:। तपस्विनां विशेषेण गृहिणां च विवेकिना।।

जो रात्रि में सब प्रकार के आहार का त्याग कर देते हैं, उन्हें एक माह में एक पक्ष के उपवास का फल मिलता है। हे युधिष्ठिर! विशेषकर तपस्वियों एवं ज्ञान संपन्न गृहस्थों को तो रात्रि में जल भी नहीं पीना चाहिए।


जैनधर्म और अन्य धर्मों के कुछ सिद्धान्तों का समावेश


१. जैनदर्शन में प्रत्येक श्रावक को चाहे वह क्षत्रिय हो या शूद्र हो या वैश्य अथवा ब्राह्मण हो सभी को आपत्तिजनक वस्तुओं के क्रय—विक्रय का निषेध किया गया है। यदि वह आपत्तिजनक वस्तुओं का क्रय—विक्रय करता है, विरुद्धराज्यातिक्रमण नामक दोष से दूषित होता हुआ पाप का बंध करता है। इसी बात की अंशत: पूर्ति वैदिक परपंरा में देखने को मिलती है। वैदिक परंपरा में कहा गया है कि ब्राह्मण आपत्तिकाल में वाणिज्य कर्म कर सकता है, किन्तु वस्तु विक्रय के संबंध में उस पर नियंत्रण थे। वह आपत्तिजनक वस्तुओं का कदापि क्रय—विक्रय नहीं कर सकता।

२. जैनदर्शन में मन, वचन और काय की पवित्रता को मोक्ष का साधन कहा गया वहीं पारसी धर्म में हुमता—सद्विचार, हुमबसत्कथन, और हुबस्ता—सत्कार्य को स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति का साधन माना गया है।

३. जैनदर्शन की मूल जड़ अहिंसा के साथ क्षमा, नम्रता, दया, त्याग आदि को दस धर्मों का लक्षण कहा है। इसी प्रकार जैनाचार्य सोमदेव ने नैतिकता के लिए नीतिवाक्यामृत में धर्म में नैतिकता की आवश्यकता को प्रतिपादित किया है वहीं ईसाई धर्म में महात्मा ईसा ने नम्रता, क्षमा, दया, त्याग आदि पर विशेष बल दिया है तथा ईसाई धर्म में भी नैतिकता को धर्म का केन्द्र माना है।

४. आचार्य उमास्वामी ने ‘परस्परोपग्रहो जीवनाम्’ सूत्र देकर जीवों को परोपकार करने का मार्ग बताया तथा कहा कि दूसरों की निंदा करने से नीच गोत्र का आश्रव होता है। इसी बात को इस्लाम धर्म में कहा है कि जो खुदा के मार्ग पर चलता है वही सही मार्ग पर चलता है। जो धन परोपकार के लिए खर्च किया गया है, वही धन तुम्हारा है शेष धन तुम्हारा नहीं है तथा कुरान शरीफ में इस बात पर भी जोर दिया है कि खुदा का बंदा शराब न पीये और जुआ न खेले इससे स्वास्थ्य और धन के साथ—साथ धर्म भी नष्ट होता है। जो मानव स्वयं के दोषों को निहारता है, उसे दूसरों के दोष देखने का अवकाश नहीं होता। िंनदा करने वाला और सुनने वाला—ये दोनों ही समान रूप से पापी हैं। पेट और उपस्थ (जननेन्द्रिय) को हराम की जगह से बचाओ क्योंकि इन्हीं के कारण से हराम के कार्य होते हैं। तुम्हारा कर्त्तव्य है कि जिसने तुम्हारे साथ असद्व्यवहार किया हो उनके साथ सद्व्यवहार करो तथा यतीमों (अनाथों) की भलाई करो। इस तरह जैनदर्शन के अंशत: संयम आचरण शुद्धता आदि सिद्धान्तों का दर्शन इस्लाम धर्म में भी प्रतिबिम्बित होता है।

