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सम्यक्त्व :!

November 21, 2017शब्दकोषjambudweep
[[ श्रेणी:जैन_सूक्ति_भण्डार ]] [[ श्रेणी:शब्दकोष ]] == सम्यक्त्व : == स्थैर्यं प्रभावना भक्ति: कौशलं जिनशासने। तीर्थसेवा च पंचापि, भूषणानि प्रचक्षते।।

—योगशास्त्र : २-१६

धर्म में स्थिरता, धर्म की प्रभावना—व्याख्यानादि द्वारा, जिनशासन की भक्ति, कुशलता—अज्ञानियों को धर्म समझाने में निपुणता, चार तीर्थ की सेवा—ये पांच सम्यक्त्व के भूषण हैं। सम्यक्त्वरहिता ननु, सुष्ठु अपि उग्रं तप: चरन्त: ननु। न लभन्ते बोधिलाभं, अपि वर्षसहस्रकोटिभि:।।

—समणसुत्त : २२२

सम्यक्त्वविहीन व्यक्ति हजारों करोड़ वर्षों तक भली—भाँति उग्र तप करने पर भी बोधिलाभ प्राप्त नहीं करता। सामान्यमथ विशेष: द्रव्ये ज्ञानं भवन्यविरोध:। साधयति तत्सम्यक्त्वं नहि पुनस्तत्तस्य विपरीतम्।।

—समणसुत्त : ६६९

सामान्य तथा विशेष , इन दोनों धर्मों से युक्त द्रव्य में होने वाला विरोधरहित ज्ञान ही सम्यक्त्व का साधक होता है। उसमें विपरीत अर्थात् विरोधयुक्त ज्ञान साधक नहीं होता। जह विमलो चंदमणी झरइ जलं चंदकिरणजोएण। तह जीवो कम्ममलं मुंचइ लद्धूण सम्मत्तं।।

—कुवलयमाला : १७९

जिस तरह चन्द्रकिरण के योग से निर्मल चंद्रकांत मणि पानी को छोड़ता है, वैसे ही जीव सम्यक्त्व के प्रभाव से कर्ममल को छोड़ता है। तच्चरुई सम्मत्तं।

—मोक्षपाहुड : ५०

तत्व (ज्ञान) में रुचि सम्यक्त्व है। मा कासि तं पमादं, सम्मत्ते सव्वदुक्ख—णासयरे।

—भगवती आराधना : ७३५

सम्यक्त्व से सभी दुखों का विनाश हुआ करता है। अत: इसे प्राप्त करने में प्रमाद मत करो ! रयणाण महारयणं सव्वं जोयाण उत्तमं जोयं। रिद्धीण महारिद्धी सम्मत्तं सव्व—सिद्धियरं।।

—कार्तिकेयानुप्रेक्षा : ३२५

सम्यक्त्व रत्नों में महारत्न, योगों में उत्तम योग, ऋद्धियों में महाऋद्धि और सभी सिद्धियाँ प्रदान करने वाला है। संवेओ णिव्वेओ णिंदा गरुहाइं उवसमो भत्ती। वच्छल्लं अणुकंपा अट्ठगुणा होंति सम्मत्ते।।

—भावसंग्रह : २६३

सम्यक्त्व के आठ गुण हुआ करते हैं : संवेग (धर्मानुराग), निर्वेग (वैराग्य), आत्मलोचना, गर्हा (गुरु—साक्षी से आत्मदोष स्वीकार एवं उनका निराकरण), उपशम, भक्ति, वात्सल्य और अनुकम्पा। जीवादीनां श्रद्धानं, सम्यक्त्वं जिनवरै: प्रज्ञप्तम्। व्यवहारात् निश्चयत:, आत्मा ननु भवति सम्यक्त्वम्।।

—समणसुत्त : २२०

व्यवहार नय की दृष्टि से जीव आदि तत्त्वों पर श्रद्धा को जिन प्रभु ने सम्यक्त्व कहा है। निश्चय की दृष्टि से आत्मा ही सम्यक्त्व है। किं बहुना भणितेन, ये सिद्धा: नरवरा: गते काले। सेत्स्यन्ति येऽपि भव्या:, तद् जानीत सम्यक्त्वमाहात्म्यम्।।

—समणसुत्त : २२६

बहुत क्या कहा जाए ! बीते समय में जो उत्तम जन सिद्ध हुए हैं और आने वाले समय में जो सिद्ध होंगे, वह सब सम्यक्त्व का ही माहात्म्य है। यथा सलिलेन न लिप्यते, कमलिनीपत्रं स्वभावप्रकृत्या। तथा भावेन न लिप्यते, कषायविषयै: सत्पुरुष:।।

—समणसुत्त : २२७

कमलिनी का दल जिस प्रकार प्राकृतिक स्वभाव से ही पानी से लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार उत्तम पुरुष भी सम्यक्त्व संपन्न होने के कारण कषायों और विषयों से लिप्त नहीं होता।

Tags: सूक्तियां
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