जब वस्तु तत्त्व ही अनेकांत्मक है तो उसके प्ररूपण के लिए किसी भाषा—शैली को अपनाना भी जरूरी है। स्याद्वाद उसी भाषा—शैली का नाम है जिससे अनेकांत्मक वस्तु तत्त्व का प्ररूपण होता है। प्राय: अनेकांत और स्याद्वाद को पर्यायवाची मान लिया जाता है किन्तु दोनों पर्यायवाची नहीं हैं।
अनेकांत ज्ञानात्मक है और स्याद्वाद वचनात्मक अनेकांत और स्याद्वाद में वाच्य वाचक संबंध है। अनेकांत वाच्य है तो स्याद्वाद वाचक, अनेकांत प्रतिपाद्य है तो स्याद्वाद प्रतिपादक। अत: अनेकांत और स्याद्वाद को पर्यायवाची नहीं कहा जा सकता। हाँ ! अनेकांतवाद और स्याद्वाद को पर्यायवाची कहा जा सकता है। वस्तुत: ‘स्याद्वाद’ अनेकांतात्मक वस्तु तत्त्व को अभिव्यक्त करने की प्रणाली है।
‘स्याद्वाद’ पद ‘स्यात्’ और ‘वाद’ इन दो शब्दों के योग से बना है। प्रकृत में स्यात् शब्द अव्ययनिपात है। क्रिया या प्रश्नादि रूप नहीं। इसका अर्थ है कथंचित किसी अपेक्षा से, किसी दृष्टि विशेष से। ‘वाद’ शब्द का अर्थ है मान्यता, कथन, वचन अथवा प्रतिपादन। जो ‘स्यात्’ का कथन अथवा प्रतिवादन करने वाला है वह स्याद्वाद है। इस प्रकार स्याद्वाद का अर्थ हुआ—विभिन्न दृष्टि बिन्दुओं से अनेकांतात्मक वस्तु का परस्पर सापेक्ष कथन करने की पद्धति। इसे कथंचित्वाद, अपेक्षावाद और सापेक्षवाद भी कहा जा सकता है।
स्याद्वाद वस्तु के परस्पर विरोधी धर्मों का निराकरण न करते हुए परस्पर मुख्य गौणता के साथ अनेकान्तात्मक वस्तु तत्व का प्रतिपादन करता है। हम यह जान चुके हैं कि वस्तु तत्त्व अनेकान्तात्मक है। उसे हम अपने ज्ञान के द्वारा जान तो सकते हैं किन्तु वाणी द्वारा उसका एक साथ प्रतिपादन संभव नहीं है।
शब्द की एक सीमा होती है। वह एक बार में वस्तु के किसी एक धर्म का ही कथन कर सकता है, क्योंकि ‘सकृदुच्चारित: शब्द: एकमेवार्थं गमयति’ इस नियम के अनुसार एक बार बोला गया शब्द एक ही अर्थ का बोध कराता है। वक्ता अपने अभिप्राय को यदि एक ही वस्तु धर्म के साथ प्रकट करता है तो उससे वस्तु तत्त्व का सही निर्णय नहीं हो सकता।
किन्तु स्यात् पूर्वक अपने अभिप्राय को प्रकट करने से वस्तु स्वरूप का यथार्थ प्रतिपादन होता है, क्योंकि ‘स्यात्’ पूर्वक बोला गया वचन अपने अर्थ को कहता हुआ भी अन्य धर्मों का निषेध नहीं करता बल्कि उनकी मौन स्वीकृति बनाये रखता है। हाँ जिसे वह कहता है वह प्रधान हो जाता है और शेष गौण। क्योंकि जो विवक्षित होता है वह मुख्य कहलाता है। और अविवक्षित गौण। इस प्रकार स्याद्वाद वचन में अनेकांत सुव्यवस्थित रहता है।
स्याद्वाद के अर्थ को समझने में अनेक भारतीय दार्शनिकों ने भयानक भूल की है। वे ‘स्यात्वाद’ में ‘स्यात्’ पद का अर्थ फारसी के शायद से जोड़कर स्याद्वाद को शायदवाद, संदेहवाद, संभावनावाद अथवा कदाचित्वाद मानते हैं। खेद की बात तो यह है कि जैन ग्रंथों में इस पद का रहस्य समझाने वाले अनेक उल्लेखों के होने पर भी यह भ्रांत परम्परा अभी तक चली आ रही है।