५. जैनदर्शन के सिद्धान्तों का दिग्दर्शन सिख धर्म में भी प्राप्त होता है। सिख धर्म में आचरण पर विशेष जोर दिया गया है और कहा गया है कि सत्य से भी ऊँचा आचार है तथा काम, क्रोध, मोह, लोभ, अहंकार आदि दुर्गुणों पर नियंत्रण करने से चारित्र उन्नत होता है। सिख धर्म में सबके आगे झुकना, क्षमा करना और मीठा बोलना ये तीन वचन मुक्ति के मार्ग बताये गये हैंं


सांस्कृतिक और सामाजिक धर्म निरपेक्षता


संस्कृति हर देश की अपनी धरोहर होती है। यदि संस्कृति का नाश हो जाता है तो वह देश भी कुछ दिनों तक जीवित रहता है। प्राचीन भारत में राजतंत्र का प्रचलन था। जिसमें राजा के अधीन होकर धर्म तथा कर्म किया जाता था। यदि राजा पक्षपातपूर्ण व्यवहार करने वाला होता था तो प्रजा अपना धर्म तथा कर्म निर्विघ्नता से नहीं कर सकती थी। आदम युग में देखा जाए तो सभी राजा अपनी प्रजा की भलाई के लिए प्रतिक्षण प्रयत्न करते रहते थे। वे सदैव उनकी रक्षा करते थे। परन्तु कोई भी राजा प्रजा की संस्कृति के साथ अन्याय पूर्ण व्यवहार नहीं करता था। राजा किसी भी संस्कृति का पालन करने वाला हो, परन्तु वह प्रजा की संस्कृति पर आघात नहीं पहुँचाता था और यदि वह प्रजा की संस्कृति पर आघात करता था तो प्रजा उसे राज्यपद से च्युत कर देती थी। जैसे उपश्रेणिक ने अपने पुत्र चिलाती को राज्य प्रदान किया था, परन्तु वह प्रजा के साथ अन्याय तथा प्रजा की संस्कृति के साथ आघात पूर्ण व्यवहार करने लगा था जिससे उसे प्रजा ने राजिंसहासन से च्युत करके श्रेणिक को राजा नियुक्त किया था। संस्कृति के अंतर्गत मानव का रहन सहन, आहार—विहार, वस्त्रों का पहनाव आदि को सम्मिलित करते थे।
पूर्व काल में किसी भी देश का या रियासत का रहन—सहन पृथक््â होता था जिससे उसके देश के काल का पता चलता था। जैनधर्म में वर्णन प्राप्त होता है कि राजा प्रजा के रहन—सहन पर हस्तक्षेप नहीं करता था तथा दूसरे राज्य से आये हुए मेहमान को उस राज्य की वेषभूषा, रहन—सहन आदि को अपनाने के लिए बाध्य नहीं होना पड़ता था। हरिवंशपुराणकार ने वसुदेव के देश—विदेश भ्रमण के समय वसुदेव के रहन—सहन के परिवर्तन का संकेत नहीं दिया तथा वसुदेव देश—विदेश में परिभ्रमण करते रहे परन्तु किसी राजा ने उनके रहन—सहन को बदलने के लिए बाध्य नहीं किया। इससे स्पष्ट होता है कि व्यक्ति कहीं भी जाये उसे अपनी संस्कृति को परिवर्तन करने के लिए स्वतंत्रता थी, चाहे वह परिवर्तन करें अथवा न करें।
रहन—सहन के समान व्यक्ति आहार—विहार के लिए भी स्वतंत्र था। उसको परिभ्रमण काल में भी अपने आहार—विहार के लिए दूसरे व्यक्ति के द्वारा बाधा नहीं पहुँचती थी। नागकुमार चरित्र में नागकुमार को अन्य देशों में परिभ्रमण करते हुए वर्णन किया है। जिसमें उसके आहार—विहार की स्वतंत्रता का वर्णन प्राप्त होता है। राजा की राज्यसभा में विभिन्न धर्म के अनुयायी पदों पर पदस्थ थे। राजा इन पदस्थ कर्मचारियों को राज्य का काम देता था राजा को उनके धर्म तथा संस्कृति से किसी प्रकार का मतलब नहीं होता था। इन पदों में मंत्री, सेनापति, राजपुरोहित, सभासद, विद्वत्वर्ग आदि महत्त्वपूर्ण पद थे राजा इनकी ईमानदारी तथा कार्य करने की कुशलता से प्रसन्न होकर इनको पदों पर स्थापित करता था। इस प्रकार की व्यवस्था से सामाजिक व्यवस्था तथा सांस्कृतिक व्यवस्था अबाधित रूप से चलती थी। यह धर्म निरपेक्ष राज्य की स्थापना का सूचक है।
कुछ काल के बाद भारत में धर्म निरपेक्षता में हानि होने लगी। मुगल शासक अपने धर्म की स्थापना के लिए दूसरे के धर्म का नाश करने लगे तथा दूसरे धर्म की संस्कृति का नाश के अपनी संस्कृति का बल पूर्वक स्वीकार करने को बाधित करने लगे। परिणाम स्वरूप समाज में अराजकता, भय, अविश्वास की वृद्धि एवं संस्कृति का ह्रास होने लगा।


