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सम्यक्त्व, संज्ञित्व और आहार मार्गणा तथा उपयोग

November 29, 2022जैनधर्मHarsh

सम्यक्त्व, संज्ञित्व और आहार मार्गणा तथा उपयोग



५.१ सम्यक्त्वमार्गणा-


जिनेन्द्र भगवान द्वारा उपदेशित ६ द्रव्य, ९ पदार्थ, ५ अस्तिकाय आदि का यथार्थ श्रद्धान करना सम्यक्त्व मार्गणा है।
इसके ६ भेद हैं-

(१) उपशम सम्यक्त्व-चारित्र मोहनीय कर्म की चार (अनन्तानुबन्धी क्रोध/मान/माया/लोभ) तथा दर्शन मोहनीय कर्म की तीन (सम्यक्त्व, मिथ्यात्व व सम्यग्मिथ्यात्व) इन सात कर्म प्रकृतियों के उपशम से होने वाला तत्त्वार्थ श्रद्धान उपशम सम्यक्त्व है।

(२) क्षयोपशम सम्यक्त्व-अनन्तानुबन्धी ४, मिथ्यात्व व सम्यक्मिथ्यात्व के अनुदय और सम्यक्त्व-प्रकृति के उदय से जो सदोष तत्त्वार्थ श्रद्धान होता है, वह क्षयोपशम सम्यक्त्व कहलाता है।

(३) क्षायिक सम्यक्त्व-अनन्तानुबंधी-क्रोध-मान-माया-लोभ तथा सम्यक्त्व, मिथ्यात्व और सम्यक्तवमिथ्यात्व इन सात कर्म प्रकृतियों के सर्वथा क्षय होने से आत्मा में जो निर्मल श्रद्धान होता है, वह क्षायिक सम्यक्त्व है।

(४) मिथ्यात्व-तत्त्वों के विपरीत श्रद्धान को मिथ्यात्व कहते हैं।

(५) सासादन सम्यक्त्व-उपशम सम्यक्त्व से पतित होकर जीव जब तक मिथ्यात्व में नहीं पहुंचता है, तब तक वह बीच वाली स्थिति सासादन सम्यक्त्व कहलाती है।

(६) सम्यग्मिथ्यात्व-सम्यक्त्व व मिथ्यात्व से मिश्रित भावों को सम्यग्मिथ्यात्व कहते हैं।

एक बार जिस जीव को सम्यग्दर्शन हो जाता है वह जीव नियम से मोक्ष को प्राप्त करता है। कम से कम अंतर्मुहूर्त में और अधिक से अधिक अर्धपुद्गल परिवर्तन काल तक वह संसार में रह सकता है। इसलिये करोड़ों उपाय करके सम्यक्त्व रूपी रत्न को प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिये।


५.२ संज्ञित्व मार्गणा (Investigation as per Sangyas) –


जिन जीवों में शिक्षा व उपदेश ग्रहण करने की शक्ति है, वे संज्ञी होते हैं। इसके २ भेद हैं – संज्ञी और असंज्ञी ।

(१) संज्ञी या सैनी (मन सहित) जीव-जिन जीवों के मन होता है और जो हित-अहित की शिक्षा, उपदेश आदि ग्रहण कर सकते हैं वे संज्ञी या सैनी जीव कहलाते हैं। नारकी, देव और मनुष्य गतियों के सभी जीव और पंचेन्द्रिय तिर्यंचो में से कुछ जीव संज्ञी होते हैं।

(२) असंज्ञी या असैनी (मन रहित) जीव-जिन जीवों के मन नहीं होता है और जो शिक्षा, उपदेश आदि ग्रहण करने में असमर्थ होते हैं, वे असंज्ञी कहलाते हैं। एक से चार इन्द्रियों के सभी जीव असंज्ञी होते हैं और पंचेन्द्रियों में से कुछ जीव (जैसे पानी का सर्प, कोई-कोई तोता आदि) असंज्ञी होते हैं।

उपरोक्तानुसार पंचेन्द्रिय जीवों में कुछ संज्ञी होते हैं और कुछ असंज्ञी होते हैं। अतः संज्ञी-असंज्ञी का भेद केवल पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में होता है, अन्य में नहीं।