‘स्याद्वाद’ के ‘स्यात्’ पद का अभिप्रेत अर्थ शायद, संभावना, संशय या कदाचित् आदि कदापि नहीं है, जिससे कि इसे शायदवाद, संशयवाद अथवा संभावनावाद कहा जा सके। जैन ग्रंथों में स्पष्टोल्लेख है कि ‘स्यात्’ शब्द अनेकांत का वाची शब्द है जो एक निश्चित दृष्टिकोण को प्रकट करता है।
वस्तुत: मूल जैन ग्रंथों को नहीं देख पाने के कारण ही स्याद्वाद के विषय में इस प्रकार की धारणा बनी है। वर्षों से चली आ रही इस प्रकार की भ्रांत धारणा का उन्मूलन करते हुए काशी विश्वविद्यालय में दर्शन विभाग के अध्यक्ष रह चुके स्व. प्रो.फणिभूषण अधिकारी ने बड़ी मार्मिक बात कही है। वे कहते हैं—‘‘जैन धर्म के स्याद्वाद सिद्धांत को जितना गलत समझा गया है उतना अन्य किसी सिद्धांत को नहीं।
यहां तक कि शंकराचार्य भी इस दोष से मुक्त नहीं हैं। उन्होंने भी इस सिद्धान्त के साथ अन्याय किया है। यह बात अल्पज्ञ पुरुषों के लिए क्षम्य हो सकती थी किन्तु यदि मुझे कहने का अधिकार है तो मैं भारत के इस महान् विद्वान के लिए तो अक्षम्य ही कहूंगा। यद्यपि मैं इस महर्षि को अतीव आदर की दृष्टि से देखता हूं। ऐसा जान पड़ता है कि उन्होंने इस धर्म के दर्शनशास्त्र के मूल ग्रंथों को पढ़ने की परवाह नहीं की।’’
इसी प्रकार प्रयाग विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति महामहोपाध्याय स्व. डॉ. गंगानाथ ने लिखा है कि ‘‘जब मैंने शंकराचार्य द्वारा जैन सिद्धांत का खंडन पढ़ा है तब से मुझे विश्वास हुआ कि इस सिद्धांत में बहुत कुछ है, जिसे वेदांत के आचार्यों ने नहीं समझा। और जो कुछ मैं जैन धर्म को अब तक जान सका हूं उससे मेरा यह दृढ़ विश्वास हुआ है कि यदि वे इस धर्म के मूल ग्रंथों को पढ़ने का कष्ट उठाते तो उन्हें जैन धर्म का विरोध करने की कोई बात ही नहीं मिलती।
स्यात् शब्द सुनिश्चित रूप से बताता है कि वस्तु केवल इस धर्म वाली ही नहीं है, उसमें इसके अतिरिक्त भी अनेक धर्म विद्यमान हैं। वाणी के द्वारा वस्तु का एक साथ प्रतिपादन संभव नहीं है इसलिए जिस या जिन धर्मों का कथन किया जाता है वे प्रधान हो जाते हैं और शेष गौण। ‘स्यात्’ शब्द अन्य अविवक्षित गुण धर्मो के अस्तित्व की रक्षा करता है।
जैसे यह कलम लंबी है, गोल है, मोटी है, स्पर्श रूपादि अनेक गुण—धर्म उसके अंदर विद्यमान हैं। यदि कोई कहे कि ‘स्यात्’ यह कलम लंबी है तो इसका अर्थ यह नहीं है कि शायद कलम लंबी है। लंबाई की दृष्टि से तो कलम लंबी ही है लेकिन कोई कलम लंबी है, ऐसा सुनकर कलम को लंबी ही न मान बैठे, इसलिए स्यात् लगाया गया है। ‘स्यात्’ शब्द का सिर्फ इतना ही उद्देश्य है कि वस्तु के विवक्षित किसी एक धर्म को ही पूर्ण वस्तु न मान ली जाए।