न्यायिक धर्म निरपेक्षता


धर्म निरपेक्षता के लिए न्याय का बहुत ही महत्त्व है यदि प्रजा को राजा न्याय नहीं देता तो प्रजा स्वयं ही निर्णय करने लगेगी। राजा को प्रजा तथा धर्म के अनुरूप न्याय करने की क्षमता होनी चाहिए। यदि राजा पक्षपातपूर्ण न्याय—अन्याय का निर्णय करेगा तो प्रजा का राजा के ऊपर से विश्वास हट जाएगा और जिस प्रजा का राजा के ऊपर से विश्वास हट जाता है वह राजा राज्य करते हुए भी राजा नहीं है। या तो वह प्रजा पर बलपूर्वक राज्य करता है या राज्य से च्युत कर दिया जाता है। इसलिए राजा को न्याय पूर्वक राज्य करना चाहिए। पुरा काल में रामराज्य को अच्छा माना जाता था क्योंकि राम ने न्याय के लिए अपनी प्रिय पत्नी का भी त्याग कर दिया था। राजा विक्रमादित्य का शासन काल भी कुछ ऐसे ही न्याय परायण राजा का स्मरण कराता है। न्यायपूर्ण राज्य करने वाला राजा युगों—युगों तक इतिहास में प्रसिद्ध होता है।


धर्म निरपेक्षता से लाभ


एकता में वृद्धि—

यदि जाति वर्ग आदि असमान हो परन्तु मन समान हो तो मित्रता में वृद्धि होती है। मन के समान होने के कारण धर्म निरपेक्षता है इसी धर्म निरपेक्षता के कारण विभिन्न वर्गों के लोगों में संगठन दिखाई देता है।

सुख, शांति, निर्भयता में वृद्धि—

वर्तमान समय में समाज में प्रत्येक व्यक्ति दु:खी है क्योंकि उसका मन दु:खी है वह अशान्त है इस कारण उसे भय है। अपनी एकांत धारणा के कारण दूसरों का अप्रिय बन चुका है। इससे वह भय से जीवन व्यतीत करता है। दूसरी ओर साधु दोनों पक्षों को जानकर मन को एकाग्र कर सुख, शांति तथा निर्भयता का जीवन व्यतीत करते हैं।

पापकर्म बंध में मंदता—

संसार में सबसे अधिक पापकर्म का बंध रागद्वेष के कारण होता है तथा जब व्यक्ति के अन्दर धर्म निरपेक्षता अर्थात् भेदभाव से रहित अवस्था का आगमन हो जाएगा तो वह रागद्वेष नहीं करेगा और निष्पक्ष भाव से निर्णय करेगा।

समाज में सम्मान वृद्धि—

समाज में जो व्यक्ति निष्पक्ष भाव से निर्णय करता है अथवा निर्णय सुनता है उस व्यक्ति का सम्मान प्रत्येक व्यक्ति अंतरंग से करता है।

