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सीता का स्वयंवर

July 10, 2017BooksHarsh Jain

सीता का स्वयंवर


(१)

कुछ क्षण विश्रांति करके राजा जनक निःशंक हो गोपुर में प्रवेश करते हैं। वहाँ जाकर देखते हैं कि चारों तरफ जहाँ-तहाँ पैâले हुए और पूâले हुए रंग-बिरंगे पुष्प अपनी मधुर सुगंधि से मन को आकृष्ट कर रहे हैं। सुन्दर-सुन्दर बावड़ियों मेें स्वच्छ शीतल जल लहरा रहा है और उसमें उतरने की सीढ़ियाँ मणि एवं स्वर्ण से निर्मित हैं। उद्यान में अशोक, आम्र, जामुन आदि के वृक्ष अपने पल्लवों को हिला-हिलाकर और पक्षियों के कलरव शब्दों से मानों उन्हें बुला ही रहे हैं। कुछ आगे और बढ़कर जनक महाराज देखते हैं तो उन्हें एक बहुत ही सुन्दर जिनमंदिर दिखाई देता है। वह मंदिर स्वर्ण के हजारों बड़े-बड़े खम्भों को धारण किये हुए है, मेरु के शिखर के समान जिसकी प्रभा है, जिसकी भूमि हीरे से निर्मित है और जिसमें मोतियों की जाली से सुशोभित रत्नमयी झरोखे बने हुए हैं। इस अदृष्टपूर्व मंदिर को देखकर राजा जनक मन में सोचने लगते हैं- अहो! इस मायामयी घोड़े ने तो मेरा बहुत ही बड़ा उपकार किया है जो कि मुझे हरण करके यहाँ ऐसे पवित्र स्थान में छोड़ गया है। भला, वह घोड़ा कौन था? कोई मेरा पूर्वजन्म का मित्र तो नहीं था कि जिसने मुझे ऐसे अनुपम स्थान का दर्शन कराने का उपक्रम रचा हो? जो भी हो, यह तो मेरा परम सौभाग्य है कि जिससे मुझे इस जिनमंदिर का दर्शन हुआ है। ऐसा सोचते-सोचते महाराजा जनक अन्दर प्रवेश करके विधिवत् तीन प्रदक्षिणा देकर जिनेन्द्रदेव की प्रतिमा को पंचांग नमस्कार करते हैं। पुनः अनेक संस्कृत स्तोत्रों से प्रभु की स्तुति करके निःशंक हो वहीं पर बैठ जाते हैं। उधर चपलवेग विद्याधर मायामयी घोड़े के रूप को छोड़कर अपने भृत्य के रूप में आकर रथनूपुर के राजा चन्द्रगति को समाचार देता है कि राजन् ! आपकी आज्ञा के अनुसार मिथिलापुर के राजा जनक मेरे द्वारा लाये जाकर उद्यान के जिनमंदिर में बैठे हुए हैं। राजा चन्द्रगति अपने बहुत से सामन्त आदि को साथ में लेकर वहाँ पहुँच जाते हैं। पहले श्री जिनेंद्रदेव की वन्दना करके पुनः राजा जनक से कुशल-क्षेम पूछकर परस्पर में एक दूसरे का परिचय पूछते हैं। अनन्तर परस्पर में विश्वास को प्राप्त होते हुए मधुर वार्तालाप शुरू कर देते हैं। सबसे प्रथम विद्याधरों के राजा चन्द्रगति बोलते हैं- ‘‘अहो! मैं आज बहुत ही पुण्यशाली हूँ जो कि आपका दर्शन हुआ है। हे राजन् ! मैंने बहुत से लोगों के मुख से सुना है कि आपके शुभ लक्षणों वाली सीता नाम की एक सुन्दर कन्या है, सो वह कन्या आप मेरे पुत्र भामंडल के लिए दे दीजिए। आपके साथ संबंध स्थापित कर मैं अपने आपको परम भाग्यशाली समझूँगा।’’ इसके उत्तर में राजा जनक कहते हैं- ‘‘हे विद्याधर राज! यह सब हो सकता था परन्तु मैंने तो वह कन्या राजा दशरथ के पुत्र श्रीरामचन्द्र के लिए देनी निश्चित कर ली है अतः अब तो मैं विवश…….।’’ ‘‘ओह!…….आपने रामचन्द्र को देने का निर्णय क्यों लिया है? उसमें ऐसी क्या विशेषता है?’’ ‘‘मित्र! अभी कुछ ही दिन पूर्व मेरी मिथिला नगरी में अर्धबर्बर देश के म्लेच्छों ने धावा बोल दिया था, वे धूर्त लोग टिड्डी दल के समान हमारे देश को नष्ट-भ्रष्ट करने में लग गये थे। उस समय पूर्व की मित्रता के नाते मैंने अयोध्या के अधिपति श्री दशरथ महाराज के पास सहायता के लिए खबर भेजी थी। वहाँ से उसी क्षण उनके दो पुत्र राम और लक्ष्मण अपनी बहुत सी सेना लेकर मिथिला नगरी आये थे और अपने विशेष पौरुष के बल से उन म्लेच्छों को जीतकर हमें निरापद किया था। उसी उपकार के बदले में मैंने श्रीराम को अपनी पुत्री सीता देना निश्चित कर लिया है।’’ चन्द्रगति विद्याधर नरेश और उनके सामन्त अट्टहासपूर्वक हँसते हुए कहते हैं- ‘‘अहो! म्लेच्छों को जीतने मात्र से ही तुमने उन भूमिगोचरी राजपुत्रों का क्या पराक्रम देखा है? ये भूमिगोचरी लोग विद्या के माहात्म्य से रहित होते हैं अतः निरन्तर हीन- दीन दिखते हैं। इनकी शूरवीरता और सम्पत्ति का क्या माहात्म्य है? अरे जनक! बताओ तो सही, भला तुमने उनमें और पशुओं में क्या अन्तर देखा है?’’ इत्यादि प्रकार से भूमिगोचरियों की निन्दा सुनकर राजा जनक अपने दोनों कानों को हाथोें से ढक लेते हैं और बोलने लगते हैं- ‘‘हाय, हाय! बड़े कष्ट की बात है कि मैं भूमिगोचरी राजाओं की निंदा वैâसे सुन रहा हूँ। क्या त्रिजगत् में प्रसिद्ध लोक को पवित्र करने वाला ऐसा श्री आदिनाथ भगवान् का वंश आप लोगों के कर्णगोचर नहीं हुआ है? हे विद्याधरों! बताओ तो सही, क्या पंचकल्याणक के स्वामी तीर्थंकर भगवान् आप विद्याधरों की भूमि में जन्म ले सकते हैं? क्या चक्रवर्ती, बलभद्र, नारायण आदि महापुरुष तुम्हारे वंश में जन्म लेते हैं? अहो! जिस अयोध्या आदि पवित्र भूमि में, जिन इक्ष्वाकु आदि वंशों में तीर्थंकरों का जन्म हुआ है तुम लोग उस भूमि की और उनके वंशजों की वैâसे निन्दा कर रहे हो? इक्ष्वाकु वंश के राजा अनरण्य की सुमंगला महारानी की कुक्षि से दशरथ का जन्म हुआ है। इस दशरथ महाराजा के चार महादेवियाँ हैं। अपराजिता महादेवी ने ‘पद्मनाभ’ नाम के श्रीराम को जन्म दिया है, सुमित्रा से ‘लक्ष्मण’ नाम के प्रतापशाली पुत्र का जन्म हुआ हैै, वैâकेयी ने ‘भरत’ पुत्र को उत्पन्न किया है और सुप्रभा देवी ने ‘शत्रुघ्न’ नाम के पुत्र को जन्म दिया है। ये चारों ही पुत्र महान् कांतिमान हैं, उस रघुकुल के तिलक हैं। मैं इन महापुरुषों की निन्दा नहीं सुन सकूगा।’’ इस प्रकार से वार्तालाप के मध्य कुछ समस्या हल न होते देखकर राजा चन्द्रगति धीरे से उठ गये और अनेक विश्वस्त विद्याधरों से विचार-विमर्श करके वापस आकर बैठ गये। पुनः राजा चन्द्रगति बोले- ‘‘राजन् ! अधिक कहने से क्या? हमारी एक शर्त सुनो। हमारे यहाँ आयुधगृह में देवों के द्वारा सुरक्षित ऐसे दो धनुष रखे हुए हैं। एक का नाम है वङ्काावर्त और दूसरे का सागरावर्त। यदि राम और लक्ष्मण इन धनुषों को डोरी सहित करने में समर्थ हों तब तो मैं उन्हें अधिक शक्तिशाली समझूँगा और वह आपकी सीता को प्राप्त कर सकेगा अन्यथा हम लोग जबरदस्ती आपकी कन्या का अपहरण करके यहाँ ले आयेंगे।’’ ‘‘ठीक, ठीक! आपकी शर्त हमें मंजूर है।’’ इतना सुनते ही बहुत से सामन्त और विद्याधर उन दोनों धनुषों को साथ लेकर बहुत से विद्याधरों को साथ लेकर राजा जनक को विमान में बिठाकर मिथिलानगरी में आ गये। शहर के बाहर उनको ठहराकर उनके आतिथ्य सत्कार की व्यवस्था करके राजा जनक महल में पहुँचे। राजमहल में ‘राजा को मायामयी घोड़ा उड़ाकर पता नहीं कहाँ ले गया है?’ इस कारण से अशांत वातावरण बना हुआ था। महाराजा को देखते ही सबके जी में जी आया। साधारण कुशल समाचार के बाद राजा ने थोड़ा सा भोजन किया और विश्रामकक्ष में चले गये। राजा को चिन्ता निमग्न देख रानी विदेहा ने आन्तरिक स्थिति जाननी चाही तब राजा ने ज्यों की त्यों सारा वृत्तान्त सुना दिया। रानी विदेहा जोर-जोर से रुदन करने लगी और कहने लगी- ‘‘हाय-हाय! मैंने पूर्वजन्म में कौन-सा पाप किया था कि जो मेरे पुत्र को जन्म होते ही कोई दुष्ट बैरी हर ले गया। तब से इस सीता को देख- देखकर ही हम लोग उस बालक के दुःख को भूले हुए थे कि हाय! अब विधाता को वह भी सहन नहीं हो रहा है जब मेरी कन्या को ये विद्याधर लोग हर ले जायेंगे तब मैं वैâसे जीवित रहूँगी?…..’’ इसी बीच राजा जनक अपनी भार्या को सांत्वना देकर उठते हैं और मंत्रियों से सलाह कर स्वयंवर मण्डप बनवाकर स्वयंवर की घोषणा करा देते हैं। राजा दशरथ के पास अपना खास व्यक्ति भेजकर सपरिवार उन्हें बुला लेते हैं चूँकि विद्याधरों के द्वारा इन्हें इस कार्य के लिए मात्र बीस दिन ही दिये गये थे।

(२)

स्वयंवर मंडप में एक तरफ उच्चस्थान पर दोनों धनुष रखे हुए हैं और एक तरफ उच्चस्थान पर सात सौ कन्याओं के मध्य सीता सुन्दरी बैठी हुई है। उसके चारों तरफ शूरवीर योद्धा हाथ में तलवार आदि लेकर सुरक्षा में सन्नद्ध हैं। हजारों राजपुत्र सीता को प्राप्त करने की इच्छा से वहाँ आये हुए हैं। एक-एक करके क्रम से उस धनुष को चढ़ाने के लिए वहाँ पहुँचते हैं, किन्तु वह धनुष अग्नि के स्पुलिंगे छोड़ रहा है और उसके चारों तरफ भयंकर सर्प फुकार रहे हैं। राजपुत्र निकट जाकर उसके तेज से परास्त होकर लौट पड़ते हैं। कोई-कोई तो वहीं पर र्मूिच्छत हो पृथ्वी पर लोटने लगते हैं। कोई अपने प्राणों की रक्षा हेतु भागने लगते हैं। श्रीरामचन्द्र गंभीrर मुद्रा से बैठे हुए सभी की नाना चेष्टाओं को देख रहे हैं। अंत में श्री जनक महाराज की दृष्टि जब रामचन्द्र की ओर उठती है कि वे महापुरुष अपने स्थान से उठकर मन्थर गति से धनुष के पास आते हैं। अपने स्वामी को आते हुए देखकर जैसे भृत्य निस्तब्ध हो जाता है अथवा अपने गुरु के सामने जैसे शिष्य विनीत हो जाता है वैसे ही वह धनुष मूल स्वभाव में आ जाता है। उसके रक्षक हजारों देवता मानों स्वामी की प्रतीक्षा में स्थिर हो जाते हैं। लीलामात्र में श्रीरामचन्द्र उस धनुष को उठाकर उसे चढ़ा देते हैं। श्रीरामचन्द्र की गर्जना और उस धनुष की टंकार से सारी दिशाएं क्षणभर के लिए बहरी हो जाती हैं। सभा में बैठे हुए लोग तो भंवर में पड़े हुए के समान घूमने लगते हैं। आकाश से ‘साधु-साधु, ठीक-ठीक’ इस प्रकार से देव और विद्याधरों के शब्द गूँज उठते