मतिज्ञान और श्रुतज्ञान तो एकेन्द्रिय आदि सभी जीवों में उनकी पर्याय की योग्यतानुसार होते हैं। जबकि संज्ञी जीवों में मतिज्ञान व श्रुतज्ञान की विशेष योग्यता संभव है। चींटी आदि विकलेन्द्रिय जीवों में भी विचारने की शक्ति अवश्य होती है। चींटी यद्यपि देख नहीं सकती, किन्तु अग्नि की गर्मी महसूस करके वह यह विचारती होगी कि उधर जावेगी तो जल जावेगी, अतः वह उधर नहीं जाती है। इस प्रकार वह अपना हित-अहित विचार सकती है। यह विचारणा शक्ति सामान्य कही जाती है जो सामान्य रूप से जीवों में पाई जाती है। अन्य प्रकार की विशेष शक्ति शिक्षा ग्रहण करने संबंधी है जो तोता, मैना, कबूतर, कुत्ता, पशु आदि में पाई जाती है। ये प्राणी पढ़ाये जाने पर अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार ऐसी बातें सीख लेते हैं जो उनकी जाति के ही अन्य प्राणी नहीं जानते हैं। अतः यह शिक्षा ग्रहण करने की विशेष शक्ति जिन जीवों में पाई जाती है, वे संज्ञी होते हैं और जिनमें नहीं पाई जाती है, वे असंज्ञी होते हैं।


५.३ आहारक मार्गणा (Investigation as per Karmic Intake)-


तीन शरीर (औदारिक, वैक्रियिक व आहारक) तथा छः पर्याप्तियों के योग्य पुद्गल वर्गणाओं को ग्रहण करना आहारक मार्गणा है। इसके २ भेद हैं- आहारक और अनाहारक।

आहारक जीव-शरीर (औदारिक या वैक्रियिक या आहारक), मन तथा वचन के योग्य वर्गणाओं को जो जीव ग्रहण करते हैं, वे आहारक जीव हैं। इस प्रकार आहार वर्गणा, मनोवर्गणा और भाषा वर्गणा को ग्रहण करने वाले जीव आहारक जीव हैं।

अनाहारक जीव-जो जीव उपरोक्त वर्गणाओं को ग्रहण नहीं करते हैं, वे अनाहारक जीव हैं।

विग्रह गति में स्थित चारों गतियों के जीव, केवली समुद्घात की प्रतर और लोकपूरण अवस्था में स्थित सयोग-केवली, अयोग-केवली और सिद्ध भगवान ये सब अनाहारक हैं। इनके अतिरिक्त शेष सभी जीव आहारक होते हैं।


५.४ आहार मार्गणा का विशेष स्वरूप इस प्रकार है (Special Nature of Aahar Margana)-


जीव के दो भेद हैं—आहारक और अनाहारक।

शरीर नामकर्म के उदय से औदारिक आदि किसी शरीर के योग्य तथा वचन, मन के योग्य वर्गणाओं का यथासम्भव ग्रहण होना आहार है उसको ग्रहण करने वाला जीव आहारक है। इसके विपरीत अर्थात् नोकर्म वर्गणाओं को ग्रहण न करने वाले जीव अनाहारक हैं।

अनाहारक जीव—विग्रहगति वाले जीव, केवली समुद्घात में प्रतर और लोकपूरण समुद्घात वाले सयोगकेवली जीव तथा अयोगिकेवली और सभी सिद्ध अनाहारक होते हैं।

आहारक जीव—उपर्युक्त अनाहारक से अतिरिक्त शेष सभी जीव आहारक होते हैं। आहारक के छह भेद हैं—कवलाहार, कर्माहार, नोकर्माहार, लेपाहार, ओज आहार और मानसिक आहार।

ग्रास उठाकर खाना कवलाहार है। यह सभी मनुष्य और तिर्यंच आदि में होता है। आठ कर्मयोग्य वर्गणाओं का ग्रहण करना कर्माहार है, यह विग्रहगति में भी होता है। शरीर और पर्याप्ति के योग्य नोकर्म वर्गणाओं का ग्रहण करना नोकर्माहार है यह केवली भगवान के भी होता है, उनके भी शरीर के योग्य वर्गणायें आ रही हैं वे आहारक हैं। फिर भी वे कवलाहार नहीं करते हैं। जो लेप से पोषण होता है वह लेपाहार है, यह वृक्षों में पाया जाता है। जो शरीर की गर्मी से पोषण करता है वह ओजाहार है जैसे—मुर्गी अण्डे को सेकर गर्मी देती है। देवों के मन में इच्छा होते की कंठ से अमृत झरकर तृप्ति हो जाती है यह मानसिक आहार है। देव लोग बलि या माँस भक्षण अथवा सुरापान आदि नहीं करते हैं।