वह वस्तु के विवक्षित धर्मवाची शब्द को वस्तु पर पूर्णाधिकार जमाने से रोकता है। ‘स्यात्’ शब्द कहता है कि ‘‘वस्तु का अस्तित्व बहुत विराट है। भाई ! कलम ! यह सत्य है कि तुम लंबी हो पर तुम सिर्फ लंबी ही नहीं हो। इस समय शब्द के द्वारा उच्चारित होने के कारण यद्यपि तुम मुख्य हो, फिर भी इसका अर्थ यह नहीं है कि सारी वस्तु पर ही तुम्हारा अधिकार हो। मोटाई, गोलाई आदि तुम्हारे शेष/अनंत धर्म भाई भी तुम्हारे ही तरह अस्तित्ववान हैं। वे भी उतने ही महत्त्वपूर्ण हैं जितने कि तुम।’’
‘स्यात्’ शब्द के इसी रहस्य को उजागर करते हुए प्रो. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य ने लिखा है कि—‘शब्द का स्वभाव है कि वह अवधारणात्मक होता है इसलिए अन्य का प्रतिषेध करने में वह निरंकुश हो जाता है।
उस अन्य के प्रतिषेध पर अंकुश लगाने का कार्य ‘स्यात्’ करता है। वह कहता है कि ‘रूपवान घट:’ वाक्य घट के रूप का प्रतिपादन भले ही करे, पर वह रूपवान ही है यह अवधारण करके घड़े में रहने वाले रस, गंध आदि का प्रतिषेध नहीं कर सकता।
वह अपने स्वार्थ को मुख्य रूप से कहे यहां तक तो कोई हानि नहीं पर यदि वह इससे आगे बढ़कर अपने ही स्वार्थ को सब कुछ मान शेष का निषेध करता है तो उसका ऐसा करना अन्याय है और वस्तुस्थिति का विपर्यास करना है। स्यात् शब्द इसी अन्याय को रोकता है और न्याय वचन पद्धति की सूचना देता है। वह प्रत्येक वाक्य के साथ अनुस्यूत रहता है, और गुप्त रहकर भी प्रत्येक वाक्य को मुख्य गौण भाव में अनेकांत अर्थ का प्रतिपादक बनाता है।
स्याद्वाद सुनय का निरूपण करने वाली विशिष्ट भाषा पद्धति है। स्यात् यह निश्चित रूप से बताता है कि वस्तु केवल इसी धर्मवाली ही नहीं है। उसमें इसके अतिरिक्त भी अनेक धर्म समाएं हैं। उसमें अविवक्षित गुण धर्मों के अस्तित्व की रक्षा स्यात् शब्द करता है।
‘रूपवान घट:’ में ‘स्यात्’ शब्द रूपवान के साथ नहीं जुटता, क्योंकि रूप के अस्तित्व की सूचना तो ‘रूपवान’ शब्द स्वयं ही दे रहा है। किन्तु अन्य अविवक्षित शेष धर्मों के साथ उसका अन्वय है। वह रूपवान को पूरे घड़े पर अधिकार जमाने से रोकता है। और साफ कह देता है कि घड़ा बहुत बड़ा है, उसमें अनंत धर्म हैं रूप भी उसमें एक है यद्यपि रूप की विवक्षा होने से अभी रूप हमारी दृष्टि से मुख्य है और वही शब्द के द्वारा वाच्य बन रहा है।
पर रस की विवक्षा होने पर वह गौण राशि में शामिल हो जाएगा और रस प्रधान हो जाएगा। इस तरह समस्त शब्द गौण मुख्य भाव से अनेकांत अर्थ के प्रतिपादक हैं। इसी सत्य का उद्घाटन ‘स्यात्’ शब्द सदा करता रहता है।