हैं। देवों के द्वारा पुष्पों की वर्षा हो जाती है और व्यंतर लोग नृत्य करने लगते हैं। उसी क्षण सीता अपने हाथ में सुन्दर माला लेकर मंदगति से वहाँ आ जाती है और श्रीराम के गले में माला पहना कर उन्हीं के पास खड़ी हो जाती है। लज्जा से संकुचित हो रही सीता के साथ श्रीरामचन्द्र वहाँ से आकर अपने आसन पर बैठ जाते हैं। अनंतर लक्ष्मण उठकर भाई की आज्ञा लेकर द्वितीय सागरावर्त धनुष के पास पहुँचकर उसे चढ़ा देते हैं। तब चन्द्रवर्धन विद्याधर अपनी अठारह कन्याओं को उनके समीप खड़ी कर देते हैं। मंगलवाद्य और नगाड़ों की ध्वनि के साथ सभा विसर्जित हो जाती है। उधर भरत के मन में विकल्प उठता है कि अहो! देखो, हम दोनों का एक कुल है, एक पिता हैं, पर इन दोनों अग्रजों ने ऐसा आश्चर्य प्राप्त किया और पुण्य की मंदता से मैं ऐसा आश्चर्य प्राप्त नहीं कर सका अथवा व्यर्थ के इस संताप से क्या? इस असार संसार में सारभूत एक धर्म ही है। इत्यादि रूप से सोचते हुए भरत के मुख की कांति हीनता को देखकर माता वैâकयी ने पुत्र के मन की चेष्टा को जानकर तत्काल ही राजा दशरथ से कहा-‘‘स्वामिन् ! आप शीघ्र ही पुनः स्वयंवर विधि से राजा जनक के भाई कनक की पुत्री से भरत का पाणिग्रहण कर दीजिए।’’ लोक-व्यवहार में कुशल दशरथ ने शीघ्र ही अपने मित्र जनक को सूचित किया। द्वितीय दिवस पुनः स्वयंवर विधि से राजा कनक की पुत्री लोक-सुन्दरी ने भरत के गले में वरमाला डाल दी। अनंतर बड़े उत्सव के साथ इन तीनों भाइयों की विधिवत विवाह विधि सम्पन्न हुई। पिता जनक चन्द्रवर्धन और कनक ने अपनी पुत्रियों को यथायोग्य शिक्षा देकर हर्ष और विषाद से मुक्त होते हुए सबका अयोध्या के लिए प्रस्थान करा दिया और विद्याधर लोग भी राम, लक्ष्मण के गुणों में आकृष्ट होते हुए रथनूपुर चले गये। कुछ दिन व्यतीत होने के बाद पुनः भामण्डल ने सभी बड़े जनों के समक्ष अपने मित्र से कहा- ‘‘मित्र! आप बड़े दीर्घसूत्री हैं। उस सीता की आशा में डूबते हुए मेरा कितना समय निकल गया है, मुझे सहारा क्यों नहीं दिया जा रहा है?’’ इस प्रकार के भामंडल के वचनों को सुनकर एक बृहत्केतु नामक विद्याधर बोल उठा- ‘‘अब तक इस सीता संबंधी बात को क्यों छिपाया जा रहा है? सारा वृतान्त प्रकट कर देना चाहिए कि जिससे कुमार इस विषय में निराश हो जावें।’’ तब सभी ने चन्द्रगति विद्याधर नरेश को आगे करके लड़खड़ाते हुए अक्षरों में सारी विगत घटना सुना दी और बोले- ‘‘कुमार! उन दोनों देवोपनीत धनुषों के चले जाने से अब तो हम लोग बिल्कुल सारहीन निःसार हो गये हैं। इस समय राम-लक्ष्मण के पुण्य की कल्पना कर सकना भी हम लोगों की शक्ति से परे है।’’ इन सारी बातों को सुनकर भामंडल आवेश में उठ खड़ा होता है और बोलता है- ‘‘ठीक है, अब मैें स्वयं राम की शक्ति का परीक्षण करने जा रहा हू।’’ विमान में बैठ कर बहुत से सामंत और सेना को साथ लेकर भामंडल आकाश मार्ग से आर्यखण्ड की ओर जा रहा है। कुछ दूर पहुँच कर आकाश मार्ग से ही उसने पृथ्वीतल पर विदग्ध नाम का एक देश देखा। मन में सोचने लगा ‘यह नगर मैंने पूर्व में भी देखा है’ इतना सोचते ही उसे जातिस्मरण हो गया और वह वहीं मूच्र्छित हो गया। इस स्थिति में सभी विद्याधर उसे तत्क्षण ही पिता के पास वापस ले आये। अनेक शीतोपचार से सचेत होने पर अत्यधिक लज्जा से नम्रित हो मुख नीचा कर विलाप करने लगा। तब चन्द्रगति पुत्र को अपनी गोद में लेकर मस्तक पर हाथ फैरते हुए बोले- ‘‘बेटा! तुम इतने विक्षिप्त क्यो हो रहे हो?’’ भामंडल ने कहा- ‘‘हे पिताजी! मैं पूर्व जन्म में विदग्धपुर का राजा कुलमंडित था। मैंने किसी समय पिंगल नाम के ब्राह्मण की पत्नी का अपहरण कर लिया था। अनंतर पाप से डरकर एक बार दिगंबर मुनि के समीप अणुव्रत आदि ग्रहण कर लिये। उसके प्रभाव से मरणकर जनक की रानी विदेहा के गर्भ में आ गया, उसी समय उस ब्राह्मणी का जीव भी मरकर विदेहा के गर्भ में आ गया। उधर वह पिंगल आर्तध्यान से तपस्या के द्वारा मरकर महाकाल नाम का असुर हो गया। वही द्वेष वश मुझे जन्मते ही हरण कर ले गया, किन्तु कुछ दया रूप परिणाम के होने से उसने मेरे कानों में कुण्डल पहनाकर और पर्णलघ्वी विद्या के बल से मुझे आकाश से छोड़ दिया। मध्य में ही गिरते हुए अपने उद्यान में स्थित आपने मुझे झेल लिया और माता पुष्पवती ने बड़े ही प्यार से मेरा लालन-पालन किया है। ओह………वह सीता मेरी सगी बहन है। नारद ने मुझे चित्रपट दिखाया और उस सीता में आसक्त हो उसे पाने के लिए मैं बेचैन हो उठा। धिक्कार हो इस अज्ञान को…..।’’ कुमार भामंडल के मुख से सारी विस्तृत भवावली सुनकर राजा चन्द्रगति उसी क्षण संसार से विरक्त हो गये। वे भामंडल का राज्याभिषेक करके अयोध्या के उद्यान में स्थित ‘सर्वभूतहित’ मुनिराज के निकट पहुँच गये और मुनिराज से दीक्षा की याचना की। मुनिराज ने भी सभी के विस्तृत भव-भवांतर सुनाये। उस समय रात्रि में ही बंदीजन जोर-जोर से शब्द करने लगे कि- ‘‘राजा जनक का लक्ष्मीशाली पुत्र भामंडल जयवंत हो रहा है।’’ इस उच्चध्वनि को सुनते ही अयोध्या के महल में सोई हुई सीता जाग उठी और विलाप करने लगी- ‘‘हाय! जन्मकाल में ही मेरे भाई का अपहरण हुआ था, वह कहाँ है?’’ रामचन्द्र ने सीता को सान्त्वना देते हुए कहा- ‘‘हे वैदेहि! शोक छोड़ो, हो सकता है तुम्हारा भाई आज तुम्हें मिल जाये।’’ पुनः सब लोग महा-वैभव के साथ प्रभात के होने के पहले ही महेन्द्रोदय उद्यान में पहुँच गये। गुरु की वंदना कर यथास्थान बैठ गये। प्रभात होते चन्द्रगति विद्याधर का दीक्षा महोत्सव देखा। पुनः मुनि के द्वारा परिचय को प्राप्त भामण्डल से मिलकर सीता भाई से चिपट कर बहुत ही रोती रही। दशरथ ने तत्क्षण ही मिथिला नगरी आदमी भेजा जो कि विद्या के विमान से जनक को परिवार सहित ले आये। जन्म देने के बाद प्रथम बार पुत्र का मुख देखकर रानी विदेहा पहले तो मूच्र्छा को प्राप्त हो गई पुनः सचेत हो पुत्र को प्राप्त कर एक अद्भुत ही आनन्द को प्राप्त किया। एक महीने तक सब लोग अयोध्या में ठहरे। अनन्तर भामण्डल पिता के साथ मिथिला पहुँचे, वहाँ का राज्य अपने चाचा कनक को देकर अपने माता-पिता को साथ लेकर रथनूपुर आ गये।
 
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