भेदभाव रहित समाज का निर्माण—

धर्म निरपेक्ष होने पर समाज का प्रत्येक व्यक्ति अच्छे विचारों को ग्रहण करने में स्वतन्त्र होगा। उस पर किसी प्रकार का दबाव नहीं होगा तथा व उच्च—नीच भावना से ग्रसित नहीं होगा, जिससे भाईचारे में वृद्धि होगी तथा आतंकवाद जैसी समस्याओं का निवारण हो सकेगा। आतंकवाद का प्रचलन मात्र आपसी मतभेद के कारण बढ़ रहा है जब मतभेद नहीं होगा तो समस्या नहीं रहेगी। वर्तमान समय में प्रत्येक घर में या समाज में आपसी झगड़ों का कारण मनभेद है और वह मनभेद स्वयं की अपेक्षा की पूर्ति दूसरों के द्वारा नहीं होने के कारण से होता है। इस अपेक्षा से रहित जीवन का नाम निरपेक्ष भाव है।

सम्यक् कार्य के निर्णय की शक्ति में वृद्धि—

आपसी कलह या एकान्त धारणा के साथ मन कुण्ठित हो जाता है जिससे मन में शीघ्र निर्णय लेने की क्षमता में कमी होती है। जब मनुष्य दोनों पक्षों को सुनकर अनेकान्त या धर्म निरपेक्षता से मन को एकाग्र करता है मन में किसी के प्रति संदेह नहीं रहता तो अच्छे कार्यों के प्रति निर्णय शीघ्रता से ले लेता है।


धर्म निरपेक्षता के अभाव से हानि


सांप्रदायिक मतभेद एवं वैमनस्यता—

आज वर्तमान में संगठन के नाम पर या धर्म के नाम पर झगड़े प्रारंभ हो गये हैं। सभी लोगों में अपना मत स्थापित करने की तथा दूसरे के मत को बहिष्कृत करने की भावना बलवती हो गई है। प्रत्येक व्यक्ति अपने विचारों से अपने संगठन या धर्म को मजबूत करना चाहता है, परन्तु वह धर्म के मर्म को भूलकर अपने मत की पुष्टि करता है यदि वह धर्म के मर्म को समझ जाये तो वह अपने साधर्मी भाई के मत के बहिष्कार करने से पहले उसकी अपेक्षा को समझेगा। इसे ही धर्म निरपेक्षता कहते हैं, परन्तु इस बात को जाने बिना एक—दूसरे के प्रति द्वेष भाव उत्पन्न कर लेते हैं और संगठनों में वैमनस्यता प्रारंभ हो जाती है। सांप्रदायिक मतभेद एवं वैमनस्यता समाप्त करने के लिए धर्म निरपेक्षता आवश्यक है।

धर्म से आस्था समाप्त होना—

सांप्रदायिक मतभेद के कारण धार्मिक स्थलों में और धार्मिक कार्यक्रमों में झगड़े, मनमुटाव प्रारंभ हो गये हैं। इस कारण लोग धार्मिक मंचों को भी राजनीतिक मंचों के समान उपयोग करने लगे हैं। वर्तमान युवापीढ़ी या सामान्य जन जब इस प्रकार का वातावरण धार्मिक स्थलों में देखते हैं तो उन्हें धर्म की अपेक्षा आपसी मतभेद दिखाई देते हैं। जिस कारण वह धार्मिक कार्यक्रमों से हटता जाता है और एक समय ऐसा आता है कि उसकी धर्म से पूर्ण रूप से श्रद्धा समाप्त हो जाती है।

पाप कार्यों में स्वतंत्रता—

जब युवापीढ़ी धार्मिक स्थलों में पुण्य की क्रियाओं की अपेक्षा विकथाओं की क्रिया को करते देखती है तो अज्ञान होने के कारण वे उस क्रिया को ही धर्म मान लेते हैं तथा दया आदि क्रियाओं से रहित क्रिया काण्डों को ही धर्म मानकर धर्म के नाम पर स्वतंत्र रूप से पाप करते हैं तथा इन क्रियाओं के अतिरिक्त धार्मिक स्थलों में धार्मिक संस्कार नहीं मिलने के कारण वे अन्य स्थलों में पाप की क्रियाओं को अधिक करते हैं। अत: धार्मिक मतभेद को मिटाकर एक दूसरे के विचारों की अपेक्षा से समझकर धर्म निरपेक्ष भाव से वैमनस्यता को समाप्त करना चाहिए।