अनाहारक का उत्कृष्ट काल तीन समय और जघन्यकाल एक समय है। आहारक का जघन्यकाल तीन समय कम श्वांस के अठारहवें भाग प्रमाण है और उत्कृष्ट काल सूच्यंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण है।

आहारक मार्गणा को समझकर कवलाहार के त्यागपूर्वक उपवास, तपश्चरण करते हुए कर्म-नोकर्माहार से रहित अनाहारक सिद्ध पद प्राप्त करना चाहिए।


५.५ उपयोग प्ररूपणा (Consciousness or Upyoga Description)-


चेतना की परिणति विशेष को उपयोग कहते हैं। जीव का जो भाव वस्तु को ग्रहण करने के लिये प्रवृत्त होता है, वह उपयोग कहलाता है।

उपयोग के विभिन्न भेद-

प्रथम प्रकार से दो भेद निम्नानुसार हैं-

(क) दर्शनोपयोग-पदार्थों के सामान्य प्रतिभास (अवलोकन) को दर्शनोपयोग कहते हैं। इसे निर्विकल्प या निराकार उपयोग भी कहते हैं।

चार प्रकार के दर्शनों की अपेक्षा से दर्शनोपयोग के चार भेद हैं-चक्षु-दर्शन, अचक्षु-दर्शन, अवधि-दर्शन और केवल-दर्शन। केवल-दर्शन और केवलज्ञान एक साथ होते हैं।

(ख) ज्ञानोपयोग-पदार्थों के विशेष प्रतिभास को ज्ञानोपयोग कहते हैं। इसे साकार या सविकल्प उपयोग भी कहते हैं। आठ प्रकार के ज्ञानों की अपेक्षा से ज्ञानोपयोग के ८ भेद हैं- ५ प्रकार का सम्यक् ज्ञान (मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय और केवल) तथा ३ प्रकार का मिथ्याज्ञान (कुमति, कुश्रुत और कुअवधि या विभंग ज्ञान)।

ये दोनों उपयोग सभी जीवों में पाये जाते हैं-अन्य द्रव्यों में नहीं।

द्वितीय प्रकार से तीन भेद निम्न हैं-

उपयोग के दो भेद शुद्ध और अशुद्ध होते हैं। अशुद्ध उपयोग के भी दो भेद हैं – शुभ व अशुभ। इस प्रकार आध्यात्मिक दृष्टि से उपयोग के ३ भेद हो जाते हैं। इनका विवरण निम्न प्रकार है-

(क) शुद्धोपयोग-कषाय रहित परिणाम होना शुद्धोपयोग है। यह ध्यानात्मक परिणति है और वीतराग श्रमणों के ही होती है, गृहस्थों के नहीं।

(ख) शुभोपयोग-धर्म-अनुराग युक्त परिणाम शुभोपयोग है। पंचपरमेष्ठी की पूजा, कीर्तन, भक्ति, दान, सेवा, वैय्यावृत्ति, व्रत, उपवास, जीव-दया आदि सब धार्मिक क्रियाएं शुभोपयोग हैं। यह पुण्यास्रव का कारण है।

(ग) अशुभोपयोग-विषय, कषाय, राग आदि युक्त परिणाम व प्रवृत्ति अशुभोपयोग है। जिसका उपयोग विषय-कषायों में मग्न है, कुश्रुति, कुविचार और कुसंगति में लगा हुआ है, उग्र है तथा उन्मार्ग में लगा हुआ है, उसके अशुभोपयोग है। यह पापास्रव का कारण है।

उपरोक्त तीनों में से अशुभोपयोग सर्वथा हेय (छोड़ने योग्य) है और शुद्धोपयोग सर्वथा उपादेय (ग्रहण करने योग्य) है। शुभोपयोग कथंचित् उपादेय है क्योंकि यह शुद्धोपयोग का कारण है और मोक्ष मार्ग में सहायक है।

प्रथम तीन गुणस्थानों तक अशुभोपयोग क्रमश: घटता जाता है। चौथे से छठे गुणस्थान तक शुभोपयोग क्रमश: बढ़ता जाता है। सातवें से बारहवें गुणस्थान तक क्रमश: बढ़ता हुआ शुद्धोपयोग होता है। केवलज्ञान शुद्धोपयोग का फल है।

Tags: Advance Diploma
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