यह पहले ही बताया गया है कि स्यात् शब्द एक सजग प्रहरी है जो उच्चरित धर्म को इधर—उधर नहीं जाने देता। वह अविवक्षित धर्मों के अधिकार का संरक्षक है। इसलिए जो ‘स्यात्’ का ‘रूपवान’ के साथ अन्वय करके उसका अर्थ शायद, संभावना और कदाचित करते हैं वे प्रगाढ़ भ्रम में हैं।
इसी तरह ‘स्यादस्तिघट:’ इस वाक्य में ‘अस्ति’ यह अस्तित्व अंश घट में सुनिश्चित रूप से विद्यमान है। ‘स्यात्’ शब्द उस अस्तित्व की स्थिति कमजोर नहीं बनाता, किन्तु उसकी वास्तविक आंशिक स्थिति की सूचना देकर अन्य ‘नास्ति’ आदि धर्मों के गौण सद्भाव का प्रतिनिधित्व करता है।
उसे डर है कि कहीं अस्ति नाम का धर्म जिसे शब्द से उच्चरित होने के कारण प्रमुखता मिली है वह पूरी वस्तु को ही न हड़प जाए और अपने नास्ति आदि अन्य सहयोगियों के स्थान को समाप्त न कर दे। इसलिए वह प्रति वाथ्य में चेतावनी देता रहता है, ‘‘हे भाई ! अस्ति, तुम वस्तु के एक अंश हो, तुम अपने नास्ति आदि भाइयों के हक को हड़पने की कुचेष्टा मत करना।’’
इस भय का कारण है कि प्राचीनकाल में ‘नित्य ही है’ अनित्य ही है आदि हड़पु प्रकृति के अंश वाक्यों ने वस्तु पर पूर्णाधिकार जमाकर अनाधिकार चेष्टा की है और जगत् में अनेक प्रकार के वितंडा और संघर्ष उत्पन्न किए हैं। इसके फलस्वरूप पदार्थ के साथ तो अन्याय हुआ ही है, पर इस वाद—प्रतिवाद ने अनेक कुमतवाद की सृष्टि करके अहंकार, िंहसा, संघर्ष, अनुदारता, असहिष्णुता आदि से विश्व को अशांत और संघर्षपूर्ण िंहसा ज्वाला में पटक दिया है। ‘स्यात्’ शब्द वाक्य के उस जहर को निकल देता है जिससे अहंकार का सृजन होता है।’’
यह स्याद्वाद हमारी नित्य व्यवहार की वस्तु है। इसकी उपादेयता को स्वीकार किए बिना हमारा लोक व्यवहार एक क्षण को भी नहीं चल सकता। लोक व्यवहार में हम देखते हैं कि एक ही व्यक्ति अपनी पिता की दृष्टि से पुत्र कहलाता है, वही अपने पुत्र की दृष्टि से पिता भी माना जाता है।
इसी प्रकार अपने चाचा की अपेक्षा से भतीजा तो भतीजे की अपेक्षा से चाचा, तो मामा की अपेक्षा से भांजा और भांजे की अपेक्षा से मामा कहलाता है। इस प्रकार देखने से प्रतीत होता है कि पुत्र—पिता, चाचा—भतीजा, मामा—भांजा आदि सब रिश्ते परस्पर विरोधी हैं किन्तु उनका एक ही व्यक्ति से भिन्न—भिन्न दृष्टियों की अपेक्षा से सुंदर समन्वय पाया जाता है।
इसी प्रकार पदार्थ के विषय में भी सापेक्षता की दृष्टि से अविरोधी तत्त्व प्राप्त होते हैं। विरोधी धर्मों के समन्वय के अभाव में अर्थात् एकांत के सद्भाव में सदा संघर्ष और विवाद होते रहते हैं, विवाद का अंत तो तभी संभव है जब स्याद्वाद से तत्त्वों की परस्पर सापेक्ष कथन करके अपने—अपने दृष्टिकोणों के साथ—साथ अन्यों के दृष्टिकोणों का भी समन्वय हो।