धर्म निरपेक्षता के अभाव के कारण—

प्राचीन युग में धर्म निरपेक्षता पूर्ण व्यवहार किया जाता था, परन्तु वर्तमान में धर्म निरपेक्षता के अभाव के कारण बहुत हैं। जिनके कारण व्यक्तियों का निरपेक्ष राज्य से विश्वास समाप्त हो गया है उनमें से कुछ कारण निम्न हैं—

मान कषाय—

पूर्वकाल से व्यक्ति जिस भेदभाव रूपी गलत मान्यता का अनुसरण कर रहा है उस मान्यता में अथवा परम्परा में सुधार लाने का विचार बनाता भी है तो उसकी मान कषाय उस काम में विघ्न रूप से उपस्थित हो जाती है। वह मान कषाय की पूर्ति के लिए भेदभाव रूप नीति को अपनाने में बाध्य हो जाता है उसे लगता है कि यदि वह धर्म निरपेक्षता को स्वीकार करके सभी से समानता का व्यवहार करने लगेगा तो उसके परिवार की परम्परा का क्या होगा उसे लोग क्या कहेंगे ? इस कारण वह मान कषाय को बचाने के लिए धर्म निरपेक्षता से दूर रहता है।

हठधर्मिता—

यह मान कषाय का ही दूसरा रूप है। इसमें व्यक्ति एक बार किसी मान्यता को ग्रहण कर लेता है तो अपने हठीले स्वभाव के कारण वह उसे छोड़ नहीं पाता। जिससे उसका पतन तो होता है और उसके संगठन में भी मिथ्या मान्यता का प्रचार होता है।

पराधीनता—

आज वर्तमान में पराधीन व्यक्ति धर्म निरपेक्षता के लिए स्वतंत्र नहीं है। वह जिसके अधीन काम करता है उसकी मान्यता का अनुसरण करना पड़ता है वरना उसे उसके कार्य से बहिष्कृत किया जा सकता है। स्वामी अपने नौकर को अपने धर्म को स्वीकार कराने के लिए प्रयत्न करता है। पत्नि पति के धर्म के अनुसार गमन करती है।

स्वार्थपरायणता—

व्यक्ति का अपना कोई धर्म निश्चित नहीं रह गया है वह जहाँ अपना स्वार्थ देखता है वह उसी में अपना विचार बना लेता है चाहे वह सही हो या गलत हो इस स्वार्थी जीवन के कारण धार्मिक स्थलों में भी अपना लाभ देखने लगे हैं। अत: धर्म को निष्पक्ष भाव से देखकर ही ग्रहण करना चाहिए।


निष्कर्ष


वर्तमान काल में धर्म निरपेक्षता का अतिमहत्त्व है। अराजकता, अन्याय, पक्षपात, दूसरे के धर्म में हस्तक्षेप न करें इसलिए आवश्यक है एक धर्म निरपेक्ष राज्य की स्थापना होनी चाहिए। सांप्रदायिकता में भेदभाव हो गया है प्रत्येक धर्म में मतभेद के कारण नये सांप्रदायिकों का जन्म हो रहा है। जिससे समाज के कई विभाग हो रहे हैं और विदेशी संस्कृति भारत की संस्कृति पर अपना कुप्रभाव दिखा रही है। बड़े, बुजुर्गों की बात कोई भी सुनता नहीं जब तक पूर्ण रूप से धर्म निरपेक्षता नहीं होगी तब तक मतभेद होता रहेगा और समाज के टुकड़े होते रहेंगे। अत: समाज की अखण्डता के लिए एवं परिवार में सुख, शांति के लिए धर्म निरपेक्षता की नितांत आवश्यकता है।

Tags: M.A. Purvardh Part-4
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