जब तक किसी सिद्धान्त का व्यवहार में उपयोग नहीं होता, तब तक उसकी ग्राह्यता स्वीकार नहीं की जा सकती। केवल विचारों और ग्रंथों में ही रह जाने वाले सिद्धान्त से संसार को कोई लाभ नहीं हो सकता। जब सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानमय विचारों का चरित्र के रूप में उपयोग करते हैं तभी आत्मा को निर्वाण की प्राप्ति होती है। केवल भोजन के विचार ही हमारी क्षुधा शान्त नहीं कर देते। त्रितयात्मक मुक्तिमार्ग मानने का यही आशय है कि यथार्थ विचारों को जीवन में उतारकर उनका व्यावहारिक उपयोग करो।
अधिकांश जनसमुदाय यह समझे हुए हैं कि स्याद्वाद केवल शास्त्रों की वस्तु है। किन्तु ऐसी बात नहीं है। यदि यह केवल ग्रंथों की ही चीज होती तब तो इसका जगद्-कल्याण से क्या संबंध था। शास्त्रों ने तो सिर्फ स्याद्वाद का स्वरूप और लक्षण बतलाया है।
स्याद्वाद की व्याख्या करने वाले महर्षियों की यह आज्ञा है कि मानव जीवन को सफल और शांतिमय बनाने के लिए जीव के प्रत्येक विभाग में स्याद्वाद का उपयोग करने की आवश्यकता है। अगर हम दु:खी हैं तो इसका कारण केवल यही हो सकता है कि हम जीवन में स्याद्वाद का उपयोग नहीं करते। वैयक्तिक, कौटुम्बिक, सामाजिक और राष्ट्रीय अशान्ति का कारण केवल ‘ही’ के आग्रह के सिवाय और कुछ नहीं हो सकता। इस आग्रह का न होना ही ‘स्याद्वाद’ कहलाता है।
यदि विश्वशांति का कोई एकमात्र कारण हो सकता है तो वह ‘स्याद्वाद( ही है। इस समय संसार में जो सर्वत्र अशांति और आकुलता का साम्राज्य नजर आता है। इसका कारण यह है कि मनुष्य सिर्फ अपनी ही आँखों से देखना जानता है। यदि मानव समाज स्याद्वाद की विशाल और उदार दृष्टि से देखना सीख जाये तो संसार में अधिकांश दु:खों की कमी हो जाये।
जिसके हृदय में स्वार्थ होता है वह स्याद्वाद को नहीं पहचानेगा। इसलिए स्याद्वादी बनने के लिए स्वार्थ को हटाकर हृदय को पवित्र बनाना चाहिए। जब मनुष्य अपने स्वार्थ को लेकर बात करता है तब वह दूसरों को बिल्कुल भूल जाता है। यह भूल ही कलह का कारण है।
स्याद्वाद-दृष्टि प्राप्त हो जाने के बाद ऐसी भूल नहीं हो सकती। लाखों स्याद्वादी भी एक जगह बिना किसी प्रकार की असुविधा के शांतिपूर्वक रह सकते हैं, किन्तु परस्पर लड़ने वाले दो एकान्ती भी एक जगह शांति से नहीं रह सकते।
इसका अर्थ यह हुआ कि शांति के उपासकों को चाहिए कि पहले वे स्याद्वाद की उपासना करें। पारस्परिक वैमनस्य और एकान्त का विचार छोड़कर निज और पर की उन्नति में लग जाना ही स्याद्वाद की व्यावहारिक उपयोगिता है। थोड़े से मतभेद के कारण हम जो एक-दूसरे की वैयक्तिक हानि करने को तैयार हो जाते हैं, यह स्याद्वाद सिद्धान्त के उपयोग न करने का ही फल है।
इस समय हमारा समाज अनैक्य के प्रज्वलित अग्निकुण्ड में जल रहा है। अपने को स्याद्वाद के लोकोत्तर सिद्धान्त के अनुयायी बतलाने वालों की यह दशा देखकर किसको दु:ख न होगा। स्याद्वाद के उपदेष्टा भगवान महावीर के उपासकों में भी स्याद्वाद का व्यावहारिक उपयोग न हो-यह लज्जा की बात है। स्वार्थ और मत-विभिन्नता से जो अशांति पैदा होती है, उसकी अव्यर्थ औषधि केवल स्याद्वाद है, यह हम पहले कह चुके हैं।
यदि हम लोग अपने प्रत्येक अनैक्य का कांटा स्याद्वाद के द्वारा निकाल दिया करें तो हमें कभी स्वप्न में भी अनैक्य का विचार न हो। उदारदृष्टि से वैयक्तिक-सामाजिक और धार्मिक विवादों का बहुत जल्दी निबटारा हो सकता है।
दु:ख है कि इस समय जैन समाज में स्याद्वाद का उपयोग केवल शास्त्रों में ही हो रहा है। वह दिन जैन समाज के सौभाग्य का दिन होगा जब वह पारस्परिक कलह और अशान्ति को मेटने के लिए स्याद्वाद का उपयोग करना सीखेगा। हम समस्त विरोधों का मंथन करने वाले अनेकांतवाद को बार-बार नमस्कार करते हैं।
इसके विषय में अमृतचन्द्र सूरि ने हिंसा के विषय में स्याद्वाद का जो भावपूर्ण चित्रण किया है, वही पर्याप्त होगा। वे कहते हैं-
‘‘कोई मनुष्य हिंसा नहीं करके अर्थात् प्राणियों को नहीं मार करके भी हिंसा के फल को पाता है, जबकि दूसरा मनुष्य हिंसा करके भी हिंसा के फल को नहीं पाता। एक मनुष्य को अल्प हिंसा अधिक फल देती है जबकि दूसरे मनुष्य को अधिक हिंसा भी अल्प फल देती है। समान हिंसा करने वाले दो पुरुषों में से एक को वह हिंसा तीव्र फल देती है और दूसरे को वहीं हिंसा मंद फल देती है। किसी को हिंसा करने के पहले ही हिंसा का फल मिल जाता है और किसी को हिंसा करने के बाद हिंसा का फल मिलता है।
किसी ने हिंसा करना प्रारंभ किया, लेकिन बाद में बंद कर दिया, तो भी हिंसा करने के भाव हो जाने से हिंसा का फल मिलता है। किसी समय िंहसा एक करता है, उसका फल अनेक भोगते हैं। किसी समय हिंसक अनेक होते हैं और फल एक को भोगना पड़ता है। किसी की हिंसा हिंसा का अल्प फल देती है, किसी की वही हिंसा अहिंसा का अधिक फल देती है। किसी की अहिंसा हिंसा का फल देती है, किसी की हिंसा अहिंसा के फल को देती है।
इस प्रकार विविध प्रकार के भंगों से दुस्तर हिंसा आदि के स्वरूप को समझाने के लिए स्याद्वाद तत्त्व के वेत्ता ही समर्थ होते हैं।
राजनैतिक दण्ड-व्यवस्था भी इसी आधार पर बनी हुई है जिससे हिंसा आदि के विषय में स्याद्वाद का स्वरूप अच्छी तरह समझ में आ सकता है।
जैनेतर दर्शनों में यद्यपि प्रत्यक्षरूप से स्याद्वाद को मान्यता प्रदान नहीं की गयी है, किन्तु उनमें अनेक स्थलों पर वस्तु में परस्पर विरोधी धर्मों की स्वीकृति एवं उनका समन्वय दृष्टिगोचर होता है, जो स्याद्वाद के अनेकूल कहा जा सकता है। पंतजलि महर्षि के नित्यानित्य विचार, मीमांसा दर्शन के सुप्रसिद्ध विद्वान कुमारिल भट्ट के पदार्थ के उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप की स्वीकृति तथा महर्षि कणाद के वैशेषिक दर्शन में अन्योन्याभाव के निरूपण में वस्तु को सत्-असत् उभयरूप में स्वीकार किया जाना स्याद्वाद विचार धारा के अनुकूल है।
पाश्चात्य दार्शनिकों में विलियम जेम्स के (Pragmatism) सिद्धान्त की स्याद्वाद के साथ कई अंशों में तुलना की जा सकती थी।
ग्रीस में इलियाटिक (Eleatics) नामक एक सम्प्रदाय था। उसकी मान्यता थी कि जगत परिवर्तनहीन, नित्य है। उसका विरोधी सम्प्रदाया था हैरीक्लीटियन (Hereclitian) इसकी मान्यता थी कि जगत् सर्वथा परिवर्तनशील है। इन दोनों विरोधी मान्यताओं का समन्वय करते हुए एम्पीडोक्लीज (Emprodocles) एटोमिस्ट्रस (Antomister) और एनैक्सागोरस (Anaxagaras) इन दार्शनिकों ने पदार्थों का नित्यत्व स्वीकार करते हुए भी उसमें आपेक्षिक परिवर्तन माना है।
जर्मन तत्त्ववेत्ता हेगल की मान्यता है कि विरुद्ध धर्मात्मकता ही संसार का मूल है। हमें किसी वस्तु का वर्णन करते हुए उसकी वास्तविकता का तो वर्णन करना ही चाहिए, किन्तु उसके साथ उन विरुद्ध धर्मों का समन्वय किस प्रकार हो सकता है, यह भी बताना चाहिए।
ब्रैडले का विश्वास है कि हर वस्तु दूसरी वस्तु की तुलना में आवश्यक भी है और तुच्छ भी है। हर विचार में सत्य है, चाहे वह कितना ही झूठ हो, हर सत्ता में वास्तविकता है, चाहे वह कितनी ही तुच्छ हो।
इस प्रकार और भी अनेक दार्शनिक हुए हैं, जिन्होंने पदार्थ में विरुद्ध धर्मात्मक को स्वीकार किया है, एक वस्तु के विभिन्न रूपों को सापेक्ष माना है और किसी सत्त्व को निरपेक्ष नहीं माना। इस प्रकार भारतीय और पश्चिमी दर्शनों में स्याद्वाद का मूलरूप स्वीकृत होने पर भी स्याद्वाद को स्वतंत्र दार्शनिक सिद्धान्त का उच्चासन देने का गौरव केवल जैनदर्शन को ही है।
जैन परम्परा स्याद्वाद के रूप में जगत को अिंहसा का एक विधायक और रचनात्मक रूप दे सकी, यह मानव की सम्पूर्ण समस्याओं के समाधान में उसकी मूर्तिमती आकांक्षा का प्रतीक है। नि:संदेह अहिंसा इसके द्वारा केवल ऊँचा आदर्श मात्र नहीं रह गयी, बल्कि वह जीवन का एक उपयोगी अंग भी बन गयी है। आज इसके उपयोग की सर्वाधिक आवश्यकता है। व्यक्तिगत जीवन में भी और जातीय, साम्प्रदायिक, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय चरित्र में भी यही एकमात्र उपाय है, उससे व्यक्ति और समष्टि दोनों की समस्याओं का सौहार्दपूर्ण समाधान हो सकता है।
इस प्रकार स्याद्वाद वस्तु तत्त्व के निरूपण की तर्कसंगत और वैज्ञानिक प्रणाली है। यह न अनिश्चयवाद है और न संदेहवाद। यह स्पष्ट है कि स्याद्वाद किसी निश्चित अपेक्षा से एक निश्चित धर्म का प्रतिपादन करता है उसमें संदेह के लिए रंचमात्र भी अवकाश नहीं।